हिन्दू और मुसलमान / राम मनोहर लोहिया
(3 अक्टूबर 1963 को हैदराबाद में हिंदू और मुसलमान विषय पर डॉ. राम मनोहर लोहिया ने एक नए संदर्भ में इतिहास की व्याख्या की थी। नीचे दी गई यह व्याख्या आज भी वह प्रासंगिक है।)
हिन्दू और मुसलमान हैदराबाद में करीब-करीब बराबर हैं। हिन्दू-मुसलमान और हिन्दुस्तान-पाकिस्तान, इन दो सवालों को लेकर दिमाग सुधर पाये, तो गजब हो सकता है। दिमाग सुधारने के लिए मेरी राय में सबसे जो बड़ी चीज है, वह नजर, जिससे इतिहास की तरफ देखा जाता है। वैसे तो हिन्दू-मुसलमान में फर्क धर्म का है, लेकिन उस पर मैं कुछ नहीं कहूंगा। हिन्दू चाहे जितना उदार हो जाए और फिर भी अपने राम और कृष्ण को मोहम्मद से थोड़ा अच्छा समझेगा ही और मुसलमान चाहे जितना उदार हो जाए, अपने मोहम्मद को राम और कृष्ण से थोड़ा अच्छा समझेगा ही। लेकिन इतना ज्यादा नहीं होना चाहिए। उन्नीस-बीस से ज्यादा का फर्क न रहे, तो दोनों का मन ठीक हो सकता है। इतना तो मुझे धर्म के बारे में कहना है, इससे ज्यादा नहीं।
असल चीज है, इतिहास पर कौन -सी नजर रखें क्योंकि आखिर जब हम हिन्दू और मुसलमान की बात करते हैं, तो हवा में नहीं, अरब के मुसलमान की नहीं, हिन्दुस्तान के मुसलमान तो आखिरकार हिन्दू का भाई है, अरब का मुसलमान तो है नहीं। जब रिश्ता नहीं, तो समझ ही नहीं पायेगें। दो दिन रह जाएं, तो कुढ़न लग जायेगें, एक दूसरे को गाली नहीं दे पायेगें। आम तौर से जो भ्रम हिन्दू और मुसलमान, दोनों के मन में है, वह यह कि हिन्दू सोचता है, पिछले 700-800 बरस तो मुसलमानों का राज रहा, मुसलमानों ने जुल्म किया और अत्याचार किया, और मुसलमान सोचता है, चाहे वह गरीब-से-गरीब क्यों न हो, कि 700-800 बरस तक हमारा राज था, अब हमको बुरे दिन देखने पड़ रहे हैं।
हिन्दू और मुसलमान दोनों के मन में गलतफहमी धंसी हुई है। यह सच्ची नहीं है। अगर सच्ची होती, तो इस पर मैं कुछ नहीं कहता। असलियत यह है कि पिछले 700-800 बरस से मुसलमान - ने - मुसलमान को मारा है। मारा है, कोई रूहानी अर्थ में नहीं, जिस्मानी अर्थ में मारा है। तैमूरलंग आता जब 4-5 लाख आदमियों का कतल करता है, तो उसमें से 3 लाख तो मुसलमान थे, पठान मुसलमान थे, जिनका कतल किया। कतल करने वाले मुगल मुसलमान था। यह चीज अगर मुसलमानों के घर-घर में पहुंच जाए कि कभी तो मुगल मुसलमान ने पठान मुसलमान काकतल किया और कभी अफ्रीकी मुसलमान ने मुगल मुसलमान का, तो पिछले 700 बरस का वाकया लोगों के सामने अच्छी तरह से आने लग जाएगा कि यह हिन्दू-मुसलमान का मामला नहीं है, यह तो देशी-परदेशी का है। सबसे पहले अरब के या और कहीं के मुसलमान आए। वे परदेशी थे। उन्होंने यहां के राज को खत्म किया। फिर वे धीरे-धीरे सौ-पचास बरस में देशी बने, लेकिन जब वे देशी बन गए तो, फिर एक दूसरी लहर परदेशियों की आई, जिसने इन देशी मुसलमानों को उसी तरह कतल किया जिस तरह से हिन्दूओं को। फिर वे परदेशी भी सौ-पचास बरस में देशी बन गए, और फिर दूसरी लहर आई। हमारे मुल्क की तकदीर इतनी खराब रही है, पिछले 700-800 बरस में कि देशी तो रहा है नपुसंक और परदेशी रहा है लुटेरा या समझो जंगली, और देशी रहा है नपुसंक। हमारे 700 बरस का इतिहास का नतीजा।
