हुस्नवाले तेरा जवाब नहीं / प्रमोद यादव
बचपन में इस गाने का अर्थ समझ नहीं आता था. खासकर ‘हुस्नवाले‘ शब्द का. सोचता था, हुस्नवाले किसी मेवेवाले, ठेलेवाले या पानवाले की तरह कोई होते होंगे पर कालेज ज्वाइन करते और एक अदद कन्या के प्रेम में पड़ते ही इस शब्द का. सही अर्थ समझ में आया.जाना की हुस्न खूबसूरती को कहते हैं और यह भी जाना की हुस्न केवल लड़कियों का होता है, लड़कों का कोई हुस्न नहीं होता. लड़के तो शत-प्रतिशत बौडम होते हैं-मेरी तरह...इन हुस्नवालों की बड़ी मज़बूरी होती है-बोड्मों से एड्जस्ट करना...प्रेम करना..शादी करना लेकिन क्या करे, यही इनकी नियति है. बेचारी..प्यारी..अबला नारी.
लैला-मजनू, शीरी-फरहाद, हीर-रांझा को हमने केवल फिल्मों में देखा है.अब फिल्म बनानेवालों को तो सिर्फ पैसा कमाना है, फिल्म चलाना है- वे बेचारे भला मजनू, फरहाद, रांझा को बौडम कैसे दिखाएँ, इसलिए वे इन दीवानों को हैंडसम फार्मेट में पेश करते हैं.सही तथ्य तो ये है कि वो सब भी हमारी तरह बौडम ही रहें होंगे..ज्यादा से ज्यादा हमसे उन्नीस-बीस का ही फर्क रहा होगा..लेकिन लैला, हीर, शीरी के हुस्न पर मुझे कोई शंका नहीं..हाँ, कहीं पढा है कि लैला कुछ काली थी, पर हुस्न का पैमाना गोरा-काला नहीं होता. फेसकट से चार्मिंग रही होगी लैला. जिस लैला से मेरी आँखें चार हुई थी-वह न गोरी थी, न काली..पर उसका चाँद-सा गोल चेहरा मुझे बहुत भाता था..मेरे लिए यही हुस्न था.
हर खत में उसके हुस्न की तारीफ करता. कभी उसे ‘चाँद-सी महबूबा‘ कहता तो कभी ‘चौदहवीं का चाँद‘. हमारे ज़माने में “लाइव-बातचीत“ लगभग वर्जित ही था.पांच साल के प्रेम-प्रसंग में टोटल “लाइव- बातचीत “बामुश्किल पांच घंटों की होगी. हाँ, खत हमने जरुर पच्चीस सौ लिखे ..(साढ़े बारह सौ उसने और साढ़े बारह सौ मैंने) प्रेम-पत्रों को पढकर वह वापस कर देती, कहती-तुम्ही सम्हालो..मुझसे फाड़े नहीं जाते..और घर में रख नहीं सकती. वह डरती कि कहीं भैया के हाथों लगा तो वे बिगड जायेंगे. इस तरह ‘ इन-आउट ‘ दोनों खतों को मैं ही सम्हालता. उस ज़माने में यही प्रेम था...सच्चा-प्रेम.
उन दिनों प्रेम-पत्र लिखनेवालों की बड़ी क़द्र होती थी..उन्हें जीनियस माना जाता. प्रेम-पत्र लिखने के लिए लोग तरसते थे. प्रेम-पत्र लिखने के लिए सबसे बड़ी और पहली अनिवार्यता थी-एक अदद माशूका की. भला हर किसी के नसीब में यह कहाँ होता है? अपने दोस्तों के बीच मैं खुद को काफी गर्वीला महसूसता था (अन्धों में काना राजा जो था) खत लिखता तो सारे दोस्त दांतों तले ऊँगली दबाते ...खुदा की मेहरबानी से मेरी हैंडराईटिंग काफी अच्छी थी...हिंदी टायपिंग से बेहतर और साफ-सुथरी थी मेरी लिखावट. शेरो-शायरी, कविता, गजल पूरे जोश-खरोश से ठेलता था खत में. प्रेम के चलते मैं साहित्यिक-विद्वान- सा हो रहा था और पढाई-लिखाई में दिनों-दिन फिसड्डी . पर प्रेम की ट्रेन द्रुतगति से चल रही हो तो पढाई की कौन परवाह करता है? मैंने भी नहीं की और फेल हो गया, पर प्रेम-प्रसंग के तमाम विधाओं में मेरे मार्क्स हमेशा अच्छे रहे. चारित्रिक-तौर पर मैं एकदम बेदाग रहा. पांच साल की लंबी अवधि में कभी उसे छुआ तक नहीं. इस बात का मुझे कोई दुःख नहीं लेकिन मेरे दोस्तों को आज तलक मलाल है इस बात का...वे चाहकर भी मेरा चारित्रिक पतन नहीं देख पाए.
