हीरो / जयनन्दन
हमें उन दिनों अपना देश बहुत अच्छा लगता था और देश में अपना गाँव सबसे अच्छा लगता था और अपने गाँव में रदीफ रौनक बेमिसाल लगता था और रदीफ रौनक में उसकी फिल्मी हीरो बनने की खब्त तथा उसकी हैरतअंगेज मोहब्बत हमें खास तौर पर आकर्षित करती थी। गाँव के हम उम्र स्कूली लड़के आई ए एस, आई पी एस, डॉक्टर, इंजीनियर जैसे कैरियर के बड़े-बड़े पदों के सपने देखते थे मगर एक अकेला था रदीफ जो सिर्फ और सिर्फ हीरो बनने की दिलचस्प तैयार में संलग्न था।
हम उसके हाव-भाव, क्रिया-कलाप, रंग-ढंग पर बेहद मुग्ध थे। इतना ही मुग्ध हम उसकी मोहब्बत पर भी थे। चूँकि जिस लड़की से वह प्यार करता था वह गाँव की कोई मामूली लड़की नहीं थी। वह इस इलाके के इकलौते राजकीय अस्पताल के एक मसीहा की तरह लोकप्रिय डॉक्टर की लाड़ली बेटी थी। वह एक बड़ी कोठी में रहती थी और एक बड़े शहर में रहती थी ज़हीन थी, खूबसूरत थी, आलीशान थी, आम लोगों के लिए बेपहुँच और हम लोगों के लिए कौतूहल का विषय थी। हम लोग उससे बात तक करने की औकात खुद में नहीं देखते थे वह हमसे बात करे, हमें देखे, इस लायक हम थे भी नहीं। हमारी शक्लें लुटी-पिटी जैसी दिखती थीं अभावों और विपन्नताओं ने हममें एक भी चमक महफूज नहीं रहने दी थी। मगर क्या ही फख्र्र का सबब था कि रदीफ को वह दिलोजां से चाहती थी। रदीफ की इस खुशकिस्मती पर हमें घनघोर रश्क होता था।
शाम को मित्र-मंडली के सभी लड़के रदीफ के सायबाने पर एक साथ ही अड्डा मारते थे। वह सायबाना हमारे लिए एक साथ क्लब था, लाइब्रेरी था, चिंतन-गृह था, सेमिनार हॉल था। रदीफ ने अपनी कई भंगिमाओं की खूबसूरत तस्वीरें दीवार पर लगा रखी थीं और इन्हीं तस्वीरों में एक बड़ी तस्वीर फ्रेम में मढ़ी हुई दिलीप कुमार की थी। दिलीप कुमार की तस्वीर उसके लिए वैसे ही महत्त्वपूर्ण थी जैसे एकलव्य के लिए द्र्रोणाचार्य की मूर्ति। उसने दिलीप कुमार की तस्वीर के ठीक बाजू में एक बड़ा-सा आईना भी लगा रखा था जिसे देख-देखकर वह रिहर्सल किया करता था, कुछ इस तरह कि वह खुद को खुद भी देख सके और दिलीप कुमार को भी दिखा सके। चेहरे पर कई मुद्राएँ और आव-भाव लाकर वह कई तरह के संवाद उच्चरित करता था रोते हुए, हँसते हुए, घिघियाते हुए, खिसियाते हुए, भड़कते हुए, झिड़कते हुए, चिढ़ते हुए, चिढात़े हुए। उसके गैरहाजिर होने पर भी उसके अल्फाज सायबाने पर हमें गूँजते से प्रतीत होते थे और आईना भी उसकी कई छवियाँ दिखाता सा प्रतीत होता था। वैसे कुछ संवाद जिन्हें वह बार-बार दोहराता था, हमें भी याद हो गये थे। इन्हीं में एक था, “बहुत हो गया, अब तुम्हें हम छोटे और गरीब लोगों को भी आगे बढ़ने के मौके देने होंगे हमारे लिए भी अपनी काबलियत के मुताबिक मुकाम पर पहुँचने के रास्ते छोड़ने होंगे। अब यह नाइंसाफी नहीं चलेगी कि छोटे लोग सब दिन छोटे रहें और बड़े घर के नालायक लोग भी बड़े बनते रहें।”
हमें इस संवाद से ऐसा लगता था जैसे रदीफ अपनी और हम सबकी भावनाओं और स्थितियों का इजहार कर रहा है। मोहब्बत के बारे में उसका एक सुपरिचित डायलॉग था, “तुम्हारी यादों को अपने सीने में महसूस करता हूँ तो तमाम कमियों, तकलीफों और जिंदगी से हजार शिकायतों के बावजूद लगता है कि मैं दुनिया का सबसे खुशनसीब आदमी हूँ। सोचता हूँ कि तुम बेवफा भी हो जाओगी तब भी जीने के लिए मेरे पास यह एहसास काफी होगा कि कभी तुमने मुझे दिलोजां से चाहा था।” रदीफ खुद को रगड़ता और माँजता रहता। इन्हीं अभ्यासों के बीच सोगरा का नौकर ममदू मियाँ उसे बुलाने आ जाता, “मोहतरमा ने आपको याद किया है।”
रदीफ की आँखों में जैसे सैंकड़ों जुगनू जगमगा उठते थे। वह बेहद आतुरता से दोस्तों को इजाजत माँगने वाली नज़र से देखने लगता था। सर्वत्र इजाजत ही इजाजत बिछी होती थी और हौसला आफजायी का मानो एक गागर छलक उठता था जाओ मियाँ, जल्दी जाओ, दौड़ पड़ो, खुदा की इस रहमत का एहतराम करो।