इस बात को हिन्दू और मुसलमान दोनों समझ जाते हैं, तो फिर नतीजा निकलता है कि हर एक बच्चे को सिखाया जाए, हर स्कूल में, घर-घर में, क्या हिन्दू मुसलमान, बच्चे-बच्चे को कि रजिया, शेरशाह जायसी वगैरह हम सबके पुरखे हैं, हिन्दू और मुसलमान दोनों के। मैं यह कहना चाहता हूँ कि रजिया, शेरशाह और जायसी को मैं अपने मां-बाप में गिनता हॅूं। यह कोई मामूली बात इस वक्त मैंने नहीं कही है। लेकिन उसके साथ-साथ मैं चाहता हूँ कि हममें से हर एक आदमी, क्या हिन्दू, क्या मुसलमान दोनों के लिए कि गजनी, गोरी, और बाबर हमलावर और लुटेरे थे, सारे देश के लिए, परदेशी होते हुए देशी लोगों की स्वाधीनता को खत्म करने वाले थे और रजिया, शेरशाह और जायसी वगैरह हमारे सबके पुरखे थे। अगर 700 बरस को देखने की यह नजर बन जाये, तो फिर हिन्दू और मुसलमान दोनों पिछले 700 बरस को अलग-अलग निगाह से नहीं देखेगें, फिर वे देखने लग जायेगें जोड़ने वाली निगाह से कि हमारे इतिहास में यह तो मामला था देशी का, यह था परदेशी का, यह अपने, यह थे पराये और दोनों का नजरिया एक हो जायेगा।
जब हम इतनी दूर पहुँच जाते हैं तो फिर मैं उससे आज के लिए कुछ नतीजा निकालना चाहता हूँ। आज हिन्दू और मुसलमान दोनों को बदलना पड़ेगा। दोनों के मन बिगड़े हुए हैं। सबसे पहले तो जो बात मैंने आपके सामने रखी, उस मामले में। कितने हिन्दू हैं, जो कहेगें कि शेरशाह उनके बाप दादों में हैं और कितने मुसलमान है जो कहेंगें कि गजनी, गोरी लुटेरे थे? मैं बोल रहा हूँ इसीलिए यह बात अच्छी लग रही है, लेकिन अभी जब आप घर लौटोगे, तो कोई न कोई शैतान आपको सुना देगा, देखो, कैसी वाहियात बातें सुन कर आये हो, अगर गजनी-गोरी न आए होते तो मुसलमान होते ही कहां से? देखो शैतान किस बोली में बोलता है? तो, इसका मतलब इस्लाम या मोहम्मद नहीं, वह गजनी-गोरी से कम है। जरा इसके नतीजे क्या होते हैं। और उसी तरह से, शैतान की बोली होगी, देखो कैसा वह बोलने वाला था, वह तुम हिन्दुओं के बाप-दादे शेरशाह को बना गया। अच्छी तरह से सोच-विचार करके, अपने मन को, खोपड़ी को एक तरह से तराश करके, उलट करके जो कुछ भी गंदगी उसमें पिछले 700-800 बरस की भरी हुई है, उसको साफ करके फिर उस जुमले पर आना और फिर सोचना कि हिन्दू और मुसलमान दोनों का मन बदलना बहुत जरूरी हो गया है।
इस वक्त मन बिगड़ा हुआ है। मैं दो मिसाल देकर बताता हूँ। ऊपर से तो सब मामला ठीक है, ज्यादातर ठीक है। दंगे कहां होते हैं। कभी-कभी जरूर हो जाते हैं, पर ऊपर से मामला ठीक है। लेकिन अंदर क्या है, यह सबको मालूम है। जो ईमानदार आदमी है, वह छिपा नहीं सकता इस बात को कि अंदर दोनों का मन एक-दूसरे से फटा हुआ है। मुझे इस बात पर सबसे ज्यादा दुख इसीलिए होता है कि इससे हमारा देश बिगड़ता है। कोई भी देश तब तक सुखी नहीं हो सकता, जब जक उसके सभी अल्पसंख्यक सुखी नहीं हो जाते। मेरा मतलब सिर्फ मुसलमान से नहीं। वैसे तो सच पूछो तो मैं मुसलमान को अलग से अहमियत देता हूँ, पढ़ाई-लिखाई में, गरीबी में, हर मामले में। उसी तरह से और लोग भी हैं हरिजन, आदिवासी वगैरह। जब तक ये सुखी नहीं होते, तब तक हिन्दुस्तान सुखी नहीं हो सकता। यह पहला वसूल है। इसमें भी मन ठीक करना।
एक और बड़ी बात है और वह यह है कि अगर हम किसी तरह से हिन्दू- मुसलमान के मन जोड़ पाएं, तो शायद हम हिन्दुस्तान -पाकिस्तान के जोड़ने का सिलसिला भी शुरू कर देगें। मैं यह मान कर नहीं चलता कि जब हिन्दुस्तान-पाकिस्तान का बंटवारा एक बार हो चुका है, वह हमेशा के लिए हुआ है। किसी भी भले आदमी को यह बात माननी नहीं चाहिए।
