हुश्शू / तीसरा दौरा (कलवारीखाना और काना) / रतननाथ सरशार

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पहला सीन

इधर बमचख, उधर जूती, इधर पैजार, उधर दंगा!

बही कलवारखाने में है कैसी उलटी यह गंगा!!

बोतलवाले और बोतलवाली चमक्‍को को कुठरिया में पड़े रहने दीजिए, वह जानें, उनका काम।

अब मियाँ हुश्‍शू साहब का हाल सुनिए कि बोतलवाले की बोतलें तोड़, झौआ औंधा करके जो सीधी भरी तो एक कलवारीखाने में पहुँचे। कलवार साहब बड़े तोंदल डबल आदमी - लाला दरगाही लाल - दुकान के राजा बने हुए बैठे थे। मियाँ हुश्‍शू भी धँस ही तो पड़े। भलेमानस अमीर देख कर उसने मोंढा दिया, कपड़े भी अच्‍छे पहले थे।

पूछा - हुक्‍म। कहा - भाई साहब पीने आए हैं। उसने अपने आदमी, चपई से कहा - वह फालसे की जौन केदारपुर के तहसीलदार के लिए खींची है रग्‍घू के घर रक्‍खी है। एक बोतल भरवा ला।

लाला जोती परशाद साहब ने कहा - इसकी सनद नहीं है, लाला। तुम खुद जाओ। और एक बोतल क्‍या होगी? हा‍थी के मुँह में जीरा। न गैलन, न दो गैलन! ढाई बोतल रोज का तो मेरे यहाँ खर्च है। लाला एक मैं पीता हूँ, एक कबीला चढ़ाती है, आधी में बाल-बच्‍चे। भला तीन गैलन तो ला!

लाला खुश-खुश उठे। कहा - जरी देर होगी। तब तलक आप कंदी का शगल कीलिए।

उन्‍होंने कहा - भाई हमें कुछ जल्‍दी नहीं है। अब तो हम आज रात को यहाँ से जानेवाले को कुछ कहते हैं! कलवारीखाने से हम चले जायँ तो हम पर लानत। अब हम यहीं ढेर होंगे। मगर भाई हमारी सोने की घड़ी और नोटों की फिक्र रखना।

लाला मारे खुशी के फूलके कुप्‍पा हो गय। समझे सोने की चि़ड़िया हाथ आई नौकर से कहा - लाला की बड़ी खातिर करना, और कान में कहा - इनको जरी तेज कर रखना। यह कह कर लाला दरगाही लाल रवाना हुए। सस्‍ते में मंसूबे गाँठते जाते थे कि यों धुत करूँगा, और घड़ी टहला दूँगा, और नोट दे दूँगा, जिसमें किसी को शक न हो। अब सुनिए कि इस शराब के सिर्फ दो गैलन थे, मगर उन्‍होंने तीन बनाए।

अब इधर का हाल सुनिए कि लाला ने चपई से कहा कि - चपई काका! तुम एक इक्‍का किराया करो तेज-सा, हम उसको आठ आना देंगे। दौड़के जाओ। बिल्‍ली की चाल जाओ और कुत्‍ते की चाल आओ। हिरन की सराय के पास काका की दुकान है। वहाँ से कलेजी के कबाब एक रुपए के लो, और आगरेवाले की दुकान से एक रुपए की दालमोठ लो, और दीना खोंचवाले से एक रुपए के दही के बड़े लो। और ऐसे आओ जैसे गोला। दुकान से दाम ले जाओ, हिसाब कर लेना। समझे?

चपई - और दुकान पर बिक्री कौन करेगा?

