हुएन-संग / रामचन्द्र शुक्ल
बहुतेरे पाठक इस विचित्र अक्षर योजना से चकित होंगे। पर इतिहास के प्रेमी इस नाम से अपरिचित नहीं हैं, वे भलीभाँति यह जानते होंगे कि भारतवर्षीय इतिहास के घोर तिमिराच्छन्न क्षेत्रो के बीच यह उन प्रकाश की ज्योतियों में से सबसे उज्ज्वल है जो अपनी निकटवर्ती वस्तुओं को स्पष्ट और प्रकाशित करती है। इसी दृढ़ प्रतिज्ञ, उन्नताशय और साहसी चीनी यात्री की कृपा से हम इस देश की सातवीं शताब्दी की सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक अवस्था का थोड़ा बहुत ज्ञान सम्पादन कर सकते हैं। लज्जा के साथ कहना पड़ता है कि पुरातत्ववेत्ताओं को इस भारतवर्ष में सच्चा पथ प्रदर्शक और सहायक अंत में ढूँढ़ते ढूँढ़ते यही विदेशी मिला। हम लोग केवल इस महानुभाव ही के नहीं, वरन् उस जाति के और उस भूमि के जिसमें उसने जन्म ग्रहण किया, अनुगृहीत हैं। यह पुरुष कौन था, किस अभिप्राय से और किन किन कठिनाइयों के उपरान्त वह यहाँ तक आया, इन बातों के जानने की इच्छा रखना भारतवासी मात्र का परम धर्म और कर्तव्य है। यदि इस कर्तव्य के पालन से, जिसमें बहुत ही कम परिश्रम है, वे विमुख रहें तो इससे या तो उनकी अल्पज्ञता प्रकट होगी या घोर कृतघ्नता। यदि वह बेचारा श्रामण अपने जन्म स्थान को कई सहस्र कोस दूर न छोड़ता तो कान्यकुब्ज, कौशाम्बी और पाटलिपुत्र इत्यादि नगरों की लम्बाई, चौड़ाई, जनसंख्या और रीति व्यवहार आदि का इस उत्तमता के साथ कौन पता देता? हम भारतवासी इस उपकार को कभी नहीं भूल सकते।
ढाई हजार वर्ष से ऊपर हुए कि इस देश की सामाजिक और धार्मिक अवस्था से असंतुष्ट होकर, पशुओं के आत्मानंद पर करुणा करके भगवान् बुद्धदेव ने इस भूमि पर अवतार लिया। हिन्दू समाज की वर्तमान पतित अवस्था का सूत्रपात उस समय हो चुका था। उच्च वर्ण का मिथ्या अभिमान लोगो के चित्त में भर रहा था। ईश्वर, देवी और देवताओं के अवलंब पर लोग न जाने कितने कुत्सित कर्म कर डालते थे। गौतम ने एक नए मत का उपदेश देना आरम्भ किया। सबसे पहले तो उन्होंने वर्णभेद का ही तिरस्कार किया और मनुष्यों की स्वाभाविक समानता के विषय में शिक्षा दी। इससे पहले निम्नवर्ग के लोग ही, जो द्विजों के द्वारा पददलित किए जाते थे, इस ओर झुके। बौद्धमत निरीश्वरवादी है। विचार करने से जान पड़ता है कि इस प्रकार के विश्वास की उस समय गौतम को आवश्यकता देख पड़ी थी। ईश्वर का नामोच्चारन् करके, किसी देवता की आराधानापूर्वक उससे क्षमा माँगकर, लोग निज कृत दुष्कर्मो के परिणाम से अपने को मुक्त मान लेते थे। इसलिए बुद्ध ने ईश्वर या किसी अन्य देव विषयक विचार का मूलोच्छेद करना ही कल्याणकारी समझा। उन्होंने लोगों से कहा कि किए हुए कर्मो के फल से निस्तार करनेवाला कोई नहीं। यज्ञ, हवन, बलिदान आदि से कुछ लाभ नहीं। गौतम के मत का अभिप्राय सदाचरण की शिक्षा थी।
मगध देश के राजा अशोक के समय में (570 वर्ष ई.पू..) इस धर्म की बड़ी उन्नति हुई। इस मत के प्रचारार्थ न केवल समस्त भारतवर्ष ही में, वरन् अन्य दूर दूर देशों में भी उपदेशक भेजे गए। उन देशों के निवासियों को अपने प्रचलित मत के सामने यह एक अत्यंत ही उन्नत और उदार धर्म देख पड़ा। दूसरी ओर तीसरी शताब्दी के लगभग, बौद्ध मत ने केवल सारे भारतवर्ष ही को नहीं आच्छादित कर लिया, वरन् चीन, तिब्बत, मंचूरिया, तुर्किस्तान, ब्रह्मा, सिंहलद्वीप आदि देशों में भी उसका डंका बजा। प्राचीन काल में बहुत दिनों तक भारतवर्ष इन देशों का, और मुख्यत: चीन का, तीर्थस्थान रहा। झुंड के झुंड चीनी यात्री इस पुण्यस्थल में आते और भगवान् शाक्य मुनि की जन्मभूमि का दर्शन कर अपने को कृत कृत्य मानते। खि-नी, फा-हियान, संग-यून, हुएन-सांग आदि इन्हीं चीनी तीर्थयात्रियों के नाम हैं। इन सबमें सबसे ऊँचा आसन हमारे चरित्र नायक धर्मवीर हुएन-सांग ही का है।
