हिस्टीरिया / सविता पाठक

Gadya Kosh से
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फूला-सुंता नाचने के लिए खड़ी हुईं। आँगन सबकी भीड़ से कस गया। पाछे हटा, पाछे हटा, कहके अरुन की अम्मा ने भीड़ को नियंत्रित किया। बिनय चाचा की बारात विदा हुए अभी मुश्किल से घंटा भर हुआ है। दूल्हे की जीप में गाँव के बाग के दो चक्कर गाँव की बहुओं ने भी लगाए। ड्राइवर साहब ने भौजाइयों से बख्शीश लेने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। बारात विदा करने का अर्थ यहाँ कुछ पल के लिए गाँव भर के मर्दों को विदा करना है। वैसे इसमें खेती-किसानी और भैंस-सानी में खप गए मर्द नहीं आते थे। जैसे कि बाँसू कक्का या रामजोई। जो भी हो इस दिन ही इन्हें अपने मर्द होने का हक मिलता। गाँव में थोड़ी देर के लिए छा जाता है स्त्री राज, मर्दों के ढेरों रूप धरे स्त्रियाँ। शीला बुआ ने तो हद ही कर दी। कपड़े का शिश्न बनाकर औरतों के पीछे दौड़ने लगीं। माया बुआ तो सबकी उस्ताद, ऐसे मौकों पर वह तो भाई-बाप किसी को नहीं छोड़तीं। दमा मार ल भइया-बहिन लागी। हर अंतरा ऐसा कि पोर्नोग्राफी की कोई किताब शरमा जाए। अर्चना को अंदाजा था इन सबका। बचपन से यह लीला देखती आई है। बारात जाने के बाद वह चुपचाप चादर ओढ़ कर लेट गई। लेकिन फूला-सुंता का नाम सुनकर वह भी उठ बैठी। न-न फूला-सुंता बनारस से नहीं थीं... शुक्र है वे अब नहीं आतीं वैसे भी अब जमाना काफी बदल गया है।

फूला-सुंता दो सहेलियों का नाम है। कहते हैं चार गाँव लाँघ के यह शादी-ब्याह में शामिल हो ही जाती हैं। अर्चना ने इनके बारे में बहुत कुछ सुना था। बहुत कुछ यानी, कुछ भी नहीं। मसलन वे कितने तक पढ़ी हैं, कैसे वे घर-बार से विलग यूँ शादी-ब्याह में नाचने गाने लगीं। लेकिन उसने वह सुन रखा था जो हर सूचना पर भारी पड़ता था। वे बहुत फेमस थीं। फेमस मतलब उनके बारे में सबको पता है। अर्चना ने तय किया था कि वह फेमस लोगों से कोई मतलब नहीं रखेगी। लेकिन फूला-सुंता का नाच देखने से कौन खुद को रोक सकता है। उसने सुन रखा था। वे जब नाचती हैं तो नागिन की तरह लोट जाती हैं। पाँव पटकती हैं तो महुआ झरने लगता है। उनके गीत कलमी आम की तरह खटमिट्ठे हैं।

फूला-सुंता ने दो जोड़ी घुँघरुओं की छागल एक-एक पाँव में बाँध लिया। मानों दोनों के अलग-अलग पाँव न हों। अपने संयमित स्वभाव के लिए मशहूर दुल्हिन अम्मा ने चश्मा ठीक किया और आगे आकर खड़ी हो गईं। अर्चना बस फूला-सुंता को निहार रही थी। फूला खूब गोरी, आँखों में काजल, हल्की सी धानी साड़ी पहने और सुंता सँवराई सी हल्की ललछहूँ (लाल रंग) साड़ी में थी। कान में दोनों ने एक तरह का बड़ा सा पीतल का बाला पहना था। सुंता पनवाड़ी भोला की लड़की थी। और फूला पंडित शिवराम प्रसाद तिवारी की बेटी। गाँव की प्राइमरी पाठशाला में दोनों ने एक साथ पढ़ाई की थी। कहते हैं यहीं के पोखर में आधे खड़े होकर उन्होंने एक पान आधा-आधा खाया था। बस तब से वे सखी हैं। सचमुच उन्होंने कभी एक-दूसरे का नाम न लिया। एक-दूसरे को सखी ही कहा। प्राइमरी स्कूल के गाने की प्रतियोगिता में वे हमेशा अव्वल आती थीं। पंडित जी यानी स्कूल के हेड मास्टर साहब ने पुरस्कार में उन्हें वह दिया जिसने उन्हें सारी उमर के लिए फेमस कर दिया। मासूम बच्चियों को ईनाम में पेन की एक रिफिल दी और बदले में कुकृत्यों से स्कूल की दीवारों पर लिखे सुंदर वाक्यों पर कालिख पोत दी।