मन को जोड़ने का क्या तरीका है? एक तरफ हिन्दुओं के मन में मुसलमानों के लिए बहुत संदेह है, शक है और इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि पिछले कुछ बरसों में पलटन में, और महकमे छोड़ भी दो और इसी ढंग के जो दिल्ली के महकमे हैं, उनमें बड़ी नौकरियों में मुसलमानों को जितना हिस्सा देना चाहिए, उतना नहीं दिया गया है। इसे बहुत कम आदमी कहते हैं, क्योंकि सच बोलने से आदमी जरा झिझका करते हैं।
हिन्दू-मुसलमान दोनों को इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। मुसलमानों के अंदर यह गलतफहमी फैली हुई है कि नेहरू साहब उनके हाफिज हैं। वे कैसे हाफिज हैं, इस बात को समझ लेना चाहिए। हिन्दुओं के लिए भी जरूरी है कि नेहरू साहब जो भी करें, कांग्रेस जो भी करे, उसे समझ लें, क्योंकि कांग्रेस ने तो मालूम होता है, एक पट्टा लिखा रखा है किसी तरह हुकूमत चलाते रहो, चाहे देश का सत्यानाश हो जाए। इसीलिए हिन्दुओं को अपना मन अब साफ कर लेना चाहिए कि आखिर इस मुल्क के हम सब नागरिक हैं। अगर मान लो कि थोड़ा-बहुत मामला शक का है और कभी किसी टूट के मौके पर कुछ मुसलमानों का भरोसा नहीं किया जा सकता कि टूट के मौके पर वे यह या वह रूख अख्तियार करेगें तो एक बात अच्छी तरह समझ लेना कि जितना हिन्दू-मुसलमानों के लिए शक करेगें, मुसलमान उतना ही ज्यादा खतरनाक बनेगा और हिन्दू जितना ज्यादा सद्भावना या प्रेम के साथ मुसलमान के साथ बरताब करेगें, उतना कम खतरनाक मुसलमान बनेगा, हिन्दू लोग अगर इस सिद्धान्त को समझ जाएं, तो मामला कुछ अच्छा हो।
यह चीज भी याद रखना कि जासूस साधारण नहीं हुआ करते। जासूस तो बड़े मजे के लोग होते हैं। उनके पीछे बड़ी ताकत रहती हैं। वे इधर-उधर थोडे़ ही भटकते रहते हैं। मैं इस संबंध में आपको एक बात बता दूं कि दोनों सरकारें निकम्मी हैं, हिन्दुस्तान -पाकिस्तान की। लोगों का आना जाना तो बहुत रहता ही है। मैं समझता हूँ 200-300 या 400 आदमी इधर-उधर आते जाते रहेगें। इनमें जरूादातर बेपढ़े होगें। अगर पढ़े-लिखे होगें वे, तो जानते हैं कि कितने दिन का वीसा मिला है, वह कब खत्म होने वाला है, उसके पहले ही वापस चले जाओ। और याद रखना कि खाली एक ही बंगाल में नहीं, अभी भी पाकिस्तान में एक करोड़ या 90 लाख के आसपास हिन्दू हैं, पाकिस्तान के हिन्दू जब यहां आते हैं, हिन्दुस्तान में या हिन्दुस्तान के मुसलमान जब पाकिस्तान में जाते हैं, उनमें ज्यादातर बेपढे़ हैं। वे ‘वीसा’ वगैरह के मामले में जानते नहीं और अगर 400 रोज जाते हों, तो 40-50 आदमी या 20 या 10 आदमी ऐसे जरूर हैं, जो अपने वीसा खत्म हो जाने के बाद भी ठहर जाते हैं। दोनों तरफ की सरकारें इतनी गंदी हैं कि हर एक को समझ लेती है कि वह जासूस है और किले में ले जा करके उसको तंग करती हैं। जासूस क्या वीसा की तारीखों को तोड़ करके रह जायेगें? वह तो अपना वीसा अलग से बनवा लेगा, अपना पासपोर्ट अलग से बनवा लेगा। उसके पास तो बहुत सी करामातें होती हैं, बहुत से साधन होते हैं। इसके बारे में हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों ही सरकारों को कुछ थोड़ा इन बेपढ़े मामूली इन्सानों पर रहम खानी चाहिए और इनको जासूस बना कर नाहक तंग नहीं करना चाहिए। जासूस तो कोई दूसरे ढंग के होते हैं।