हुएन-सांग का जन्म चीन देश के एक नगर में एक ऐसे समय में हुआ जब चीनी राज्य में शत्रुओं के भय से एक प्रकार की हलचल-सी पड़ी थी। उसके पिता ने इन्हीं सब उपद्रवों से विवश होकर राजाश्रय छोड़ दिया था और अपना सारा समय अपने चार पुत्रो की धर्मशिक्षा में लगाता था। इनमें से दो ने, जिनमें से एक हमारे चरित्रा नायक हैं, बहुत शीघ्र प्रसिध्दि लाभ की। बालक हुएन-सांग शिक्षा के हेतु एक बौद्ध मठ में बैठाया गया, जहाँ पर उसने होनहार होने के कई लक्षण दिखलाए। आवश्यक शिक्षा के उपरान्त, जिसमें उसको अपने बड़े भाई से बहुत सहायता मिली, वह तेरह वर्ष की छोटी अवस्था में बौद्ध संन्यासियों की मंडली में सम्मिलित कर लिया गया। सात वर्ष तक तो यह युवक संन्यासी अपने बड़े भाई के साथ चीन के प्रसिद्ध प्रसिद्ध स्थानों में उस समय के विख्यात धर्माचार्यों के उपदेश सुनने के निमित्त भ्रमण करता रहा। युद्ध का हाहाकार समय समय पर उसके एकान्त अध्ययन में बाधा डालने लगा। यहाँ तक कि उसको राज्य के अत्यंत दूर स्थित भागो में शरण लेना पड़ा। उसके सदाचरण और उसकी गंभीरता के कारण उसकी बहुत प्रतिष्ठा होने लगी। केवल बीस ही वर्ष की अवस्था में वह धर्मोपदेशक के पद पर नियुक्त हुआ।
उसके अगाधा पांडित्य की चर्चा इसके पहले ही दूर दूर तक फैल चुकी थी। वह बौद्धो के मुख्य मुख्य धर्म ग्रंथो का अध्ययन कर चुका था, बुद्ध के जीवन वृत्तान्त से अच्छी तरह जानकार हो चुका था और अध्यात्म्य के गूढ़ तत्वों को भी छान चुका था। उसने कनफ्यूशियस और लाओस के सिद्धांतो को भी मनोनिवेश पूर्वक विचारा था। परन्तु इतने पर भी उसका चित्त शंकाओं से विचलित रहा करता था। छह वर्ष तक तो वह चीन के प्रसिद्ध प्रसिद्ध विद्यापीठों में घूमता रहा। पर जहाँ कहीं वह शिक्षा ग्रहण करने के लिए जाता वहाँ स्वयं उसी को शिक्षक होना पड़ता। जब उसने देखा कि उस देश के बड़े बड़े धुरंधर आचार्य भी उसकी शंकाएँ निवारण नहीं कर सकते, तब उसने परम पावन पुण्य भूमि भारतवर्ष की यात्रा का दृढ़ संकल्प किया।
पाठक! उसी भारतवर्ष को, जहाँ से किसी समय में भूमंडल की सभ्य जातियों को सदाचरण और धर्म की शिक्षा मिलती थी, आज काल ने दारिद्रय, अज्ञान और मूर्खता के हाथ व्यय कर दिया है। चीन, जापान, ब्रह्मा, सीलोन, तिब्बत, स्याम आदि देशों के निवासियों के परम पूज्य धार्माचार्य का जन्मस्थान यही पावन भूमि है। इसी नाते से जापान आज भारतवासियों को शिल्प शिक्षा में सहायता देने के लिए उद्यत है; इसी नाते से आज सीलोन के धार्मिष्ठ धर्मपाल जी काशी में यहाँ वालों के हित साधान की इतनी चेष्टा कर रहे हैं।
फा-हियान, सक्ष्-यून आदि प्राचीन यात्रियों के कार्य और वृत्तान्त से हुएन-सांग जानकार था। वह इस बात को निश्चयपूर्वक जानता था कि भारतवर्ष में उसको उन मूल संस्कृत ग्रंथो का पता लगेगा जिनके चीनी अनुवाद ने उसके चित्त में इतनी शंकाएँ छोड़ रखी हैं। यद्यपि उसने इस लम्बी यात्रा की आपत्तियों को भी सुना पर उस धीर प्रकृति महानुभाव ने कहा, “वह धर्मशास्त्र जो प्राणियों का पथप्रदर्शक और उनकी मुक्ति का उपाय है, उसका उद्धार बहुत ही वांछनीय है”। परोपकार करने की लालसा इसको कहते हैं। किन्तु उस समय बिना चीन सम्राट की आज्ञा प्राप्त किए किसी को देश से बाहर जाने का अधिकार न था। कई और बौद्ध-संन्यासियों के साथ उसने सम्राट के पास इस यात्रा की आज्ञा पाने के लिए विनय पत्र भेजा। आज्ञा नहीं मिली। उसके साथियों का तो सब उत्साह यहीं पर जाता रहा, पर हुएन-सांग का नही। यह कारण इतना बड़ा नहीं था कि उसका व्रत भक्ष् कर दे। सांसारिक वासनाओं को तो वह पहले ही परित्याग कर चुका था। इससे समस्त आपत्तियों और विघ्नों का सामना करने और जीवन को एक ऐसे कार्य में निछावर कर देने के लिए, जो उसका मुख्य हेतु है, वह बाद्धपरिकर हो गया। 629 ई. में उसने बिना राजाज्ञा ही अपना देश छोड़ा और भारत के लिए प्रस्थान किया।
