हिन्दी हाइकु में लोक-संस्कृति के तत्त्व / कुँवर दिनेश

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लोक-संस्कृति का अर्थ समझने के लिए इसमें संयुक्त शब्दों- 'लोक' और 'संस्कृति' को पृथक्-पृथक् समझना होगा और फिर इन्हें संयुक्त रूप में परिभाषित करना होगा। सामान्यतः 'लोक' का अर्थ है-जन-समाज; और 'संस्कृति' का अर्थ है-विशेष जाति, देश, राष्ट्र अथवा जन-समाज के चिन्तन-मनन, आचार-विचार, रहन-सहन, बोली-भाषा, वेश-भूषा, कला-कौशल, आस्था-विश्वास एवं रीति-रिवाज। अतएव 'लोक-संस्कृति' से तात्पर्य है लोक-मानस से सम्बद्ध वे मौलिक परम्पराएँ जो जन-समाज विशेष में आदिकाल से प्रचलित हैं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहशील हैं। राष्ट्र, समाज, अथवा जनसमुदाय विशेष के रीति-रिवाज, पर्व-त्योहार, वेश-भूषा, भाषा-बोली, गाथा-गीत, नाट्य-नृत्य, पूजा-विधान, जप-तप, यन्त्र-मन्त्र-तन्त्र, टोने-टोटके, कविता-कहानी इत्यादि सब उसकी लोक-संस्कृति के महत्त्वपूर्ण तत्त्व होते हैं।

जापान की पारम्परिक काव्य-विधा हाइकु प्रकृति एवं लोक से सम्बद्ध रही है, जिसमें न केवल जापान की प्रकृति अपितु वहाँ की लोक-संस्कृति की भी झलक मिलती है। हाइकु काव्य में जापानी लोक-जगत् के सामाजिक-धार्मिक विश्वासों एवं विविध गतिविधियों का पर्यवलोकन किया जा सकता है। इसी प्रकार हिन्दी हाइकु में भी भारतीय लोकसंस्कृति के तत्त्व विद्यमान हैं। भारत के विभिन्न प्रान्तों में हाइकुकारों ने अपने-अपने क्षेत्र से जुड़े लोक-सांस्कृतिक जीवन को अपने काव्य में स्थान दिया है। भारतीय लोक में षड्ऋतुओं के महत्त्व तथा उनसे सम्बन्धित पर्व एवं लोकास्था को आख्यायित करने के साथ-साथ हिन्दी हाइकु में जीवन-शैली के विविध स्वरूपों का भी समावेश हुआ है। हिन्दी हाइकु में वैदिक मूल्य, पौराणिक मिथक, परम्पराएँ तथा शब्द-मुहावरे अनायास ही पाठक का ध्यान आकृष्ट करते हैं। गत दो दशकों में विज्ञान और तकनीक द्वारा सृजित अत्याधुनिक सुविधाओं के साथ आज की जीवन-शैली में अत्यधिक परिवर्तन आया है, जिस कारण लोक-संस्कृति में भी कई बदलाव आए हैं-इस तथ्य की अनवेक्षा नहीं की जा सकती है। आज मोबाइल फोन, इन्टरनेट, सोशल मीडिया इत्यादि के प्रभाव से ग्रामीणों के जीवन में भी क्रान्ति आ चुकी है, जिसके फलस्वरूप ग्रामीण जीवन-मूल्य एवं जीवन-शैली में भी बहुत परिवर्तन हुए हैं। बढ़ते शहरीकरण के साथ-साथ बाजारवाद, उपभोत्तफ़ावाद एवं भौतिकतावाद भी बढ़ा है और इन्होंने शहर व ग्राम, दोनों को प्रभावित किया है परन्तु परिवार के संस्कारों, समाज की परम्पराओं और धर्म की मान्यताओं का न्यूनाधिक प्रभाव आगामी पीढ़ी में प्रतिबिम्बित होता ही है। कवि-हाइकुकारों की विषयवस्तु सहित भाषा-शैली पर भी यह प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