जिस तरह मैंने हिन्दू मन में बदलाव की बात कही, उसी तरह मुसलमान मन के बदलाव की बात कहता हूँ। जहां कहीं मैंने अंगरेजी हटाने की बात कही, जो मुसलमान बहुत दिनों मेरे साथ रहे, वे तो समझ लेते हैं, वरना दूसरों का माथा उसी दम ठनक जाता है कि यह क्या कह रहा है, यह तो हिन्दी लादना चाहता है। कितना शक है मुसलमान के दिमाग में। मैं तो अंगरेजी खत्म करने की बात कह रहा हूँ ताकि यह जबान जो 50 लाख बढ़े लोगों की है, हमारे ऊपर लदी न रहे, हम करोड़ों लोगों को राहत मिले, हम अपनी सरकार का कामकाज अपनी भाषा में चला सकें। जिस भाषा को मैं लाना चाहता हूँ वह तो मातृभाषा है। हिन्दी से उसका ताल्लुक है ही नहीं। तमिलनाडु में अपनी तमिल लाओ, बंगाल में बंगला। सच पूछो तो इस वक्त मेरे बारे में बहुत जोरों से, गलत ढंग से अखबारों ने गंदा प्रचार किया है कि जैसे मैं हिंदी लादना चाहता हूँ। यह बिलकुल झूठी बात है। सब भाषाओं के प्रांत बने, इसके लिए लोगों ने बड़ा हल्ला मचाया, मराठों ने मराठी के लिए हजारों की तादाद में अपनी जान दी, लेकिन जब महाराष्ट्र बन गया, तब मराठी विचारी अलग रह गई। मुझे तो सदमा इस बात का है। वहां अभी भी अंगरेजी रानी राज कर रही है। तमिलनाडू में भी यही अंगरेजी रानी राज कर रही है। आन्ध्र प्रदेश में भी अंगरेजी रानी राज कर रही है। मैंने तो उसी संबंध में कहा कि अंगरेजी रानी को हटाओ, अपनी-अपनी भाषाओं को लाओ। लेकिन लोगों को डर लगता है कि जब अपनी-अपनी मातृभाषा आयेगी, तो दिल्ली में हिन्दुस्तानी आ जायेगी। इसका मेरे पास क्या इलाज है? आप चाहो तो मैं इसके लिए तैयार हूँ हिंदी रानी न आए। अगर मान लो गैर हिंदी इलाके के लोग किसी एक भाषा पर राजी हो जाते हैं, तमिल या बंगला पर, तो मैं इस बात का ठेका लेता हूँ कि हिंदी इलाके के 20-22 करोड आदमियों को राजी कर लूंगा कि दिल्ली की भाषा तमिल बने या बंगला बने।
खैर, इस बात को अभी आप छोड़ो। मुसलमानों वाली बात लो कि हिन्दुस्तानी और हिन्दी की बात होती है, तो झट से उनके मन में शक हो जाता है। जिस मुसलमान को समझना चाहिए कौन आदमी है, लेकिन फिर भी शक हो जाता है कि यह तो हिंदी लादना चाहता है। जो जब़ान मैं बोल रहा वह आखिर क्या है? मेरा तो ऐसा ख्याल है कि अगर फिर से यह देश एक हुआ तो उसकी भाषा यही होगी जो मैं इस वक्त बोल रहा हूँ, जो चालू भाषा है अपभ्रंश से निकली है।
वैसे वह लंबा-चैड़ा किस्सा है। इतना ही मैं आपको बता दूं कि यह सही है कि वह पाली और संस्कृत की औलाद है, लेकिन अपभ्रंशवाली, जो जनता में टूट-टाट गई। मिला-जुला कर कोई चीज बनी है, लेकिन खाली इसीलिए नहीं कि मुझको फारसी या अरबी का इस्तेमाल करना है। दिखाना नहीं चाहूंगा, मुसलमान को खुश करने के लिए अपनी बात नहीं बदलूंगा। जो चालू भाषा है, ताकतवर भाषा है, उसमें लोग अपने ईमान और जान का एक ठोस भाषा में इस्तेमाल करते हैं। उसी से देश को बनाना है। इसी पर मुसलमान शक करते है, तो मैं कहता हूँ कि उसके दिमाग में कितना कूड़ा भर दिया है, यह क्या सोचता है।
फिर बात उठ जाती है कि किस लिपि में, लिखावट में यह भाषा लिखी जाए? मुझे आज इस सवाल से मतलब नहीं। लेकिन अगर मान लो कोई आदमी यह प्रस्ताव रखता है कि हिन्दुस्तान की जितनी भाषाएं हैं, सब नागरी में लिखी जाएं, तो पहली बात तो यह कि नागरी के मानी हिंदी नहीं होते। यह गलती कभी मत कर बैठना। नागरी तो एक लिखावट है, जो हिन्दुस्तान में सभी भाषाओं के लिए चला करती थी, किसी न किसी रूप में।