वह पोतनद, हयक्ष्-हो, होते हुए उस स्थान पर आ पहुँचा जहाँ भारतवर्ष की ओर आनेवाले यात्री एकत्रित होते थे। यद्यपि यहाँ के हाकिम की आज्ञा थी कि कोई मनुष्य चीनी सीमा के उस पार न जाने पावे, पर हुएन-सांग अपने सहधर्मियों की सहायता से चीनी रक्षकों की ऑंख बचाकर निकल गया। उसके पीछे गुप्तचर छोड़े गए। वह हाकिम के सामने उपस्थित किया गया। हाकिम उसकी प्रतिज्ञा की दृढ़ता और उसका धार्मिक उत्साह देखकर दंग रह गया और विवश होकर उसने उसको आगे बढ़ने की आज्ञा दे ही दी। सच है, उत्तम प्रकृति का प्रभाव ऐसा ही होता है।
इस समय तक तो उसके और साथी थे, पर यहीं पर उन्होंने उसका संग छोड़ दिया। हुएन-सांग अब अकेला नि:सहाय रह गया। किन्तु इतने पर भी उसका साहस न डिगा। दूसरे दिन प्रात:काल एक मनुष्य उससे मिला जो उसका मार्ग प्रदर्शक हो गया। थोड़ी दूर तक तो इस व्यक्ति ने यात्री को सकुशल पहुँचा दिया, पर जब रेगिस्तान निकट आया तब यह भी नौ-दो-ग्यारह हुआ। कठिनाई के समय में साथ देने वाले इस संसार में विरले ही मिलते हैं। अभी चीनी राज्य के पाँच और रक्षा दुर्ग तय करने को बाकी थे। सामने विस्तृत रेगिस्तान फैला पड़ा था जिसमें सिवाय घोड़ों की टाप के चिन्ह और मनुष्यों की खोपड़ियों के और कोई दूसरा मार्ग का चिन्ह उपलब्ध न था। यात्री ने शाक्यमुनि का स्मरण करते हुए इस कठिन मार्ग पर पैर रखा।
यद्यपि वह मार्ग में कई बार इधर-उधर भटका, पर अंत में किसी न किसी तरह पहले दुर्ग तक पहुँच गया। यहाँ पर रक्षकों के बाणों ने उसके जीवन और उसकी अभिलषित यात्रा का अंत कर दिया होता, पर रक्षकों का नायक स्वयं एक धर्मिष्ठ बौद्ध था। उसने इस विलक्षण साहसी श्रामण को आगे बढ़ने की आज्ञा दी और आगे आनेवाले दूसरे दुर्गों के रक्षकों के नाम भी पत्र लिख दिए। तीन दुर्ग तो उसने किसी न किसी प्रकार पार किया। परन्तु उसने सुना कि अन्तिम दुर्ग के रक्षकों को किसी प्रकार अर्थ व शिक्षा द्वारा राह पर लाना कठिन है। उनकी दृष्टि बचाने के लिए हुएन-सांग को बड़ा लम्बा चक्कर काटना पड़ा। वह एक दूसरे ही रेगिस्तान से होकर चला। वहाँ जाकर वह अपना मार्ग भूल गया। गहरी विपत्ति का सामना हुआ। यहीं तक बस नहीं, वह पात्र जिसमें वह पीने के जल भरे हुए था फट गया। यही निश्चय होने लगा कि इसी रेगिस्तान में जल के लिए तरस-तरस कर उसको प्राण देना होगा। अबकी बार उसके संकल्प की बड़ी ही तीव्र परीक्षा हुई। हुएन-सांग ऐसे दृढ़चित्त मनुष्य का भी साहस थोड़ी देर के लिए छूट गया। निराश होकर वह पीछे की ओर लौटने लगा। थोड़ी दूर गया होगा कि वह सहसा रुक गया और अपने को इस प्रकार धिक्कारने लगा, “हाँ! मैंने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक भारतवर्ष न पहुँचूँगा, एक पैर पीछे न रखूँगा। तो फिर मैं यहाँ तक आया क्यों? पश्चिम की ओर बढ़ते हुए मर जाना अच्छा है पर पूर्व की ओर लौट जाना और जीवित रहना अच्छा नहीं”। धन्य है साहस! धर्म की मर्यादा की रक्षा ऐसे ही लोगों के द्वारा हो सकती है।
