हीरामन / पंकज सुबीर

Gadya Kosh से
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मैना कि बारात थोड़ी देर में ही ड्योढ़ी पर लग जाएगी, हवेली में चारों तरफ़ विवाह की अफ़रा-तफ़री मची हुई है। कोई इधर से बताशों का थाल उठाए जा रहा है, तो कोई उधर से हार-फूल की टोकरी उठाए चला आ रहा है। घर की महिलाऐं भी उतनी ही व्यस्त हैं। जो शृंगार कर चुकी हैं वे व्यस्त दिखने के लिए व्यर्थ में ही कभी इस कमरे में घुस जाती हैं, तो कभी उस कमरे में घुस जाती हैं। उनकी स्थिति तो और ज़्यादा ख़राब है, जिनका शृंगार अभी पूरा नहीं हो पाया है, पता चल रहा है इधर से एक महिला चंडी की तरह पूरे बाल खोले, एक हाथ में गजरा और दूसरे में दर्पण लिए चली जा रही है, इस सोच में कि अगर चंडी की तरह उसके भी चार हाथ होते तो आज उसे कितनी आसानी होती। उधर दूसरी महिला एक कान में बुन्दे पहने दूसरे बुन्दे को हाथ में लिए इधर उधर बुन्दे का पेंच ढूँढती फिर रही है। कुल मिलाकर एक विवाह वाले घर में जितनी अफ़रा-तफ़री होनी चाहिए उतनी हवेली में नज़र आ रही है।

बड़ी हवेली में बहुत दिनों बाद शहनाईयाँ गूंज रही हैं, कई वर्षों बाद। इससे पहले मैना के पिता बलराम पटेल की शादी में ये शहनाईयाँ गूंजी थीं, लोगों का कहना है कि बलराम पटेल की शादी में जो रौनक थी, जो ठाठ-बाट था, वह आस-पास के पचास गांवों में अभी तक नज़र नहीं आया। पूरा गाँव तोरन और फूल-मालाओं से सजाया गया था। गाँव के बाहर फूटे तालाब से लेकर बड़ी हवेली तक बेल गाड़ियों की लाइन लग गई थी, कुल मिलाकर मेले-ठेले जैसा दृष्य नज़र आ रहा था। मंडप के दिन पूरे गाँव में किसी भी घर में चूल्हा नहीं जला था। पूरे गाँव को बड़ी हवेली का न्यौता मिला था और साथ ही साथ आस-पास के गांवों के पटेल साहूकार मिलने जुलने वाले सभी तो आए थे बलराम की शादी में। उस शादी के बाद आज जाकर ये रौनक जुटी है बड़ी हवेली में।

"कहो हीरामन बहुत दिनों बाद सुध ली बड़ी हवेली की ...?" रामधन ने रायते में बघार लगाते हुए कहा। रामधन पिछले तीस वर्षों से बड़ी हवेली का ख़ास रसोइया है, तीज-त्यौहार, शादी-ब्याह, जीवन-मरण सबकी रसोइयाँ बनाने का काम रामधन ही संभालता है। हालांकि अब उम्र ने रामधन पर भी असर दिखाया है, लेकिन रामधन की रसोई आज भी वैसी ही है, उतनी ही स्वादिष्ट, खाने वाला अंगलियों को चाटना तो क्या काटने की सोचने लगे और उस पर भी करीपत्ता और खड़े जीरे से बघरे बूंदी के रायते की धूम तो आमगांव के बाहर के गांवों में भी है। लोग दोना भर-भर के पी जाते हैं उस रायते को।

हीरामन, बलराम और रामधन लगभग एक ही उम्र के हैं, बचपन में तीनों साथ-साथ ही गाँव के फूटे तालाब पर नहाए हैं और साथ-साथ ही गाँव में, खेतों पर धमाचौकड़ियाँ की हैं। फिर जैसे-जैसे बड़े होते गए बड़ी हवेली की ऊंचाई ने इनके बीच में दूरीयाँ बढ़ा दीं।