भारत, यूनान, मिस्र, चीन, जापान इत्यादि विश्व की प्राचीन सभ्यताओं की एक प्रमुख विशेषता यह है कि यहाँ प्रकृति लोक-संस्कृति का अभिन्न अंग है; या यूँ कहें-लोक-संस्कृति प्राथमिक रूप से प्रकृति एवं ग्रामीण-जगत् से जुड़ी है। विश्व भर में भारत एक ऐसा भू-भाग है जहाँ प्रकृति ने अपनी बहुरंगी छटा को मुक्त-हृदय से बिखेरा / फैलाया है। विश्व भर में छह ऋतुएँ नहीं मिलतीं। भारत में षड् ऋतुओं के महत्त्व को स्वीकारते हुए संस्कृत व हिन्दी सहित विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों के कवियों तथा लोक-कलाकारों ने वर्षों से अपने-अपने ढंग से ऋतुगीतों की सृति की है। लोक-परम्परा में ये ऋतुगीत अधिकांशतः मौखिक रूप में प्रचलित हैं, किन्तु आधुनिक कवियों ने भी अपने ढंग से ऋतुगीतों की रचना की है। हिन्दी हाइकु में भी ऋतुवर्णन एक मुख्य विषय बना है।

हिन्दी हाइकु की सशक्त हस्ताक्षर सुधा गुप्ता के उनकी हस्तलिपि में छपे प्रथम हाइकु-संग्रह 'खुशबू का सफर' (1986) में ऋतुवर्णन प्रमुख विषय बना है। साथ ही 'बारहमासा' शीर्षक के अन्तर्गत विक्रमी सम्वत्सर के प्रत्येक मास को एक-एक हाइकु समर्पित है; शब्द-चित्र में प्रत्येक मास की एक विशिष्ट छवि को भावपूर्ण ढंग से उकेरा गया है। पुस्तक के आवरण पर प्रो. सत्यभूषण वर्मा ने अपनी 'सम्मति' में सही लिखा हैः 'बारहमासा' और षड् ऋतुवर्णन पर हाइकु रचकर कवयित्री ने हाइकु को भारतीय काव्य-परम्परा से जोड़ा है। ' इसी संग्रह से सावन और भादों पर सुधा गुप्ता की हाइकु रचनाएँ अत्यधिक मार्मिक हैंः

सावन-रात / झिल्ली बोलती फिर / खुलते जख़्म।

भादों की सन्ध्या / खिला नील आकाश / अभागी बन्ध्या।

षड् ऋतुवर्णन में वसन्त का यह शब्दचित्र दार्शनिकता का पुट लिये हुए हैः 'पतझर के / काँटों पर चल के / आया वसन्त।' भारतीय लोक-समाज में एक विधवा स्त्री के लिए शृंगार निषेध की शिशिर ऋतु में वृक्षों की पर्णरहित शाखाओं से तुलना करता यह हाइकु बहुत प्रभावी हैः

सूनी कलाई / मौसम की विधवा / द्वार पर खड़ी!

इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्रकृति लोकसंस्कृति का अविच्छिन्न अंग है। तभी तो सदियों से कवियों ने प्रकृति के विविध क्रियाकलाप को उपमा / तुलना के माध्यम / प्रयोग से मानवीय संवेदनाओं एवं भावानुभावों से जोड़ा है। सुधा गुप्ता के ऋतुवर्णन में मानवीकरण के माध्यम से भारतीय लोक-सांस्कृतिक परिवेश में नारी की स्थिति को उकेरते बहुत-से चित्र देखे जा सकते हैंः

जोगन शाम / फेरा डालने आई / प्यासी आँखों से

खुद में मस्त / फिरकियाँ लेती हैं / अल्हड़ पुर्वा।

मेघों की बाँह / थामके नाचती है / कुँआरी हवा।

ऊँघती थकी / सावनी दोपहर / सद्यः प्रसवा।

गर्वीली भोर / इतराती खड़ी / बिन्दी दूर पड़ी।

दिपाली निशा / अभिसार को चली / सितारों सजी.

