हिम्मतमाई / बर्तोल्त ब्रेख़्त / पृष्ठ 1
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समीक्षा लेखिका :सरिता शर्मा
अनुवादक नीलाभ
यह किताब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा २००३ में प्रकाशित की गयी थी। हिम्मत माई ('मदर करेज एंड हेर चिल्ड्रन') युद्ध के खिलाफ भावुकतापूर्ण और सशक्त बयान है। इसे जर्मन कवि और नाटककार बर्तोत ब्रेख्त का महानतम युद्धविरोधी नाटक माना जाता है।
ब्रेख्त ने १९३९ में हिटलर द्वारा पोलैंड पर आक्रमण के जवाब में यह नाटक लिखा था जोकि तीस साल के धर्मयुद्ध के दौरान १६२४ से १६३६ तक के १२ वर्ष तक १२ दृश्यों में फैला हुआ है।
रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट पंथों के बीच चलने वाले युद्धों ने यूरोप की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संरचना को बदल डाला था। ब्रेख्त ने हिटलर की अमानुषिक फासीवादी व्यवस्था को करीब से देखा और समझा था। ब्रेख्त के एपिक थियेटर की धारणा प्राचीन यूनानी एपिक नाटकों से भिन्न है क्योंकि हिम्मतमाई में दर्शकों को अंत में मुख्य पात्र का अनुकरण करने के बजाय उसकी गलतियों पर सोचने की प्रेरणा मिलती है।
इसमें युद्ध की विभीषिका के माध्यम से बताया गया है की भ्रष्ट समय में गुणों को सम्मानित नहीं किया जाता है। कटरीन का मूक होना युद्ध के समय अच्छे और सीधे लोगों को चुप करा दिए जाने का प्रतीक है क्योंकि उसे युद्ध में किसी सैनिक ने ही मुंह में कुछ ठूंसकर गूंगा कर दिया था। ब्रेख्त ने नाटक को राजनीतिक विचारधारा और व्यक्ति तथा समाज के बीच अंतर्संबंध का माध्यम बनाया था। उन पर मार्क्स का गहरा प्रभाव था।
मदर करेज में एक माँ के संघर्ष का मार्मिक वर्णन है कि वह किस तरह अपनी ठेला गाड़ी खींचते हुए युद्ध में व्यावसायिक लाभ कमाती है, जबकि उसके तीनों बच्चे एक-एक करके मारे जाते हैं। नाटक की शुरुआत में हिम्मतमाई युद्ध के मैदान में अपने दो बेटों और गूंगी बेटी कटरीन के साथ ठेला गाड़ी खींचते हुए दिखाई गयी है। उसका नाम अन्ना फायरर्लिंग से हिम्मतमाई कैसे पड़ा यह भी व्यंग्यात्मक है। वह बताती है -
लोग मेरे को हिम्मतमाई बोलते हैं क्योंकि मैं दीवालिया होने से डरती थी, इसलिए बमबारी के बीच पहाड़ी चौकी पार करके चली आई. छकड़े में ५० किलो आटा जो था, फेंकती कैसे। मातृत्व की तरह उसका साहस भी संदेहास्पद है। लड़ाई उस पर पलने वाले लोगों से कीमत वसूलती है। हवलदार हिम्मतमाई के बेटों को फौज में भरती करने के लिए कहता है-
‘मीठा मीठा हप्प, कड़वा कड़वा थू। तेरे ये सांड जंग की कमाई पर मुटाते रहें, पर जंग तुझसे बदले में कुछ न मांगे, अपनी देखभाल आप करे। और नाम है हिम्मत माई? उस जंग से डरती हो जो तुम्हारी रोजी चलाती है.’
जंग के समय बड़ी-बड़ी बातें खोखली लगती हैं। सिपाहियों के बहादुर होने की बात पर हिम्मतमाई कहती है -
जब चारों तरफ बड़े-बड़े गुण दिखाई देने लगें तो समझ लो जरूर दाल में काला है।
हिम्मतमाई के माध्यम से ब्रेख्त ने आम आदमी पर युद्ध के प्रभाव को दिखाया है जो चाहकर भी युद्ध में नफा नहीं कमा पाता और हमेशा घाटे में रहता है। हार हो या जीत, हम मामूली लोगों के लिए चक्की का पाट है। हम लोगों के लिए मलाई तब है जब राजनीतिक दलदल में फंसे हों.’