जोती - हम।

च - (हँस कर) अरे नहीं! हजूर।

ज - दो रुपया इनाम दूँगा।

च - अच्‍छा सरकार। इसमें कंधी है, इसमें महुआ, इसमें गुलाब की है।

ज - अरे यार यह हम निबट लेंगे।

मियाँ चपई ऐसे इनके भरों में आए कि दुकान छोड़के लंबे हुए। सोचा कि दो रुपए एक मिलेंगे, और तीन रुपए के सौदे में से दो बनाऊँगा। इनको सूझेगा क्‍या खाक। और इधर टका आती, टका जाती दूँगा। और अठन्‍नी खरी करूँगा। अब यहाँ से सड़क पर आए। आवाज आई - एक सवारी गोल दरवज्‍जा। झप से बैठ लिए। तीन पैसे पर तय हुआ। लाला दरगाही लाल को तो रग्‍घू की दुकान पर दौड़ा दिया और चपई काका को हिरन की सरा रवाना किया और खुद जनाब लाला जोती परशाद साहब 'हूश्‍शु' कलवा के किबलागाह बनके और खूब तनके दुकान पर बैठे। इधर-उधर देखा तो पानी के घड़े पर नजर पड़ी। ठंडा करने के लिए कलवार ने बहुत-सी बालू उसके नीचे रक्‍खी थी। उन्‍होंने सब उठाके बोतलों और पीपों में झोंक दी। अब जो दुकान पर आता है, इनको देख कर टिक जाता है।

1 - लाला कहाँ हैं?

जवाब - लाला हम।

1 - नहीं हजूर वह जो इस दुकान के लाला हैं।

जवाब - अरे भाई तुम अपना मतलब कहो। लाला हमारे कर्जदार थे। दुकान हमारे हाथ बेच डाली। क्‍या, लोगे, क्‍या?

1 - एक अद्धा भरवाने आए हैं। पाँच आने का।

ज - (बोतल उठा कर) लो (पाँच आने ले कर) बस, जाओ!

1 - अरे साहब, अद्धा भर चाहिए।

जवाब - हमने पाँच आने बर्तन लगा दिया, जिसमें जल्‍द बिके। आधी तो उसने निकाल ली, कि जब लाला मँगवाएँगे तो पाँच आने रख लूँगा, यही अद्धा दे दूँगा। पाँच आने रोज की गोटी हुई।

इतने में दूसरे आए।

2 - एँ! लाला कहाँ हैं? एक बोतल लेने आए थे!

ज - हम से लो।

2 - नहीं साहब हमारी मजाल पड़ी है! आप रईस आदमी, सोने की घड़ी लगाए हैं।

ज - फिर इससे क्‍या होता है? हैं तो जात के कलवार। हमारी तरफ के कलवारों को देखो दो-दो हाथी फीलखाने में झूम रहे हैं।

2 - लाला दरगाही हाल हजूर के कौन हैं?

ज - हमारे ससुर हैं। उनकी छोटी लड़की हमको ब्‍याही है।

दस आने में उन्‍होंने दो बोतल दीं। वह समझे, लाला के दामाद गप्‍प खा गए। चुपके से लंबा हुआ।

अब तीसरे आए, आपकी सूरत से अहमकपना और बेतुकापन बरसता था। उन्‍होंने दस आने दिए और दो बोतल हमारे अनोखे कलवार ने हवाले कीं। उसने कहा - भाई दो कैसी? उन्‍होंने कहा - हमने पाँच आने बोतल लगा दी है। पूछा - जो लाला बैठे थे, वह कहाँ हैं। कहा हम उनकी लड़की के मियाँ हैं।

उसने अपने मालिक से कहा - आज पाँच आने बोतल बिकने लगी। वह भी नौकर की तरह सीधे आदमी थे। दो रुपए दिए, कि जाके छै बोतलें लाओ, और पैसे फेर लाओ। अब चौथे आए।

4 - क्‍या आज दुकान पर कोई नहीं हैं?