"हाँ भाई रामधन बस यूं ही कुछ जी उचाट हो गया था, सो निकल पड़े थे और फिर जीवन भी वैसा ही हो गया था, जहाँ मिले दो वहीं रहे सो। कहते भी हैं ना कि पौधा जहाँ जनमता है उसी मिट्टी में हरियाता है, एक बार उखाड़ कर दूसरी जगह लगा दो तो फिर वह पहले जैसी बात कहाँ रहती है? फिर तो बस इसलिये खड़ा रहता है कि जड़ें गड़ीं हैं।" हीरामन ने एक मोटी-सी जलाऊ लकड़ी पर आसन जमाते हुए कहा।

"तुम्हें किसने उखाड़ा? तुम तो ख़ुद ही गाँव छोड़कर चले गए और गए भी तो कैसे कि न मोह न ममता, एक बार पीठ की तो फिर मुड़ कर भी नहीं देखा कि आमगांव के क्या हाल हैं ...? संगी साथी कैसे हैं ...? तुम तो निर्मोही की तरह चले गए।" रामधन ने रायते में करछुल चलाते-चलाते रुक कर कहा।

"निर्मोही कोई नहीं होता रामधन, ये समय ही है जो आदमी को निर्मोही-सा व्यवहार करने पर मजबूर कर देता है, लेकिन अंदर से कोई निर्मोही नहीं होता, अगर इंसानी मिट्टी में से मोह ममता को निकाल दिया जाए तो फिर वह इंसान कहाँ रहेगा, वह तो पुतला हो जाएगा। जो लोग निर्मोही होने का दावा करते हैं, कभी उनके अंदर झांक कर देखोगे तो सारी असलियत खुल जाएगी। मेरा गाँव छोड़ना उस समय मेरा धर्म था, जो न छोड़ता तो रोज़ मर-मर कर जीता।" हीरामन मानो किसी गहरे कुंए से बोला।

"बस पटेल सब तैयार है, चाहो तो अभी बिठाल दो बारातियों को।" रामधन ने भट्टी की आग तेज़ करने के लिए लकड़ियाँ डालते हुए कहा। "अच्छा ...! हीरामन भी यहीं है, तब मेरा यहाँ क्या काम? तुम दोनों जब मिल जाओ तो चालीस आदमीयों का काम चार से ले लेते हो। बस बारात पंहुचने ही वाली है, आते ही हाथ पांव धुलवा कर सीधे भोजन ही करवाना है, सब तैयारी रखना।" बलराम पटेल कहते हुए आंगन से वापस मंडप की तरफ़ चले गए।

बलराम पटेल को यह पटेली एक तरह से विरासत में मिली है, जो बड़ी हवेली के हर बड़े लड़के को मिल जाती है। बलराम से पहले उनके पिता रामवीर गाँव के पटेल थे और बलराम के बाद उनके बेटे जनार्दन को यह पटेली मिलेगी, जनार्दन मैना से दो साल छोटा है और अभी चौदह पन्द्रह साल का ही है। इस तरह आमगांव में पंच, सरपंच चाहे कोई भी बनता रहे लेकिन गाँव का पटेल कहलवाने का अधिकार बड़ी हवेली के मालिक के पास ही रहता है। आमगांव जितना दिलचस्प गाँव उतना ही दिलचस्प नाम और आमगांव नाम पड़ने का भी उतना ही दिलचस्प कारण है और वह कारण ये है कि पक्की सड़क से गाँव तक का जो कच्चा रास्ता है उसके दोनों तरफ़ आम के घने पेड़ लगे हैं, सीधी लाइन में इस तरह कि पूरा रास्ता हमेशा घनी छांव से ढंका रहता है। पक्की सड़क का वह जोड़ जहाँ बस छोड़ती है वहाँ से गाँव तक का रास्ता करीब पांच किलोमीटर होता है।

ये नाम आमगांव भी बलराम पटेल के लक्कड़ दादा का दिया हुआ है, जो अपने गाँव में प्लेग फैलने के कारण आकर इस गाँव में बसे थे और फिर यहीं अपनी हवेली बनाई थी, जिसे आज बड़ी हवेली कहते हैं। तब इस गाँव का कोई अस्तित्व नहीं था, बीस पच्चीस टप्पर थे और केवल याद रखने के लिए इसको टपरा टोला कहा जाता था। बलराम पटेल के लक्कड़ दादा ने ही टपरा टोला तक के कच्चे रास्ते को ठीक ठाक करवा के दोनों तरफ़ आम के पौधे लगवाए थे, जैसे-जैसे आम के पौधे बढ़ते गए टपरा टोला आम गाँव होता गया। पूरे रास्ते दो-दो की कतार में लगे हैं ये पेड़, कहीं-कहीं एकाध पेड़ कम है बाक़ी तो पूरी कतार ठीक है। तब ये बड़ी हवेली भी सिर्फ़ हवेली ही होती थी क्योंकि तब यही एक हवेली थी बाक़ी सब तो टप्पर थे, परंतु जैसे-जैसे गाँव में पक्के मकान बनते गए हवेली का मान बनाए रखने के लिए इसे बड़ी हवेली कहा जाने लगा।