लौंडा बदनाम हुआ नसीमन तेरे लिए से लेकर तेरी बजती ढोलकिया देखकर नाचन चली आई ओ बालमा। महफिल जम चुकी थी। फिर उन्होंने छेड़ा धोबिया का निर्गुन। उपरा से मलमल के तन धोया, तनि भितरौ से धोय नावा तब जानी। असंख्य गीत। घुँघरू की आवाज और पाँव की जमीन से ऐसी रगड़ कि पूरे गाँव में घुँघरू की आवाज गूँज उठी। फूला-सुंता तो चली गईं। लेकिन वो अर्चना में थोड़ा सा बस गईं। उस दिन से ठीक जैसे बचपन में ट्यूबवेल की पक-पक, भक-भक उसको पानी की तरफ खींच ले जाती थी, वैसे ही घुँघरू की आवाज उसको खींचने लगी। जी करता पाँव में छत्तीस पीतल के घुँघरुओं की डोरी बाँधकर फूला-सुंता की तरह पाँव जमीन पर थरथराए, देखें तो सही उसके पाँवों की थिरकन से तलैया कहीं काँपती है या नहीं।

तलैया तो नहीं काँपी। काँपनी भी नहीं थी।

बचपन में उसकी ताई यानी गाँव भर की मौसी ने एक बार समझाया था। सरस्वती चूड़ी की दुश्मन होती हैं। ताई अपने जमाने की तीसरी पास थी। बड़ी सुंदर बारीक सी लिखावट थी उनकी। कहने लगीं, बाबू स्कूल भेजय के बहुत कोसिस किहेन, हमहिंन नाय गए। लड़कैंया रही। स्कूल ग होइत त आज काहें के दुसरे के मुँह जोहित। फिर झट अपना मुँह आँचल से पोंछ लेतीं। मानों बेटे बहू की उपेक्षा जग जाहिर न करना चाहती हों। होता यूँ था कि शादी-ब्याह में मनहारिन अम्मा की चूड़ियों से भरी टोकरी अर्चना को बहुत आकर्षित करती थी। हरी-नीली-लाल काँच की चूड़ियाँ, उस पर कहीं-कहीं सुनहरे बूटे। उनके आते ही बच्चे घेर कर बैठ जाते। काँच की चूड़ियों की तरह मनहारिन अम्मा की बातें भी खूब खनकदार थीं। रंग-बिरंगी डिब्बियों का खजाना और कपड़े की तह के नीचे और कीमती खजाना। अर्चना को उनकी दौरी इस दुनिया की सबसे रहस्यमयी दुनिया लगती। पर उम्र बढ़ने के साथ उसने इस दौरी को भी देखना लगभग बंद कर दिया था। उसे इतना समझ आ गया था कि विद्या माता के सहारे ही वह अच्छी जिंदगी जी सकती है। वैसे तो यह दौरी सभी औरतों के लिए कौतुक भरा खजाना ही था। चूड़ी पहननी हो या न पहननी हो, लेकिन देखने में क्या जाता है। बचपन में तो लड़के भी दौरी घेरकर बैठ जाते थे। शुरू-शुरू में उनको एकाध काली चूड़ी पहनाकर बहला दिया जाता था। और बाद में मर्द चूड़ी नहीं पहनते, कहकर फटकारा जाता। इन्हीं सबके बीच मौसी ने कहा था जो लड़कियाँ साज-श्रृंगार में लगी रहती हैं, उनके पास विद्या माता नहीं आती। विद्या माता को चूड़ी से सौतिया डाह है। उस दिन से अर्चना ने चूड़ी को यूँ देखा जैसे वह विद्या माता का आशीर्वाद छीनने आई हो। जब कभी उसने अपने हाथ में चूड़ियाँ डालीं। उसकी खनक खुशी और भय की अजीब पहेली में बदल गई। और इन चूड़ियों के रहस्य का सिरा उसे कभी न मिला।

नींद अपने उफान पर थी। अचानक उसे लगा कि वह जोर से बिस्तर पर से गिरी। उसकी चीख निकल गई। नाउन ने कसकर उसको दबाया। पूरे मंडप में खुसुर-पुसुर शुरू हो गई। अर्चना के हाथ चूड़ियों से भरे थे और पाँव बारीक घुँघरुओं के छागल से। लेकिन न पाँव में नाचने की ताकत थी और न ही हाथों में खनकने की। अभी शाम को ही तो बारात आई थी उसकी। दसवीं कक्षा में प्रथम आने उपहार था यह विवाह। विद्या माता गाँव के सरपत में शायद रास्ता भटक गईं थीं। कभी रंग-बिरंगे कपड़े उसको ललचाते तो कभी डराते। देर रात तक महिलाएँ इकट्ठा होकर नाचती-गाती। इन सबके बीच वे अचानक एक करुण राग छेड़ देतीं। जिससे हर चीज उदासी में भर जाती। कस रात अइले हो रामा, रेंगनी के हो कँटवा। (कैसी रात आई है ईश्वर, जैसे रेंगनी का काँटा चुभ रहा हो) आजु तो अइहैं ओ बेटी जुलमी मलहवा, गंगा बीच जलिया हो डरिहैं, होइ जाबू सपनवा। दिन में चावल चुनते हुए भी वही करुण राग। सदियों से यह करुण राग गाया जा रहा था। अर्चना को पक्का यकीन था कि चावल के दानों में भी उदासी भर गई है। बारात आइ ग मचा। उसका मन फिर से बाजे-गाजे की धुन में खो गया। वह भी सब की तरह छत पर गई। इतनी रोशनी, गाँव की अंधियारी रात में। ऐसा उत्सव। दूल्हा रथ से आया है। (अर्चना ने भी कभी रथ नहीं देखा था।) लेकिन यह तो उसी की बारात है।

