हीरे की कनी / सुषमा गुप्ता
मेरे कानों में बहुत सारा शोर पड़ रहा है। थोड़ी देर पहले एक सायरन भी कान के अंदर घुसकर दिमाग की नसों को झकझोर रहा था। बहुत सारे झटके लग रहे हैं। एक हबड़-तबड़ है चारों तरफ़। मेरी आँखें बंद हैं और शरीर जैसे मुझे महसूस ही नहीं हो रहा कि मेरे हाथ पैर हैं भी क्योंकि मैं चाहकर भी उनका इस्तेमाल नहीं कर पा रही, जैसे मैं चाहकर भी आँखें नहीं खोल पा रही, जबकि मुझे एहसास है कि मेरे आस-पास बहुत सारे लोग हैं। बार बार विक्रांत की तेज़ आवाज आती है, नूर आँखें खोलो। मैं आँखें खोलना चाहती हूँ पर नहीं खोल पा रही। मुझे चेहरे पर चिपचिपा लग रहा है। शरीर पर भी बहुत जगह। ऐसा लग रहा है जैसे पूरा शरीर किसी पत्थर में बदल चुका है और उस पर लेस गिर रहा है कोई। पर इस सबके बावजूद मुझे सुन तो सबकुछ रहा है, एकदम साफ-साफ।
पर यह स्थिति भी बहुत देर तक नहीं रही।
विक्रांत की आवाज मद्धम हो गई है। ‘नूर.. नूर...’ उसकी हर आती आवाज़ अब ऐसा लग रहा है कि दूर होती जा रही है। तेज़ आवाज़ें बंद हो गई हैं। आसपास शांति पसर रही है। अब कुछ नई आवाजें हैं बस आसपास। एनेस्थीसिया... तैयारी करो… ऑक्सीजन लेवल…वेंटिलेटर…
मैं आँखें खोलती हूँ। मैं खोल सकती हूँ! मैंने आँखें खोली हैं। यह बिल्कुल ऐसा है जैसे दो दुनिया के बीच में मैं कहीं अधर में टँगी हूँ। आँखें खुलते ही तेज़ रोशनी आँखों को चीरती हुई ज़हन में घुसी। उस एक पल के सौंवें हिस्से में दिमाग में यह सिग्नल लिया कि मैं किसी अस्पताल के ऑपरेशन थिएटर की ऑपरेशन टेबल पर हूँ। आँखें फिर बंद हो चुकी हैं। कोई इंजेक्शन लगा रहा है। एक महीन पतली आवाज़ मेरा माथा सहलाते हुए कहती है, दस से उल्टी गिनती गिनिए और मैं किसी कठपुतली की तरह फौरन उसकी बात मानकर मन में कहती हूँ ..10, 9, 8, 7, 6 और फिर सब...
वह हॉस्पिटल में नर्स है। किसी की निजी ज़िंदगी में झाँकना, उसकी बातें सुनना बिल्कुल सही नहीं है पर वह वहीं मेरे बैड के कोने में यह सब बात कर रही थी, तो कान में पड़ ही रहा था। वह मेरे सिरहाने खड़ी थी। फोन स्पीकर पर नहीं था फिर भी मुझे उधर से कही जाने वाली हर बात सुनाई दे रही थी। दूसरी तरफ से बोलने वाला आदमी चिल्ला रहा था इसलिए या फिर ऐसी अधमरी हालत में जब मेरा शरीर ठीक से काम नहीं कर रहा तब शायद मेरी बाकी इंद्रियाँ ज़्यादा सक्रिय हैं, हो सकता है इसलिए। उधर से फोन पर बेहद गंदी गालियाँ दी जा रही थीं। इतनी गंदी कि मैं उन्हें लिख भी नहीं पाऊँगी और वह, तो उन्हें सह रही थी। फोन रखने के बाद वह कुर्सी पर इस तरह गिरी जैसे किसी तूफ़ान में कोई पेड़ अचानक चटककर गिरता है। उसने धीरे से दूसरी नर्स को कहा कि मेरा बीपी चेक तो करना ज़रा। दूसरी नर्स ने उसके कंधे पर दिलासा देता हाथ रखा और उसे अपनी आँखों से कोई मूक आश्वासन दिया। उसके बाद उसने मेरे ही सिरहाने से जुड़ी अस्पताल की दवाइयों से भरी टेबल पर से बीपी की मशीन उठाई और उस कुर्सी पर बैठी नर्स, जिसने अभी बेतहाशा गंदी गालियाँ खाई थीं, उसके हाथ पर उस बीपी की मशीन का पट्टा जकड़ दिया।
उसने जवाब दिया - 85-54
कुर्सी पर निढाल बैठी उस नर्स ने कहा-“मैं ठीक महसूस नहीं कर रही। ऐसे ही चलता रहा, तो मैं मर जाऊँगी। मुझसे और सहन नहीं होता।”
मेरा उस अस्पताल में पाँचवा दिन था। दो दिन की नीम बेहोशी के बाद मुझे तीसरे दिन होश आ गया था। अब तो मैं थोड़ा बात भी कर पा रही थी। दूसरी नर्स बीपी चेक करके चली गई। जो नर्स मेरी देखभाल करती है, वह वहीं कुर्सी पर गुमसुम बैठी रही। मैंने उसे तब पहली बार गौर से देखा। उम्र पच्चीस से ज़्यादा तो क्या ही होगी! मैंने प्यार से पूछा, "ठीक नहीं हो न तुम?"