अर्थात टपरा टोला या आज के आम गाँव में बलराम पटेल, इस पटेल ख़ानदान की पांचवी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनका बेटा जनार्दन छठवीं पीढ़ी है पटेलों की, पर क्या सचमुच बलराम पटेल के बाद पटेल ख़ानदान की कोई पीढ़ी है...? ये एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर कुछ ही लोग जानते हैं। लेकिन आज पूरा गाँव जिस तरह जनार्दन को छोटे पटेल कह कर पुकारता है, उसको देख कर तो यही लगता है कि बलराम पटेल के बाद जनार्दन ही बड़ा पटेल भी हो जाएगा। दरअसल लोग तो केवल उसी पर विश्वास करते हैं जो दिखाई देता है, उसके अंदर क्या है, यह देखने का न तो कोई प्रयास करता है और न ही आज किसी के पास इतना समय है। अपने लक्कड़ दादा से लेकर बलराम पटेल तक इस परिवार ने यश, कीर्ती और प्रतिष्ठा में अच्छी खासी वृद्धी की है, साथ ही वृद्धी की है समृद्धी और संपत्ती में भी और शायद इसलिए इस पटेल ख़ानदान की पटेली बरकरार है।

पटेल ख़ानदान की पांचवी पीढ़ी की कहानी शुरू होती है बलराम के जन्म के साथ, रामवीर पटेल के घर तीन कन्याओं के पश्चात जन्म लेने वाले बेटे के रूप में। बलराम की पीढ़ी अर्थात रामधन, हीरामन, राम भरोसे और हरिया कि पीढ़ी, जिनमें से भी अगर लंगोटिया यार वाली बात तलाश की जाए तो बलराम के ख़ास मित्रो में रामधन, हीरामन और रामभरोसे ही थे। वह दोस्ती जो इनके चौदह पन्द्रह साल का होने तक बरकरार रही। फिर जैसे-जैसे बलराम छोटे पटेल होते गए वैसे-वैसे दोस्ती के तार टूटते गए। लेकिन उससे पहले की दोस्ती ऐसी थी कि चारों सोने और खाने के समय ही अलग होते थे, बाक़ी तो चारों कहाँ है, ढूँढना भी मुश्किल हो जाता था। पता चलता कि कहीं काली गदराती जामुनें खाने के लिए बंदर की तरह पेड़ पर चढ़े हुऐ हैं या फिर फूटे तलाब में भैंसों की तरह पड़े हुए हैं। अर्थात कुल मिलाकर जैसी दोस्ती बचपन की होती है वैसी ही दोस्ती थी चारो में। फिर बलराम छोटे पटेल कहलाने लगे थे और दूरियाँ बढ़ने लगीं। हालांकि लोगों का तो एसा भी कहना है कि चौदह पन्द्रह की उम्र के बाद छोटे पटेल बहुत बदल गए थे, एकदम गुमसुम रहते थे, न किसी से हंसना बोलना न बातें करना, न ही ज़्यादा घर से निकलना, किसीने कुछ पूछ लिया तो जवाब दे दिया नहीं तो अपनी चुप भली। इसी समय बाक़ी तीनों दोस्तों को भी पैतृक व्यवसाय में हाथ बंटाना शुरू करना पड़ा था। रामधन को पिता के साथ रसोई आदि बनाने के काम में लगना पड़ा तो राम भरोसे को पंडिताई के पैतृक कार्य को सीखने पिताजी के साथ आना जाना शुरू करना पड़ा और हीरामन ...? उसका पैतृक काम तो पटेलों के खेत खलिहानों का काम देखना, फ़सल का हिसाब किताब रखना और खेत के मजदूरों हरवाहों से काम लेना था। पटेलों के खेत भी ऐसे थे कि इधर से खड़े होकर देखो तो दूसरा सिरा ही दिखाई न दे। हीरामन के पिताजी ही सारा काम संभालते थे और उसी काम को संभालने की तैयारी हीरामन ने शुरू कर दी थी। चौकड़ी की चारों कड़ियाँ अपने-अपने तरीके से टूटती चली गईं।