हिस्टीरिया दरअसल सेक्स की बीमारी है। मास्टर चंद्रभान ने सबकी जानकारी में इजाफा किया। वह स्वयं महिलाओं की हर समस्या को हिस्टीरिया ही समझते थे। और स्वयं को इस इलाज में पारंगत। अर्चना के दाँत बैठ गए थे, शरीर अकड़ता जा रहा था। अब नाउन के बस में उसको दबाना न रहा। मंडप में बैठे सब लोग उसको पकड़ने टूट पड़े। दो-दो लोगों ने मिलकर उसके पाँव पकड़े। लेकिन उसके शरीर में अदृश्य ताकत भर गई। ऐसा लग रहा था जैसे कोई शेरनी कमजोर पिंजड़े को तोड़ देगी। हूँ-हूँ की हुंकार के साथ अर्चना चिल्ला रही थी। तूने मेरा मंदिर क्यों नहीं बनवाया। अम्मा-बाबू समेत सब घर के लोग पुरानी मनौतियाँ याद करके देवी को दुहाई दे रहे थे। बारात उठ चुकी थी। मंडप के बीचोंबीच बाँधे गए काठ के सुग्गे को भी काठ मार गया। उसे भी किसी ने नहीं लूटा। अर्चना जोर-जोर से चीख रही थी। शब्द और वाक्य सिर्फ बड़बड़ाहट ही लग रहे थे। फिर वह जोर-जोर से रोने लगी। रोते-रोते वह पुरानी अर्चना में तब्दील हो गई। पीली साड़ी में लिपटी इस झुराई से लड़की में जैसे कोई जान न थी। कस के पकड़ने वालों को भी अर्चना के कमजोर हाथ-पाँव पर तरस आ गया। बहरहाल बाजार से आए डॉक्टर साहब ने इंजेक्शन लगाया। और अर्चना सो गई। उसे गहरी नींद आ गई।

अगली सुबह पूरे घर-गाँव के लिए मनहूस थी। इससे पहले गाँव में कोई बारात यूँ नहीं लौटी थी। लेकिन अर्चना के लिए कुछ भी ऐसा नहीं था। उसे तो एक लाइसेंस मिल गया था। जब तब मुस्कराने का। सनई के बीजों को बाँधकर नाचने लगती। देवी का प्रकोप जानकर घरवालों ने मंदिर बनवाया। नाटक समझकर छोटे चाचा ने बाँस की कइन से पीटा। लेकिन उस पर कोई असर नहीं हुआ।

दिन बीते, अर्चना भी थोड़ा सँभलने लगी। अम्मा ने समझाया। बिटिया रामराजी फुआ ससुरे से लउट आइ रहिन, देखा आज उनकर हालत। दिन भर गोबर पाथत बीतत बा। यह बात अर्चना के लिए नई नहीं। गाँव की हर लड़की को रामराजी फुआ का उदाहरण दिया जाता था। पता नहीं सच क्या है। फुआ आज से 35 साल पहले क्यों लौटी रहीं होंगी। कहते हैं ससुराल से रोते-रोते अपने बाबू के एक्का के पीछे-पीछे भाग आई थीं। उसके बाद उन्हें कोई लेने नहीं आया। जहाँ गाय-गोरू बँधे थे, वहीं एक कोठरी में रहती हैं। अर्चना को तो वह एकदम खड़ूस लगती हैं। उनके घर वाले चाहे उनको एक रोटी गत से न दें लेकिन मजाल कोई एक खर भी उस घर का उठा ले। पहरेदार, हम उनके नाहे के होइत तो कुल बेच देइत। अर्चना खिलखिलाकर माँ को चिढ़ाती। अम्मा जब अर्चना को समझा न पातीं तो आप ही बड़बड़ाने लगतीं। कुल दोस हमरै अहै। न स्कूलै भेजे होइत, न इ दिन देखित। वैसे अम्मा अपना दोष जिसे मानती थीं। उसी को फिर-फिर करतीं। 11वीं में नाम लिखाने का पैसा भी उन्होंने ही दिया। और बाद में बाबू को भी समझाया। देखा एक बिटिया अहै, दुइ न चार, ऐसे मन मार के राखब नाय नीक लगतै। अर्चना 11वीं-12वीं गाँव के इंटर कॉलेज से पढ़ गई। शादी का दबाव अभी ज्यादा नहीं बना। रिश्तेदारी को भी पुराना किस्सा भुलवाने के लिए वक्त देना था। 12वीं के इम्तहान के बाद मनोज बुआ उसे कानपुर लिवा लाईं। शऊर गुन सिखाने के लिए।