'बारहमासाः हाइकु माला' (2014) शीर्षक से प्रकाशित कुँवर दिनेश के हाइकु संग्रह में विक्रमी सम्वत्सर के प्रत्येक मास पर नौ-नौ हाइकु मिलाकर कुल 108 हाइकु रचनाएँ संकलित हैं। चैत्र से माघ तक बारह मासों के कुछ चित्र यहाँ उद्धृत हैं, जिनमें लोक आस्थाएँ समाहित हैंः आम्र-वल्लरी / महक चुरा रही / अदृश्य परी (चैत्र) ; सूरज छने / हरे-हरे पेड़ों से / दमके पन्ने (वैशाख) ; दुपैरी सूनी / नभ घोरी ने बाली / जेठ की धूनी (ज्येष्ठ) ; हाड़ के दिन / कहीं चंगा न लगे / घर के बिन (आषाढ़) ; ये अम्बरी है / नारी सावन नीर / कादम्बरी है (श्रावण) ; माया ऊपरी / सूरज को ले उड़ी / भादों की परी (भाद्रपद) ; पीत पंचमी / सरसों के फूलों की / संसद जमी (माघ) । कुँवर दिनेश के हाइकु में लोक-मानस पर बदलती ऋतुओं के प्रभाव का चित्रांकन मिलता है।

मेले-पर्व और त्यौहार लोक-संस्कृति को जीवन्त रखते हैं और समृद्ध करते हैं। हिन्दी हाइकुकारों ने मेलों और विभिन्न पर्व-त्योहारों सम्बन्धी हाइकु तो लिखे ही हैं, पर साथ ही सामाजिक परिप्रेक्ष्य एवं हृदयगत भावों को अभिव्यक्त करने के लिए इन्हें अपना मुहावरा बनाया है। रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' के हाइकु-संग्रह 'माटी की नाव' (2013) के निम्न हाइकु में लोक-संस्कृति के संवाहक मेले का रूपक देखे बनता हैः

'यह जनता / मेले में गुमशुदा / अबोध शिशु।' एक अन्य हाइकु में मेलों को सामाजिक मेल-मिलाप का महत्त्वपूर्ण साधन मानते हुए, वे आज के आधुनिक समाज में निरन्तर बढ़ते पाश्चात्य प्रभाव और शहरीकरण के युग में मेला-संस्कृति के लोप होने पर गहरा खेद व्यक्त करते हैंः 'ख़़त्म हैं मेले, / सूनी हुई गलियाँ, / हम अकेले!'

लोक-संस्कृति के बहुत-से दृश्य और प्रतीक आज कहीं खो से गए हैं, जैसे कि रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' के इस हाइकु में 'हुक्का' और 'चौपाल' , जो कभी ग्रामीण संस्कृति के परिचायक रहे हैंः 'हुक्का हो गया / सन्नाटे डूबी शाम / रोती चौपाल।' ऐसे ही अन्य कई रचनाओं में कवि 'हिमांशु' लोक-सांस्कृतिक परिवेश को उजागर करते हैं। कई रचनाओं में भारतीय लोक में प्रचलित कुछ ग्रामीण रीति-रिवाजों एवं परम्पराओं का प्रभावी चित्रण हुआ है। कपास ओटने और रुई धुनने का कार्यः 'तुन्तुन गाए / पुम्बे की धुनकी ने / रूई है धुनी।' ; उपलों का महत्त्वः 'उपले-जड़ा / बिटौड़ा है सजाया / फूँस से मढ़ा।' ; दराँती का महत्त्वः 'चाँद-दराँती / काटे रात भर / मेघों का खेत।' ; अलाव का उल्लेखः 'खुश अलाव / सुनता रात भर / कथा-कहानी।' ; पुनर्जन्म में विश्वासः 'मर जाऊँगा, / तेरे लिए जग में / फिर आऊँगा!' ; ग्रन्थों का प्रभावः 'जला दो ग्रन्थ / जो कुचलें प्रेम को / घृणा ही बोएँ।' ; पूजा, एक अनिवार्य नित्यचर्याः 'आग ही आग / उगलती है जीभ / पूजा के बाद।' ; अघोरी पंथ की साधना-पद्धति का उल्लेखः 'घोर अमा है / अघोरी सा-जीवन / अपना मन।' ; रक्षाबन्धन में भाई-बहन का प्रेमः 'लेके बलैयाँ / बढ़ाती है बहना / भाई की उम्र।' ; साधु-संतों का आडम्बरः 'गेरुए वेश / जनता को मूँड़ते / जेबें सूँघते।' ; ग्राम से नगर की ओर बढ़ते पलायन का दुःखः 'बाट हैं चुप / सभी घाट हैं चुप / नौकाएँ लौटीं।' तथा ग्राम में नई सभ्यता का विकर्षक प्रवेशः 'नई सभ्यता / आँगन में उगाते / हैं नागफनी।'