हीरामन का साथ तो फिर भी बलराम पटेल के साथ बना रहा, भले ही ये साथ मालिक नौकर का रहा पर फिर भी साथ तो रहा। हीरामन ने बड़ी हवेली की सेवा चाकरी को ही अपना सब कुछ मान लिया था, उसकी सुबह बड़ी हवेली में होती तो दोपहरी खेतों पर कटती और रात फिर बड़ी हवेली में, देर रात ही अपने घर लौटता था वो। हीरामन की विश्वसनीयता और वफ़ादारी के कारण बड़े पटेल भी काफ़ी भरोसा करने लगे थे उस पर। बड़ी हवेली का पत्ता भी हीरामन के बिना नहीं हिलता था उस समय। गाँव के लोग उस समय अचरज में डूब गए थे जब हीरामन के ब्याह के बाद नई दुल्हन की मुंह दिखाई की रस्म के लिए बड़ी हवेली से पटलन स्वयं चल कर गईं थीं हीरामन के घर। नहीं तो होता यह था कि गाँव में कोई भी नई दुल्हन आए, मुंह दिखाई बड़ी हवेली पर ही होती थी उसकी। हीरामन के लिए बड़ी हवेली का हर दरवाज़ा खुला था वह बैठकी से लेकर रसोई, पूजा घर, बड़ी पटलन के कमरे तक कहीं भी जा सकता था।

हीरामन के ब्याह के थोड़े दिन बाद ही बलराम पटेल का ब्याह हुआ था, वही ब्याह जिसमें पूरा गाँव मेले में बदल गया था, जिसकी रोनक की चर्चा आज भी बड़े बुज़ुर्ग चौपाल पर कभी-कभी कर लेते हैं। हीरामन की कहानी असल में उस शादी के बाद ही शुरू होती है, घर में नई दुल्हन आ जाने के कारण हीरामन के पैर थोड़े बंध गए थे, अब उतना बेखटके वह बड़ी हवेली में नहीं घूम फिर पाता था, अब उसका ज़्यादा समय खेतों पर ही कटता था, शाम को खेत से सब्जियाँ लिए आता आंगन में रखता और बड़े पटेल के पास चला जाता। वहीं बैठकर दिन भर का हाल चाल सुनाता रहता। उधर रामभरोसे और रामधन दोनों का भी ब्याह हो गया था और दोनों ने अपने-अपने काम धंधे ख़ूब जमा लिए थे। दोनों का बड़ी हवेली में आना जाना अभी भी होता रहता था, हवेली का पूजा पाठ राम भरोसे के जिम्मे था औैर कभी बड़ी रसोई बनानी हो तो रामधन के पैर हवेली में पड़ते। लेकिन समय ने चारों दोस्तों के बीच मर्यादा कि लक्ष्मण रेखाऐं खींच दी थी। लक्ष्मण रेखाएँ जो अपने-अपने कामों के कारण खिंचीं थी।

बलराम पटेल की शादी के लगभग दो साल बाद की वह घटना है। बलराम के आंगन में अभी तक कोई किलकारी नहीं गूंजी थी, बड़ी पटलन के माथे पर चिंता कि लकीरें नज़र आने लगीं थीं और साथ ही नज़र आने लगे थे नई दुल्हन के हाथों और गले में रंग-बिरंगे धागे जो ब़डी पटलन जाने कहां-कहाँ से बुलवा कर दुल्हन को बाँधने लगीं थीं और तभी वह घटना घटी थी, हीरामन खेतो में पानी फेर रहा था, माघ का महिना था ठंड ऐसी की नसों का खून भी गरमी छोड़ दे। खेतों में गेहूँ चना खड़ा था, हीरामन हरवाहों से नालियाँ बनवा-बनवा कर पानी फेर रहा था। खेतों में पानी फेरने का समय मतलब हीरामन की रात खेतों पर ही गुज़रती थी। रात लगभग दस बजे होंगे जब हीरामन हरवाहों को काम समझा कर खलिहान में बने टप्पर में आकर लेटा ही था कि अचानक बलराम पटेल पहुँच गए थे, हीरामन चौंक कर खड़ा हो गया "छोटे पटेल ...! आप...? इस समय ...? क्या बात है, सब ठीक तो है ...?"