वह जैसे यही चाह रही थी कि कोई पूछ ले प्रेम से हाल। हम सब अपने हारते हुए क्षणों में बस इतना ही तो चाहते हैं, पर अधिकांश समय ऐसी परिस्थितियों में या तो ताने मिलते हैं या उपेक्षा। मेरे प्यार से पूछते ही वह भरभरा कर रो पड़ी। कभी होता है ना, अपनों से दिल नहीं खोला जाता और अजनबी को हम बहुत कुछ बता देते हैं। रोते-रोते उसने भी बताया और सब बताया। बताया उसने कि किस तरह उसकी ज़िंदगी दोजख कर दी गई है। उसकी दो साल की बच्ची है। पति शराबी है और कुछ नहीं कमाता। उस पर हर समय शक करता है, बहुत बुरा-बुरा कहता है। मारता भी इतना है, जिसकी कोई हद नहीं। उसकी बातें सुनकर मैं हैरान रह गई। फूलों-सी खूबसूरत नाज़ुक प्यारी वो लड़की। मैं अचानक बोल उठी -"तुम तो कैसी हीरे की कनी- सी हो! इतनी नाज़ुक कि हाथ लगाते लगे कहीं दाग न लग जाए। तुम पर भी कोई हाथ उठा सकता है!" "दीदी, मेरे पापा नहीं थे। यह लड़का रात दिन मेरे घर के चक्कर काटता था। बहुत मीठी बातें करता था। मुझे भी लगा कि अच्छा है और मुझे प्यार करेगा। माँ ने भी जाति की परवाह ना करके अपनी समझ से जैसे-तैसे शादी कर दी। मैं ही सबसे बड़ी हूँ। छोटे भाई-बहनों को भी देखना होता है। पर इस आदमी ने जीवन नरक कर दिया है। अपना रूप-रंग तो और मेरे लिए अज़ाब बन गया है। गंदे-गंदे इल्ज़ाम लगाता है। ज़रा-ज़रा सी बात पर हाथ उठाता है। गलती पर कोई थप्पड़ मारे, तो समझ में आता है। वह मैं खा भी लूँगी, पर बिना गलती के मारता है।" -कहकर वह रोने लगी। उस पढ़ी- लिखी लड़की की इस बात ने मुझे हैरान कर दिया।
"अरे अजीब लड़की हो! किसी भी वजह से हाथ कैसे उठा सकता है! मारना तो जानवर तक को ग़लत है और तुम तो इंसान हो।"
मेरी बात को अनसुना करते हुए उसने बात आगे बढ़ाई, "अब तो यह हाल है कि मैं बहुत शिद्दत से छुटकारा चाहती हूँ, पर समझ नहीं आता माँ को हालात कैसे बताऊँ! फिर एक बात और भी है। पति को छोड़कर अलग हो जाऊँगी, तो छोटी बहनों से शादी कौन करेगा! लोग कह देंगे कि बिना बाप की लड़कियों पर लगाम नहीं कोई। इनका तो चरित्र ही ख़राब है। वह आदमी रात-दिन यही ब्लैकमेल करता है कि अगर उसकी हर नाजायज़ माँग नहीं पूरी करूँगी, तब वह मुझे और मेरी बहनों को पूरे समाज में ऐसे ही बदनाम करके आत्महत्या करने पर मजबूर कर देगा। मैं तो खुद ही किसी रेल के नीचे जाकर कट जाती, अगर मेरी दो साल की बच्ची ना होती। अनाथ होने का मतलब, मैं बहुत अच्छे से जानती हूँ। हज़ारों नश्तर मेरे सीने में गड़े पड़े हैं। अपनी बच्ची को वही सारे घाव कैसे देकर जाऊँ!”