अब भी जितनी भी लिखावटें हैं, तेलुगु, तमिल इत्यादि ये सब एक ही चीज के रूप हैं। अगर कोई ऐसी बात कहता है तो फिर उसको बड़े ध्यान से और प्रेम से सुनना चाहिए। उससे धबराना नहीं चाहिए।
असल में, आज हिंदू और मुसलमान दोनों का मन वोट के राज ने बिगाड़ दिया है। चुनाव के मौके पर जाते हैं, और मौकों पर जाते नहीं। सभाएं भी नहीं करते और वोट मांगते हैं। वोट मांगने वाले लोग हमेशा इस बात का ख्याल रखते हैं कि कोई ऐसी चीज न कह दें कि सुनने वाला नाराज़ हो जाए। नतीजा होता है कि हिन्दुस्तान में जितनी भी पार्टियां हैं, वे हिन्दू-मुसलमान को बदलने की बात बिलकुल नहीं कहतीं। मन में जो पुराना कूड़ा पड़ा हुआ है, जो गलतफहमी है, जो भ्रम हैं, उन्हीं को तसल्ली दे-दिला कर वोट ले लेना चाहते हैं। यह है आज हमारे राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी खराबी कि हम लोग वोट के राज में, नेता लोग खासकर से, सच्ची बात कहने से धबड़ा जाते हैं। इसकर नतीजा है कि हिन्दू और मुसलमान दोनों का मन खराब रह जाता है, बदल नहीं पाता।
इसमें तो सुधार होना चाहिए। साफ सी बात है कि मुसलमान जैसी चीज नहीं रहनी चाहिए। टूट जाना चाहिए। जैसे हिंदू टूटते हैं अलग-अलग पार्टियों में, वैसे मुसलमान को भी टूटना चाहिए। लेकिन यह बात कुछ मानी हुई सी है कि मुसलमान जायेगा तो एक साथ जायेगा। हमेशा वह कोई-न-कोई इत्तेहाद बनाएगा। पहले कोई रहा है, वह इत्तेहादुल मुसलमीन था, रजाकार फिर अभी भी इत्तेहाद। हमेशा एक टुकड़ी बन कर सबके सब मुसलमान, जहां तक बन सके एक टुकड़ी में चले हैंे, यह बात तो ठीक नहीं। इसका नतीजा तो यह भी हो सकता है कि हिंदू लोग सबके सब एक टुकड़ी में चलने लगे, अपने ईमान से जो सही सियासत हो, उसको पकड़ कर चलो। अगर आज हैदराबाद में हिंदू और मुसलमान हजारों की नहीं बल्कि लाखों की कहूं तो ज्यादा न होगा, तायदाद में मिलकर इस चीज़ के लिए आगे बढ़ते हैं और शहर में दो-चार मील लंबे जुलूस निकालते हैं, तो न सिर्फ आन्ध्रप्रदेश में बल्कि सारे हिन्दुस्तान में बिजली दौड़ जाएगी कि यह क्या चीज हो रही है कि हिंदू-मुसलमान दोनों मिल करके किसी चीज को ले रहे हैं। वह मेल तब हो सकता है, जब लोग हिंदू और मुसलमान की हैसियत से इकट्ठा नहीं होगें बल्कि अपनी नजर से कि हमको कौन सी राजनीति करनी है, उसको ले कर इकट्ठा हों।
इसी संबंध में मैं हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की बात भी कह दूं। मुझे इस बात का बड़ा अफसोस है कि जब देश का बंटवारा हुआ, तब मुझ जैसे लोगों ने इसके खिलाफ कोई काम नहीं किया। हम शायद इसको रोक नहीं सकते थे। कुछ भी करते, लेकिन कम से कम उस वक्त जेल में बैठे होते तो मन में एक तसल्ली होती कि हमने इसका कोई मुकाबला तो किया। उस वक्त हम चूक गए। एक कारण महात्मा गांधी भी थे। इस बात को अब छोड़ दीजिए। अब सवाल उठता है कि इस देश का जो बंटवारा हो चुका है, क्या उसको स्थायी, मुकम्मिल मान कर चलें या कोई रास्ता निकल सकता है, जिससे फिर जोड़ शुरू हो। जिन लोगों ने सोचा था कि हिन्दुस्तान-पाकिस्तान बंटवारे के बाद आपस में प्रेम रहेगा, शान्ति रहेगी, हिंसा नहीं होगी, वह तो हो नहीं पाया। प्रेम तो हुआ नहीं, बल्कि द्वेष बढ़ गया। खाली फर्क इतना है कि जो द्वेष या मनमुटाव अंदर रहता था, वहां अब दो देशों के रूप में आ गया और हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की दोनों सरकारों की ताकत का बहुत बड़ा हिस्सा यानी पैसा, प्रचार, विदेश नीति का बहुत बड़ा हिस्सा आज एक-दूसरे को बदनाम करने में खर्च हो रहा है।
