हिन्दी साहित्य सम्मेलन / रामचन्द्र शुक्ल

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बंगीय साहित्य सम्मेलन की सूचना देने के साथ ही हमने एक हिन्दी साहित्य सम्मेलन की आवश्यकता बतलाई थी। गतांक में बाबू श्यामसुन्दर दास बी. ए. ने इस बातको प्रवर्ध्दित रूप में सर्वसाधारण के सामने उपस्थित किया था। इधर पंडित केदारनाथभट्ट ने भी अभ्युदय में इस विषय में अपनी सम्मति प्रकट की जिसका समर्थन जी शर्मा महाशय ने 25 अप्रैल के लीडर में बड़े उत्साह के साथ किया है। लीडर के सम्पादक महोदय ने भी इस प्रस्ताव की उपयोगिता की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित कियाहै। बात तो यह है कि जिसके हृदय में हिन्दी के लिए कुछ भी प्रेम होगा, जिसे अपनी मातृभाषा और देश के गौरव का कुछ भी ध्यान होगा उसे इस अवसर पर एक हिन्दी साहित्य सम्मेलन का न होना अवश्य खटकेगा। जबकि बंगला, मराठी और उर्दू तकके प्रेमियों को एक स्थान में एकत्र होकर अपने अपने साहित्य की उन्नति और वृध्दिके उपायों को विचारते हुए वह देखेगा तब उसे अवश्य अपनी हिन्दी की भी सुध आवेगी।

जिन जिन प्रदेशों की भाषा हिन्दी कही जाती है, और वास्तव में है, उनमें यदि घूम कर देखा जाय तो जान पड़ेगा कि बहुत से लोगों को यह भी खबर नहीं है कि वर्तमान हिन्दी भाषा ने कौन सा रंग पकड़ा है, उसके लिए क्या क्या उद्योग हो रहे हैं और होने चाहिए। वे मानो पड़े सो रहे हैं। हम लोगों ने अभी उनके कानों के पास इतना हल्ला नहीं मचाया कि उनकी नींद टूटे। हमारे उद्योगों की उपयोगिता को बिना मन में बैठाए वे हमारा साथ कैसे दे सकते हैं। जब तक हम लोगों को यह न बतलावेंगे कि उनके किस कार्य से उनकी भाषा का हित होगा और किससे हानि, तब तक हम कैसे आशा कर सकते हैं कि वे जो कुछ करेंगे वह हमारी भाषा की भलाई और हमारे उद्देश्यों की पूर्ति ही के लिए होगा। वे अनजान में न जाने क्या कर बैठें? तात्पर्य यह कि हमारे हिन्दी भाषा सम्बन्धी उद्योगों की बात को जनसाधारण में पहुँचाने के लिए अभी बहुत थोड़े मार्ग खुले हैं।

यह जानी हुई बात है कि किसी स्थान पर कोई असाधारण भीड़भाड़ या मेला या तमाशा हो जाता है तब उसकी चर्चा वहाँ के निवासियों के बीच बहुत दिनों तक चलती रहती है। सभा समाजों का भी यह प्रभाव प्रत्यक्ष है। जिस विषय की धूमधाम किसी सभा समाज में एक बार हो जाती है उसकी ओर लोगों का ध्यान खींच जाता है और उनकी दृष्टि में उसमें एक प्रकार का महत्तव और मनोरंजकता आ जाती है। दूसरे लोगों को भी उस विषय को लेकर अपनी कार्य शक्ति दिखलाने की चाह होती है। उस विषय में पहिले से उद्योग करनेवालों को अपने सहकारियों के साक्षात्कार से अपनी शक्ति पर भरोसा हो जाता है और उनमें सफलता की आशा दृढ़ होकर उत्साह की मात्रा कई गुना बढ़ जाती है। अत: यदि हिन्दी साहित्य सेवियों का प्रतिवर्ष एक सम्मेलन भिन्न भिन्न नगरों में हुआ करे तो आज हिन्दी की ओर से जो उदासीनता और अज्ञानता देखने में आती है वह न रहे। जो साहित्य पथिक सन्नाटे में अपने को अकेला पाकर जी छोटा कर बैठ गए हैं वे कमर कसकर आगे बढ़ने को तैयार हों। साथ ही यह भी विदित हो जाय कि जिन शिक्षित लोंगों ने अपनी हिन्दी भाषा की सेवा के सामने कभी अपनी शान बढ़ाने का अवसर न ताका और जो गँवारों तथा स्वार्थ को सर्वस्व मानने वाले अपने अधिकार लोलुप मित्रों की दृष्टि में तुच्छ बने रहे उनके सिर ऊँचा करने के लिए भी स्थान संसार में हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि वार्षिक साहित्य सम्मेलन करने से बहुत सी शिथिलता दूर हो जायगी और जागृति फैलेगी।

