हिन्दी हाइकु- काव्य में प्रकृति / सुधा गुप्ता

Gadya Kosh से
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हाइकु मूलतः जापानी काव्य-विधा है जो सदियों पहले प्रायः संतों द्वारा रची जाती रही थी। जापान के अति प्रसिद्ध हाइकुकार बाशो स्वयं एक यायावर संत थे, जिन्होंने इस विधा को स्थापित करने में महत् योगदान दिया, तीन सौ शिष्य बनाकर उन्हें विधिवत् प्रशिक्षित-दीक्षित किया। भ्रमण प्रिय संत बाशो को प्रकृति से आसक्ति की सीमा तक मोह और लगाव था। हाइकु का मूलाधार आध्यात्मिक माना जाता है। ज़ेन साधना और 'ताओ' दर्शन का सम्मिलन होने के कारण, ख्याति लब्ध विद्वान् 'कीथ' ने हाइकु को यों परिभाषित किया है-'ज़ेन-ताओ सिद्धान्तों की व्यावहारिक साधना कि वह' कलम'जो बौद्ध धर्म के वृक्ष में लगाई गई।'

हाइकु जापान की अत्यधिक लोकप्रिय काव्य-विधा है और जन्मजात संस्कार के रूप में इसने कुछ गुण / विशेषताएँ अनिवार्यतः ग्रहण की हैं: 1-हाइकु का मूलाधार प्रकृति होने के कारण कुछ विद्वानों ने इसे 'प्रकृति-काव्य' कहा; किन्तु हाइकु में प्रकृति का पर्यवेक्षण उसके गतिमान रूप पर केन्द्रित रहता है। हाइकु-कवि जीवन की क्षण-भंगुरता को प्रकृति के गतिमान, निरंतर परिवर्तनशील रूप में देखता है।

2-हाइकु में 'क्षण' की महत्ता (ज़ेन दर्शन) होने से इसे 'क्षण-काव्य' कहा गया-तात्पर्य यह कि 'क्षण' में उत्पन्न 'भाव की एकाग्रता' हाइकु का अनिवार्य तत्त्व है।

3-हाइकु अत्यंत संक्षिप्त, लघु-आकार कविता है, पाँच-सात-पाँच वर्ण क्रम में (कुल सत्रह) हाइकु पूरी बात कहने में समर्थ हो, अतः इसमें सद्यः प्रभाव की शक्ति होना अत्यंत आवश्यक है। इसी आकार-लघुता के कारण हाइकु को 'एक श्वासी काव्य' कहा गया। विश्व कवि टैगोर ने इसे विश्व की 'सबसे छोटी कविता' कहा।

4-ॠजुता, सरलता, सहजता हाइकु ने संस्कार रूप में ग्रहण की; किन्तु ट्टजुता से अभिप्राय सपाट बयानी हरगिज़ नहीं।

5-तटस्थ चित्रंकन, 'जो जैसा है, वैसा ही' का यथार्थ अंकन हाइकुकार के लिए आवश्यक है, अर्थात् 'निरपेक्ष दृष्टि' से द्रष्टा मात्र होना, तभी सफल हाइकु का सर्जन संभव है।

6-सहज वक्रता, लाक्षणिकता, सांकेतिकता हाइकु के विशिष्ट गुण हैं अर्थात् हाइकु में मूल कथ्य का अभिधा में उल्लेख नहीं होता। 'अधखिली कली का सौन्दर्य' हाइकु की प्राणवत्ता है! हाइकुकार एक झलक देकर शेष श्रोता / पाठक की कल्पना पर छोड़ देता है; अर्थ वैसे ही उद्घाटित होता चलता है, जैसे कली धीरे-धीरे पंखुरी खोलती है!