'चौमुखा दिया' भारतीय लोकसंस्कृति में बहुत महत्त्व रखता है; इसे कवि 'हिमांशु' ने कुछ इस प्रकार प्रयोग किया हैः 'चौमुखा दिया / बनकर जला मैं / तुम्हारे लिए.' भारतीय लोक में एक सुहागिन के लिए 'सिन्दूरी रंग' की अनिवार्यता इन हाइकु रचनाओं में अंकित की गई हैः

सिन्दूरी पात / पुलक उठे तरु / लौटा सुहाग।

माँग-सिन्दूर / भाल पर बिन्दिया / आँखों में चाँद!

किसानों की एकमात्र पूँजी-उनकी फसल उन्हें किस प्रकार हर्षित कर देती है, इन हाइकुओं में देखें-'खिली कपास / दूर तक खेतों में / बिखरा हास।' तथा 'नाचें गबरू / कटे जब फसल / बजती चंग।'

भारतीय लोक-जीवन में पेड़-पौधे, फूल-पत्तियाँ, जड़ी-बूटियाँ-सभी का अपना-अपना विशिष्ट स्थान है। डॉ.भावना कुँअर के हाइकु संग्रह 'धूप के खरगोश' (2012) से उद्धृत इन रचनाओं में कचनार का लोक-विश्वास एवं महत्त्व देखिएः

पाँच पाँखुरी / लगे पंचतत्त्व-सी / कचनार की।

सजे आँगन / कचनार फूलों से / देहरी झूमे।

सजने लगी / मन्दिर की मूरत / कचनार से।

सजे हैं द्वार / कचनार-फूलों से / बंदनवार।

इस संग्रह में बहुत-से हाइकु लोक के रंग लिये हुए हैं। नारी के सम्मान का प्रतीक दुपट्टाः 'छुड़ा न पाई / कँटीली झाड़ियों से / हवा दुपट्टा।' ; विवाहित स्त्री के लिए लाल रंग के परिधान का बन्धनः 'लाल था जोड़ा / आजादी से उड़ना / भूलना पड़ा।' ; बंजारा-समुदाय का उल्लेखः 'बन बंजारा / फिरता मारा-मारा / मन बेचारा।' ; जादू-टोने पर विश्वासः 'बहका गई / जादूगरनी बन / देखो पवन।' ; आँगन को बुहारने की नित्यचर्याः 'आ रही हवा / आँगन बुहारती / बुदबुदाती।' ; विवाह का आह्लादः 'अमलतास / पीले करके हाथ / करे न बात।' ; धरा पर दिवाली का उल्लासः 'दीवाली-पर्व / अमावस की रात / नभ उदास।' ; भाग्य पर विश्वासः 'बुझे चिराग / न आस तुम खोना / जगेंगे भाग।' ; तथा रक्षाबन्धन का महत्त्वः 'परदेस में / राह देखता भाई / कभी कलाई.'

सदियों से भारतीय लोक-जीवन में झूले, विशेषकर सावन के झूले, अत्यधिक महत्ता रखते हैं; इस बात की पुष्टि इन रचनाओं में देखी जा सकती हैः

हवा का मेला / खुश होकर पंछी / झूले हैं झूला।

दुःख के झूले / ऊँची होती ये पींग / आसमाँ छू ले।

झूले उदास / सावन का मौसम / पिया न पास।

डॉ.हरदीप कौर सन्धु के हाइकु में पंजाबी लोक-संस्कृति के विविध रंग देखे बनते हैं। हिन्दी और पंजाबी दोनों भाषाओं में इनके हाइकु अनायास ही लोक-जीवन से जोड़ते हैं। पंजाबी लोक में गुरु नानक देव के प्रति अटूट श्रद्धा एवं आस्था इन रचनाओं में व्यक्त हैः

प्रभात फेरी / साध-संगत जपे / नानक नाम।

गुरु की बाणी / संदली झलकारा / चीर अँधेरा।

पंजाबी संस्कृति के एक जीवन्त प्रतीक 'त्रिंजण' को कवयित्री ने मन के साथ जोड़ कर एक सुन्दर रूपक बुना है, जो एकलता में मन की सतत उधेड़-बुन को प्रतिबिम्बित करता हैः

मन त्रिंजण / लो तेरी याद आई / हँसी तन्हाई.