अब विचारना यह है कि यह सम्मेलन कहाँ और किस अवसर पर हो तथा इसका भार अपने ऊपर कौन ले। पं. केदारनाथ भट्ट और जी. शर्मा दोनों महाशयों ने नागरीप्रचारिणी सभा को इस कार्य के लिए उत्तोजित किया है। ठीक ही है क्योंकि जितने काम आज तक सभा कर चुकी है उनके देखते यह कोई बड़ी बात नहीं है। सभा में इस विषय का एक प्रस्ताव भी किया गया था। यदि यह सभा इस कार्य को अपने हाथ में ले तो कोई बात ही नहीं है पर यदि वह ऐसा न कर सके तो मेरी 'स्वतन्त्र सम्मति' में प्रयाग की 'भाषा सम्बर्ध्दिनी सभा' को अपने नवीन और बढ़ते हुए उत्साह को इस ओर लगाना चाहिए। प्रयाग एक ऐसा स्थान है कि जहाँ सर्वसाधारण सम्बन्धी कार्यों के लिए विशेष तत्परता देखने में आतीहै।

इसके लिए उपयुक्त अवसर भी चाहिए। मैं लीडर के सम्पादक की सम्मति से पूर्णतया सहमत हूँ कि यह सम्मेलन बड़े दिन की छुट्टियों में न करके दशहरे की छुट्टियों में किया जाय। बड़े दिन में काँग्रेस प्रदर्शनी तथा और सम्मेलनों की भीड़भाड़ में हम लोगों के चित्त को एकाग्र करके अपने उद्देश्य की ओर पूर्णतया न खींच सकेंगे। हमारा उद्देश्य बातों से कुछ लोगों का कुछ घड़ी के लिए मनोरंजन करना तो है नहीं वरन् कुछ दिनों के लिए लोगों को कार्य के लिए उद्यत और प्रवृत्त करना है। अस्तु, इन सब बातों के विचार से सम्मेलन को दशहरे की छुट्टियों में करना ठीक जँचताहै।

मेरी समझ में सम्मेलन को इन बातों पर विचार करना आवश्यक होगा-

1. हिन्दी की उन्नति के लिए जो सभाएँ स्थापित हैं उनकी द्रव्य से तथा और प्रकार से सहायता करना।

2. भिन्न भिन्न सभाओं के हाथ में भिन्न भिन्न कार्य सौंपना और उनके सम्पादन के लिए उन्हें द्रव्य देना।

3. हिन्दी में उपयुक्त पुस्तकों को बनवाने और प्रकाशित कराने का प्रस्ताव और प्रबन्ध करने के लिए एक कमेटी नियुक्त करना।

4. हिन्दी बोलने वाले लोगों में हिन्दी साहित्य का प्रचार।

5. हिन्दी न बोलने वाले लोगों में हिन्दी साहित्य का प्रचार।

6. संयुक्त प्रदेशों में नागरी अक्षरों का प्रचार।

7. और और प्रान्तों में नागरी अक्षरों का प्रचार।

8. हिन्दी व्याकरण।

9. हिन्दी कोश।

10. जो लोग हिन्दी की सेवा कर रहे हैं उनके अतिरिक्त सम्मान का प्रबन्ध करने के लिए एक कमेटी नियुक्त करना।

11. सम्मेलन का संगठन।

12. यूनिवर्सिटी की उच्च शिक्षा में हिन्दी को स्थान।

13. इन प्रान्तों के प्रत्येक जिले की कचहरियों के पास हिन्दी पुस्तकों की एक दुकान चलाने का प्रबन्ध करने के लिए एक कमेटी नियुक्त करना।

14. भिन्न भिन्न देशभाषाओं के साहित्य के प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन।

15. दूसरे वर्ष के लिए सम्मेलन का स्थान।

इस सम्मेलन का सभापति हमें किन लोगों में से चुनना चाहिए इसका विचार भी हो जाना परमावश्यक है। हमारी समझ में तो नामावली प्रस्तुत करते तथा सभापति चुनते समय केवल इसी बात का ध्यान रखना चाहिए कि किस महाशय ने हिन्दी की सेवा कितनी और किस प्रकार की है। हम नीचे कुछ महानुभावों के नाम अक्षर क्रम से देते हैं जो अपनी साहित्य सेवा के कारण इस नाम के अधिकारी हो सकतेहैं।

1. पंडित गोविन्दनारायण मिश्र

2. पंडित गौरीशंकर हीराचन्द ओझा

3. पंडित दुर्गाप्रसाद मिश्र।

4. राय देवी प्रसाद (पूर्ण) बी. ए., एल. एल. बी.

5. उपाध्याय पंडित बदरीनारायण चौधरी।

6. पंडित बालकृष्ण भट्ट।

7. पंडित मदनमोहन मालवीय, बी. ए., एल. एल. बी.

8. पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी।

9. पंडित मोहनलाल विष्णुलाल पंडया।

10. पंडित राधाचरण गोस्वामी।

11. बाबू श्यामसुन्दर दास बी. ए.

12. पंडित श्रीधर पाठक।

(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, अप्रैल 1910 ई.)

[ चिन्तामणि, भाग-4]