7-हाइकु की एक अन्य विशेषता है 'परस्पर विरोधी उपादानों के संयोजन' द्वारा समन्वित प्रभाव की सृष्टि।

8-हाइकु स्वयं में पूर्ण होता है, उसमें पूर्वापर सम्बन्ध नहीं होता।

9-कुल मिलाकर, हाइकु-सृजन एक साधना है, हाइकुकार सच्चे अर्थों में शब्दों का वह चितेरा है जो केवल सत्रह वर्ण में स्वयं में पूर्ण, अर्थ-सामर्थ्यवान्, शोभन छवि चित्र उकेर कर रख देने में सक्षम है! वही सच्चा हाइकुकार है! इस परिप्रेक्ष्य में बाशो का यह कथन पढ़ा-समझा और गुना जाना चाहिए-'जिसने जीवन में पाँच हाइकु लिख लिये, वह कवि और जिसने दस हाइकु लिखे वह महाकवि है।'

हाइकु और हिन्दी काव्य: भारत में हाइकु / ताँका का प्रवेश कब हुआ इस पर विद्वत्समाज एक मत नहीं है, फिर भी, विश्व कवि टैगोर अपनी जापान-यात्र के दौरान हाइकु से परिचित, प्रभावित हुए और वापसी पर अपने साथ हाइकु लाए, इस मान्यता को सर्व-स्वीकृति मिली है। हिन्दी के पाँचवें दशक में हाइकु रचना के कुछ सन्दर्भ उपलब्ध होने केबावजूद हाइकु का विधिवत् प्रवेश अज्ञेय द्वारा रचित 'अरी ओ करुणा प्रभामय' (प्र-प्र-1959) द्वारा माना जाता है, जिसमें जापानी हाइकु के कुछ भावानुवाद / छायानुवाद तथा कुछ अत्यंत लघु कविताएँ शामिल हैं, जो पूरी तरह हाइकु के चौखटे में (पाँच-सात-पाँच) निबद्ध तो नहीं; किन्तु 'आत्मा' से हाइकु के अत्यंत समीप मानी गई हैं (सन्दर्भःडॉ.सत्यभूषण वर्मा का शोध ग्रन्थ) अज्ञेय हाइकु के सौन्दर्य से अभिभूत थे। 'अरी ओ करुणा प्रभामय' के 'रूप-केकी' खण्ड की कुछ बहु-चर्चित कविताएँ 'वसंत' , 'पगडंडी' , 'पूनो की साँझ' , 'चिड़िया कि कहानी' बारम्बार सराही गईं। 'एक चीड़ का खाका' खण्ड के अंतर्गत अज्ञेय ने प्रसिद्ध हाइकुकारों के हाइकु-अनुवाद प्रस्तुत किए जो यथार्थ के सन्निकट होने से जापानी भाषाविद् समीक्षाकारों द्वारा विश्वसनीय और मूल के अत्यंत समीप माने गए। ठे दशक में डॉ.प्रभाकर माचवे और त्रिलोचन शास्त्री जैसे ख्यातिलब्ध कवि भी हाइकु से जुड़े।