ज - आँखें क्‍या बेच आए हो? बैठे तो हैं।

4 - मैं तो आपको नहीं कह सकता।

ज - अजी यह दुकान हमारे साले की है।

4 - आप बहनोई हैं उनके।

ज - हाँ।

4 - तो हम तो दो आने की पीने आए हैं।

ज - यहाँ न पियो। ले जाओ। (आधी बोतल दे कर) तुम योंही ले जाओ। दाम भी न दो। अच्छा, चार आने की ले लीजिए। एक आना कम सही।

इसी तरह जोती परशाद ने थोड़ी देर में बीस-बाईस रुपए की बिक्री की और चिराग गुल करके बोतलों को औंधा कर दिया, पीपे उलटा दिए, सकोरे, तोड़ दिए और चंपत हुए - हात्‍तेरे गीदी की!


दूसरा सीन

अब सुनिए कि इधर तो -

हरीफाँ पीपहा तोड़ीदा, रफ्तंद,

मठूरें ढूँढ़ कर फोड़ीदा रफ्तंद!

और इधर लाला दरगाही लाल रग्‍घू को जगह-जगह तलाश करके बोतलों के एक एक के दो-दो करके खरामाँ-खरामाँ आए। इत्‍मीनान तो हो ही गया था कि लाला तो सुबह तक उठनेवाले नहीं हैं, और कंदी पी ही रहे हैं। आराम के साथ तशरीफ लाए तो चिराग गुल, पगड़ी, गायब! जल्‍ले जलाल हू! ऐं!! अरे चपई! ओ चपई!

पड़ोस के कचालूवाले ने कहा - लाला क्‍या आज अभी से दुकान बढ़ा दी?

अंदर आए तो न आदमी न आदमजाद। न चपई न लाला - गुले लाला खिला हुआ है। अरे!

चपई होत्! अबे चपई मर गया क्‍या? ...अरे कोई है? कोई हो तो बोले!

मियाँ चपई तो दीना के यहाँ दही-बड़े ले भी रहे हैं और चख रहे हैं। लाला अपने घर लंबे हुए। घर से नौकर को बुलाया। चिराग जलवाया। अरे! हायँ! बोतलें औंधी पड़ी हुईं - पीपे खाली। शराब के नाले बह रहे हैं। मठूरों को कोठरी में देखा तो टूटी हुईं। दरिया बह रहे हैं। सर पीट लिया। बड़ा गुल मचाया। अरे लुट गया, मर मिटा! आस-पास के लोग आए। देखते हैं तो मठूरें और बोतलें और पीपे सब एक सिरे से जख्‍मी, और मारे बू के रहा नहीं जाता। और शराब का यह हाल है कि दरिया बहता है। अंदर बाहर शराब ही शराब। सबको रंज हुआ। पूछा - यह क्‍या हुआ भई? उन्‍होंने कहा - हुआ क्‍या, हमारी बदनसीबी! हमारी नहूसत, दिनों की गर्दिश, और साहब क्‍या पूछते हो? एक लाला आए थे, हम उनके वास्‍ते फालसेवाली लेने गए, अमीर आदमी थे। हमने कहा, भाई, इनका आदर-भाव करें। चपई से कह गए कि उनको जब लग कंदी पिलाओ। यहाँ आए तो दिया गुल, दुकान में अँधेरा पड़ा हुआ। होश उड़ गए। अरे यह क्‍या भैया! दिया जलाया तो बोतलें टूटी हुई। अरे! पीपा जो देखा, वह औंधा पड़ा हुआ। जान निकल गई। कोठरी में मठूरें सब टूटी-फूटी। और न लाला का पता, न चपई हरामजादे का! एक आदमी ने कहा - चपई को तो हमने चौक में देखा था। लाला को और भी हैरत हुई, कि इतने में चपई आए, और इक्‍के से उतरे। और लाला ने दौड़के एक लपोटा जोर से दिया - अबे तू था कहाँ, हरामजादे? दुकान लुटा दी! अब उसका हर्जा कौन देगा?

