हिसाब बराबर / मनोहर चमोली 'मनु'
दादाजी, पापा और मानी बाज़ार गए। मानी बोली,‘‘पापा। भूख लगी है।’’ पापा बोले,‘‘घर जाकर खाना खाएँगे।’’ उसने पूछा,‘‘घर कब जाएँगे?’’ दादा हँसे। बोले,‘‘अभी तो आए हैं।’’ मानी उदास हो गई। बोली,‘‘तेज भूख लगी है।’’ पापा समझाने लगे,‘‘बाजार का नहीं खाते।’’ मानी ने इधर-उधर देखा। पूछा,‘‘बाजार में बहुत कुछ बिक रहा है।’’ दादा बोले,‘‘बाजार की चीजें बेकार होती हैं!’’ मानी सोचते हुए बोली,‘‘हम बाज़ार घूमने आए हैं?’’
पापा ने दादाजी की ओर देखा। बोले,‘‘मैं एक छोटा कुरकुरे का पैकेट लाता हूँ।’’ मानी ने पूछा,‘‘बड़ा नहीं मिलेगा?’’ दादा बोले,‘‘तुम छोटी हो न।’’ मानी चुप नहीं रही। बोली,‘‘उस छोटी लड़की के हाथों में दो बड़े पैकेट हैं।’’ दादाजी ने सिर पकड़ लिया। कहा,‘‘एक बड़ा पैकेट लाना।’’ मानी बोली,‘‘दो लाना। छुटकी भी खाएगी।’’ पापा ने हाँ में सिर हिलाया। दादाजी बोले,‘‘बस, अब चुप रहना।’’
पापा के हाथ में दो बड़े पैकेट थे। दादाजी बोले,‘‘एक छुटकी का है।’’ मानी बोली,‘‘ठीक है। मेरा मुझे दे दो।’’ पापा बोले,‘‘घर पर ले लेना।’’ मानी ने पूछा,‘‘यहीं दे दो न।’’ अब दादाजी बोले,‘‘घर में आराम से खाना।’’ मानी का गला भर आया। धीरे से बोली,‘‘मुझे घर जाना है।’’ पापा ने पूछा,‘‘अब क्या हुआ?’’ मानी ने दादाजी की ओर देखा। कहा,‘‘कुरकुरा घर में आराम से खाना है न। तो घर जाना है।’’ दादाजी ने एक पैकेट खोला। थोड़े कुरकुरे पापा को दे दिए। कुछ कुरुकुरे अपनी जेब में डाल दिए। फिर पैकेट मानी को दे दिया। कहा,‘‘अब ठीक है?’’ मानी ने कहा,‘‘नहीं।’’ दादाजी ने हैरानी से पूछा,‘‘अब तो कुरकुरे का पैकेट दे दिया। नहीं मतलब?’’ मानी कुरकुरे चबा रही थी। उसकी आँखें बंद थीं। बोली,‘‘छुटकी के पैकेट से भी मैं कुरकुरे लूँगी। आप दोनों मेरे पैकेट से कुरकुरे खा रहे हैं। खा रहे हैं कि नहीं?’’ दादाजी और पापा हँसने लगे।