रदीफ चला जाता था हकीकत की एक रंगीन दुनिया में मानो किसी विजेता की तरह एक पुरस्कार लेने ह़म गर्व से तालियाँ बजाते उसे जाते हुए देखते रहते थे और उसके बारे में तरह-तरह से सोचते हुए गुम हो जाते थे तसब्बुर की एक सफेद और स्याह दुनिया में। सोगरा कह रही होगी तुम हो तो दुनिया कितनी हसीन है, जो तुम नहीं तो कुछ भी नहीं हैं। सामने कवाब और पकोड़े परोसे जा रहे होंगे, सोगरा अपने हाथों से उसे खिला रही होगी और रदीफ अपने हाथों से सोगरा को खिला रहा होगा। दोनों टेनिस खेलते हुए नेट के पार बहुत आसान बॉल डाल रहे होंगे रदीफ चाहता होगा कि सोगरा जीत जाये और सोगरा चाहती होगी कि रदीफ जीत जाये।
कोठी की चारदीवारी के अंदर ही टेनिस कोर्ट बना था जिसमें वह शाम को टेनिस खेलती थी। जब उसके घर में साथ देने के लिए कोई नहीं होता था तो वह रदीफ को बुलावा भेज देती थी। एक बार रदीफ की गैरहाजिरी में उसने मुझे बुलवा लिया था, पर मेरा दुर्भाग्य कि मुझे टेनिस खेलना कभी नहीं आया। मैं खेल नहीं पाया तथापि उसके बुलाये पर धन्य-धन्य महसूस कर रहा था। किसी हूर से भी पुरकशिश सोगरा को, इतने करीब से कि हाथ बढ़ाकर उसे छुआ जा सके, मैं देख सकूँगा, इसकी कभी मैंने कल्पना नहीं की थी। मैं तो यह भी नहीं सोच सकता था कि वह मुझे नाम से जानती होगी। रदीफ ने शायद अपने सारे दोस्तों के बारे में उसे बता रखा था। मुझे लगा था कि हम एक ही शृंखला की कड़ियों में गुँथे हैं। हम रदीफ से जुड़े हुए और रदीफ सोगरा से जुड़ा हुआ।
रदीफ से उसकी नजदीकी पर घरवालों को रजामंदी थी। रदीफ था ही ऐसा कि कोई भी उसकी तरफ बरबस खिंच जाता था। नाराज़, असंतुष्ट या चिढ़ाने के तत्व गोया उसमें थे ही नहीं या थे भी तो उन्हें तुरंत ढूँढ़ लेना मुमकिन नहीं था। सोगरा के अब्बा डॉक्टर शौकत तक को यह यकीन हो गया था कि रदीफ आज न कल हीरो बनकर ही रहेगा।
वह चार-पाँच महीने में एक बार बंबई चला जाता था और लौट कर आने पर वहाँ के चटपटे किस्से सुनाता था। तब हमें यह मालूम नहीं था कि बंबई में एक फिल्म इंडस्ट्री है। रदीफ से हमें यह ज्ञात हुआ था कि हिन्दी फिल्में बंबई में ही बनती हैं। तब हम यह समझते थे कि जैसे उद्योग होता है लोहे का या कपड़े का और उससे लगातार लोहा और कपड़ा बनता है, वैसे ही फिल्म उद्योग भी एक लम्बी-चौड़ी चारदीवारी के अंदर चलता होगा और उससे लगातार फिल्में बनती रहती होंगी।
रदीफ बंबई में कई फिल्मवालों से जाकर मिलता था, उनमें दिलीप कुमार जरूर होते थे। उसके अनुसार दिलीप कुमार से उसकी काफी नज़दीकी हो गयी थी और वे उसकी वाकई मदद करना चाहते थे। हम लोगों को बड़ा कौतूहल होता था और उसके भाग्य पर ईर्ष्या भी कि दिलीप कुमार जैसे सुपरस्टार से वह मिल बतियाकर आ जाता है। हमें रदीफ से ही जानकारी मिली थी कि दिलीप कुमार मुसलमान हैं और उनका असली नाम युसुफ खान है। हमारे ताज्जुब करने पर रदीफ ने कई अन्य हीरो-हीरोइन के नाम गिनवा दिये थे जो मुसलमान थे और हिन्दू नाम रखे हुए थे। पता नहीं क्यों इस मुद्दे ने मुझे यों ही सोचने पर मजबूर कर दिया थ कि आखिर वे कौन से कारण होते हैं कि एक आदमी को अपना नाम बदलना पड़ जाता है। मैंने यह जानना चाहा था कि कोई हिन्दू भी हैं जिसने मुसलमान नाम रख लिया है? इसका ठीक-ठीक जवाब रदीफ को भी मालूम नहीं था। एक दिन तो हम सन्न रह गये जब उसने बताया कि वह भी अपना नाम बदल रहा है। फिर उसने अपना नाम दर्पण कुमार रख दिया। उसने ऐसा क्यों किया, हमारे बहुत पूछने पर भी कोई माकूल जवाब देने में वह सक्षम नहीं हुआ।
रदीफ जो करता था, हम अनाड़ी और गँवई लड़के मान लेते थे कि हीरो बनने के लिए ऐसा करना जरूरी होता होगा। वह फिल्मी गाने गाता था, लय और राग में डूबकर पूरी तन्मयता से। हमें उसे सुनना अच्छा लगता था और हम ऐसा समझते थे कि हीरो बनने के लिए गायक होना भी जरूरी है। तब हमें यह पता नहीं था कि पर्दे पर हीरो सिर्फ होठ चलाता है, अभिनय करता है और आवाज पीछे से किसी और की होती है। उन दिनों हम यही जानते थे कि हॉल में लगी फिल्म के हीरो-हीरोइन सहित सभी कलाकार पर्दे के पीछे मौजूद होते हैं, इसलिए हमें बड़ा ताज्जुब हुआ था यह जानकर जब रदीफ ने बताया कि एक फिल्म एक साथ कई शहरों और कई हॉलों में चलती हैं।