चार दिन और चार रात वह रेगिस्तान के बीच बिना एक घूँट जल के सफर करता रहा। अपने धर्म के विनय कांड के वाक्यों ही से वह अपने चित्त को ढाँढ़स देता था। पर ऐसे धर्म के वाक्यों से कितनी शान्ति मिल सकती है जो यह सिखलाते हैं कि कोई ईश्वर नहीं, कोई सृष्टिकर्ता नहीं, कोई सृष्टि नहीं है क्या? केवल मन! हमारा यात्री फिर आगे की ओर बढ़ा और अंत में एक बड़ी झील के किनारे आ पहुँचा। इस समय वह तातारियों के देश में था। इन लोगों ने उसका बड़े आदर के साथ स्वागत किया। एक तातारी खाँ, जो एक धर्मिष्ठ बौद्ध था, हमारे यात्री को अपने यहाँ ले गया और अपने देश के लोगों को उपदेश देने के निमित्ता ठहरने के लिए आग्रह करने लगा। किन्तु किसी तरह यह दृढ़प्रतिज्ञ महानुभाव इस पर सहमत न हुआ। बिना शान्तिप्रदायिनी भारतवर्ष की पुण्यभूमि तक पहुँचे उसको विश्राम कहाँ? इस पर ख़ाँ ने उसको बलात् रोक रखने का लक्षण प्रकट किया। ख़ाँ का यह भाव देखकर उस महात्मा ने कहा, “मैं जानता हूँ कि सम्राट अपने अतुल प्रताप के रहते भी मेरे मन और इच्छा पर प्रभुत्व नहीं रखते”। उसने भोजन इत्यादि सब छोड़ दिया। तीन दिन तक वह इस प्रकार पड़ा रहा, अंत में खाँ ने इसका परिणाम अच्छा न देखकर सन्यासी को उसकी इच्छानुसार कार्य करने की आज्ञा दी। हुएन-सांग ने वचन दिया कि मैं भारतवर्ष से लौटते समय यहाँ तीन वर्ष तक रहूँगा और आपकी इच्छा पूर्ण करूँगा। एक महीने तक वह तातार देश में रहा। वहाँ का ख़ाँ और उसके दरबारी नित्य अपने पवित्र अतिथि का उपदेश सुनने को आते थे।
यहाँ से हमारा यात्री बहुत से लोगों के साथ, 24 राजाओं के नाम जिनके राज्य में से होकर उसको यात्रा करनी पड़ी थी, पत्र लेकर चला। मार्ग उसी स्थान से होकर गया था जिसे आजकल संगरी (Dsungary) कहते हैं, अर्थात् वह मसूर दबगन, बेलूरटाग पर्वत, यक्सर्टज की घाटी, बलख़ और काबुलिस्तान होता हुआ चला । हम उन सब स्थानों का, जिनसे होकर वह गया, यहाँ विवरण नहीं दे सकते, यद्यपि उन स्थानों का और उनके निवासियों का, जो मार्ग में मिले, उसने बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है। मसूर-दबगन पहाड़ का वह इस तरह वर्णन करता है:-
“पहाड़ों की चोटियाँ आकाश से बातें करती हैं। सृष्टि के आरम्भ से यहाँ पर हिम एकत्र हो रही है और अब बर्फ की लम्बी-लम्बी चट्टानों के रूप में हो गई है, जो ग्रीष्म और वसन्त में भी नहीं पिघलती। कठोर और चमकीली बर्फ की चादरें, जहाँ तक देखिए, बिछी हुई दिखाई पड़ती हैं। यदि कोई उनकी ओर देखता है तो चमत्कार से ऑंखों में चकाचौंधा होने लगती है। मार्ग के दोनों किनारों पर जमी हुई चोटियाँ आकाश में लटकती हैं, कोई कोई तो इनमें से 100 फीट ऊँची और 20 या 30 फीट मोटी हैं। यात्री बिना कठिनाई के इन पर से चढ़कर नहीं पार कर सकता। इसके सिवा प्रचंड ऑंधी और बर्फ की बौछार यात्रियों पर आक्रमण करती हैं। दोहरे जूते और मोटे पशमीनों से ढका रहने पर भी यात्री बिना काँपे नहीं रह सकता”।
ऐसे कठिन मार्ग से होकर हमारे यात्री को चलना पड़ा। सात दिन में उसने इस बर्फिष्स्तान को तय किया। इतने में इसके चौदह साथी छूट गए।
फर्गाना, समरकष्न्द, बोखारा और बलख़ आदि मध्य एशिया के प्रधान-प्रधान नगर उसके रास्ते में पड़े। हुएन-सांग ने यहाँ के निवासियों की सभ्यता का बहुत कुछ पता दिया है। बौद्ध धर्म ही का प्रचार इन स्थानों में उस समय विशेष था। केवल कहीं-कहीं बैक्ट्रियन रीति के अनुसार अग्नि पूजा भी होती थी।
यह यात्री काबुल की राह से हिन्दुस्तान में आया था। जिन-जिन हिन्दू राज्यों में वह गया, वहाँ का हाल उसने बड़े विस्तार के साथ लिखा है। पहले उसे नगरहार का राज्य मिला। यह नगरहार जलालाबाद की निकटस्थ भूमि की राजधानी थी। बौद्ध धर्म के ही माननेवाले इस राज्य में अधिक बसते थे, किन्तु हिन्दू धर्म का भी प्रचार था।