हिन्दी हाइकु-सृजन का महत्त्वपूर्ण अध्याय आरम्भ होता है डॉ.सत्यभूषण वर्मा के हाइकु-अभियान से। डॉ.वर्मा जे-एन-यू-दिल्ली में जापानी भाषा के विभागाध्यक्ष थे। 'जापानी हाइकु और आधुनिक हिन्दी कविता' विषय पर शोध करने के साथ-साथ आपने 1978 में 'भारतीय हाइकु क्लब' की स्थापना कि और एक अंतर्देशीय लघु 'हाइकु-पत्र' भी प्रकाशित किया, जो हाइकु विधा में हिन्दी कवियों को प्रशिक्षित करने / विधा को लोकप्रिय बनाने हेतु प्रयासरत रहा। परिणामतः हिन्दी के हाइकु-कवियों की प्रथम 'पाँत' तैयार हुई। कुछ प्रमुख रचनाकार: सत्यपाल चुघ, सावित्री डागा, सत्यानन्द जावा, उर्मिला कौल, प्रतिभा वेदज्ञ, राम कृष्ण विकलेश, सतीश दुबे, कमला रत्नम, शैल सक्सेना, मोती लाल जोतवाणी, पद्मा सचदेव, देवकी अग्रवाल, कमल किशोर गोयनका, विद्या बिंदु सिंह, शैल रस्तोगी, सुधा गुप्ता, मोहन कात्याल, पुरुषोत्तम 'सत्य प्रेमी' आदि रहे। प्रायः सभी हाइकुकारों ने प्रकृति से वास्तविक लगाव रखते हुए, मनोहारी चित्र प्रस्तुत किए। (स्थानाभाव के कारण उदाहरण देना संभव नहीं) आदित्य प्रसाद सिंह (रीवा, म-प्र-) डॉ.भगवत शरण अग्रवाल (अहमदाबाद, गुजरात) जो निष्णात हाइकुकार रहे हैं, जैसे महानुभावों ने हाइकु-सृजन के कार्य को आन्दोलन का रूप देकर, गति प्रदान की। डॉ.अग्रवाल ने 'हाइकु भारती' त्रैमासिक निःशुल्क पत्रिका निकाल कर नवीन हाइकुकारों को एक मंच प्रदान किया। श्री नलिनीकांत (पश्चिम बंगाल) ने अपनी मासिक पत्रिका 'कविता श्री' के माध्यम से हाइकु की प्रगति में योगदान दिया। सन् 1989 में कमलेश भट्ट 'कमल' तथा राम निवास पंथी के संयुक्त संपादकत्व में एक हाइकु संकलन प्रकाशित हो चुका था; जिसमें तीस हाइकुकारों के (प्रत्येक के सात) दो सौ दस हाइकु संगृहीत थे। डॉ.सत्यभूषण वर्मा ने इस संकलन की भूमिका लिखी थी और हिन्दी हाइकु का प्रथम संकलन कहकर इसका महत्त्व रेखांकित किया था। संकलन के हाइकुकार हिन्दी हाइकु की शालीनता / गरिमा बनाए रखने के लिए कृत संकल्प थे; वस्तु एवं शिल्प दोनों दृष्टि से 'सधी कलम' का सर्जन प्रस्तुत हुआ। उपर्युक्त हाइकुकारों ने प्रकृति को पर्याप्त महत्त्व देते हुए कुछ प्रभावशाली चित्र उकेरे। धीरे-धीरे हिन्दी में हाइकु एक स्थायी विधा के रूप में प्रतिष्ठित होने की ओर अग्रसर हो रहा था। इनके कतिपय हाइकु दिए जा रहे हैं।

पेड़ों से छनकर आती धूप का स्पर्शबिम्ब और घ्राण बिम्ब और नीड़ से गिरे शिशु की माँ का यह क्रन्दन देखिए-