अब वह फफक-फफककर रो रही थी।
मैं खुद भी नहीं समझ पा रही थी, ऐसे में उसे क्या कहूँ!
चारों तरफ महामारी फैली है, फिर भी जो जानवर हैं,जानवर के जानवर ही रहे, इंसान न बन पाए। कैसी विडंबना है कि यह देवदूत-सी लड़की, इस महामारी में अपनी जान की परवाह ना करते हुए, मौत से जूझते लोगों को बचा रही है; पर अपने रोज़मर्रा के जीवन में रोज़ एक मौत मर भी रही है।
उस दिन मैं उस लड़की से कुछ भी नहीं कह सकी। अपनी ड्यूटी खत्म होने के बाद वह घर चली गई। सुबह जब आई, तो उसके माथे पर नील पड़ा था और हाथ पर इतने नील थे कि मैं गिनती भी नहीं कर पाई। जब वह मुझे इंजेक्शन दे रही थी, मैंने धीरे से उसके हाथ पर उभरे उन नीले निशानों को सहलाते हुए कहा, "लाडो, क्या सचमुच कोई हल नहीं!" हालाँकि मुझे यह भी नहीं पता कि उम्र में मुझसे जो लड़की मुश्किल से दो- चार साल ही छोटी होगी, उसके लिए मेरे मुँह से ‘लाडो’ जैसा शब्द क्यों निकला! शायद ममता का भाव स्त्रियों में जन्मजात आ जाता है।
मेरी बात के जवाब में उसने जो कहा उसने मेरा दिल चीरके रख दिया। "दीदी, पापा के मरने के बाद छोटी बातों को दिल में दबाने में मैंने महारत हासिल की और बड़ी बातों का दुःख पी जाने का हुनर सीखा। ज़िंदगी की चालबाज़ियों में हार जाना जज़्ब किया और जीत क्या होती है, इसमें कभी दिलचस्पी रखी ही नहीं। एक ही दिल था, दुखता रहा, दुखता रहा और दुखता ही रहा।"
चार दिन बाद मेरी अस्पताल से छुट्टी हो गई। वह मेरा शहर नहीं था। मैं बदकिस्मती से वहाँ थी। मुझे उस शहर से वापस मेरे शहर लाया गया। बहुत दिन तक सफेद दीवारों वाले कमरे के बीच में बिस्तर लगा रहा, एक दूसरे अस्पताल में और फिर एक दिन मैं अपने नीली दीवारों वाले कमरे में, जहाँ खिड़की के पास बिस्तर है, वहाँ लौट आई। पर वह नर्स लड़की मेरे ज़हन से कभी उतरी ही नहीं। जैसे वह उस दिन से मेरे साथ मेरी देह में रहने लगी।
वैसे भी जो याद रखना था, याद न रहा। जो भूल जाना था, भूला न कभी। मुझे याद आता रहा कि उसने मेरी छुट्टी हो जाने के ठीक एक दिन पहले मुझे गले लगाया था। ड्यूटी खत्म करके घर जाते हुए वह पलट कर वापस आई थी और कुछ देर मुझे गले लगाए रही, फिर जैसे कुछ कहते-कहते रुक गई थी। मेरे दिल ने उसकी इस ऊहापोह को चिह्नित कर लिया था। मैंने उसकी हथेली को अपने दोनों हाथों के बीच में प्यार की गर्माहट देते हुए कहा, "कुछ कहना चाहती हो, तो इतना सोचो मत, कह दो।"
उसने पूछा, "मेरी ज़िंदगी का अनुभव कहता है, पुरुष के विरोध का पर्यायवाची, समाज से रिजेक्ट हो जाना है। क्या आप भी ऐसा मानती हैं?"