समय बहता पानी है। ठहरता ही नहीं। हर-हर करता द्रुत जल सब बहा ले जाता है। बड़ी-बड़ी चट्टानें उसका रास्ता रोककर खड़ी हो जाएँ, या तो वह उसे तोड़ देगा, या ठीक बगल से उसे धता बताते हुए निकल देगा। पत्थर कितना भी अड़ा रहे उसका रूप रंग तो बदलेगा ही। जल की कितनी लहरें गुजरीं, सब आपबीती उस पर खिंच ही जाएगी। पूरी धरती पर बिखरे तमाम आकार-प्रकार के पत्थरों को तो इन्हीं थपेड़ों ने गढ़ा है।

कानपुर एक नई दुनिया थी। चमकती रोशनी और ढेर सारे रिक्शों की ट्रिन-ट्रिन। बचपन से ही अर्चना को बहुत लुभाता था यह सब कुछ। यहाँ घर की जरूरत और मनोज बुआ के खुले स्वभाव दोनों ने अर्चना की मदद की। उन दिनों दूध का पैकेट लेने अमूल के बूथ तक जाना पड़ता था। दूध लाने के साथ-साथ उसने सड़कें पहचाननी शुरू की। सब्जी वालों से मोल-भाव करना शुरू किया। और सबसे मजेदार बात कि किराए पर साइकिल लेकर चलाना सीखा।

मनोज बुआ उसकी सगी बुआ नहीं थी। बाबू के रिश्ते में आती थीं। शायद बाबू की बुआ की बेटी। कई बरस पहले उनका परिवार कानपुर आ गया था। दादा लाल इमली में काम करते थे। यहीं उन्होंने अपने बेटे-बेटियों का विवाह किया। यह विवाह कुनबे की निगाह में बहुत चढ़ा, न जंत्री देखी न पत्रा, गोत्र भी समझ से परे। जो भी हो बाबू की बुआ के बड़े अहसान थे अर्चना के घर पर। जमींदारी टूटते समय अर्चना के बाबा ने कई बीघे जमीन अपनी बहन के नाम की थी। कहाँ इतने ईमानदार लोग होते हैं। बुआ ने बाद में सब जमीन वापस कर दी। शीशम वाले बाग को छोड़कर। अब इतना तो होता रहता है। समरथ को नहिं दोष गुंसाईं। इहै केउ गाँव में किहे होत तो देखतिउ। साहेब बहू आज भी तंज करने से बाज न आती। लेकिन मनोज बुआ जैसे झर-झर झरना। हर शादी-ब्याह में गाँव में जरूर आती। बुआ के पति उर्फ विनय शर्मा अपने कर्म में भी विनयशील थे। मुहल्ले के मुहल्ले के सज्जन लोग बेकार हो गए, ताश की मंडलियाँ बनी, जुए के अड्डे सजे, शराब के ठेकों की ऐश हो गई, लेकिन शर्मा जी इन सब में कभी न शामिल हुए। ऊपर वाले की कृपा कहें या चुन्नीगंज हाते की बनावट, इस हाते में ज्यादातर दलित लोग रहते थे। सरकार ने कामगारों को बहुत पहले यह जमीन लीज पर दी थी। कंपनी बंद होने के कुछ साल बाद लीज का वक्त भी पूरा हो गया था। घर खाली करने का आदेश मिला। शर्मा जी ने यहाँ बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पूरे मोहल्ले को इकट्ठा किया। वकील किया और केस जीत गए। जो भी हो इस तबाही और आबाद होने की दास्तान में उनकी किराने की दुकान चल निकली। मनोज बुआ भी अपने नाम के हिसाब से थोड़ी मर्दाना थीं। लड़ाई, मार-धार, रडहौ-बेटखहो में जिंदाबाद। बस उनका एक दुख और एक ही दुखती रग थी कि कोई औलाद न हुई। अर्चना मायके आने पर उनका बड़ा आदर-भाव करती थी। गाँव के पोखर के किनारे पर बहुत सुंदर मेहँदी की बाड़ थी। उसकी कुछ एक डाल तो पोखरे के पानी को भी छूती थी। अर्चना घंटों मेहँदी के पत्ते सुरुकती, कई जतन करके सिलबट्टे पर मेहँदी पीसती और अपने सिंदूरी हाथों से बुआ को लगाने बैठ जाती। यह उसका सबसे पसंदीदा शौक था। वैसे उसका यह शौक छोटकी चाची से आया था। छोटकी चाची यानी अंजू, बहुत ही कच्ची उम्र में चच्चा से ब्याह हो गया था उनका। चाचा सीआरपीएफ में जवान थे। तब चाची 13 साल की थी। चाचा के साथ उन्होंने कई शहर भी देखे थे। वो बताती हैं, तुम्हारे चाचा परेड में जाते थे, बाहर से ताला लगाकर, हम आँगन में अमिया के पेड़ पर चढ़कर दूर से परेड देखते थे। और पत्तों से सैकड़ों ताला बनाते थे। कोटा, बांदीकुईं, जैसे शहर और कई राजस्थानी गाने चाची को बखूबी याद थे। चूड़ा तो मेरी जान, चूड़ा तो हाथी दाँत को।