चपई रोने लगे। कहा - यह जबरौती है, लाला! लाला ने झल्‍ला के दो तीन लपोटे और जमाए। और चपई भी बिगड़ा। और तमाशाई बीच-बचाव करने लगे।

1 - पहले पूछो तो कि दुकान छोड़के चला कहाँ गया था!

2 - अबे हाँ, दुकान किस पर छोड़के गया?

3 - जरा जाके देखो तो दुकान जाके।

चपई ने दुकान में कदम रक्‍खा तो शराब की नदी बही हुई है। रंग फक हो गया। और लाला ने इस गुस्‍से की नजर से देखा कि कि मालूम होता था, खा जायँगे। और गुस्‍से की बात ही थी। इतने में इक्‍केवाले ने कहा -

अजी, अब हमको अठन्नी मिले, हम चलते हैं।

लाला - अठन्‍नी कैसी?

जवाब - अवाई जवाई के आठ आने चुके थे। मारामार ले गए और आए!

लाला - अबे तू कहाँ गया था दुकान छोड़के?

चपई - (रुआँसा होके) लाला जो आए थे, उन्‍होंने कहा - जाके चौक से सौदा ला दे, अवाई जवाई आठ आने देंगे, गोल दरवज्‍जे तक।

लाला - (बहुत खफा हो कर) यह कहो, बड़े हातिम बन गए! गोल दरवज्‍जे तक आती जाती के आठ आने हुए? टके पर आदमी जाता है और टके पर आता है।

गरजे कि लाला और चपई और इक्‍केवाले में देर तक गुलखप रही। तीन पैसे पर चपई आ गए थे, मगर इक्‍केवाले से कहा था कि लाला से अठन्‍नी कहना। मगर अब इक्‍केवाले की नीयत जो डाँवाडोल हुई तो वह वाकई अठन्‍नी ही माँगने लगा। चपई तो जो सिखाके लाए थे वही खुद भी गाने लगे। मगर अब यह दिल्‍लगी हुई कि इक्‍केवाला सचमुच तीन पैसे की जगह अठन्‍नी माँगने लगा। और जब लाला ने डाँटा तो इक्‍केवाले ने चपई का दामन पकड़ा, और तकरार बढ़ गई। आखिरकार लोगों ने समझा-बुझाके इक्‍केवाले को तीन आने पर राजी किया, और चपई को देने पड़े।

लाला ने बड़े गुस्‍से में आके कहा - आखिर मालूम तो हो कि कहाँ गया था! दुकान क्‍यों छोड़ी और लाला कहाँ हैं!

चपई - हमसे कहा - चपई काका, एक इक्‍का किराया करो और जाके आगरेवाले की दुकान से दालमोठ एक रुपए की और एक रुपए के दही-बड़े और एक रुपए की कलेजी चटपट दौड़के लाओ। हमने कहा, दुकान पर कौन रहेगा। कहा, जब तलक हम बेचेंगे। जब हमने दाम माँगे तो कहा, तुम दुकान से ले लो। फिर हिसाब हुआ करेगा। आप के छै रुपए हमारे पास थे ही। उसमें से हम तीन का सौदा लाए और अठन्‍नी इक्‍केवाले को दी। अढ़ाई रुपए रहे। वह ये हैं।

टेंट से रुपए निकालने ही को थे कि लाला ने आग-भभूका हो कर पट्टे पकड़के इतना मारा कि भुरकस निकाल दिया। और जो लोग खड़े तमाशा देख रहे थे, उनसे यों बातें हुईं -

लाला - अरे यारो देखो तो इसकी बातें! एक रुपए की कलेजी, कोई अंधेर है! और हमसे पूछा, न गुछा! क्‍या इनसे बाप का माल था? और एक रुपए के दही-बड़े! अंधेर है कि नहीं? और एक रुपए की दालमोठ!