तो मैं बता रहा था कि उसके हुस्न की तारीफ में मैंने कभी कोताही नहीं की.कभी “ तेरी प्यारी-प्यारी सूरत को, किसी की नजर न लगे “की दुआंए, कम्प्लिमेंट्स दी, तो कभी “तेरे चहरे से नजर नहीं हटती “ की टेक लगाई. कभी ”छू लेने दो नाजुक होंठों को“ की फरियाद की, तो कभी “तुझे जीवन की डोर से बांध लिया है“ जैसी गोपनीय बातें भी बताई...लेकिन यह सब खतों तक ही सीमित रहा....सपनों तक ही सीमित रहा और .सपनों की तो नियति ही है टूटना...सो टूट गए..उसकी शादी हो गई, वह ससुराल चली गयी. मैंने भी वो सारे पच्चीस सौ खत एक-एक बार पढके अग्नि के हवाले किये और यथार्थ की पटरी पर आ लगा. आज हम-दोनों खुश हैं.वह खुश है कि बाल-बाल बची और मैं खुश हूँ कि मेरे कुछ तो बाल बचे.
आज के दौर की युवतियों, बालाओं को देखकर बड़ी कोफ़्त होती है.झाँसी की रानी की तरह सर पर कफ़न बांधे, मुंह में दुपट्टा लपेटे स्कूटी में सरपट न जाने कहाँ भागी जाती हैं? बड़ी संदेहास्पद लगती है ये लड़कियां. अब तो ग्रामीण बालाएं भी मुंह में नकाब डाले सायकिल से सरपट भागती हैं- जैसे कहीं ‘ डाके ‘ का प्रोग्राम करने जा रही हो.माना कि धुल धक्कड -, धुआं से बचने का उपक्रम करती हैं, सेहत के प्रति अपनी जागरूकता प्रदर्शित करती हैं...पर भला धुल धक्कड कोई आज की बात तो नहीं है...हमारे ज़माने में तो आज से कहीं ज्यादा ही धुल धक्कड था...हाँ, सेहत के प्रति जागरूकता जरुर कम थी. फिर भी कभी किसी कन्या ने दुपट्टा बांधने की जरुरत नहीं समझी. सेहत को ताक पर रख अपने हुस्न का जलवा सरेआम बिखेरती रही...और औडम- बौडम लोग कृतार्थ होते रहे.उन दिनों भी कहीं आज की तरह नकाब ओढने का चलन होता, तो मैं तो कभी किसी को ‘ प्रपोज ‘ कर ही नहीं पाता. चौबीसों घंटे कोई चहरे पर नकाब चढ़ाये रहे तो भला उसके हुस्न की तारीफ कोई कैसे करे? चेहरा देखे बिना कोई कैसे कहे- “ रूप तेरा मस्ताना.”..या फिर ” तेरे होंठों के दो फूल प्यारे-प्यारे..” समझ नहीं आता आज के युवा सलीम अपनी नकाबपोश अनारकलिओं को पहचानते कैसे है? प्रपोज कैसे करते हैं?खत लेने-देने का तो चलन ही खत्म हो गया है.
सुना है कि आजकल का प्रेम-प्रसंग पूरी तरह और बुरी तरह ‘ मोबाइल-बेस्ड ‘ है. ई-मेल, इंटरनेट, एस.ऍम एस. , एम्.एम्.एस. के जरिये ही सब सम्पादित होता है, पर खत के मुकाबले यह अत्यंत अविश्वश्नीय विधा है. कब आप कवरेज से बाहर हो जाएँ, कब सिग्नल चला जाये, या सेलफोन बंद हो जाये, पता नहीं.बड़ा ही रिस्की माध्यम है यह.समझ नहीं आता इसके सहारे आज के लैला-मजनू किस तरह मुहब्बत करते हैं? खुद को मैं धन्य मानता हूँ कि इस मनहूस मोबाइल-युग के शोर-शराबे में पैदा नहीं हुआ अन्यथा एक अदद पवित्र और ‘ कूल-कूल ‘ प्रेम-प्रसंग से वंचित रह जाता. कामना करता हूँ कि कहीं ‘ऊपरवाले‘ के यहाँ पुनर्जन्म का कोई प्रोग्राम चलता हो तो अगले जनम में भी मुझे वही चाँद-सी गोल चेहरे वाली महबूबा ही बख्शे जिसने हमेशा अपने हुस्न को बे-नकाब रख तारीफ करने का भरपूर मौका दिया...शुक्रगुजार हूँ उसका.. आज के दौर में वह होती ( नकाब डाले ) तो कभी नहीं कह पाता-“ हुस्नवाले तेरा जवाब नहीं“.