यादों के कारण मन में होने वाली ऊहापोह को अभिव्यंजित करने के लिए डॉ-हरदीप कौर सन्धु ने और भी कई उपमाएँ और रूपक प्रयोग किए हैं, जो लोक-जगत् से सम्बद्ध हैं, जैसे- 'शहनाई' -यादें हैं मीत / मन की शहनाई / गाती है गीत; 'भट्टी' -यादों की भट्टी / जलता दुखी मन / तपे बदन; 'चूल्हे' -पगती रही / यूँ रूह की खुराक / यादों के चूल्हे; 'बारात' -निकली आज / लो यादों की बारात / मिली सौगात। यत्र-तत्र ठेठ पंजाबी शब्दों के प्रयोग से भी इनके हाइकु में लोक-संस्कृति के बिम्ब / प्रतीक जीवन्त हो उठते हैंः

रंगीन खिज़ाँ / पत्ते-पत्ते बिखरा / रंग मजीठ।

लम्बी उड़ारी- / पिंजरे वाला तोता / देखे अम्बर।

हिन्दी हाइकु में लोक से सम्बन्धित शब्दावली तथा उससे सम्बन्धित मिथक लोक-सांस्कृतिक परिवेश में ले जाते हैं, यथाः बनजारा, जोगी / जोगन, मजार, दूज का चाँद, बिल्लौरी दिया, तन्दूर, संतूर, अंगार, पुर्वा, कहार, शरारा, परियाँ, देहरी, कपूर, पीपल (सुधा गुप्ता) ; आँचल, ढोल, सोहर, बघनखे, माटी, मेहँदी, जोत, खलिहान, बालियाँ, अलाव, रजाई, आँख-मिचौली, कढ़ाई, गुलाल, सिन्दूर, बाती, मुँडेर, प्रलय, आचमन, यज्ञ, समिधाएँ, प्रेत, नर-पिशाच, वल्गाएँ, कपाट, ओंकार (रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' ) ; चूनर, चादर, साफा, काजल, दुपट्टा, साड़ी, झालर, कतरनें, नथुनी, पायल, घुँघरू, बाँसुरी, पंचतत्त्व, गागर, गठरी, रोली, राखी, बंजारा, हवेली, जादूगरनी (भावना कुँअर) ; क्यारी, आरती, दीप बालती, परी, पन्ने, घोरी, धूनी, डेरा, माया ऊपरी, कीलते, गंजे पेड़, फाग, पंगत, पौन (कुँवर दिनेश) ।

पारिवारिक-सामाजिक परिवेश के प्रभाव में हाइकुकारों के विषयवस्तु भिन्न होने पर भी उनकी भाषा पर लोक का प्रभाव सहज रूप से आ जाता है। डॉ.कविता भट्ट के निम्न हाइकु रचनाओं में लोक के तत्त्व आभासित हैंः

राधा-कृष्ण प्रेम की प्रतीक बाँसुरी-'गूँज रही है / मन-नीरव घाटी / प्रेम-बाँसुरी' ; नव-वधू का लजाना-'लजाई धूप / पलकें न उठाए / नव-वधू-सी' ; पहाड़नों की दिनचर्या-'पहाड़नों का / चारा-पत्ती में ढला / जीवन पूरा' ; पहाड़ों पर परिश्रम करतीं महिलाओं की पीड़ा-'सीढ़ी-से खेत / बिवाई खून-भरी / आहें न थमें' ; वियोग में नवौढ़ा का संताप-'सूनी घाटी में / खनकती चूड़ियाँ / रोएँ पायल' ; विरहिनी की व्यथा की तुलना योगियों की तपश्चर्या से-'प्रतीक्षारत / तापसी योगिनी मैं / तू योगीश्वर!' ; प्रेमी के प्रति समर्पण-भाव और प्रेमी के नाम का मानस-जाप-'तुम प्रणव / मैं श्वासों की लय हूँ / तुम्हें ही जपूँ' ; संयोग में प्रेमी के स्पर्श की तुलना अलाव से-'अलाव-सा है, / सर्द रात पीड़ा में / स्पर्श तुम्हारा' और पावस ऋतु में हृदय की विह्वलता-'यौवन जगा / रति-काम उद्धत / ऋतु पावस।'

