हीरो से जीरो और जीरो से हीरो / जयप्रकाश चौकसे

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हीरो से जीरो और जीरो से हीरो
प्रकाशन तिथि :13 फरवरी 2015


शिमित अमिन ने नाना पाटेकर के साथ पुलिस के फेक एनकाऊंटर पर 'अब तक छप्पन' के बाद 'चक दे इंडिया' बनाई जिसमें महिला हॉकी टीम के संघर्ष की अद्भुत कथा थी। प्रांतीयता के जहर के खिलाफ देश में एकजुटता की भावना जगाने वाली यह फिल्म एक यादगार फिल्म है और एकमात्र फिल्म है जिसमें शाहरुख खान ने कोई सितारा लटके झटके नहीं दिखाए बस पात्र की त्वचा के भीतर जाकर हॉकी कोच की भूमिका का निर्वाह किया था। इन दो फिल्मों की सफलता के बाद उन्होंने रणबीर कपूर के साथ 'रॉकेट सिंह...' बनाई जो बुरी तरह असफल रही क्योंकि ईमानदारी का दम भरने वाले नायक ने एक कंपनी में काम करते हुए उसके साधनों का इस्तेमाल करके अपनी प्रतिद्वंद्वी कंपनी खड़ा करने का प्रयास किया अर्थात बेइमानी के आधार पर 'इमानदार कम्पनी' खड़े करने की चेष्ट की। दरअसल सेल्समैन विषय में असीमित संभावनाएं हैं, उसे वह चीज बेचना है जिस के निर्माण और उसमें गुणवत्ता के बारे में उसे सतही जानकारी है। उसे वह बेचना है जिस पर स्वयं उसका विश्वास नहीं है। साथ ही दर-दर भटकना और कई बार अपमान झेलना आत्मा मारने का काम है। ग्राहकों की निगाह में नफरत देखकर वह विचलित हो जाता है तथा जूता घिसने के पहले उसका ईमान मर जाता है। यह मुमकिन है कि सेल्समैन कच्ची नींद में भी चीज बेचने के रटे रटाए जुमले बोलता हो। अभी खुलासा हुआ है कि चुनाव जीतने के लिए किए गए वादे महज 'जुमले' हैं और उन्हें गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए। सेल्समैन के प्रेम निवेदन में भी सेल्स टॉक उसके अनचाहे ही जाती है।

बहरहाल इस फिल्म की असफलता ने शिमित अमिन का विश्वास डगा दिया और लंबे समय से वे खामोश हैं। यह संभव है कि आत्म अवलोकन के बाद उन्होंने सार्थक पटकथा लिख ली है और अब अर्जुन कपूर के साथ आदित्य चोपड़ा के लिए फिल्म बनाने जा रहे हैं। नायक अर्जुन कपूर भी अपनी एक्शन फिल्म 'तेवर' से यह सबक सीख चुके हैं कि अब उन्हें लीक से हटकर ठोस कहानी वाली फिल्म करना चाहिए। जो शिमित अमिन के लिए 'रॉकेट...' का अनुभव था, वहीं अर्जुन कपूर के लिए 'तेवर' का अनुभव रहा, अत: वो दूध के जले छांछ फूंककर पीना चाहते हैं। फिल्म उद्योग में विगत सारी सफलताएं लोग भूल जाते हैं और हरएक का मूल्य केवल उसकी ताजा फिल्म की सफलता या असफलता तय करती है। 'आग' से 'संगम' तक यादगार फिल्में बनाने वाले राजकपूर की जोकर की असफलता के कारण उनके अपने लोग कहने लगे थे कि राजकपूर फिल्म बनाना भूल गया है। महीनों राजकपूर अपने दफ्तर में अकेले बैठे रहते थे और 'बॉबी' की सफलता के बाद उन्हें अकेले रहना संभव नहीं हुआ। फिल्मों की तरह राजनीति में भी चुनाव दर चुनाव मापदंड बदलते रहते हैं। इतना ही नहीं सामान्य जीवन में भी दस व्यक्तियों के परिवार में एक नौकरी तलाश करके थका हारा जब घर आता है तो दरबाजा खुला होकर भी खुला होने का भान उसे नहीं हो पाता। मन के द्वार जो बंद होते हैं।

बहरहाल अर्जुन कपूर की 'टू स्टेट्स' और 'फाइन्डिग फैनी' सफल रही थी, अत: अब वह 'नई कहानी' के लिए बेकरार हैं। 'बी.ए. पास' के लिए अति प्रशंसित अजय बहल की नई पटकथा भी अर्जुन पढ़ रहे हैं और शीध्र ही निर्णय लेने वाले हैं। अजय बहल ने अपनी विगत फिल्म की तरह नई फिल्म का आधार भी एक पठनीय उपन्यास को बनाया है जिसमें पत्रकारिता, पुलिस, भ्रष्टाचार और अपराध जगत के यथार्थ प्रसंग शामिल हैं और उसके कलेवर के कारण उस कथा को 'इंडिया टू डे' कहा जा सकता है। अजय बहल एक वर्ष से पटकथा पर काम कर रहे हैं।

फिल्म उद्योग और राजनीति दोनों में ही सफलता का आधार अवाम का मन है जिसे पढ़ना असंभव है। कुछ माह पूर्व केजरीवाल को आता देख, लोग दरबाजा बंद कर लेते थे। उनसे उनके अनावश्यक त्यागपत्र के कारण नाराज थे। उन्होंने अपनी गलती कबूल की और जनसंपर्क सतत बनाए रखा। उसकी नीयत देखकर बंद दरबाजे खुलने लगे। दरअसल अवाम बहुत भावना प्रधान है और सच्ची मोहब्बत को पहचान जाता है। सिनेमा हो या राजनीति दोनो में ही दिल का रिश्ता है, दर्द का रिश्ता है। निर्देशक हो या नेता उसकी विचार प्रक्रिया से आम आदमी हटा तो फिर कुछ नहीं बचा रहता।