उसके इस सवाल ने मुझे हतप्रभ कर दिया। मुझे उस वक्त कोई जवाब नहीं सूझा। मैंने उसे पलटकर दोबारा गले से लगा लिया और इस बार कसकर।
पर कुछ देर ठहरकर फिर मैंने उससे कहा, "हो सके तो आगे बढ़ जाना और इस बार तुम मत करना कभी यकीन किन्हीं शब्दों पर.. दुनिया के सबसे खूबसूरत शब्द दरअसल सबसे बदसूरत हालात की उपज होते हैं।
मत बह जाना किसी की तरल आँखों में …हरी- नीली -भूरी -काली सब की सब आँखें उतना ही सच रखेंगी, जितनी तुम्हारी बीनाई। मैंने भी सही लोगों से सही सबक सीखने में गलती की और ग़लत लोगों ने सिखाए सबक दंड सहित और अफसोस वह सब सही थे। पर हिम्मत मत हारना। जब मर नहीं सकती और लड़ना ही है, तो हिम्मत से लड़ना और समाज के रिजेक्शन की परवाह किए बिना लड़ना।"
हालाँकि उसको यह सब कहते हुए मेरे खुद के अंदर एक दर्द की गहरी लहर उठ रही थी, जाने यह हिम्मत मैंने उसको दी या खुद को!
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इन दिनों में अपने ही अतीत के सफ़हों पर फिसलती रहती हूँ। उस नर्स लड़की की बात कितना बड़ा सच थी। पुरुष के विरोध का पर्यायवाची हमेशा से रिजैक्टिड ही तो रहा है!
उस रात ...
लड़की की अँगुलियाँ काँप रही थीं। आँखों के आगे सब धुँधला था । कैब बुक करने की यह उसकी तीसरी कोशिश थी। ओला कैब का एप पहले से डाउनलोड था फोन में, जिसे उसने पहले भी अनगिनत बार इस्तेमाल किया था । लेकिन आज योअर लोकेशन से लेकर योअर डेस्टिनेशन तक उसको भरना समझ न आ रहा था । कभी योअर लोकेशन में डेस्टिनेशन का नाम भर रही थी कभी योअर डेस्टिनेशन में इनर सर्कल सीपी लिखती। कनॉट प्लेस, दिल्ली का गोल दिल जहाँ अनगिनत प्रेम कहानियाँ एक सदी से जनम लेती रहीं और दफ़न होती रहीं। वह इस समय ठीक हीरा स्वीट्स के सामने एक कार के सहारे से बेहद हताश और घबराई-सी हालत में खुद के आँसुओं से जूझ रही थी। सरे-राह रोना कोई अच्छी बात तो नहीं! वह सरे-राह सरे-आम तमाशा न बनना चाहती थी; पर वह शायद बन रही थी। घबराहट उसकी आँखों के डबडबाते आँसुओं में से अदृश्य बहाव के साथ उसके बदन की हल्की कँपकँपाहट में उतर आई थी। उसकी तीसरी कोशिश भी नाकामयाब होती देख लड़के ने उसके हाथ से फ़ोन ले लिया। वह लेना लगभग फ़ोन छीनने जैसा ही था।
"एड्रेस बोलो।"
लड़के की आवाज़ इतनी सर्द थी, ज्यों किसी कब्रिस्तान में लाश दफनाते हुए रह गया हो कोई महीन सूराख और एक क्रोधित आत्मा फुँफकार रही हो।
वह सर्द लहज़ा लड़की के ज़हन की नसों का खून जमाने लगा। इस लाश को किस बात का गुस्सा है !
दफना दिए जाने का! इस तरीके से दफना दिए जाने का या जीवन की रोशनी फेंकते एक सूराख के छोड़ दिए जाने का!