खटिया पर बैठते हुए बोले थे बलराम "हीरा पहले कुछ अलाव जलाओ बड़ी ठंड है, फिर बात करेंगें"।

आनन फ़ानन में हीरामन ने अलाव जला दिया और ख़ुद भी अलाव के पास चटाई बिछा कर बैठ गया। बलराम थोड़ी देर तक अलाव में हाथ पैर तापते रहे फिर बोले "हीरा यहाँ मेरे पास आकर बैठ तुझसे कुछ ज़रूरी बात करनी है" हीरामन बोला "नहीं छोटे पटेल हम वहाँ कैसे बैठ सकते हैं।"

बलराम बोले "हीरा तू मेरे बचपन का दोस्त है और फिर बात राज़ की है, यहीं आकर बैठ।"

हीरामन खटिया के एक कोने पर आकर बैठ गया, बलराम पटेल ने धीरे से अपना हाथ शाल से बाहर निकाला और हीरामन के कंधे पर रखकर उसे अपने पास खींच लिया, हीरामन अचरज में डूबा हुआ था। बलराम बोले "हीरा तू मेरे बचपन का दोस्त है और मेरा और बड़ी हवेली का सबसे ज़्यादा भरोसेमंद भी है, इसलिए अब तू ही मुझे बचा सकता है नहीं तो अब मुझे कोई नहीं बचा पाएगा।"

हीरामन के अंदर का दोस्त भी जाग गया दोनों हाथों से बलराम के कंधे पकड़ते हुए बोला "क्या बात है छोटे पटेल इतने क्यों परेशान हो और हमारे लायक जो कुछ भी काम हो बताओ बड़ी हवेली और आपके लिए तो मैं कुछ भी कर सकता हूँ।"

"ये तुम अकेले में भी हमें छोटे पटेल क्यों कहते हो हम तुम्हारे बचपने के दोस्त हैं।" बलराम वाणी में कुछ अधिकार युक्त आत्मीयता घोलते हुए बोले।

पास पड़ी लकड़ी को अलाव में डालते हुए बोला हीरामन "नहीं छोटे पटेल समय के साथ हैसियत और औक़ात भी बदलती रहती है और समझदार वही होता है जो इनके साथ अपने आप को भी बदल ले, आप तो छोड़ो इन सब बातों को और बताओ आपको क्या परेशानी है?"।

बलराम पटेल कुछ देर तक सिर झुकाए सामने भड़क रहे अलाव को देखते रहे फिर उसी तरह सिर झुकाए उन्होंने बोलना शुरू किया, वह बोलते रहे हीरामन सुनता रहा, जब बलराम का बोलना बंद हुआ तो हीरामन सर से पैर तक पसीने से तरबतर था, मानो माघ का महीना न होकर जेठ की दोपहर हो।

"छोटे पटेल ...ये कैसी अनहोनी बात कर रहे हो, अपने साथ हमें भी पाप में डाल रहे हो, आपने ऐसी बात सोची भी कैसे ...?" हीरामन के मुंह से बड़ी मुश्किल से बोल फूटे थे।

"हीरा हमारे पास इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है तुम हमारे बचपन के दोस्त हो, बड़ी हवेली के वफ़ादार हो तुम्हारे अलावा हम और किसी पर भरोसा नहीं कर सकते" बलराम ने सर झुकाए-झुकाए ही कहा।

"बात हम पर भरोसे की नहीं, बात तो उसकी है जो आपने सोचा है, वह ग़लत है, आपको ऐसा सोचना भी नहीं था।" हीरामन ने फिर अपना विरोध जताया।

"हीरा तुम अपने हिसाब से सोच रहे हो हमारे हिसाब से नहीं और यही बात हमारी मृत्यू का कारण भी बन सकती है। हम तुमसे अपने लिए जीवन और बड़ी हवेली के लिए ख़ुशियाँ मांग रहे हैं और तुम पाप पुण्य की बात कर रहे हो, तुम्हारे लिए हमारा जीवन कोई मायने नहीं रखता है क्या?" बलराम पटेल ने हीरामन की आंखों में आंखें डालते हुए कहा।