अखबारों को बहुत सूझ-बूझ से हमें पढ़ना सीखना चाहिए। ये दोनों सरकारें जब कभी चाहती हैं तो लोगों का मन गरमा देती हैं, फुला देती हैं, उसमें वैर ला देती हैं, चाहे तो कुछ नहीं, लेकिन सरहद की छिटपुट खबरें हिन्दुस्तान-पाकिस्तान दोनों की छाप देने से, पाकिस्तान के अखबार में हिन्दुस्तान के अखबार में, लोगों का मन बिगड़ जाता है। ये खबरें सरकारी महकमों से मिलती हैं। अच्छी तरह से अखबार पढ़ना चाहिए। हो सकता हैं कि हिन्दुस्तान की सरकार कई बार 44 करोड़ लोगों का मन चीन से हटा कर पाकिस्तान की तरफ मोड़ना चाहे। यह चाल हो सकती है। चीन तो बड़ा शत्रु है, मजबूत शत्रु है। लोग अगर मान लो गरमा रहे हैं चीन के खिलाफ, सरकार को डर लग रहा है, तो सरकार की तबीयत हो जाती है कि चीन से जरा मन हटा दो और एक छोटे दुश्मन की मरफ मन मोड़ो। इसीलिए उस तरह की खबरें दे देती है और हम लोग भी बेवकूफ बन जाते हैं। हम चीन की तरफ से मन हटा कर पाकिस्तान की तरफ ले जाते हैं।
उसी तरह से पाकिस्तान की सरकार, जब कभी मुसीबत में पड़ती है अपने देश के किसी मसले को हल नहीं कर पाती है, तो हमेशा हिंदुस्तान की सरकार हमले की तैयारी कर रही है और चेत जाओ, हमारा मुल्क खतरे में पड़ा हुआ है, इससे पाकिस्तानियों का मन वह किसी तरह से गरमा देती है। इन दोनों सरकारों के हाथ में इस वक्त बहुत खतरनाक हथियार हैं, लेकिन जनता अगर चाहे तो मामला बदल सकता है। इसीलिए मैंने लोकसभा में विदेश नीति की बहस में एक ही जुमला कहा था। उस पर कांग्रेसी बड़े तिलमिला उठे। मैंने कहा था पाकिस्तान की सरकार उतनी ही गंदी है जितनी कि हिन्दुस्तान की सरकार। कितना सीधा, सही सच्चा जुमला है। इसमें कोई बात गलत नहीं थी लेकिन चारों तरफ से लोग तिलमिला उठे।
हिंदुस्तान-पाकिस्तान का मामला, अगर सरकारों की तरफ देखो, तो सचमुच बहुत बिगड़ा हुआ है। इसमें शक नहीं है। और इसीलिए अब जो बात मैं कहने जा रहा हूँ, वह बड़ी अटपटी लगती है कि जरा-जरा सी बातों को तो बढ़ा दिया है, लड़ रहे हैं, अखबारों में दिन रात एक दूसरे को गरमा रहे हैं और चमड़ी या शरीर फुला रहे हैं ऐसी सूरत में मैं आपसे पाकिस्तान-हिंदुस्तान के महासंघ की बात करना चाहता हूँ। एक देश तो नहीं, एक राज नहीं, लेकिन दोनों कम-से-कम कुछ मामलों में शुरूआत करें एके की, वह निभ जाए तो अच्छा और नहीं निभे तो और कोई रास्ता देखा जाएगा।
बातों में न सही, लेकिन नागरिकता के मामले में और अगर हो सके, तो थोड़ा-बहुत विदेश नीति के मामले में, थोड़ा बहुत पलटन के मामले में, एक महासंघ की बातचीत शुरू हो। मैं साफ कह देना चाहता हूँ जो विचार मैं आपके सामने रख रहा हूँ, वही मैंने लोकसभा में रखा था, यह कहते हुए कि यह विचार सरकार के पैमाने पर आज शायद अहमियत नहीं रखता, मतलब हिन्दुस्तान की सरकार और पाकिस्तान की सरकार से इससे कोई मतलब नहीं, क्योंकि वे सरकारें तो गंदी हैं। इसीलिए हिन्दुस्तान की और पाकिस्तान की जनता को चाहिए, अब इस ढंग से सोचना शुरू करें। अगर हिंदुस्तान -पाकिस्तान का महासंघ बनता है तो जब तक मुसलमानों को