हमें अपना होम टाउन नवादा जाकर फिल्में देखने का मौका लगभग नहीं के बराबर मिलता था। अठ्ठारह साल की उम्र तक मैंने महज तीन फिल्में देखी थीं वे भी धार्मिक-पौराणिक। मेरे दूसरे साथियों का भी यही हाल था। हमारे पास पैसे भी नहीं होते थे और पढ़ने-लिखने की उम्र में फिल्म देखना तब अच्छा भी नहीं माना जाता था। मगर रदीफ नवादा के सिनेमा हॉलों में लगी हर नयी फिल्म जाकर जरूर देखता था। घरवालों की तरफ से उसे पूरी छूट थी, पूरा शह और समर्थन प्राप्त था आखिर उसे हीरो जो बनना था। उसके दो भाई थे, वे कलाली के मैनेजर थे और अच्छा कमा लेते थे। हीरो की तरह दिखने के लिए ह़ीरो बनने के लिए जिन सहूलियतों की रदीफ को तलब होती थी, उन्हें आसानी से वे उपलब्ध करवा देते थे। वह नये-नये फैशन के पतलून, कमीज और जूते पहनता था।
लेटेस्ट पहनावा क्या है फिल्मी दुनिया का या फिर अमीर-रईस लोगों का, रदीफ को देखकर हम अवगत हो लेते थे। उसने अपना एक कान छिदवाकर उसमें बाली पहन ली थी। हमने पहली बार यह जाना था कि औरतों की तरह मर्दों को भी अब कान में बाली और इयरिंग पहनना अच्छा लगने लगा है। हम यों ही सोच गये थे कि कल को कहीं ये लोग चूड़ी भी तो पहनने नहीं लगेंगे! और यह सच हो गया था रदीफ ने चूड़ी की तरह का अपने दाहिने हाथ में एक कड़ा पहन लिया था। आगे उसने हमारी जानकारी को दुरूस्त करते हुए कहा था कि आजकल पहनावे के मामले में औरत और मर्द में कोई फर्क नहीं हैं। रदीफ बाल कटवाने और चेहरे पर मेकअप लेने में भी बहुत खास ध्यान देता था। हमारे बाल अक्सर बेतरतीब और बढ़े होते थे। गाँव के इकलौते नाई की उपलब्धता और स्किल पर ही हमारे हेयरकट का अंजाम बँधा होता था। मगर रदीफ मियाँ हर पखवारे नवादा जाकर अपना हुलिया ठीक करवाता था और जहाँ ठीक करवाता था उसका नाम मेंस ब्यूटी पार्लर बताता था। मर्दों के लिए भी शृंगार-गृह होता है, यह हमारे लिए एक नयी खबर थी। वह चेहरे पर दाढ़ी नहीं रखता, मगर कभी-कभी अजूबे में नक्काशीदार दाढ़ी और मूँछें उगा लेता था। ऐसे में उसका हुलिया बेहद अटपटा हो जाता था, फिर भी हम लड़कों पर उसकी धाक जम जाती थी।
रदीफ के हीरो बनने में कोई खास प्रगति नहीं हो रही थी, बावजूद इसके उसका बार-बार बंबई जाना हमें बहुत रोमांचित कर देता था और यह भी उसकी उपलब्धि जैसा लगता था। हम उसके इस नसीब पर मुग्ध रहते थे कि बंबई जैसा महानगर वह कितनी आसानी से आना-जाना कर लेता है, जबकि हमें अपने होम-टाउन भी जाने के लिए कई बार सोचना पड़ता था। हम लोकल ट्रेन से दो स्टेशन तक सफर करने के मोहताज थे। कभी जाते भी थे तो जोखिम उठाकर विदाउट टिकट। इस चक्कर में हमारे कई दोस्त मॅजिस्ट्रेट चेकिंग में पकड़ा कर तीन-तीन महीने तक जेल काट चुके थे।
रदीफ अक्सर बंबई से एक नाउम्मीदी लेकर खाली-खाली लौटता था, बहुत अर्से बाद वह एक बार उम्मीद से भरा-भरा लौटा। बताया कि इस दफा उसे कामयाबी मिल गयी। दिलीप कुमार साहब ने एक फिल्म में उसे रोल दिलवा दिया, जिसे वह पूरा करके आ गया है। वह फिल्म जल्दी ही रिलीज होगी। नवादा में लगेगी तो हम सभी उसे देखने जाएँगे। वहाँ शूटिंग कैसे हुई इसका बहुत दिलचस्प विवरण उसने सुनाया।
गाँव के हम सभी साथी उस फिल्म के नवादा में लगने का बेसब्री से इंतजार करने लगे। इस बीच पूरे इलाके में यह खबर फैल गयी कि रदीफ फिल्म में हीरो बन गया। रदीफ के रूप-रंग, कद-काठी और अदा-नजाकत के लोग पहले भी प्रशंसक थे, अब उसकी साख बासमती धान की खुशबू की तरह सर्वत्र फैल गयी थी।
राह तकते-तकते काफी दिनों बाद वह फिल्म नवादा में लगी। सभी साथियों ने एक साथ चलकर देखने का कार्यक्रम बनाया। सबने तय किया कि किसी भी तरह टिकट के पैसे जुगाड़ करने हैं आखिर अपने रात-दिन के साथी को पर्दे पर एक्टिंग करते देखने का लोभ कोई कैसे संवरण कर ले। रूखे-सूखे, आधे-अधूरे खाने-पीने वाले साथियों ने भी किसी प्रकार जुटा लिये टिकट के पैसे। जो बहुत यत्न के बाद भी जुटाने में कामयाब न हुए उनके उत्साह को देखकर रदीफ ने अपनी ओर से उनका जिम्मा उठा लिया।
टिकट लेकर जब हम हॉल के अंदर घुसने लगे तो हमारे देहाती फीचर को देखकर गेटकीपर जरा हिकारत से घूरकर एक-एक को गिन-गिनकर रास्ता देने लगा। मुझे जरा ताव आ गया। मैंने उसे औकात बताने वाली मुद्रा में निहारते हुए कहा, “दुग्गी-तिग्गी जैसा सलूक मत करिये गेटकीपर जी, हमलोग कोई मामूली दर्शक नहीं हैं। जो फिल्म देखने जा रहे हैं उसका हीरो हमारे साथ जा रहा है, क्या समझे?”