"रखता क्यो नहीं है छोटे पटेल" हीरामन बोला "बहुत मायने रखता है, भगवान आपको और बड़ी हवेली दोनों को सलामत रखे। हमारा तो सब कुछ आप ही हो, पर आप बात ही ग़लत कर रहे हो।"

"नहीं हीरा बात यही है, तुम हमारी मजबूरियाँ समझ ही नहीं रहे हो।" बलराम पटेल खटिया से खड़े होते हुए बोले "और हमारी मजबूरी ये है कि हम तुम्हारे अलावा किसी और के पास जा भी नहीं सकते, फिर भी जैसा तुम चाहो, हम तुम पर दबाव नहीं डालेंगे कल विजय नगर वाले मामाजी के यहाँ शादी में अम्मा और बाबूजी दोनों जा रहे हैं, अगर तुम हमें, अपने दोस्त को जीवित देखना चाहते हो, बड़ी हवेली को ख़ुशहाल देखना चाहते हो, तो रात को बड़ी हवेली पहुँच जाना, नहीं तो फिर सुबह आ जाना हमारी लाश तुम्हें बैठकी में ही लटकी मिलेगी ।" कह कर बलराम तेज़ी से टप्पर से बाहर चले गए और हीरामन उसी तरह खाट पर सर को हाथों से पकड़े अलाव में भड़कती आग को देखता रहा।

उसके बाद चौबीस घंटे हीरामन के जीवन की सबसे बड़ी अग्नि परीक्षा थे, एक तरफ़ था मर्यादाओं, संस्कारों और पाप पुण्य की रवायतों का डर तो दूसरी तरफ़ था नमक और दोस्ती का वास्ता। चौबीस घंटे केवल यही द्वंद चलता रहा था, क्या किया जाए, क्या न किया जाए। उहापोह और दिग्भ्रम में फँसा व्यक्ति अक़्सर सलाहों और मशवरों की बैसाख़ियों का उपयोग करता है पर यहाँ तो मामला ऐसा था कि उसकी गुंजाइश भी नहीं के बराबर ही थी। सबसे बड़ी बात तो भरोसे की ही थी, वह भरोसा जो बलराम पटेल ने हीरामन पर दिखाया था। पत्नी से भी बात नहीं कर सकता क्योंकि दो तरफा डर है पहला तो ये कि अपने पति का इस तरह उपयोग किया जाना कोई भी पत्नी गवारा नहीं करेगी औैर दूसरा यह कि महिलाओं के पास राज़ की बातें सुरक्षित रहना वैसे भी असंभव कार्य होता है। अगर कहीं बात खुल गई तो बड़ी हवेली के साथ गाँव की भी इज़्ज़त मिट्टी में मिल जाएगी क्योंकि आख़िरकार बड़ी हवेली गाँव की शान का प्रतीक है। रात होते-होते बचपन की दोस्ती, हवेली के नमक और वफ़ादारी ने मर्यादाओं पर विजय पा ली, न चाहते हुए भी हीरामन के पैर बड़ी हवेली की ओर चल पड़े। आंखों के सामने बलराम पटेल की छत से लटकी लाश का दृष्य रह-रह कर घूम जाता था, कड़कड़ाती ठंड में भी पसीने छूट रहे थे हीरामन के। पैरों में मर्यादा और पाप पुण्य के विचार बेड़ियाँ डाल रहे थे तो हवेली के प्रति निष्ठा कि भावना हाथ खींच कर हवेली की ओर ले जा रही थी। बड़ी हवेली उस रात ख़ामोशी में डूबी हुई थी। हीरामन को आते हुए देखा तो बलराम पटेल दौड़कर गले लग गए "हीरा आज तूने इस हवेली की लाज रख ली" हीरामन कुछ न बोला चुपचाप नीचे देखता रहा।