ब्रेख्त मानते थे कि बड़ा हिस्सा लेने के लिए आपके पास बड़ी कैंची होनी चाहिए।
युद्ध में सभी नैतिक मूल्यों का ह्रास हो जाता है। रसोइया कहता है-
एक तरह से यह आम लड़ाइयों जैसी है। इसमें घूसखोरी, खून खराबा, मारकाट तो चल ही रही है, कभी कभार औरतों की इज्जत लूटना भी शामिल है.’
भारत में चल रहे भ्रष्टाचार और घूस विरोधी आन्दोलन के मद्देनजर यह टिप्पणी और भी सामयिक लगती है-‘घूसखोरी भी भगवान की मेहरबानी की तरह है, उसी का असर है हम गरीब लोगों को जब तक घूस चालू है सजा में छूट मिलती रहेगी और बेकसूर आदमी भी बचने का मौका पा सकेगा.’ फौजियों की लम्पटता पर भी करार व्यंग्य किया गया है -
‘फौजी को साफ सुथरा चेहरा दिखा नहीं कि एक रंडी और बढ़ गयी दुनिया में। हफ़्तों कुछ खाने को मिलता नहीं इनको, फिर जैसे ही लूटपाट करके पेट भरा कि हर लहंगे पर टूट पड़ते हैं. विधवा जवान कुछ नहीं देखते.’
युद्ध पर पलने वाले शांति को आपदा की तरह देखते हैं। हिम्मतमाई कहती है -
‘कम से कम लड़ाई अपने साथ देने वालों का तो पेट भरती है, ’
अपनी जान बचने के लिए हिम्मतमाई को शत्रु सैनिक से झूठ बोलना पड़ता है और अपने बेटे को पहचानने से इनकार कर देती है जिसे मरने के बाद गढ्ढे में फेंक दिया जाता है।
गरीबों के लिए हिम्मत क्या है इस पर भी ब्रेख्त ने हिम्मतमाई के मुंह से मार्मिक बातें कहलवाई हैं -
‘गरीबों के लिए सुबह आँख खोलना भी हिम्मत की बात है या खेत जोतना और वह भी जब लड़ाई चल रही हो। एक दूसरे को काटते हैं, फांसी पर चढ़ाते हैं, इसलिए एक दूसरे से आँख मिलाने के लिए भी उन्हें हिम्मत की जरूरत पड़ती है। राजा महाराजा और पंडे पुजारी को बर्दाश्त करने के लिए भी तो भारी हिम्मत चाहिए क्योंकि यही लोग तो उनका खून चूसते हैं। बाकी धंधों की तुलना में धर्म का कारोबार हर हालत में फलता फूलता रहता है।
रसोइया कहता है - ‘रसोइये को कोई नहीं पूछता क्योंकि खाने को कुछ नहीं। पर धर्म कर्म तो पहले की तरह चालू है, सदाबहार धंधा है’
हिम्मतमाई नाटक के अंत में गूंगी कटरीन गांव वालों को सैनिकों से आगाह करने के लिए नगाड़ा बजाती है। सैनिक उसे गोली मार देता है।’
हिम्मतमाई कहती है -
‘रात में मैंने एक सपना देखा, मैं गाड़ी पर बैठकर नरक पार कर रही हूँ...गोली बारूद बेचती, या सुरंग से गुजर रही हूँ। भूखे लोगों के लिए मिठाई के डिब्बे लेकर।
दोनों बेटों की मौत गूंगी का बलात्कार कर दिए जाने के बाद हिम्मतमाई युद्ध को कोसती है -
‘बर्बाद तो पहले ही हो चुकी बेचारी। रहा सोहन .उसका मुंह मैं कभी नहीं देख पाऊँगी और अर्जुन कहाँ है, यह ऊपर वाला ही जानता है । बज्जर गिरे लड़ाई पर.’