लड़की अब भी काँप ही रही थी कि वह फिर फुँकारा, "एड्रेस बोलो न?" "होम के नाम से सेव है।"
"तो इतनी- सी बात पहले याद नहीं आई!" वह झुँझलाते हुए कैब बुक करने लगा। कार के ऑप्शन के लिए उसने फ़ोन लड़की के सामने किया-माइक्रो, मिनी, प्राइम। लड़की आँखें फाड़े स्क्रीन पर पढ़ने की कोशिश करने लगी, पर नाकाम। सब वैसा ही धुँधला था।
'सिलेक्ट करो जल्दी"-सर्द आवाज़ बेहद पैनी हो अधीर हो उठी थी।
लड़की ने हथेली के पिछली तरफ़ से आँखें पोंछी और फ़ोन को ध्यान से देखा। प्राइम पर अँगुली रख दी।
बेरुखी के साथ फ़ोन लौटाते हुए उसने कहा, "मैं अब चलता हूँ।" लड़की सड़क पर गिर न जाना चाहती थी। उसने निढाल-सा शरीर पीछे खड़ी कार से सटाते हुए हाँ में सिर हिला दिया।
उसे इस लम्हा लड़के से बेहद डर लग रहा था। कुछ दिनों पहले वे दोनों साथ कॉफी पी रहे थे। कुछ लम्हों पहले वे एक तेज़ भागती कार में थे। कुछ दिनों पहले वे सीसीडी के एसी की ठंडक से बैचेन हो, लड़के के बेहद पास सरक आई थी, जैसे कभी कोई दूरी रही ही न हो।
कुछ लम्हें पहले वह लड़के की बाँहों में निरीह चिड़िया-सी छटपटा रही थी, एक मौन के साथ। कुछ दिनों पहले सीसीडी की टेबल के नीचे लड़की का बर्फ-सा ठंडा पैर लड़के के सैंडल में छिपे पैर पर हौले-हौले सरक रहा था और लड़की के पैर की पायल के घुँघरू हौले-हौले रूनझुन कर रहे थे प्रेमसंगीत से। और कुछ लम्हों पहले कुचला जा रहा था लड़की का मन, काँटों-भरी अँगुलियों और होंठों से उसकी रज़ामंदी के बगैर।
कुछ घंटों पहले वह एक भव्य मॉल के बड़े से रेस्तरां में थे, जहाँ लड़का उतार रहा था लड़की की अनगिनत तस्वीरें और अचानक चूम लेता है लड़की का गाल। लड़की शर्मो-हया से गुलाबी हो आँखों से मुस्काने लगती है। ठीक चार लम्हें पहले लड़के ने झटक दिया होता है लड़की को ऐसे, जैसे वह कचरे का बदबूदार ढेर है; क्योंकि लड़की ने नकार दिया होता है लड़के की देह लिप्त उद्दंड कोशिशों को सिरे से ही।
इस कुछ घंटों से कुछ लम्हों तक के सफर में लड़की के वजूद के हो चुके होते हैं- हज़ारों लाखों टुकड़े।
फ़ोन बज रहा था। वह सहमी-सी लड़की अभी भी कार से पीठ टिकाकर खड़ी थी। घंटों से, लम्हों में तकसीम हुई लड़की हैरानी से फोन देखने लगी।
आज उसको हर आम चीज़ भी दुनिया की सबसे नई ईजाद लग रही थी। फोन कैसे रिसीव करते हैं, यह सोचने में भी कुछ पल अपने मैमोरी मैक्निज़म से जद्दोजहद करने के बाद आखिरकार उसने हरे रिसीवर के साइन को साइड स्क्रोल किया। "हैलो! मैम कैब बुक कराया था आपने। मैं यहाँ हीरा स्वीट्स के सामने खड़ा हूँ। आप कहाँ हैं?"
"मैं... "
फिर से मैमोरी मैक्निज़म के साथ जद्दोजहद शुरू हुई -"हैलो.. हैलो .."
उधर से खीझा-सा स्वर बार-बार कान के पर्दे फाड़ रहा था। वह यकायक बोली, "मैं भी हीरा स्वीट्स के सामने ही हूँ।"
कार ठीक उसके आगे ही खड़ी थी। कैब ड्राइवर ने शीशा नीचे करते हुए अजीब-सा मुँह बनाया। वह बिना कुछ बोले बैठने लगी, तो कैब ड्राइवर ने पूछा, "जाना कहाँ है आपको?"