पेड़ों से छन / खुशबू-भरी किरन / आँखों को चूमे। -डॉ.भगवतशरण अग्रवाल

नभ गुँजाती / नीड़-गिरे शिशु पे / मँडराती माँ। डॉ.भगवतशरण अग्रवाल

बादल के शब्दचित्र माँदल की धुन पर-

दल के दल / बादल, बजा रहे / जोर माँदल। -नलिनीकान्त

ओरे, बादल / कैसे चितेरे तुम / टिके न पल-उर्मिला कौल

बैठे मूढ़े पे / गुड़गुड़ाते हुक्का / बाबा जी मेघ। -डॉ.शैल रस्तोगी

रात्रि के विभिन्न चित्र-

आँगन खड़ी / चाँदी-कटोरा हाथ / भिक्षुणी रात। नीलमेन्दु सागर

चन्द्रमा दीखे / दही से भरा एक / काँच-कटोरा। ज्योत्स्ना प्रदीप

नभ की थाली सुबह का चित्र नए रूप में-

उषा कि लाली / बिखर गई रोली / नभ की थाली-डॉ.उर्मिला अग्रवाल

इक्कीसवीं सदी का प्रारंभ एक ऐसी जमात के साथ शुरू हुआ जिसने बाशो के कथन 'कोई भी विषय हाइकु के उपयुक्त है' की गंभीरता को न समझ, मन-माने अर्थ निकालने शुरू कर दिए, 'प्रकृति' को हाशिए पर लाते हुए, अर्थ का अनर्थ करते हुए सामान्य जन जीवन से जुड़ने की आड़ में किसी ने राजनीति को अपरिहार्य मानकर 'संसद को भालू-बंदरों' से भर दिया, किसी ने हाइकु पर जबरदस्ती 'दर्शन' को बोझिल रूप में लाद दिया, तो किसी ने हाइकु को विज्ञान और ज्यामितीय परिभाषाओं का कोश बनाने का संकल्प ले डाला। दरअसल हाइकु का जन-चेतना से जुड़ना बुरा नहीं था; किन्तु यथार्थ चित्रण की ओट में सामयिक समस्याओं की सपाटबयानी, एक गद्य पंक्ति को तोड़-मरोड़कर पाँच-सात-पाँच के क्रम में रखकर 'हाइकु' रचने की होड़ ने हाइकु काव्य-विधा के सौष्ठव को, शालीनता और गरिमा को बहुत क्षति पहुँचाई! हाइकु काव्य-सौन्दर्य से कोसों दूर जा पड़ा; किन्तु ऐसा भी नहीं इस दशक में अच्छे हाइकु रचे ही नहीं गए, कुछ हाइकुकार इस हड़कंप से दूर, अपनी साधना में रत रहे। नए नामों की सूची में नीलमेंदु सागर, डॉ.रमाकान्त श्रीवास्तव, डॉ.उर्मिला अग्रवाल, जवाहर इन्दु, श्याम खरे, डॉ.राज कुमारी पाठक, ज्योत्स्ना 'प्रदीप' , रमेश कुमार सोनी, देवेन्द्र नारायण दास प्रभृति उल्लेखनीय हैं। कुछ के एकल संग्रह भी प्रकाशित हो गए, सराहे भी गए। इसी क्रम में सन 2007 में डॉ.भावना कुँअर (वर्तमान में सिडनी, आस्ट्रेलिया) का एक हाइकु संग्रह 'तारों की चूनर' प्रकाशित हुआ जो उनका तो प्रथम था ही, किसी भारतीय प्रवासी साहित्यकार (हाइकुकार) का भी प्रथम संग्रह था। 'धूप के खरगोश' इनका दूसरा संग्रह 2012 आया। प्रकृति के प्रति सहज लगाव, चित्रत्मकता, सुन्दर बिम्ब योजना के साथ-साथ उनकी निरपेक्ष दृष्टि से देखे गए प्रकृति के सजीव दृश्य हाइकु के रूप में उपस्थित हुए-

1-नन्हीं चिरैया / गुलमोहर पर / फुदकी फिरे

2-ऊँघती शाम / अलसाया सूरज / थके कदम

भावना अपने पहले ही हाइकु संग्रह से सशक्त हाइकुकार के रूप में सराही गईं। हाइकु में ' प्रकृति की वापिसी का सुन्दर संकेत मिला।

प्रथम दशक के अन्त में अर्थात् 2010 में रामे श्वर काम्बोज 'हिमांशु' और (हरदीप कौर सन्धु आस्ट्रेलिया के सह-संपादकत्व में इन्टरनेट पर'हिन्दी हाइकु' तथा दूसरे दशक के आरम्भ में 2011 में 'त्रिवेणी' आरम्भ हुए। इन ब्लॉग्स से तेजी से नए-नए हाइकुकार जुड़ते गए और देखते-देखते हाइकु-जगत् का परिदृश्य बदल गया। सम्पादक द्वय स्वयं भी सामर्थ्यवान् हाइकुकार हैं और सकारात्मक सोच से उभरते हुए हाइकुकारों को प्रोत्साहित किया। इस प्रकार अर्थवान्, गुण समृद्ध हाइकु-रचना कि दिशा में क्षिप्र प्रगति हुई। इस दशक में कुछ नाम बड़ी तेजी से उभर कर आए हैं, यद्यपि सूची बहुत लम्बी है, फिर भी श्री काम्बोज, डॉ.भावना, डॉ.हरदीप की त्रयी के अतिरिक्त सुदर्शन रत्नाकर, रचना श्रीवास्तव, डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा, कमला निखुर्पा, मंजु मिश्रा, प्रियंका गुप्ता, डॉ.जेन्नी शबनम, डॉ.अनिता कपूर, अनिता ललित, कृष्णा वर्मा, शशि पाधा, भावना सक्सेना, जितेन्द्र जौहर, अनुपमा त्रिपाठी, पुष्पा मेहरा आदि के नाम उल्लेख्य हैं। नवीन हाइकुकारों ने प्रकृति के प्रति अपना आन्तरिक सहज लगाव प्रमाणित करते हुए मनोरम छवि-चित्र उकेरे हैं:

वर्षा का अनिर्वचनीय सौन्दर्य-

बजा माँदल / घाटियों में उतरे / मेघ चंचल। -रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

वर्षा पहने / बूँदों सजा लहँगा / मटक चले-रचना श्रीवास्तव

बूँदों से बातें / धरती ने फि़र दीं / प्यारी सौगातें-डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा

पानी की बूँदें / छम-छम करतीं / छेड़ें संगीत। -मंजु मिश्रा

लहरों का सौन्दर्य नादान नदी के साथ-

तट से खेले / लहरों को धकेले / नादान नदी। डॉ.हरदीप सन्धु

सुबह-साँझ और रात का रूप अलग-अलग कोणों से-

सूरज जागा / दुम दबाके भागा / तम अभागा। -जितेन्द्र जौहर

माँग में तारे / थामे हाथों में दीप / रजनी वधू-कमला निखुर्पा

शाम सुरसा / निगल गई गोला / सूरज वाला-डॉ.अनीता कपूर

सूर्य के पाँव / चूमकर सो गए / गाँव के गाँव। -जगदीश व्योम

दूधों-नहाई / लिपट गयी रात / माँ वसुधा से। -पुष्पा मेहरा

धूल की गठरी लिये हवा के घोड़े का यह साकार रूप-

दौड़ता आया / धूल की गठरी ले / हवा का घोड़ा। -प्रियंका गुप्ता

धरती के सौन्दर्य के विविध रूप-

आते वसन्त / रंग-बिरंगे पेड़ / लगते सन्त। -डॉ.सतीशराज पुष्करणा

हरी ओढ़नी / रँगी कशीदाकारी / क्या फुलकारी!-कृष्णा वर्मा

सरसों खिली / खिलखिलाई धरा / आया वसंत। -सुदर्शन रत्नाकर

आतप-हास / कुंदन-सा शोभित / अमलतास। -शशि पाधा

कड़ी धूप में / मशाल लिये खड़ा / तन्हा पलाश। -कमलेश भट्ट 'कमल'

ऐसे ताज़ा, टटके हाइकु-चित्रें ने निःसंदेह हाइकु-जगत् की श्री वृद्धि की है। सच यही है कि हाइकुकारों का यह नया दल हाइकु के 'सुखद भविष्य' के प्रति आश्वस्त करता है।

वर्तमान में अनेक पत्र-पत्रिकाएँ 'हाइकु' के महत्त्व को स्वीकार कर, इससे जुडी हैं। कुछ प्रत्येक अंक में हाइकु सम्मिलित करती हैं, कुछ ने विशेषांक भी प्रकाशित किए हैं। 'हिन्दी चेतना' (अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका) , 'वीणा' (इन्दौर म-प्र-) , 'उदंती' (रायपुर, छ-ग-) , 'अविराम साहित्यिकी' (त्रै रुड़की, उत्तराखण्ड) , आरोह-अवरोह (पटना) , सरस्वती सुमन (देहरादून) 'अभिनव इमरोज़' (दिल्ली) , आदि उल्लेखनीय हैं। हाइकु को लोकप्रिय बनाने और सामान्य पाठक तक पहुँचाने में इन सभी की महत्त्वपूर्ण भूमिका असंदिग्ध है (अतः सराहनीय भी। इनमें 'हिन्दी चेतना' 'उदंती' , आरोह-अवरोह नियमित रूप से हाइकु का प्रकाशन कर रही हैं

हिन्दी-साहित्य-जगत के समस्त हाइकु प्रेमी और हाइकु सेवी यही शुभेच्छा करते हैं कि हाइकु को प्रकृति के क्रीडांगन में खेलने-फलने-फूलने का पूरा-पूरा अवसर मिलता रहे, उसे कभी अपनी जन्म-भूमि / मातृभूमि 'फ़ूलों का देश' जापान को छोड़कर (भारत आने पर) आने की दुखद स्मृति आक्रान्त न करे-वह यहाँ भी 'अपने' घर जैसा महसूस करे! आखिर भारत भी तो 'ॠतुओं' का देश है जहाँ प्रकृति का वैविध्यपूर्ण सौन्दर्य बिखरा पड़ा है!