जिसने सुना वह हँसने लगा, कि भई वाह! एक रुपए के दही-बड़े और एक रुपए की दालमोठ, और एक रुपए की कलेजी की अच्‍छी कही!

1 - एक रुपए की कलेजी अगर एक-एक आदमी नाश्‍ते के साथ खा जाय तो कलेजीवाले तो बन जायँ।

2 - भला कोई बात भी है! अच्‍छी कही!

3 - और एक रुपए की कलेजी के अलावा एक रुपए के बड़े! वाह, साहब वाह! एक ही हुई!

कलवार - हजूर जो बात थी एक ही रुपए की थी। एक रुपए से कम की नहीं थी। इंसाफ तो कीजिए - कलेजी भी एक ही की, और दालमोठ भी एक ही की और दही-बड़े भी एक के! एक रुपए से घट के तो बात करता ही नहीं।

1 - और दाम अपनी गिरह से नहीं दिए!

2 - तौबा साहब! अपनी गिरह से देना क्‍या माने!

3 - भई वल्‍लाह, अच्‍छी दिल्‍लगी हुई, माकूल!

कलवार - सब इसी की जान को रोना पड़ेगा! शराब जो गिरी है, उसके दाम भी इसके बाप से लूँगा।

ये बातें हो ही रही थीं कि एक आदमी ने आनके गुल मचाया और आसमान सर पर उठा लिया। कहा - दरगाही लाल, यह क्‍या बदनीयती पर कमर बाँधी है! अरे मियाँ शराब में नौ मन रेत मिला दी!

कलवार - कैसी रेत? और हम थे कहाँ कि जो रेत छोड़ते?

जनाब - अभी को तुम थे या नहीं थे, चख के देखो! तुम्‍हारे दामाद तो थे!

'दामाद' का लफ्ज सुनना था कि दरगाही लाल, कलवार आग हो गया। एक तो नुकसान इतना हुआ था, उसका रंज था, दूसरे इस बात का गुस्‍सा, कि तीन-चार रुपए और ऊपर से खर्च हुए - और अब एक आदमी ने आके गाली दी - लाला का दामाद एक अजनबी को बनाया। आग ही तो हो गया। कहा - बस यहाँ से डोल जाओ! दामाद तेरा होगा।

वह आदमी भी बिगड़ा। मगर कलवार के एक भाई-बंद ने उससे कहा - भाई बिगड़ने की तो बात ही है। गाली देते हो, और कहते हो, बिगड़ो नहीं। इनकी एक लड़की है, वह अभी जरा-सी, कोई तीन बरस की, और तुम दामाद बनाए देते हो। बुरा मानें कि न मानें!

उसने कहा - भई हमको क्‍या मालूम था। उसने कहा, लाला के दामाद हैं हम, वही हमने कहा।

इतने में एक और आदमी दौड़ा आया। यह बहुत ही झल्‍लाया हुआ था। आते ही गुल मचाके कहा - वाह, लाला, वाह! आज तो अच्‍छी दारू बेच रहे हो! मार के बालू और रेत ही भरी हुई है। हमारे दाम फेर दो। वह जो तुम्‍हारे बहनोई बैठे थे, उन्‍होंने पाँच आने बोतल लगा दी थी। मगर किस काम की।

कलवार 'बहनोई' का लफ्ज सुन कर फिर आग-भभूका हो गया। कुछ कहने ही को था कि एक और आदमी ने आके डाँटा - भई, वाह रे लाला दरगाही लाल, अब तक महुए और फालसे और गाजर की खींचते थे, मगर अब मालूम होता है बालू की भी खींचने लगे। मार के रेत ही रेत भरी है। हम तो पहले उनको देखके ठिठके थे। मगर उन्‍होंने खुद ही कहा कि लाला दरगाही लाल की लड़की के हम मियाँ है, लाला हमको बैठा गए हैं -

दरगाही लाल झल्‍ला के दुकान से भाग गए!