या पाकिस्तानियों को तसल्ली नहीं हो जाती, तब तक के लिए संविधान में कलम रख दी जाए कि इस महासंघ का राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दो में से एक पाकिस्तानी रहेगा। इस पर से लोग कह सकते हैं कि तुम अंदर-अंदर रगड़ क्यों पैदा करना चाहते हो? जिस चीज को पुराने जमाने में कांग्रेस और मुस्लिम लीग वाले नहीं कर पाए, कभी-कभी कोशिश करते थे, रगड़ पैदा होती थी। अब तुम फिर से रगड़ पैदा करना चाहते हो? इसका और कोई जबाब नहीं तो मैं एक सीधा सा जबाब दूंगा कि एक बरस हमने बाहरवाली रगड़ करके देख लिया, अब फिर अंदर की रगड़ कैसी भी हो, इनसे तो कम-से-कम ज्यादा अच्छी ही होगी। यह बाहर वाली पाकिस्तान-हिंदुस्तान की रगड़ है, उसको हम निभा नहीं सकते। इसके चलते तो हम दुनिया में मोहताज रहेगें। हमेशा किसी-न-किसी के मोहताज या शिकार बनते रह जायेगें। इसी तरह से और भी नये ढंग की बात सोच सकते हो।
फिर से मैं कहे देता हूँ कि यह सब सोचना बेमतलब होगा, जब तक कि किसी इलाके के हिन्दू और मुसलमान जानदार बनकर एक नई पलटन नहीं तैयार करते। इसीलिए मैंने हैदराबाद और लखनऊ की बात कही। हैदराबाद और लखनऊ में हिंदू और मुसलमान जानदार बन कर एक ताकत बनें और अपनी सभाओं से, अपने प्रचार से, अपने प्रदर्शन से दिखाएं कि एक नई लहर इस देश में उठी है, तब अलबत्ता इन चीजों में कोई ताकत आए।
पाकिस्तान के बंगाल में कौन लोग हैं? उनकी कौन-सी जब़ान है? मुसलमान समझते होगें कि लिखावट, उर्दूवाली लिखावट, बाएं से दाएं चलने वाली, मुसलमानों की खास लिखावट है, और दूसरी बात यह कि इस्लाम की खास लिखावट है। दोनों बातें बिलकुल गलत हैं। पाकिस्तान के जो भी 8 करोड़ या 9 करोड़ मुसलमान हैं उनमें से आधे से ज्यादा बंगाल में हैं। उनकी लिखावट यही नागरी वाली लिखावट है क, ख, ग वाली। उनकी भाषा बंगला है और लिखावट नागरी। उसी तरह, बहुत से ईसाई समझते हैं कि उनकी लिखावट रोमन है और अंगरेजी उनकी भाषा।
और यह जो रेडि़यो चलाता है हिंदुस्तान का उसमें सबरे के वक्त वंदना सुनते हैं। कभी गीता से कुछ सुना देते हैं, कुछ रामायण से, कुछ कुरान से और एकाध ईसाइयों की कविता या गाना सुनाते हैं। इसी वक्त तबीयत होती है कि रेडियो को तोड़ दिया जाए, क्योंकि हमेशा वह गाना मैंने अंगरेजी में सुना जैसे ईसू मसीह साहब अंगरेजी जब़ान बोलते थे। कोई ऑल-इण्डिया रेडियो को बताना जा करके कि ईसू मसीह साहब की जब़ान अरमैक जब़ान थी, जो शायद अपनी हिंदुस्तानी के ज्यादा नजदीक है, बनिस्वत अंगरेजी के। लेकिन न जाने क्यों बेवकूफ लोग यही सोचते हैं कि ईसू मसीह साहब की जब़ान अंगरेजी थी। तबीयत तो कई दफे होती है कि स्कूल खोला जाए जिसमें दुनिया के बारे में लोग जान जाएं। खैर ...। यह मैंने पूर्व पाकिस्तान या बंगाल की लिखावट के बारे में, भाषा के बारे में आपसे कहा कि वह कितनी मिली-जुली है।