12 साल पहले चाची को चाचा गाँव छोड़कर गए थे। सूरज तब गोदी में था। कई साल तो उन्होंने अपना पता नहीं दिया। देवी-देवता, शहर-कस्बा सब ठिकाने चाची नें ढूँढ़ा। कोई पता नहीं। अर्चना ने चाची के हर दिन देखे थे। छह-सात साल पहले पता चला कि चाचा पास के लखनऊ में किसी नर्स के साथ रहते हैं। जिस औरत का पति मर गया हो, वह बच्चों को पाल-पोसकर सती हो रही हो समाज उसकी इज्जत करता है। लेकिन जिसका आदमी छोड़कर भाग गया हो, उस औरत में ठूँठ भी खोट ढूँढ़ता है। बरसों पहले विधवा हुई जगमौसी उनको ताना मारने से नहीं चूकती। और चाची विधवाओं के विभिन्न प्रकार बताने से। चाची भी कम नहीं थी। सुना-सुनाकर कहतीं, आस राँड़, पास राँड़, राँड़, रड़क्का, रड़बस्सा। लगावा बिटिया मेहँदी। कई बार तो दोनों हँस-हँसकर एक दूसरे को तंज करती। जैसे अपनी ही हालत का मजा ले रही हों।

मनोज बुआ के आने से ऐसे लगता कि जैसे बड़के तालाब का पीपल तक झूम उठा है। का भौजी का बनवत अहा। कहके किसी के भी घर पहुँच जाती। टोला-टोली, आउब-जाब यानी आना-जाना नहीं में ज्यादा नहीं पड़ती। उत्तरटोला हो या दक्खिन टोला सब में मस्त। कटहर फरेला कचनार छोटी ननदी, आवा चली बेच आई गाजीपुर बाजार छोटी ननदी। गा-गा के वह और गुलबिया खूब नाचती। एक पल को यूँ लगता कि यह बभनौटी, चमरौटी, ठकुरान इन दोनों ने तो नहीं ही बनाया है। भौजी-बिट्टी का अपना ही रिश्ता था दोनों में। वैसे अर्चना के साथ प्राइमरी स्कूल में सभी जात-बिरादर के लोग पढ़े थे। लेकिन बड़े होने के बाद दूसरे टोले में बुआ के साथ ही जा पाई थी। का हो तोहरे लगे गुड़-चीनी नाय बा, कहकर बुआ मजे से खान-पान शुरू कर देती। अर्चना को बुआ ही एक सहारा लगती। उसे लगता कि शादी-ब्याह के इस बवंडर से बुआ उसको बचा लेंगी। यूँ तो अर्चना दिन में भी सपने देखती थी। जैसे बुआ ने बाबू को मना लिया है। वह उसे कानपुर ले गई हैं। वह नौकरी करने लगी है। गाँव लौटी है। गाँव के लोग उसका बखान कर रहे हैं। यह सपना इतना साफ-सुथरा था कि उसे लोगों के डायलाग भी सुनाई पड़ते। लेकिन फिर अगले पल कच्चे सपने में पानी की कुछ बूँदें पड़ती। और इस झाग में जरा सा सच मिलता। लेकिन इतना सा सच कि कानपुर के गर्ल्स डिग्री कालेज में उसका फर्स्ट ईयर में एडमीशन हो गया है, उसे फिर सपने की दुनिया में ले जाता है। कानपुर में घर का काम उसे कुछ लगता ही नहीं। बीच-बीच में फूफा की दुकान भी देखती। इस बीच उसको तीन बार दौरे पड़े। पहली बार घर जाने के नाम पर। दो बार घर जाकर। लेकिन बहुत दिनों तक यह सब कुछ यूँ नहीं चला। बीए सेकेंड ईयर का इम्तहान खत्म होने के बाद गाँव से बुलावा आ गया। दूसरे की लड़की के मामले में मनोज बुआ भी कुछ नहीं कर सकती थीं। अधूरी पढाई, अधूरे सपने के साथ अर्चना का ब्याह हो गया। शादी के दौरान दौरा पड़ा या नहीं वह खुद भी नहीं जानती। अबकी बार तो उसने सबका मुखर विरोध किया। जो न कहना था वह सब कहा। सबके चरित्तर की बखिया उधेड़ दी। खूब रोई-चिल्लाई। और तो और पुलिस की भी धमकी दे दी। वैसे इस धमकी के बाद वह खुद ही डर गई। पुलिस वाले तो बदनामी करेंगे। उलटे घर वालों से पैसा भी लेंगे। सोचकर वह और रोने लगी। आँगन में शादी का बाँस गड़ा। सात पुश्तों के पितरों को जगाया जाने लगा। गाँव भर की सुहागिनें इकट्ठा थीं।