गेटकीपर ने अब उपहास करती हुई भंगिमा में कहा, “ज्यादा डींग मत हाँको, चुपचाप जाकर आगे बैठ जाओ।” हम बड़े खुश हुए कि हमें एकदम आगे बैठने के लिए कहा गया। तब हम यही समझते थे कि सिनेमा को भी आगे बैठकर देखने में ही ज्यादा मजा है। पीछे की सीटें आगे से महँगी और अच्छी होती है, यह हमें मालूम नहीं था।
हम सभी साथी फिल्म देखने लगे और अपने हीरो को ढूँढ़ने लगे। क्या यह विचित्र स्थिति थी साक्षात वह हमारे साथ बैठा था, लेकिन हम उसे चित्र में असाक्षात देखने के लिए व्यग्र थे। हमारी उत्सुकता चरम पर थी लग रहा था किसी भी पल रदीफ पर्दे पर प्रकट होकर अपना कमाल दिखाने लगेगा। लगा था कि वह अपना चिर परिचित डायलॉग उच्चारने लगेगा, “बहुत हो गया, अब तुम्हें हम छोटे और गरीब लोगों को भी आगे बढ़ने के मौके देने होंगे हमारे लिए भी अपनी काबिलियत के मुताबिक मुकाम पर पहुँचने के रास्ते छोड़ने होंगे। अब यह नाइंसाफी नहीं चलेगी कि छोटे लोग सब दिन छोटे रहें और बड़े घर के नालायक लोग भी बड़े बने रहें।” गाँव की नौटंकी में वह बतौर हीरो सबसे जानदार अभिनय करता था और सभी गाँववाले उसे देखकर खूब तृप्त होते थे। रदीफ भी भावाकुल मुद्रा में बैठा था और अपने किरदार के नमूदार होने की विह्वल प्रतीक्षा कर रहा था।
मिनट दर मिनट फिल्म गुजरती गयी हमारी आँखें पर्दे पर एकटक बिछी रहीं एक सीकिया लड़का अकेले पन्द्रह-बीस बदमाशों को मार-मारकर पस्त और धराशायी किये दे रहा था। हमें इस असंभव से काल्पनिक कारनामे को देखकर बहुत खीज हो रही थी। हमारा रदीफ भी नाइंसाफी के सरपट रौंदते घोड़े की लगाम थाम लेता था, लेकिन किसी को घायल नहीं करता था, बल्कि खुद घायल हो जाता था। फिल्म में हीरो जैसे खून की नदी बहा देने पर उतारू था सारा कुछ झूठ, बकवास और हिंसा-रक्तपात से भरा हुआ। इस तरह पूरी फिल्म पार हो गयी। 'दि एँड' की इबारत आकर पर्दे पर ठहर गयी और आम दर्शक उठकर जाने लगे। हम सभी साथी अभी भी बैठे हुए थे। हमें यकीन नहीं आ रहा था कि फिल्म खत्म हो गयी। बिना रदीफ के पर्दे पर आए फिल्म खत्म कैसे हो सकती थी! हमने तो अब तक इस फिल्म में कुछ देखा ही नहीं हमारा पूरा ध्यान तो रदीफ को ढूँढने में लगा रह गया था। इस फिल्म की कहानी और क्लाइमेक्स हमारे लिए सिर्फ और सिर्फ रदीफ था। वह अंत तक न आया तो हमें एकबारगी लगा जैसे हम ठग लिये गये हमारे पैसे नाहक बर्बाद हो गये।
रदीफ एकदम बदहवास और हैरान था ऐसा कैसे हो सकता है। उसने सपने में नहीं हकीकत में बंबई जाकर रोल निभाया है। उसके चेहरे पर एक दयनीयता और कातरता रिसने लगी थी। यह पहला मौका था जब वह हम दोस्तों में सबसे दुखी दिख रहा था। अन्यथा दुखी तो हम ही रहा करते थे और वह हमारे लिए हमेशा धैर्य का अवलंब हुआ करता था। आज उल्टा हो गया था और उसे, हमें हिम्मत देने की जरूरत पड़ गयी थी। मैंने कहा, “रदीफ, तुम्हें ठीक-ठीक याद तो हैं न फ़िल्म का नाम क्या यही था?”
दूसरे साथी ने पूछा, “कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हारे लौट आने के बाद उस फिल्म का नाम बदल दिया गया?” “तुम लोग यकीन करो साथियों, मैंने वाकई इसी फिल्म में काम किया था कई डायलॉग भी मुझसे बोलवाये गये थे। जिन-जिन ऐक्टरों को पर्दे पर तुम लोगों ने देखा, उनके साथ मैं भी था। दिलीप साहब मेरे साथ इस तरह का मजाक नहीं कर सकते।” रदीफ फूट-फूटकर रोने लगा था मानो कोई बहुत कीमती चीज उससे छीन ली गयी। जब हम गेट से बाहर निकलने लगे तो गेटकीपर तंज भरी आँखों से हम सबके लटके मुँह को घूर रहा था जैसे कह रहा हो कि ये मुँह और मसूर की दाल!