"आपने बुकिंग लेते हुए नहीं देखा! गुरुग्राम।"
"मैम एक समस्या है- मेरे पास इतना सीएनजी नहीं है। रास्ते से लेना पड़ेगा, जिसमें घंटा भी लग सकता है।"
"भैया रात के नौ बज रहे हैं। मेरी तबियत भी ठीक नहीं। अभी भी घर पहुँचने में डेढ़ घंटे से ज़्यादा लग जाएगा।" लड़की आँसुओं से जूझती हुई बोली।
"मैम फिर आप कोई दूसरी कैब बुक करा लीजिए। मैं खुद कैंसिलेशन डाल देता हूँ।" लड़की झिझकते हुए वापिस उतर गई।
वह ज़िन्दगी पर हैरान थी। जो शाम ज़िन्दगी की सबसे सुखद महसूस हो रही थी, वह खौफ़नाक रात में बदलती जा रही थी।
उसने एक बार फिर अपनी डबडबाई आँखों को पौंछा और फोन से फिर शुरू की एक कोशिश कैब बुक करने की। दो बार के फेल अटेम्प्ट के बाद, तीसरी दफा बुक हो गई कैब।
एक बार फिर शुरू हुआ इंतज़ार। जनवरी की रात थी। ठंड बढ़ रही थी। जनवरी की सर्दी ठिठुरन के साथ कोहरा भी लेकर आती है। धुंध बढ़ने लगी थी। अब तो लड़की को भी समझ न आ रहा था, वह ठंड से काँप रही है या घबराहट से।
कोई दस मिनट के इंतज़ार के बाद फ़ोन फिर घनघनाया। "हैलो! मैम आपने कैब बुक की है न?"
"जी " "आप कहाँ हैं? मैं हीरा स्वीटस के सामने जो लालबत्ती है वहाँ सड़क के दूसरी तरफ़ खड़ा हूँ।" "जी मैं बिल्कुल हीरा स्वीट्स के सामने हूँ। आप वहीं आ जाइए।"
"मैम रोंग साइड का चालान हो जाएगा। आपको तो पता होगा यहाँ इस एरिया में पुलिस की सख़्ती बहुत है। प्लीज़ आप इस तरफ़ आ जाइए। एक रोड ही तो पार करना है।" लड़की के पैर काँप रहे थे। नज़र बार-बार धुँधला रही थी। ऐसी हालत में सड़क पार करना भी उसके लिए जंग जीतने जैसा कठिन काम था।
पर कैब ड्राइवर भी सही कह रहा था। वह अगर यू टर्न करके आने की कोशिश करेगा, तो यक़ीनन चालान हो जाएगा।
"आती हूँ।" लड़की ने धीरे से कहा और फोन बंद कर दिया ...
लड़की बिल्ली जितना चौकन्ना हो सड़क पार करने की कोशिश तो कर रही थी, पर दरअसल उसका हाल उस निरीह कबूतर जैसा था, जिस पर घात लगाकर शातिर बिल्ली ने कब पंजा मार दिया, उसे पता ही नहीं चला। सड़क पार करते हुए कब वह एक तेज़ कार की चपेट में आई, उसे कुछ याद नहीं। उस लड़की को जब हॉस्पिटल ले जाया जा रहा था, तब वह नीम बेहोशी की हालत में एक नाम बोल रही थी बार-बार ..विक्रांत.. यह वही लड़का था, जिसने प्रेम की रूहानी बातें करके उसका शारीरिक शोषण करना चाहा। लड़की ने जब ऐसा करने से उसको रोक दिया, तो लड़का उसे बेरुखी के साथ ऐसे छोड़कर गया, जैसे लड़का नहीं, लड़की ही उसका कोई फायदा उठा रही हो।
उस रात बेहोशी में, दर्द की इंतहा में, धोखे के घाव में, मेरे मन ने एक लुभावना सपना देखा कि मेरे एक्सीडेंट से घबराकर विक्रांत ही मुझे हॉस्पिटल लेकर गया है, जबकि उसने तो पलटकर उस दिन के बाद से कभी देखा ही नहीं कि मैं ज़िंदा हूँ या मर गई।
मैंने विक्रांत के लिए अपना कुछ न होना कितना सहज कर दिया, उस चार शीशों वाली चुँधिया हुई सर्द रात में।
आज सोचती हूँ, तो समझ नहीं आता कि ऐसा मैंने कैसे होने दिया! उसकी छवि शुरू से ही कैसानोवा की थी। मैंने क्यों उसको नज़र अंदाज किया!