तोहरी ओखरी बाटय अनारादेई,

शिव परसाद राम का मूसर,

तोहरे हो अचरे नौ मन चाउर होई,

धान जे होई त राजा का मूसर,

रानी के ओखर, तोहरे हो अचरे नौ मन चाउर होई।

पुरखे पुरनिया जाग गए। पुश्तों के मूसर और ओखर परिवार के शुभ काम में इकट्ठा हो गए। माई के गीत की तरह बँसवा कटावै चले राजा दशरथ, गड़ि गा उँगरिया खपीच। अर्चना के मन में तो खपीच यानी बाँस की गहरी फाँस गड़ गई थी। खैर उसको दौरा नहीं पड़ा। गाँव वालों के मुताबिक मंदिर बन गया था इसलिए।

मास्टर चंद्रभान ने कहा देखिए हिस्टीरिया एक सेक्स से जुड़ी बीमारी है। अब लड़की बिलकुल ठीक हो जाएगी। विदाई के समय गले मिलते समय वह रोई नहीं, उसकी आँखें एकदम सूख गई थी। कार में वह कब बैठी। बगल में गाँठ जोड़े कौन बैठा था और यह कौन सा बच्चा बीच में बिठाया गया है, उसने यह भी नहीं सोचा। वह झीने परदे से चुपचाप खिड़की की ओर देख रही थी। अमराही गई, मंदिर गया, समरू बाबा का थान गया। लंबी सड़क, सरपत, ऊँचा-नीचा रास्ता, दूर पतली सी नदी, झुरझुर हवा। अर्चना को नींद आ गई। एक ऐसी नींद जिसमें सारे दुख कहीं खो गए। उसका मुँह जरा सा खुल गया और बचपन की तरह लार की एक पतली धार निकलने लगी।

कहते हैं कि आग को ज्यादा खँगालो तो आग बुझ जाती है। यूँ तो वह चुपचाप भी सुलगती रह सकती है। ससुराल में एक पड़ोसी के यहाँ नई बहू के आने पर गाँव में फिर वही नृत्य संगीत का कार्यक्रम आयोजित हुआ। तभी वहाँ पर कुछ ऐसा घटा कि अर्चना को बरबस हँसी आ गई। गाँव की एक दूसरी बहू गाना बजने के साथ नाचने लगी। बहुत नाची। इतना कि बजाने वालों के हाथ भर उठे। बजाने वालों के साथ आया नचनिया किनारे खड़ा हो गया। बहू नाचती गई, नाचती गई। और नाचते-नाचते गिर गई। सबने पानी पिलाया, हवा की तो पता चला कि उसे नाचते-नाचते तान आ गया था। और यहीं से अर्चना की संजू से दोस्ती हुई।

खग ही जाने खग की भाषा। वैसे तो अर्चना ने यह जुमला कई बार सुना था। लेकिन कभी भी इसका सीधा अर्थ नहीं समझी। अबकी बार उसने उसे सही अर्थों में समझा था।

एक ही हालात में पले-बढ़े लोग कैसे अलग-अलग बन जाते हैं, संजना यानी संजू की जिंदगी अर्चना से अलग नहीं थी लेकिन वह अर्चना से अलग थी। अर्चना आधी बातें मन में करती, आधी बाहर। संजना के भीतर खामोश दीवारों का जाल नहीं था। वह सोचती भी बोल-बोलकर थी। कूकर, चूल्हा, चलनी, छलनी सबसे बातें करने वाली संजना का विवाह ऐसे लड़के से हुआ जो दस बार बोलने पर एक बार हुंकारी भरता था। संजना की माँ की मृत्यु हो चुकी थी। पिता और तीन छोटे भाइयों के साथ मुंबई के कांदीवली की चाल में बड़ी हुई थी। कांदीवली का ठाकुर तबेला था तो उसके गाँव जैसा ही लेकिन था तो मुंबई में। बोली-भाषा, चाल-ढाल सबमें संजना थोड़ी मराठन हो गई थी। उन्हीं की तरह आँख और हाथ नचा-नचा कर बोलती थी। आजकल की लड़कियाँ ऐसे आँख नचाय-नचाय बोलतथिन कि बनारस क पतुरियन भी फेल हो जाएँ, उसकी ताई ने डंक ने मारा था। वह भी उलटा डसने से नहीं चूकी। तबै बड़का बाबू मुनीमी करत-करत कुल ओनहन के गोड़े धइ आएन। जहर चढ़ा। ताई ने खूब सरापा। माई खाइ लै ग बा। जहाँ जैइहैं उहौं सत्यानाश होइ जाए। वैसे संजना को खुद भी यही लगता था कि जहाँ जाएगी वहाँ सत्यानाश हो जाएगा। बिना माँ की बेटी शहर गाँव का सब सुख देख चुकी थी।