भीतर किसी आलीशान गुंबज के ढह जाने का शोक उसके चेहरे पर छा गया था। हमने उसकी ऐसी हताश सूरत कभी नहीं देखी थी।
रदीफ के सायबाने की सबसे बड़ी पहचान वहाँ लगी दिलीप कुमार की तस्वीर थी। अगले दिन जब हम वहाँ गये तो अनायास हमारी निगाह दीवार के खालीपन पर ठहर गयी। दिलीप साहब की तस्वीर वहाँ नहीं थी पता चला कि रदीफ ने रात में लौटते ही उसे तोड़ दिया था। जिस आईने में देख-देखकर रदीफ अपनी कई शक्लें गढ़ा करता था भिखारी, मदारी, बूढ़ा, नेता, किसान आदि का, वह आईना भी कई किरचों में बँटा था और अब उससे कोई भी प्रतिबिम्ब सही-सीधा-साबुत नहीं देखा जा सकता था। अलग-अलग टुकड़ों में बँटे हिस्से में खंडित अक्स अब दिखाई पड़ रहे थे जैसे वे रदीफ के चेहरे के नहीं चूर-चूर हुए उसके सपनों के अक्स हों। यों लग रहा था जैसे आईना आज मुँह चिढ़ा रहा है। संवादों की अनुगूँज की प्रतीति भी वहाँ से अब अनुपस्थित हो गयी थी, जैसे आईना और तस्वीर के रूप में दो जिंदगी टूटने का शोक संतप्त सन्नाटा छा गया हो।
दीदी की वह स्नेहमयी और रागात्मक संभाषण-मुद्रा दरबारी के हृदय-पटल पर अंकित हो गयी।
अब वह प्राय: हर इतवार को वहाँ धमक जाने लगा। कभी रात में ठहर जाता, कभी खा-पीकर उसी दिन वापस हो जाता। दीदी बहुत खुश होती। इसी तरह आते-आते एक दिन उसने लक्ष्य किया कि दीदी का जेठ उसे कड़ी नजरों से घूरने लगा है और उसकी मुखाकृति पर एक रोष दिखाई पड़ने लगा है।
एक दिन दीदी ने उसे कुछ सामान से भरा एक थैला दिया और कहा, “इसे लेते जा मुन्ना, घर में काम आएगा।”
उस थैले में प्रचुर मात्रा में साबुन, तेल, बिस्कुट, चनाचूर आदि रखे थे। दीदी ने शायद अपने हिस्से की ये चीजें किफायत करके बचा ली थीं। जब इन्हें माँ ने देखा तो उसे डाँटने लगी, “यह अच्छा नहीं किया तुमने। बहन के यहाँ से भी कहीं कोई कुछ लेता है? तुम्हारी आदत बिगड़ती जा रही है। जरा सुधारो इसे।”
दरबारी हैरान रह गया - उसने तो सोचा था कि इन्हें लेकर माँ बहुत खुश होगी, पर पता नहीं किस धातु की बनी थी वह! आगे उसने देखा कि घर में साबुन-सर्फ के रहते हुए भी माँ-बाउजी दोनों सोड्डे या रेह से कपड़े धोते रहे और सिर में काली मिट्टी लगाकर नहाते रहें। दरबारी अकेले बहुत दिनों तक इनका इस्तेमाल करता रहा। साबुन से वह कुएँ पर नहाता तो लोग ताज्जुब से इस तरह देखते जैसे वह चोरी करके लाया हो।
यों चोरी करना भी दरबारी के लिए अब कोई वर्जित काम नहीं था। कई दिन तक जब भूख से आँतें ऐंठने लगतीं, चूँकि महाजनों से डयोढ़िया-सवाई पर कर्ज लेने की सीमा भी पार हो गयी रहती और आगे कोई उपाय नहीं दिखता, तो वह रात में बड़े जोतदारों के खेत से भुट्टे, चना, आलू, शकरकंद, चीनियाबादाम आदि उखाड़ लाता। माँ-बाउजी उसकी यह हरकत देखकर माथा पीट लेते। वे भूखे रह जाते पर इन चीजों को हाथ तक नहीं लगाते। दरबारी अफसोस करता अपने आप पर, खुद को कोसता और बरजता भी, मगर भूख उसे माँ-बाउजी की तरह ज्यादा बर्दाश्त नहीं होती थी। उसे लगने लगा था उन दिनों कि अगर यही स्थिति रही तो वह एक दिन कोई बड़ा डाकू नहीं तो एक शातिर चोर तो जरूर ही बन जायेगा। यों वह समझ सकता था कि भुखमरी और लाचारी न होती तो शायद वह कभी गलत काम की तरफ रूख नहीं करता।
जब से वह दीदी के यहाँ जाने लगा था, इस बुरी लत पर एक काबू बनने लगा था। चोरी-छिछोरी से बेहतर समझता था कि नवादा हो आया जाये। एक-दो शाम डटकर खा लेने के बाद चार-पाँच दिन तो जैसे-तैसे निकल ही जाते थे। मगर उसके जेठ की चढ़ी त्योरी से अब यह भी आसान नहीं रह गया।
इस बार दरबारी चला तो रास्ते में असमंजस के अलावा भी कई अन्य अवरोध बिछे थे। ट्रेन काफी लेट आयी और दीदी के घर पहुँचते-पहुँचते गर्मी की प्रचंड धूप जैसे ज्वाला बन गयी।
इतवार होने की वजह से दीदी को उसके आने का शायद पूर्वाभास था। खिड़की से वह रास्ते को निहार रही थी। उस पर नजर पड़ते ही वह घर से निकलकर कुछ आगे बढ़ आयी और उसे वहीं रोक लिया। एक दरख्त की छांव में ले गयी और कहा, “मैं तुम्हारी ही राह देख रही थी मुन्ना। तुम्हारे बार-बार आने को लेकर जेठ बहुत उल्टा-टेढ़ा बोल रहा था, इस बात को लेकर मुझसे कहा-सुनी भी हो गयी। तुम आज घर मत जाओ, तुमसे भी उसने कुछ कह दिया तो मुझसे सहा नहीं जायेगा।”