नगरहार से आगे चलकर फिर वह गांधार देश में आया, जिसकी राजधानी पौ-लौ-च-पौ-लौ, अर्थात् संस्कृत पुरुषपुर और आधुनिक पेशावर थी। यहाँ पहुँचने पर उसने एक विचित्र गुफा का हाल सुना जहाँ पर भगवान् बुद्धदेव ने एक राक्षस को मंत्र दिया था। उस समय यह बात प्रसिद्ध थी कि मंत्र देने के उपरान्त बुद्ध ने इस नए शिष्य के पास अपनी छाया छोड़ जाने का वचन दिया था जिसमें जब कभी उसका राक्षसी स्वभाव जागृत हो तब अपने गुरु की छाया मूर्ति देखकर उसको अपने पूर्व संकल्पों का स्मरण हो आए। यह वचन पूरा हुआ और बुद्ध की छाया का दर्शन इस गुफा में होने लगा। तभी से यह गुफा एक तीर्थस्थान हो गई और चारों ओर से लोग यहाँ आने लगे। हुएन-सांग इस स्थान को देखने के लिए बहुत आकुल हुआ, पर उसने लोगों से सुना कि उस गुफा का मार्ग बड़ा ही भयानक है, लुटेरों का वहाँ सदा भय रहता है। किसी-किसी ने यह भी कहा कि तीन वर्ष से जो यात्री उस गुफा में गया वह फिर नहीं लौटा। इन सब बातों को सुनकर हमारे धर्मवीर यात्री ने ये भक्तिनिर्भर वाक्य कहे, “लक्ष्य कल्प में भी भगवान् बुद्ध की प्रत्यक्ष छाया का दर्शन पाना दुर्लभ है। मैं कैसे इतनी दूर आकर बिना उसकी पूजा किए हुए चला जाऊँ?”। उसने अपने साथियों को तो छोड़ दिया और मार्ग प्रदर्शक की खोज में लगा। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते उसको एक लड़का मिला जो उसे पास के एक खेत में ले गया। यह खेत एक मठ के निकट था। यहाँ पर उसे एक वृद्ध पंडा मिला जो गुफा तक उसके साथ चलने के लिए तैयार हो गया। ये लोग थोड़ी ही दूर गए होंगे कि पाँच लुटेरों ने इन पर आक्रमण किया। संन्यासी ने अपना रंगीन वस्त्र दिखलाया।
एक लुटेरे ने पूछा- स्वामी आप कहाँ जाते हैं?
हुएन-सांग ने उत्तार दिया- “मैं बुद्धदेव की छाया की अराधाना करने की कामना रखता हूँ।”
लुटेरे ने फिर कहा- “स्वामी! क्या आपने नहीं सुना है कि यह रास्ता लुटेरों से भरा हुआ है?”
हुएन-सांग ने गम्भीरता से उत्तार दिया- “लुटेरे भी मनुष्य हैं। इस समय, जब मैं बुद्ध की छाया की पूजा के निमित्ता जाता हूँ, तब यदि मार्ग हिंसक जन्तुओं से भी पूर्ण हो तो भी मुझे निर्भय चला जाना चाहिए। निश्चय मुझको तुमसे न डरना चाहिए क्योंकि तुम मनुष्य हो, तुम्हारे चित्त में कुछ भी तो दया होगी।”
लुटेरों की ऑंख इस बात से खुल गई और उन्होंने उसी दिन से सन्मार्ग पकड़ा।
इस घटना के उपरान्त हुएन-सांग अपने पंडे के साथ आगे बढ़ा। वह दो ऊँची चट्टानों के बीच में से होकर वेग के साथ बहते हुए एक झरने के पास आया। यहीं पर एक ओर चट्टान में उसको एक द्वार दिखाई पड़ा जो तुरन्त खुल गया। इसके भीतर घोर अन्धकार था। पर हुएन-सांग ने इसमें निर्भयतापूर्वक प्रवेश किया और वह पूर्व की ओर बढ़ा, फिर पचास कदम पीछे हटकर उसने अपनी अराधाना आरम्भ की। उसने सौ दण्ड प्रणाम किए। परन्तु कुछ दिखाई न पड़ा। इस पर वह व्यतीत दुष्कर्मो के कारण अपने को बहुत धिक्कारने और करुणा के साथ रोने लगा। बहुत प्रार्थना और विनय के उपरान्त उसको दीवार पर एक धुँधला प्रकाश दिखलाई पड़ा, जो थोड़ी ही देर के बाद फिर लु्प्त हो गया। हर्ष और प्रेम से गद-गद होकर वह फिर प्रार्थना करने लगा। पुन: उसको प्रकाश की एक ज्योति दिखलाई पड़ी जो विद्युत् की नाईं प्रगट होकर फिर अंतर्धान हो गई। श्रामण ने अबकी बार उत्साहित होकर प्रतिज्ञा की कि जब तक मैं भगवान् बुद्ध की स्पष्ट छाया का दर्शन न पाऊँगा तब तक इस स्थान को कदापि परित्याग न करूँगा। दो सौ बार जप के समाप्त होते ही वह गुफा सहसा प्रकाश से जगमगा उठी और भगवान् तथागत की एक स्वच्छ श्वेतवर्ण छाया दीवार पर इस तरह दिखाई पड़ी जैसे मेघों के यका-यक हट जाने से प्रभाकर का दीप्तिमान् मण्डल निकल आता है। उसके मुख से एक अलौकिक तेज छिटक रहा था। हुएन-सांग आश्चर्यचकित हो गया और स्तब्धा नेत्रो से उसी ओर देखने लगा। जब सन्यासी का ध्यान भंग हुआ तब उसने छह आदमियों को गुफा के भीतर बुलाया और अग्नि प्रज्वलित करके देने की आज्ञा दी। किन्तु अग्नि का प्रकाश होते ही जब वह छाया लुप्त होने लगी तब आग बुझा दी गई। पाँच आदमियों को तो बुद्ध की छाया का दर्शन हुआ, पर छठवें को नहीं। वह वृद्ध मनुष्य जो हुएन-सांग के साथ आया था, यह सब देखकर बोला, “स्वामी! बिना धर्म और संकल्प की दृढ़ता के आपको यह लीला कदापि न दिखाई पड़ती।”