विवाह बंधन है या मुक्ति यह बहस कहीं और होगी। संजना को तो वह अपने और अपने परिवार के दुखों को कम करने की दवा ही दिखता। कहीं न कहीं उसे भी यह अहसास था कि वह बोझ है। वैसे इस बोझ को हलका करने के लिए उसने क्या-क्या नहीं किया। कांदीवली की चाल में दिन-दिन भर बैठकर पत्ते पर बिंदियाँ चिपकाई, बारीक मनकों की माला गूँथी, लेकिन वक्त के साथ बोझ होने का अहसास बढ़ता ही गया।

कहते हैं पैसा पैसे को खींचता है, तो क्या दुख भी दुख को खींचता है। जरूर ऐसा ही होगा। संजना ने पति की आवाज के साथ एक गहरी हकलाहट सुनी। ई ई ई... का.. अअहै। दुलहा सज्जन है। बोलता नहीं का मतलब अर्चना को समझ आ गया। उसका पति बहुत ज्यादा हकलाता था। तुतरू बउ थी संजना।

विवाह के सात भँवर औरत को अपने घर से कितना दूर कर देते हैं। कहते हैं संजना चौथी में ही अपने मायके लौट गई थी। लेकिन दो चमकीली साड़ियों के साथ अबकी जो वह विदा होकर आई, वापस नहीं गई।

सृष्टि के संबंध हर आदमी औरत में होते हैं। कभी दुलहिन अम्मा ने किसी क्षण अर्चना से कहा था। उस दिन जब ठाकुर चंद्रपाल सिंह अपनी पत्नी को मारते-मारते उसके गाँव तक खदेड़ आए थे और उनकी पत्नी घर की कोठरी में छिप गई थीं। तब भी अर्चना के मन में यह बात कौंधी थी। और यह बात उम्र और अनुभव के साथ बड़ी होती गई। रिपुन बउ जिसके मसूड़े पायरिया से ग्रस्त होकर एक गंदी भभक भरी दुर्गंध छोड़ते थे, क्या उसके पति का भी उसके साथ सृष्टि का संबंध होगा और खुद मास्टर चंद्रभान मिश्र फ्रेंची पहनकर बाल में खिजाब लगाए, दूसरी औरतों के उन्नत उरोज देखते थे, क्या उनकी पत्नी से भी उनका सृष्टि का संबंध होगा। दुलहिन अम्मा ने शायद उसको कोई ऐसी गूढ़ बात बताई थी। जिससे अर्चना कि दुनिया हमेशा के लिए गीली हो गई थी। कोई भी औरत हो सृष्टि के संबंध तो बन ही जाते हैं। जैसे-जैसे उसकी समझ बढ़ी, उसकी उँगलियों से सरसों के फूलों पर भरा मखमली पाउडर झर गया और तब से सृष्टि के संबंध के नाम के साथ ही उसके होंठों पर एक क्रूर मुस्कराहट आ जाती। ससुराल की पहली रात इस संबंध की पुष्टि थी। वह शरीर और आत्मा दोनों से इस संबंध के खिलाफ खड़ी थी। दोनों को बहुत चोट लगी। जैसे-जैसे दिन बीता यह चोट गहराती गई।

पट्टी प्रतापगढ़ का ठहरा सा गाँव रानीपुर। बँसवारी, पोखर, अमराही और दूर-दूर खेत से घिरा था। अर्चना ने कभी दिन के उजाले में यह गाँव नहीं देखा। पोखर के किनारे खड़ा विशाल पीपल का पेड़। रात के अँधेरे में उसको कभी भुतहा नहीं लगा। हमेशा उसको अपने गाँव खींचकर ले जाता। इस पेड़ से उसको राग था। ससुराल के बाकी लोगों से उसने एक ऐसा संबंध बनाया था जो राग-विराग से कोसों दूर था। अच्छी सुघड़ बहू है, जाओ तो पीढ़ा-पानी करती है। लेकिन...