पल भर के लिए दरबारी को लगा कि दीदी ने पिछली बार जो सामान दिये थे उसे, कहीं घोंचू को इसकी जानकारी तो नहीं हो गयी? दीदी की बेचारगी को कुछ पल पढ़ता रहा दरबारी, फिर कहा, “ठीक हैं दीदी, मैं लौट जाता हूँ यहीं से कोई बात नहीं। लेकिन तुम मेरे कारण अपने जेठ से संबँध को कड़वा न करों। इन्हीं लोगों के साथ तुम्हें रहना हैं, जीजा अक्लमंद और तेज होते तो बात दूसरी थी। तुम जाओ, मैं जरा सामनेवाले घर से माँगकर एक लोटा पानी पी लूँ।” “दीदी ने कहा, “यहाँ से क्यों माँगोगे, मैं अपने घर से पानी ले आती हूँ। अभी कोई देखेगा नहीं, सभी सोये हैं।”
दीदी ने झट पानी में चीनी घोलकर ला दिया। इसे दरख्त के नीचे खड़े-खड़े ही उसने गटागट पी लिया और पैर को ठंडा करने के लिए उस पर पानी डालने लगा। दीदी ने देखा - तवे की तरह तपती जमीन पर दरबारी नंगे पाँव चलकर आया था और उसके तलवे में फफोले उठ आए थे। भूख क्या-क्या करवा देती हैं। बेचारे को फिर इसी तरह इन्हीं जले पैरों से अंगारों पर चलकर वापस होना होगा।
दीदी कराह उठी जैसे तलवों के सारे छाले (फफोले) दीदी के हृदय पर स्थानांतरित हो गये। भरे गले से उसने कहा, “मुन्ना, मुझे माफ कर देना कि मैं तुम्हें रास्ते से ही वापस कर रही हूँ। इस गरमी में झुलसकर आए तुम और मैं तुम्हें एक पहर आराम करने की भी जगह नहीं दे पा रही। कितना जुल्म कर रही हूँ मैं तुम पर मैं मर भी जाऊँ तो तुम मुझे देखने मत आना।”
दरबारी ने देखा कि दीदी के चेहरे पर, उस वक्त की तुलना में, जब उसने कहा था 'हर इतवार को आया करो मुन्ना', इस वक्त यह कहते हुए कि 'अब मत आना मुन्ना', कहीं ज्यादा सान्निध्य और घनिष्ठता के भाव छलक आए हैं। दरबारी ने पूरे आदर के साथ कहा, “अच्छा दीदी, अब मैं नहीं आऊँगा, लेकिन तुम भगवान के लिए मरने की बात मत करो।”
दीदी की आँखों से टप-टप आँसू चूने लगे। एक अपराध-बोध से दरबारी का हृदय हाहाकार कर उठा, “तुम रो रही हो दीदी? मैंने तुम्हें रूलाया, कसूरवार हूँ मैं मत रोओ दीदी। सचमुच तुम्हारा यह भाई कितना पेटू हो गया था कि तुम्हारी इज्जत की बिना परवाह किये खाने चला आया करता था। तुम्हारे जेठ की आपत्ति वाजिब है, दीदी।”
दीदी ने उसके माथे पर हाथ फिराते हुए कहा, “मैं कितना लाचार हूँ मुन्ना कि अपने घर में तुम्हें खाने तक की छूट नहीं दे सकती। सच मेरे भाई, विधाता अगर मुझे सामर्थ्यवान और आत्मनिर्भर बना दे तो मैं पूरी जिंदगी तुझे खिलाते हुए और खाते देखते हुए गुजार दूँ। सच दरबारी, तूँ खाते हुए मुझे बहुत अच्छा लगता है रे जब तुम खाते हो तो लगता है जैसे अन्न पूजित और प्रतिष्ठित हो रहे हों।”
दरबारी दीदी के पाँव छूकर अपने फफोलेदार तलवों से चलकर वापस हो गया। दीदी ने उसकी जेब में दस रूपये डाल दिये और कहा, “किसी दुकान में कुछ खा लेना और सुनो दरबारी, इस भूख को अगर पछाड़ना है तो पढ़ाई में कोई कोताही न करना।”
इसके बाद दरबारी सिर्फ खाने की लालसा लेकर दीदी के पास कभी नहीं गया। जब लगभग एक साल गुजर गया तब वह मिलने आया मगर एक खास मकसद लेकर। आते ही उसने स्पष्ट कर दिया, “दीदी मैं खाने नहीं आया। तुमसे मिलने आया हूँ और तुरंत ही चला जाऊँगा। तुमने कहा था पढ़ाई ठीक से करना, तो मैं दिखाने आया हूँ कि मैं पढ़ाई ठीक से कर रहा हूँ और मैं मैट्रिक पास कर गया हूँ देखो, यह मार्कशीट है।”
दीदी उसे तनिक विस्मय से, तनिक हर्ष से और तनिक गर्व से अपलक निहारती रह गयी। दरबारी झट मुड़ गया, “अच्छा दीदी, चलता हूँ।” “दरबारी!” राग दरबारी जैसे सुर में दीदी ने दरबारी को पुकारा। लपककर उसके हाथ से मार्कशीट ले ली। एक नजर कुलयोग पर डाला। फिर उसके भोलेपन पर रीझती हुई उसे गले से लगा लिया और कहा, “तूने आज इतनी बड़ी खुशखबरी सुनायी है और मैं तुम्हें यों ही बिना मुँह मीठा कराये ही चली जाने दूँ? इतना बड़ा अपराध करायेगा तू अपनी दीदी से!”