मैं सब सच जानती थी और आँखें मूँदती रही, एक लंबे समय तक यह सोचकर कि आज तक भले ही किसी से ना किया हो; पर मुझसे तो वह सच्चा प्यार करता है। दूसरे तो बाद में देते हैं, पहला धोखा तो हम खुद ही खुद को देते हैं।
मैं आज तक समझ नहीं पाई कि वह आत्महत्या का निर्णय मैंने हताशा में लिया था या विक्रांत को कोई सबक सिखाने की तीव्र इच्छा से, वह भी उन दिनों जब कोरोना की महामारी सबको निगल रही थी, लोग ज़िंदा रहने की जद्दोजहद में पगलाए हुए थे और मैंने अच्छी- भली ज़िन्दगी को ठोकर मार दी थी। पर जब आपकी साँसें बाकी हों, तो आप जीवन से मुँह चाहकर भी मोड़ नहीं पाते।
हाँ …क्योंकि मेरे मन का सबसे काला हिस्सा यह जानता है कि उस कार की चपेट में मैं उस कार वाले की गलती से नहीं आई थी। अपनी खुद की जीवन त्याग देने की इच्छा की वजह से आई थी जो सड़क पार करते हुए जाने कैसे पल के सौंवें हिस्से में मेरे ज़ेहन में कौंध गई थी। उस रात मुझे बस इतना याद रहा कि विक्रांत मुझे अस्पताल लेकर गया, होश में आने के बाद मुझे लगा कि वह मेरे सिरहाने मिलेगा, पर वह नहीं था। होता, तो तब जब आया होता। सिरहाने बैठी थी मेरी माँ। माँ जिसकी बातें सुननी, तो मैंने कब से बंद कर दी थीं। एक उम्र के बाद माँ की बातें बच्चों को कम ही समझ आती हैं।
मुझे तब भी विक्रांत का इंतज़ार था। फिर पता चला कि पुलिस के डर से कि मैं कहीं मर गई, तो वह फँस न जाए, मेरे एक्सीडेंट के दो दिन बाद ही वह सिंगापुर निकल गया, जहाँ उसकी नई गर्लफ्रेंड रहती है। उस रोज़ मैंने महसूस किया कि जिसे आपके होने से फर्क नहीं पड़ता, उसे आपके मरने से भी नहीं फर्क पड़ता। अगर इस आत्महत्या की कोशिश में मैं वाकई मर गई होती तब भी उसके चेहरे पर एक शिकन तक नहीं आती।
पर उन दिनों दिमाग तार्किक कहाँ सोच पा रहा था! मैं शायद यह फिर से कर गुज़रती अगर वह नर्स लड़की मेरे जीवन में नहीं आई होती। उसको देखकर मैंने जाना कि आत्महत्या भी उनके लिए बहुत बड़ी लग्जरी है जिनके पास जिम्मेदारियों के भारी पुलिंदे होते हैं। मेरे पास यह लग्जरी थी, तो मैंने यह कर लिया, उसके पास तो यह भी नहीं। पर अब ठहरकर सोचती हूँ, क्या मैं वाकई अपने होने को इतना मामूली बनाकर यूँ मिट्टी में मिल जाना चाहती हूँ! क्या वाकई महज़ एक खराब इंसान के संपर्क में आकर, जो जीवन मिला है उसका कुछ नहीं बनाना है मुझे!
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याद की बूँदें रात के इस पहर बारिशों में घुलकर टपक रही हैं। थोड़ी देर पहले मूसलाधार थी बाहर । सड़क पर पानी के बहने की आवाज़, बारिश के गिरने से ज़्यादा तेज़ थी।
ज़ेहन की गीली मिट्टी से अतीत के केंचुए रेंगते हुए पूरे बदन पर फैलने लगे हैं।
आप इन केंचुओं को कितना भी मार लो, यह हर भीगे मौसम में बार- बार जन्म लेंगे और लगातार रेंगते रहेंगे।
कुछ आवाज़ें लौट आना चाहती हैं, कान उन्हें सुनना नहीं चाहते।
कुछ आवाज़ें लौटती ही नहीं और देहरी पर दिल,कान से ज़्यादा सजग खड़ा रहता है कि शायद... और सबसे बड़ी त्रासदी तो तब है, जिस आवाज़ के लिए देहरी पर कान हैं, वह किसी और की नहीं, खुद की है ... जो कभी सुनती ही नहीं…
पर क्या सचमुच ..एक बार भी नहीं!
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