बैठकी के कोने में जल रहे अलाव के पास बलराम पटेल बैठ गए थे और पास ही पड़े पटिये पर हीरामन। हीरामन के आने से पहले बलराम पटेल शराब पी रहे थे, अपना गिलास उठाते हुए बोले थे बलराम पटेल "तुम पियोगे हीरामन ...?" हीरामन ने नज़र झुकाए हुए स्वीकार में सर हिला दिया था। होशो हवास में पाप करने का साहस नहीं था। उस रात बहुत पी थी हीरामन ने, तब तक, जब तक शराब में डूब कर अंदर का इंसान मर नहीं गया और जानवर नहीं पैदा हो गया और वह जानवर ही था जो बलराम पटेल की आँख के इशारे पर उठ कर हवेली के अंदर चला गया था। वह रात हीरामन के लिए चाहे कैसी भी रही हो पर बड़ी हवेली के लिए तो वह रात नई सुबह ले आई थी। कुछ दिनों में ही बड़ी हवेली में नए मेहमान के आगमन के बधाए गूंजने लगे थे और हीरामन ...? उस रात के बाद फिर बड़ी हवेली नहीं गया, हिसाब किताब किसी के भी हाथ भेज देता था। अपने घर से खेत और खेतों से घर, बड़े पटेल खेत पर आते तो पूछते "क्या बात है हीरा? खेत पर ही लगा रहता है हवेली नहीं आता ...?"।

हीरामन क्या बोलता? चुपचाप सर झुकाए काम में लगा रहता और फिर बड़ी हवेली में किलकारियाँ गूंज उठीं थीं मैना की। हालंकि मैना के जन्म पर खुशियों के साथ-साथ निराशा भी छा गई थी हवेली में, क्योंकि शादी के इतने साल बाद बेटी की जगह बेटे की प्रतीक्षा कर रहे थे सभी। फिर मैना के जन्म के दो साल बाद बेटा भी हुआ "जर्नादन" मगर उससे पहले फिर वही घटनाक्रम घटित हुआ, बलराम पटेल एक बार फिर हीरामन के कंधे पर सर रखकर रोए एक बार फिर मर्यादाओं पर वफ़ादारी की जीत हुई। लेकिन इस बार जो अंतर हुआ वह यह कि इस बार हवेली में हीरामन ने जो रात गुज़ारी वह रात हीरामन की आमगांव में आख़िरी रात थी। रात में ही पूरे परिवार और मय सामान के जो गाँव छोड़ा तो फिर कभी पलट के नहीं देखा और लौटा है आज मैना कि शादी में, बीच में कितना ही समय बीत गया।

बाहर धूम धाम अब चरम सीमा पर है, मैना के फेरों की तैयारियाँ चल रही हैं। हवेली के पिछवाड़े की कोठार में बैठा हीरामन बीड़ी फूंके जा रहा है, बाहर जाकर मैना कि शादी देखने की हिम्मत नहीं है। मैना और जनार्दन को देखता है तो उन्हें सीने से लगाने की चाह होने लगती है, जिस वफ़ादारी की डोर से बंधे होने के कारण बरसों पहले गाँव छोड़ दिया था उस डोर के टूटने का अंदेशा होने लगता है।

आम गाँव जब छोड़ा तब कोई ठिकाना नहीं था हीरामन का, सीधे ससुराल पहुँच गया था, कुछ दिन ससुराल के घर में रहने के बाद वहीं गाँव में अपना एक घर बना लिया था, ससुर ने अपनी हैसियत के अनुसार थोड़ी बहुत मदद कर दी थी, धीरे-धीरे गृहस्थी जम ही रही थी कि तभी पत्नी चल बसी, बस तभी से हीरामन के मन में ये बात बैठ गई कि उसके पाप का फल उसकी घरवाली को मिल गया और हीरामन जोगी की तरह हो गया।

मैना कि शादी का न्यौता मिलने के बाद भी काफ़ी धर्मसंकट रहा, जाए या न जाए, फिर यह सोचकर कि चलो इस बहाने आख़िरी बार अपनी जन्म भूमि भी देख आएगा, यहाँ आ गया। यहाँ आकर ऐसा लगा कि जीवन कहीं रुक गया था, जहाँ रुका था वहीं से फिर से शुरू हो गया है।

रात भर हीरामन कोठरी में ही पड़ा रहा, सुबह-सुबह मैना कि विदाई का रोना-पीटना सुनाई दिया तो हीरामन भी घुटनों को सीने से भींच कर फूट-फूट कर रो पड़ा, बाहर निकलता तो शायद अपने को वश में रखना उसके लिए मुश्किल हो जाता। सूरज माथे पर चढ़ने तक सोता रहा हीरामन, जब तक दरवाज़े पर खटका नहीं हुआ "कौन ...? कौन है?" हीरामन ने लेटे-लेटे ही पूछा।