“तो ऐसा कर दीदी, जल्दी से मुझे तू एक चम्मच चीनी खिला दे, कहीं तेरे जेठ ने मुझे देख लिया।”
“देखने दे, आज में किसी से नहीं डरूँगी आज तू विजेता बनकर आया है। हाँ दरबारी, भूख पर तूने एक चौथाई जीत हासिल कर ली हैं।”
दीदी उसे बिठाकर घर में जो कुछ भी अच्छा उपलब्ध था, खिलाने-पिलाने लगी। दरबारी ने तय किया था कि घोंचू के इस क्वार्टर में वह कभी फिर से खाने की गलती नहीं करेगा। मगर दीदी के स्नेह के आगे भला दरबारी का कुछ भी तय किया हुआ कहाँ टिक सकता था! उसने सब बिसरा दिया आखिर भूख भी तो उसे लगी ही थी।
वह खा ही रहा था कि दीदी का जेठ प्रकट हो गया। उसके साथ दरबारी का ही हमउम्र एक लड़का था - जेठ का सबसे छोटा भाई। पहले तो दरबारी सहम गया। लगा कि कौर उसके गले में ही अब अटककर रह जायेगा। मगर उसकी आँखों में आज गुर्राहट नहीं थी। अच्छे मूड में वह दिख रहा था। आराम से बैठते हुए उसने दरबारी को संबोधित किया, “पहचानते हो इसे यह मेरा छोटा भाई है मैट्रिक की परीक्षा दी थी इसने सेकेण्ड डिविजन से पास कर गया। एक तुम हो, एक नंबर के पेटू स्साले सिर्फ खाने के चक्कर में रहते हो आवारगर्दी करते हो। पढ़ाई-लिखाई तो नहीं करते होगे। करते भी तो क्या फायदा बिना पढ़े तो पास करते नहीं। मेरे इस भाई को देखो और जरा शर्म करो।”
दरबारी ने जल्दी-जल्दी बचे हुए को खाकर खत्म कर दिया। हाथ धोकर बहुत देर तक यों ही बैठा रहा। मन में यह विचार करता रहा कि इस आदमी को अपनी मार्कशीट दिखाये या इसे यों ही एक भुलावे में पड़े रहने दे। दीदी ने जेठ के भाषण अंदर से ही सुन लिये थे। दरबारी को जब इसका कोई जवाब देते नहीं सुना तो द्वार पर आकर आवाज लगायी, “मुन्ना, भैया को जरा अपना अंकपत्र दिखा दो।”
दरबारी ने जेब से निकालकर अंकपत्र दिखा दिया। जेठ की आँखें ताज्जुब से फटी की फटी रह गयीं। दरबारी ने सेकेण्ड नहीं फर्स्ट डिविजन से पास किया था सिर्फ फर्स्ट डिविजन नहीं बल्कि हाई फर्स्ट डिविजन।
उसे अपार खुशी हुई पहली बार वह दरबारी को देखकर इतना खुश हुआ था। कहा, “अरे तूने तो कमाल कर दिया, मैं तो तुम्हें एक नंबर का नकारा और पेटू समझता था मगर तुम तो बहुत तेज निकले!” उसने अपनी जेब से बीस रूपये निकाले और अपने भाई को देते हुए कहा, “जाओ, सरस्वती टॉकिज में दरबारी के साथ सिनेमा देखना और फिर मिठाई खा लेना।”
पहले तो दरबारी को लगा कि उसे गरीब जानकर कोसने-धिक्कारने और अंडरइस्टीमेट करनेवाले इस अहमक आदमी के ऑफर को वह ठुकरा दे, मगर सिनेमा देखने की उसकी एक चिरसंचित आकांक्षा अब तक अधूरी थी अत: वह इंकार नहीं कर सका। उसने सोचा कि इसे अच्छी पढ़ाई का एक पुरस्कार के रूप में लिया जाये। उसके छोटे भाई के साथ चला गया वह। हॉल में बैठकर सिनेमा देखने की उसकी साध पूरी हो गयी।
आगे की स्थितियाँ बहुत तेजी से उलट-पलट हो गयी थीं। जीजा की निष्क्रियता और निखट्टूपन के कारण घोंचू ने बदनीयती से जमीन के चंद टुकड़े देकर दीदी को अलग कर दिया जिससे उसकी हालत डगमग और बदतर होती चली गयी। दरबारी ने अभावों और मुश्किलों में भी अपनी पढ़ाई जारी रखी और उसे एक स्टील कंपनी में नौकरी मिल गयी। दीदी ने अभाव के बावजूद कभी हाथ नहीं पसारे मेहनत-मजूरी करके गुजारा चलाती रही। ये और बात है कि दरबारी खुद से किसी न किसी बहाने, जब तक उसका चला, अपनी मदद उपलब्ध कराता रहा।
आज शायद जीवन को दाँव पर लगा देख पूरे जीवन में पहली बार दीदी ने मुँह खोलकर उससे पाँच हजार रूपये माँगे थे। कुछ भी नहीं थी यह रकम दरबारी अपनी पूरी कमाई भी दीदी के लिए न्याछावर कर देता फिर भी बुरे दिन की उसकी जालिम भूख पर जो रहमोकरम उसने किये हैं, उसकी भरपाई नहीं हो सकती। हैरत है कि दरबारी के बेटे ऐसी ममतामयी दीदी को बचाने के लिए मामूली से पाँच हजार भी देने के तैयार नहीं हैं।