यह तो पेशावर की बात हुई। पौलुश नामक नगर के निकट हमारा यात्री एक ऊँचे पहाड़ पर गया। वहाँ एक नीले शिलाखंड में भीमा देवी (दुर्गा) की मूर्ति खुदी थी। दूर दूर से लोग यहाँ दर्शन के लिए आते थे। पर्वत के नीचे एक महेश्वर का मन्दिर था। यहाँ से फिर वह सलातूर गया जो प्रसिद्ध व्याकरण पाणिनि की जन्मभूमि थी।
नगरहार और गान्धार दोनों देश उस समय कपिश (हिन्दूकुश के पास) के राजा के अधीन थे।
इन स्थानों को देखता भालता, सिन्धु नदी को पार करता हुआ हमारा यात्री काश्मीर की ओर बढ़ा। वह लिखता है कि, “मार्ग पथरीले और ढलुये हैं, पर्वत और घाटियाँ अँधेरी और सुनसान हैं। कभी हम लोगों को रस्सी और कभी लोहे की जंजीर पकड़कर दर्रों को पार करना पड़ता है”। काश्मीर राज्य के अंतर्गत तक्ष्शिला नगर सिंहपुर में वह पहुँचा। सिंहपुर में उसे श्वेताम्बर और दिगम्बर जैन दिखाई पड़े। काश्मीर के संबंध में हमारा यात्री कनिष्क राजा का भी नाम लेता है जो 78 ई. में काश्मीर में राज करता था। जिस रास्ते हुएन-सांग जाता, लोग उसकी ओर उँगली उठाते और कहते, “यह मनुष्य हमारे पूर्व नृपति (कनिष्क) के देश का निवासी है।” चीनी लोग इस देश में शफष्तालू और नाशपाती लाए थे। इससे उस समय लोग “शफष्तालू को चीनानि और नाशपाती को चीन राजपुत्र कहते थे।”
काश्मीर से शतद्रु और शूरसेन (मथुरा) राज्य होता हुआ यह विदेशी थानेश्वर आया, जिसकी राजधानी कुरुक्षेत्र के निकट थी। इस भूमि के संबंध में वह महाभारत की लड़ाई का ज़िक्र करता है और लिखता है, “यहाँ भयंकर संग्राम हुआ था, तब से आज तक यह मैदान योद्धाओं की हड्डियों से ढका पड़ा है।”
हरिद्वार में आकर हमारे यात्री ने गंगा का दर्शन किया। “भारतवर्ष के लोग इसे गंगाद्वार कहते हैं। यहाँ हजारों आदमी सदैव दूर-दूर से आकर स्नान करने के लिए एकत्रित रहते हैं।” यह उसका कथन है।
ब्रह्मपुर (गढ़वाल और कुमाऊँ) होकर वह भारतवर्ष की विख्यात राजधानी कान्यकुब्ज में आया। यहाँ का राजा उस समय महाप्रतापी द्वितीय शिलादित्य था। यह वही शिलादित्य है जो रत्नावली का रचयिता हर्षवर्धन व श्रीहर्ष के नाम से प्रसिद्ध है। उत्तरी भारतवर्ष के सब राजा इसके आधीन थे। इसकी प्रवृत्ति बौद्धधर्म की ओर थी। इसने पशुओं के वध का निषेधाज्ञा किया, जगह-जगह स्तूप बनवाए और औषधालय स्थापित किए। हर पाँचवें बरस बड़े समारोह के साथ वह एक उत्सव करता था जिसमें देश-देश के राजा और देश-देश के विद्वान् और गुणी बुलाए जाते थे। जिन दिनों इस उत्सव की तैयारी हो रही थी हमारा यात्री उस समय कामरूप के ब्राह्मण राजा कुमार भास्कर वर्मा के साथ प्रसिद्ध विद्यापीठ नालन्दा में ठहरा था। शिलादित्य ने कुमार के पास यह आज्ञापत्र भेजा, “मैं चाहता हूँ कि आप तुरन्त उस विलक्षण श्रामण के साथ, जिसे आपने नालन्दा के मठ में टिकाया है, आइए”। आज्ञा पाते ही हुएन-सांग शिलादित्य के यहाँ लाया गया। शिलादित्य ने यात्री से उसकी देश संबंधी बहुत सी बातें पूछीं और उनका उत्तर पाकर वह बहुत प्रसन्न हुआ।
हुएन-सांग भी इस बड़े उत्सव में सम्मिलित हुआ। इसमें बुद्धदेव की प्रतिमा को स्वयं शिलादित्य महाराज अपने कन्धो पर ले के निकले। 21 दिन तक ब्राह्मणों और श्रामणों को समानरूप से भोज दिया गया। बौद्धो और वैदिकों में मित्र भाव से शास्त्रार्थ हुआ। महाराज ने सोना, चाँदी, मोती आदि लुटाया। इस वर्णन से जाना जाता है कि 7वीं शताब्दी में हिन्दू और बौद्ध परस्पर प्रेमभाव से रहते थे। राजा दोनों धर्मों पर समान आदर की दृष्टि रखता था।