कितने दिनों बाद अर्चना को सचमुच प्रसन्नता हुई थी जब संजना को बैंड की आवाज पर तान आ गया था।

अर्चना शादी के एक महीने बाद मायके आई। निर्झर अर्चना किसी खामोश पोखरे की तरह हो गई थी। लोगों ने खोदा-विनोदा कि कहीं से इस खामोशी का सुराग लगे। लेकिन हाथ कुछ न आया। अम्मा ने सुझाया कि कुछ दिन अर्चना को कानपुर भेज दो मन बहल जाएगा।

माँ-बाप भी अजीब होते हैं। जिस बच्चे को कैसे-कैसे जिलाते हैं, जिसकी एक किलकारी पर सातों जहान लुटाते हैं वही अपने संस्कारों के चलते अपने बच्चे को सबसे ज्यादा रुलाते हैं। अर्चना छोटी थी तो माँ ने ही पढ़ने-लिखने की ओर प्रेरित किया था। बाबू गाँव भर से कहते नहीं थकते थे कि अर्चना को 40 तक पहाड़ा याद है। लेकिन बचपन क्या गया, पिता का प्यार कोसों दूर चला गया। उसकी पसंद की एक फ्राक दिलाने के लिए बाबू दुकान-दुकान छान मारते थे। लेकिन जब वह सचमुच अपनी पसंद-नापसंद कहने लगी तो उसे यूँ देखते जैसे वह उनकी जनम की दुश्मन हो। अर्चना को तो बाबू ने पाला था। और बाबू को उनके समाज के नेत-नियम ने। गाँव-समाज के अनकहे नेक-नियम उनके रोएँ-रोएँ में बसे थे। वे पत्थर की लकीर थे। और अर्चना के आँसू पानी। लेकिन कोई यूँ भी पत्थर नहीं होता। कहते हैं आदमी अपने बच्चे से हार जाता है। बाबू हार रहे थे। उन्होंने अर्चना का बीए थर्ड ईयर का फार्म खुद ही जाकर भरा था कानपुर में। इम्तहान का समय आने वाला था कि ससुराल से बुलावा आ गया। अर्चना एक बार फिर से सन्न थी। उसे उम्मीद थी कि घर वाले उसे विदा नहीं करेंगे। आखिर उसका इम्तहान है। लेकिन वे सब अपनी मजबूरी जता रहे थे। अर्चना के ससुर उसको लेने आए। अम्मा लोक-लाज की दुहाई दे रही थीं। और इन सबके बीच उसका सूटकेस तैयार कर दिया गया। तभी अर्चना के जी में न जाने क्या आया, उसने चाची के घर पर अपने ससुर से सीधे बात करने की सोची। वो पिता जी हम आगे पढ़ना चाहते हैं, हमारा फाइनल इयर का इम्तहान है। आपका बड़ा अहसान होगा। ससुर साहब ने सिर्फ हुंकारी भरी। अर्चना ने इतनी सी बात करने के लिए सारे देवी-देवताओं से ताकत माँगी थी। लेकिन ग्रह-नक्षत्र सब उलटे हो गए। सुबह पूरे घर में सुगबुगाहट शुरू हो गई। छोटकी चाची उसको साड़ी पहनाने आई। विदाई होना तय था। ससुर साहब बड़े नाराज थे। यह सब हमारे यहाँ का कल्चर नहीं है। आपने बहुत मन बढ़ाया है। अर्चना अड़ गई थी कि वह नहीं जाएगी। पहले तो औरतों ने समझाया। फिर एक-एक करके घर के पुरुषों ने जिम्मा लिया। साम-दाम, दंड-भेद, सब उपाय आज बौने पड़े। इसी बीच उसके ससुर आँगन में आ गए। यह नाटक बंद करो, यदि आज विदाई नहीं हुई तो इसको यहीं रखो। यह सब इज्जतदार लड़कियों के लच्क्षण नहीं है। हाँ हम बदमाश हई, न जाब। अर्चना बोलते-बोलते विकराल होने लगी। उसका शरीर ऐंठने लगा। और मुँह से फुफकार के साथ झाग निकलने लगी। उसकी आवाज पूरे गाँव में गूँज रही थी। ठकुरान, बभनौटी, चमरौटी, सब में। ताल-तलैया हिल गए। शादी के सगुन वाला आँगन का बाँस काँपने लगा। सुरसत्ती देई, अनारादेई, सहित पुरखों की आत्मा चिंहुक गई। वे काँपने लगीं। आँचर से चाउर झर गया। पूरे परिवार में साहस नहीं था कि कोई कुछ बोलता, ससुर साहब वापस लौट गए।

कहते हैं इस बात को बीते बीस बरस हो गए। अब यहाँ लड़कियाँ साइकिल से स्कूल जाती हैं और यहाँ अब यदि कोई लड़की ना कहती है तो बारात वापस लौट जाती है। हिस्टीरिया फैल चुका है। यह महिलाओं में सेक्स से जुड़ी बीमारी है। अब तो यह बेहद गंभीर और लाइलाज बीमारी हो गई है। मास्टर चंद्रभान रोज बड़बड़ाते हैं।