उसी तरह, पाकिस्तान के इधर वाले लाहौर, कराची वाले हिस्से को देखो। अभी भी जब लोग मिल जाया करते हैं, कम मिलते हैं लेकिन जब मिलते हैं, दीवार तो जरूर आ गयी है बीच में, लेकिन कभी-कभी जब दीवार टूटती है-तो मजा आता है। अभी कुछ दिनों पहले एक आदमी आया था। वह पाकिस्तानी सरकार का अफसर था। मैंने उससे एक बात कही, जो बिलकुल सही बात है कि हिंदुस्तान-पाकिस्तान में जैसे और दो मुल्कों में दोस्ती होती है वैसे तो दोस्ती हो नहीं सकती, क्योंकि जहां हमारी दोस्ती शुरू होगी, वह रूक नहीं सकती, दोस्ती बढ़ती ही चली जाएगी और बढ़ती चली जाएगी। कहीं-न-कहीं वह महासंघ या एके पर रूकेगी। उसके पहले नहीं। और अगर वह दोस्ती नहीं होती, तो दुश्मनी-युद्ध की जैसी स्थिति बनेगी, चाहे युद्ध हो न हो लेकिन युद्ध जैसी स्थिति रहेगी। हम दोनों एक ही जिस्म के दो टुकड़े हैं, इसीलिए हमारे बीच में मामूली दोस्ती के सवाल को मत उठाना। तब वह हंसा, कहने लगा, हाँ वह बात तो आपकी मैं जानता हूँ लेकिन इस वक्त आप मुझसे न करें तो अच्छा है। आप दूसरी बात करें। मैंने कहा, कभी-न-कभी तो तुमको इस बात का सामना करना पडे़गा कि दोस्ती होगी तो खुल कर होगी, नहीं तो फिर मामला रूक-रूका जायेगा।
मैं आपसे यह बात क्यों कह रहा हूँ। कई दफा चीन वाले घमंड के साथ कहा करते हैं, हम 60 करोड़ हैं। 60 करोड़ का, 60 करोड़ का उनको घमंड है। हम भी थोड़ी अकल से काम लें, उदारता से दयानतदारी से, तो क्या जाने हमारी भी तकदीर खुल जाए तब हम भी घमंड से नहीं लेकिन ताकत से कह सकेगें कि हम भी 60 करोड़ हैं। दोनों एक हैं, हिंदुस्तान-पाकिस्तान अलग-अलग नहीं, हम दोनों 60 करोड़ हैं। इतनी ताकत हम हासिल करें उसके लिए कुछ अकल की जरूरत होती है।
मैंने शुरू से आख्सिरी तक जो आपको बताया, हिंदू-मुसलमान वाली, हिन्दुस्तान-पाकिस्तान वाली बात, उस पर आप लोग छोटी-छोटी टोलियां बना कर सोच-विचार करना। अगर इसमें से आपने कुछ नतीजा निकाला जगह-जगह आपने मोहल्लों में टोलियां बनायीं, कहीं कोई सियासत खड़ी की मिली-जुली सियासत, जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों मिलकर आगे चलें, चाहे वह अंगरेजी जब़ान को मिटाने के लिए, चाहे मंहगी को खत्म करने के लिए तो अच्छा होगा। कितनी चीजें महंगी हो र्गइं। जैसे शक्कर है। मैंने ज्यादा इस पर जिक्र नहीं किया, लेकिन आप जानते हो शकर का दाम सवा रूपया, डेढ़ रूपया है, लेकिन हमारा जो वसूल है उसके मुताबिक शक्कर का दाम साढ़े 13 आने 14 आने सेर होना चाहिए। हालांकि नौ आने सेर में शक्कर बनती है और उसे सरकारी टैक्स, नफा-वगैरह लगा कर डेढ़ गुना तक साढ़े तेरह आने सेर में बेचो। उसके लिए आंदोलन करो।
मैंने आज खासतौर से हिंदू-मुसलमान की बात कही, लेकिन आप याद रखना, यह बात इसी तरह से हरिजन, आदिवासी और पिछड़ी जातिवालों और औरतों के लिए भी समझ लेना, क्योंकि औरत तो जो कोई भी है, चाहे ऊंची जाति की, चाहे नीची जाति की, सबको मैं पिछड़ी समझता हूँ। और मैं क्या समझता हूँ, आप जानते हो औरत को हिन्दुस्तान में, दुनिया में दबा करके रखा गया है। उसे यहाँ बहुत ज्यादा दबा कर रखा गया है। मर्द ही मर्द सुन रहे हैं मेरी बात को। औरतें कितनी सुनने वाली हैं, तो ये जितने पिछड़े हैं, इनको विशेष अवसर देना होगा। ज्यादा मौका देना होगा तब ये ऊंचा उठेगें। जब मैंने तीन आने वालों की बात कही या जब मैं इन पिछड़ों की बात कहता हूँ तो मेरा मकसद खाली एक होता है कि जो सबसे नीचे है, उसके ऊपर अपनी आंख रखोगे और उसको उठाओगे तो जो उसके ऊपर है, वह खुद-ब-खुद ऊंचा उठेगा। सबसे नीचे है उस पर अपनी आंख रखो। मैं आपसे आखिरी में यही प्रार्थना करता हूँ कि इन सब चीजों पर खूब गंभीरता से सोच-विचार करना और बन पड़े तो हैदराबाद मे एक नई जान पैदा करने की कोशिश करना।
गद्य कोश में इस लेख का योगदान श्री राजीव रंजन उपाध्याय ने दिया है।