वे एकदम खिन्न और उद्विग्न हो गये। तनिक तैश में आकर जवाबतलब कर लिया, “कालीन, पर्दे, टीवी, बाइक आदि के लिए पैसे हैं तुम लोगों के पास, लेकिन मेरी अपनी उस बहन की जान बचाने के लिए एक तुच्छ सी पाँच हजार की रकम नहीं दे सकते, जिसने मेरे सुखाड़ के दिनों में मुझपर अगाध प्यार बरसा कर मुझे हरा बनाये रखा। उस जमाने में पाँच-दस करके ही जितने रूपये मुझे दिये हैं उसने, उसका सूद हम जोड़ना भी चाहें तो गणित फेल हो जायेगा।” कहते-कहते एकदम भावुक हो गये दरबारी प्रसाद।
भुक्खन को उनकी यह भावुकता जरा भी अच्छी नहीं लगी। वह चिड़चिड़ा उठा, “आप यों ही बकबक करते हैं मगर आप जानते भी हैं कि इन चीजों का इंतजाम हम कैसे करते हैं?बाउजी, आप यह मत समझिए कि बैंक में इफरात पैसा पड़ा है जिससे हम बेमतलब की चीजें खरीद रहे हैं। दरअसल जो सर्किल और स्टेटस हैं हमारे, उसे मेंटेन करने के लिए यह सब करना पड़ता हैं। सच यह है बाउजी कि हम बहुत तंगी से गुजर रहे हैं और स्टैंडर्ड को मेंटेन करने में हमारी आमदनी बहुत कम पड़ रही हैं।”
दरबारी ठगे रह गये - एक नया रहस्य खुल रहा था उनके सामने। एक तो रिटायर होने के बाद उनके पैसे भी घर बनाने और इसे सजाने-सँवारने में ही खर्च हो गये, ऊपर से दो-दो नौकरी के पैसे आ रहे हैं।
भुक्खन ने आगे कहा, “जिन चीजों के नाम आपने गिनाये हैं, आप जानना चाहते हैं न कि वे कैसे लाये गये? तो सुनिये, माइक्रोवेव ओवन हमने दुकान से छत्तीस किस्तों में लिये हैं टीवी और ऑडियो सिस्टम बहुत कम पैसे देकर एक्चेंज ऑफर में खरीदे गये हैं। चूँकि ये बहुत पुराने और आउट डेटेड हो गये थे। कालीन हमने क्रेडिट कार्ड से लिये हैं। बाइक भी दुक्खन भैया ने इम्प्लॉय टेम्परेरी एडवांस लेकर लिया है, चूँकि उनका पुराना बाइक बहुत पेट्रोल पी रहा था। नया बाइक जापानी टेक्नॉलॉजी से बना है और पेट्रोल के मामले में बहुत एकोनॉमी हैं। आज-कल में हमें कार भी खरीदनी हैं, चूँकि पास-पड़ोस में सबके पास कार हो गयी हैं। सब टोकते रहते हैं। बैंक से लोन लेना होगा इ़स तरह घर की एक सैलेरी लगभग किस्त चुकाने में ही खप जाती हैं। अब आप खुद ही निर्णय कर लीजिये कि हमारी हालत क्या है। आप चिन्तामुक्त रहें इसीलिये घर के अफेयर्स से हम आपको अलग रखते रहे, जिसका आपने शायद गलत अर्थ निकाल लिया, लेकिन ऐसा नहीं है, बाउजी।”
दरबारी प्रसाद का माथा घूम गया बुरी तरह। उन्हें याद आ गयी गाँव की महाजनी प्रथा। उन्हें लगा कि आज वही प्रथा दूसरे रूप में उनके सामने आ गयी हैं जिनके व्यूह में फँसकर दो अच्छी तनख्वाह के बाद भी उनका घर पूरी तरह कर्जदार हो गया है। उनके बाउजी भी गाँव के साहुकार या बड़े किसानों से अनाज ड्योढिया-सवाई पर लाते थे और अगली फसल में मूल नहीं तो सूद चुका देते थे। मगर तब कर्ज लेने का मकसद सिर्फ पेट भरना होता था। आज स्टैंडर्ड मेंटेन करने के लिए कर्ज लेना पड़ रहा है, कुछ इस तरह कि ऊपर से वह लगता ही नहीं कि कर्ज हैं। क्या पहले से भी शातिर और खतरनाक खेल नहीं बन गया है यह? बाजार ने अपने तिलिस्म इस तरह फैला रखे हैं कि आप में क्रय-शक्ति न भी हो तो भी वे लुभावने स्कीम जैसी कर्ज की एक अदृश्य फाँस में लेकर विलासिता के उपकरण खरीदने के लिए आपको आतुर बना देते हैं। एक्सचेंज ऑफर, क्रेडित कार्ड, कंज्यूमर लोन, परचेजिंग बाई इन्स्टॉलमेंट ये सारे अलग-अलग नाम कर्ज में घसीटने के लिए बाजारवाद और उपभोक्तावाद का व्यूहपाश ही तो हैं जिनमें उनके बेटे फँस गये हैं बुरी तरह।
मतलब तय हो गया कि दीदी को यहाँ से किडनी निकलवाने के लिए और रूपये नहीं भेजे जा सकते। एक महीने बाद खबर मिली कि दीदी मर गयी। दरबारी प्रसाद को लगा कि वे फिर अपने उन भूखे दिनों में लौट गये हैं और दीदी कह रही हैं, “विधाता अगर मुझे सामर्थ्यवान और आत्मनिर्भर बना दें तो मैं पूरी जिंदगी तुझे खिलाते हुए और खाते देखते हुए गुजार दूँ। सच दरबारी, तू खाते हुए मुझे बहुत अच्छा लगता है रे जब तुम खाते हो तो लगता है जैसे अन्न पूजित और प्रतिष्ठित हो रहे हों।”
बच्चे की तरह खूब बिलख-बिलखकर रोये दरबारी प्रसाद। मन में वे सोचते रहे कि दीदी की मौत का जिम्मेवार वे किसे ठहराएँ दीदी की गरीबी को, खुद को, अपने बेटों को या फिर बाजार के तिलिस्म को?