अयोध्या, ह्यमुख इत्यादि नगर होता हुआ हमारा यात्री प्रयाग पहुँचा। वहाँ उसे बौद्धमत का कुछ भी आदर न देख पड़ा। हुएन-सांग उस अक्षयवट का उल्लेख करता है जिसका दर्शन आज भी लाखों यात्री प्रयाग में जाकर करते हैं। आगे चलकर वह लिखता है, “दोनों नदियों के संगम पर, नित्य सैकड़ों लोग नहाते और प्राणत्याग करते हैं। इस देश के लोग समझते हैं कि जो स्वर्ग में जाना चाहे वह (यहाँ आकर) एक चावल खाकर व्रत करे और फिर अपने को जल में डुबो दे”। नदी के बीच में एक ऊँचा चबूतरा बना था, जिस पर खड़े होकर लोग डूबते सूर्य की ओर, जब तक वह अस्त न होता, ताकते थे।
कौशाम्बी, श्रावस्ती, कपिलवस्तु (बुद्ध का जन्मस्थान) और कुशीनगर (यहीं पर बुद्ध को निर्वाण हुआ था) होता हुआ वह पो-लो-ना-ई अर्थात् बनारस में आया। यहाँ के मृगाराम और स्तूपों का उसने बड़े विस्तार के साथ वर्णन किया है।
उत्तारी भारतवर्ष के प्रधान-प्रधान नगरों में घूमता-घामता वह बौद्धो के केन्द्र स्थान मगध देश में आ पहुँचा। यहाँ पर वह पाँच वर्ष रहा। यहीं पर उसको अपने अभिलाषित कार्य को पूरा करने का समय मिला, यहीं पर आकर उसको परोपकार साधन का मार्ग सुलभ हुआ। नालन्दा के मठ में रहकर उसने उस समय के विख्यात आचार्यों से संस्कृत के मूल ग्रंथो को पढ़ा। बहुत से संस्कृत ग्रंथो का, जिनका नाम तक उसके देशवासियों ने नहीं सुना था, उसने संग्रह किया। यहाँ उसकी सब शंकाएँ दूर हुईं, उसके चित्त को शान्ति मिली।
यहाँ से चलकर वह हिरण्य-पर्वत (मुंगेर), चम्पा (अंग की प्राचीन राजधानी), पुंड्र, समतत, ताम्रलिप्ति, कर्ण सुवर्ण और उड्र (उड़ीसा) होता हुआ दक्षिण की ओर बढ़ा। कान्योधा, कलिंग, धानकटक, चोल, द्राविड़ (कांचिपुर) आदि दक्षिण के राज्यों से होकर वह मालावार के किनारे पहुँचा। वहाँ से भारतवर्ष की पूरी परिक्रमा करते हुए वह फिर उत्तर की ओर चला। मार्ग में उसने कोंकण और महाराष्ट्र देश को देखा। महाराष्ट्र देश के निवासियों के विषय में वह लिखता है, “अपने उपकारी के वे कृतज्ञ हैं, पर अपने शत्रु के लिए दुर्दमनीय। यदि वे तिरस्कृत किए जाते हैं तो बदला लेने के लिए अपने प्राण तक को कुछ नहीं समझते। उनका राजा जाति का क्षत्रिय है, उसका नाम पुलकेशी है। इस समय शिलादित्य ने पूर्व से पश्चिम तक की सब जातियों को विजय किया है, पर केवल इस देश के लोगों ने ही उसकी अधीनता नहीं स्वीकार की है”। इसी पुलकेशी के वंशधर ने हजार वर्ष बाद भी दिल्लीपति औरंगजेब के नाकोंदम कर डाला।
मालवा, गुजरात, सिन्ध आदि देशों में घूम-घाम कर हमारा यात्री फिर उत्तरी हिन्दुस्तान में आया, और मगध देश को लौटकर अपने पुराने मित्रो के साथ कुछ दिन तक रहा।
इस देश की सातवीं शताब्दी के रीति-रिवाज के विषय में भी इस यात्री ने बहुत कुछ लिखा है। जन-साधारण के पहनावे के विषय में उसने लिखा है कि, बने और सिले हुए वस्त्रो का यहाँ व्यवहार नहीं था, “स्त्रियों का पहिरावा ज़मीन तक लटकता है। वे अपने कन्धो को भली-भाँति आवृत रखती हैं। वे सिर पर एक छोटा सा केश गुच्छ रखती हैं और बाकी बाल बिखराये रहती हैं। पुरुष अपने सिर पर फूलों की माला और रत्नों से गुथी हुई टोपियाँ पहनते हैं।”
ब्राह्मण और क्षत्रिय अपना वस्त्र बहुत स्वच्छ रखते थे। भोजन के पहले सब लोग स्नान व पद प्रक्षालन करते थे। काष्ठ व पत्थर के बर्तन व्यवहार के उपरान्त फेंक दिए जाते थे। भोजनोपरान्त लोग खरिका करते, और हाथ मुँह धोते थे।
बहुत बरसों के उपरान्त इस यात्री ने अपनी जन्मभूमि की सुधा ली। वह फिर पंजाब, काबुलिस्तान और बलख होता हुआ आक्सस नदी के किनारे पहुँचा। काशगर, यारकष्न्द और खुतन आदि मध्य एशिया के मुख्य-मुख्य नगरों में कुछ काल रहकर अंत में सोलह वर्ष की लम्बी यात्रा के उपरान्त, संस्कृत ग्रंथो के बोझ से लदा हुआ, वह फिर अपनी प्यारी चीन की भूमि में जा पहुँचा। मनुष्य के लिए, यदि वह परिश्रम का सहारा ले, तो कोई काम कठिन नहीं है।