"कक्का हम जनार्दन हैं, बाबूजी पूछ रहे हैं, क्या तबीयत खराब है?" बाहर से जनार्दन की आवाज़ आई। उठ कर दरवाज़ा खोला तो देखा जनार्दन खड़ा है, आंखें सूजी हुईं हैं, शायद रात भर शादी की रस्मों के कारण जागते रहने से और फिर बहन की विदाई में रोने के कारण।

"नहीं छोटे पटेल तबीयत तो ठीक है, बस ज़रा आँख लगी रह गई थी, कहाँ हैं बड़े पटेल?" हीरामन ने कहा।

"आंगन में बैठे हैं, समेटा-समेटी चल रही है।" जनार्दन बोला।

"चलो हम अभी आते हैं" हीरामन ने कहा।

एक हाथ में अपनी लोहे की संदूकची थामे हीरामन आंगन में पहुँचा तो बलराम पटेल लेटे हुए थे, जनार्दन पैर दबा रहा था।

"क्या हुआ पटेल? तबीयत तो ठीक है?" हीरामन ने आदर के साथ पूछा।

"नहीं कुछ नहीं वैसे ही थकान है, ये संदूकची लेकर कहाँ चल दिए?" बलराम पटेल ने थकी-सी आवाज़ में पूछा।

"अब आज्ञा दो पटेल, शादी हो गई अब जाऊंगा" झिझकते हुए कहा हीरामन ने।

"कहाँ जाओगे हीरामन ...?" बलराम पटेल ने कहा "तुम्हारा गाँव तो यही है, इस अकेली जान को लेकर क्यों परदेस में पड़े हो, बहुत भटक लिए।" कहकर बलराम पटेल हीरामन की तरफ़ देखने लगे।

"पटेल अब अकेले आदमी का क्या यहाँ क्या वहाँ, सब एक समान है" हीरामन ने सीधे-सीधे मना न करते हुए बात को घुमाते हुए कहा।

"वही तो मैं कह रहा हूँ। अकेले आदमी को तो अपनों के बीच ही रहना चाहिए और फिर अब मैं भी थकने लगा हूँ अपनी जवाबदारी संभाल लो तुम। बड़ी हवेली की ख़ूब सेवा कि है तुमने, अब जनार्दन भी बड़ा हो रहा है मुझसे काम अब संभलता नहीं, तुम इसे ही समझा सिखा दो सब।" बड़े पटेल ने आंखें मूंदते हुए कहा।

"लेकिन पटेल ..." हीरामन कहते-कहते रुक गया।

"कोई लेकिन-वेकिन नहीं ..., जनार्दन जाओ हीरामन कक्का के हाथ से संदूकची लेकर कोठरी में रख आओ ..." बलराम पटेल ने आंखें बंद किये-किये ही कहा और पीठ कर के लेट गये। जनार्दन आकर हीरामन के पास खड़ा हो गया, हीरामन ने ग़ौर से जनार्दन को देखा, पतले-पतले गुलाबी होंठ, घुंघराले बाल, बड़ी पनीली आंखें और हल्की-हल्की मूंछों की रेख। ऐसे ही किसी बेटे की तो बात करती थी उसकी घरवाली, जो उस समय पेट में था जब वह मरी थी।

"लाओ कक्का संदूकची मुझे दे दो।" कहते हुए धीरे से मुस्कुराया जनार्दन। जैसे ही उसने हीरामन के हाथ से संदूकची ली, हीरामन ने उसे गले से लगाया और फूट-फूट कर रो पड़ा, बलराम पटेल उसी प्रकार आंखें बंद किए चुपचाप लेटे रहे मानो उनको न कुछ सुनाई दे रहा है, न दिखाई। बड़ी हवेली और हीरामन दोनों अपने-अपने प्रायश्चित में लगे थे और बीच में भौंचक-सा खड़ा जनार्दन कभी अपने कंधे से लगकर रोते हीरामन को देख रहा था कभी पीठ किए हुए लेटे बलराम पटेल को।