इसी प्रकार डॉ.पूर्वा शर्मा के हाइकु में भी कुछ बिम्ब लोक-जगत् से सम्बन्ध रखते हैंः लुका-छिपी का खेल-'मेघों को ओढ़े / लुका-छिपी खेलता / सूर्य चंचल' ; बालियाँ-'पीली बालियाँ / पहन इतराया / अमलतास' ; चौका लोक-संस्कृति में कितना महत्त्व रखता है-'चौका महका / बिटिया जो आई, / माँ भी मुस्काई' तथा बट्टी-'जीवन बट्टी / हर प्रश्वास पर / घिसती चली।' कुछ अन्य हाइकुकारों की भाषा-शैली एवं बिम्ब-विधान में भी यत्र-तत्र लोक का प्रभाव देखे बनता हैः

पाती में धरे / अक्षत कुमकुम / खैर मनाए (कमला निखुर्पा)

पग में बाँध / बूँदों की पैंजनिया / बरखा नाची (कमला निखुर्पा)

धरा महकी / ओढ़ चूनर पीली / सरसों खिली (सुदर्शन रत्नाकर)

गप्पें मारती / पुरबा व पछैया / गाछी पर बैठी (डॉ.जेन्नी शबनम)

सन्ध्या ने मला / भर मुट्ठी गुलाल / नभ के भाल (डॉ.शिवजी श्रीवास्तव)

कुंती-सी डाली / बहाती सरिता में / पर्ण-कर्ण-से (ज्योत्स्ना प्रदीप)

निकलूँ कैसे? / बैरी फागुन ठाढ़े / ड्योढ़ी में मेरी (रमेश कुमार सोनी)

रंगोली सजी / कहे शुभ दीवाली / पटाखे फूटे (रमेश कुमार सोनी)

फुगड़ी खेले / गिलहरी, परिंदे / पेड़ गिनते (रमेश कुमार सोनी)

लोक-संस्कृति सर्व-साधारण की सामूहिक पहचान होती है; ऐसा नहीं है कि यह केवल ग्रामीण समाज से ही सम्बन्धित है, इससे अभिप्राय ऐसे जन-समुदाय से है जो सरल, अकृत्रिम और परम्पराबद्ध आचरण करता है। अत एव लोक-संस्कृति कभी भी शिष्ट अथवा अभिजात्य समाज की आश्रित नहीं रहती, प्रत्युत् अभिजात्य समाज लोक से प्रेरणा लेता है। कोई नगर का निवासी हो अथवा विदेश में प्रवासी हो, नगरीय चकाचौंध, बाजारवाद और भोगवादी सोच से अप्रभावित रहते हुए लोक-जगत् के आर्जव को बनाए रहता है-यही प्रभाव है समुदाय-विशेष में पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होने वाले संस्कारों का। बहुत-से हिन्दी हाइकुकारों की भावाभिव्यक्तियों की शैली में लोक-मानस की भावना सहज ही विद्यमान देखी जा सकती है। -0-


सन्दर्भः

खुशबू का सफ़रः डॉ.सुधा गुप्ता, इण्डो विजन, गाजियाबाद, उ.प्र., 1986.

धूप के खरगोशः डॉ.भावना कुँअर, अयन प्रकाशन, दिल्ली, 2012.

बारहमासाः हाइकुमालाः डॉ. कुँवर दिनेश सिंह, अभिनव प्रकाशन, दिल्ली, 2014.

माटी की नावः रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' , अयन प्रकाशन, दिल्ली, 2013.

यादों के पाखीः सं. रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' , डॉ.भावना कुँअर, डॉ.हरदीप कौर सन्धु, अयन प्रकाशन, दिल्ली, 2012.

स्वप्न-शृंखलाः सं. रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' , डॉ.कविता भट्ट, अयन प्रकाशन, दिल्ली, 2019.

हिन्दी हाइकु, ब्लॉगः https: / / hindihaiku. wordpress. com /