उसकी ख्याति दूर दूर तक फैल गई। चीन नरेश ने उसका स्वागत बड़े उत्साह के साथ किया। उसका राजधानी में प्रवेश बड़ी धूमधाम और तैयारी से हुआ। सड़कों पर दरियाँ बिछ गईं, फूलों की वर्षा होने लगी, पताका फहराने लगीं। मार्ग के दोनों ओर सैनिक और कार्याधिकारी लोग स्वागत के लिए पंक्तिबद्ध खड़े किए गए। बौद्ध संन्यासियों का एक दल धीरे-धीरे अगवानी के लिए आगे बढ़ा। विमान जो इस धार्मिक विजय के उपलक्ष में निकाले गए वे निराले ही ढंग के थे। सबसे आगे वाले पर तो बुद्ध के शरीर की थोड़ी सी राख थी, उसके पीछे गौतम बुद्ध की एक स्वर्णप्रतिमा, उसके पीछे एक वैसी ही चन्दन की प्रतिमा, फिर महात्मा तथागत की एक अन्य मूर्ति, तदोपरान्त एक चाँदी की प्रतिमा, फिर एक स्वर्णमूर्ति, तत्पश्चात् शाक्य मुनि की उपदेश देते समय की मूर्ति, और इन सबके अंत में 520 जिल्दों में 657 धर्मग्रंथ थे। नि:सन्देह यह महानुभाव ऐसे ही सम्मान के योग्य था। ऐसे धर्मवीर साहसी पुरुष का यदि उचित रीति से आदर न किया जाता तो घोर पाप होता।
क्व इस विषय में मेरा 'प्राचीन भारतवासियों का पहिरावा' लेख देखिए।
चीन सम्राट ने इस यात्री का फष्निक्स नामक राजमन्दिर में स्वागत किया, और उसकी बुद्धि, धर्मशीलता और उसके परिश्रम से प्रसन्न होकर उसे अपने राज्य में एक ऊँचा पद देने की अभिलाषा प्रकट की। पर हुएन-सांग ने इसे अस्वीकार किया और कहा, “राज्य शासन का मूल मंत्र कनफ्यूशियस की शिक्षा है।” उसने अपने जीवन का शेष भाग भगवान् बुद्ध ही की आज्ञापालन में बिताना उचित समझा। इस पर चीन नरेश ने उससे अपना भ्रमण वृत्तान्त लिखने का अनुरोधा किया, और एक सुन्दर मठ प्रदान किया, जहाँ एकान्त में अपने अवकाश का समय उसने उन ग्रंथो के अनुवाद में लगाया जिन्हें वह भारतवर्ष से अपने साथ लाया था। कहते हैं कि उसका भ्रमण वृत्तान्त सि-यू-को-तो बहुत शीघ्र प्रकाशित हो गया, पर संस्कृत ग्रंथो के अनुवाद में उसके जीवन का समस्त शेष भाग लग गया। बौद्ध संन्यासियों की सहायता से उसने 740 ग्रंथो का 1350 जिल्दों में अनुवाद किया।
इसका स्वभाव बड़ा ही सरल था। इसे अपने ज्ञान का कुछ भी अभिमान न था, यह सदैव यही कहा करता कि मेरा ज्ञान बुद्ध और बोधिसत्वों ही का प्रसाद है।
जब उसने अपना मृत्युकाल निकट जाना तब उसने अपनी सारी सम्पत्ति दरिद्रों में बाँट दी और अपने मित्राो को बुला भेजा जिसमें वे आकर उसके अपवित्र शरीर से विदा लें। उसने उनकी ओर देखकर क्षीण स्वर से कहा, “मेरी इच्छा है कि जो कुछ फल मेरे अच्छे कर्मो का हो वह दूसरे लोगों को मिले। मैं फिर उनके साथ भाग्यमानों के लोक में जन्म पाऊँ आगामी बुद्ध की सेवा करूँ जो दया और प्रेम से पूर्ण है। जब-जब मेरा पुनर्जन्म हो मैं बुद्ध का आज्ञानुवत्तर् होऊँ और अंत में सबसे उच्च और पूर्ण ज्ञान तक पहुँचु।”
हुएन-सांग ने इस अपवित्र शरीर को 664 ई. में छोड़ा ठीक उसी समय जब इस्लाम की रुधिराप्लावित विजयपताका पूर्व की ओर बढ़ रही थी और क्रिश्चन धर्म का संचार युरोप में हो रहा था। भारतवर्ष के इतिहास के जाननेवाले जब तक इस पृथ्वी पर विद्यमान रहेंगे तब तक इस धर्मपरायण चीनी यात्री का नाम आदर के साथ लिया जाएगा।
(सरस्वती, जुलाई, 1904 ई.)
[ चिन्तामणि, भाग-4 ]
- इसमें उसने अपनी यात्रा का सब हाल लिखा है। इनका अनुवाद यूरोपीय भाषाओं में हो गया है। भारतवर्ष के इतिहास का बहुत कुछ पता इस पुस्तक से लगता है। यदि इसका अनुवाद हिन्दी में न हुआ तो यह हमारे लिए बड़ी लज्जा की बात होगी।