हृदय / बालकृष्ण भट्ट
हमारे अनुमान से उस परम नागर की चराचर सृष्टि में हृदय एक अद्भुत पदार्थ है देखने में तो इसमें तीन अक्षर हैं पर तीनों लोक और चौदहों भुवन इस तिहर्फी (अक्षर) शब्द के भीतर एक भुनगे की नाई दबे पड़े हैं। अणु से लेकर पर्वत पर्यंत छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा कोई काम क्यों न हो बिना हृदय लगाये वैसा ही पोच रहता है जैसा युगल-दन्त की शुभ्रोज्ज्वल खूँटियों से शोभित श्याम मस्तक वाले मदश्रावी मातंग को कच्चे सूत के धागे से बाँध रखने का प्रयत्न अथवा चंचल कुरंग को पकड़ने के लिए भोले कछुए के बच्चे को उद्यत करना। आँख न हो मनुष्य हृदय से देख सकता है पर हृदय न होने से आँख बेकार है।
कहावत भी तो है 'क्या तुम्हारे हिये की भी फूटी है', हृदय से देखो, हृदय से पूछो, हृदय में रखो, हिए-जिये से काम करो, हृदय में कृपा बनाये रखो। किसी का हृदय मत दुखाओ। अमुक पुरुष का ऐसा नम्र हृदय है कि पराया दुख देख कोमल कमल की दंडी-सा झुक जाता है। अमुक का इतना कठोर है कि कमठ पृष्ठ की कठोरता तक को मात करता है। कितनों का हृदय वज्राघात सहने को भी समर्थ होता है। कोई ऐसे भीरु होते हैं कि समर सन्मुख जाना तो दूर रहा कृपाण की चमक और गोले की धमक के मारे उनका हृदय सिकुड़ कर सोंठ की गिरह हो जाता है। किसी का हृदय रणक्षेत्र में अपूर्व विक्रम और अलौकिक युद्ध कौशल दिखाने को उमगता है। एवं किसी का हृदय विपुल और किसी का संकीर्ण किसी का उदार और किसी का अनुदार होता है। विभव के समय यह समुद्र की लहर से भी चार हाथ अधिक उमड़ता है और विपद-काल में सिमट कर रबड़ की टिकिया रह जाता है।
सतोगुण की प्रवृत्ति में राज-पाट तक दान कर संकुचित नहीं होता, रजोगुण की प्रवृत्ति में बाल की खाल निकाल झींगुरों की मुस्कें बाँधता है। फलत: प्रेम, करुणा, प्रीति, भक्ति, माया, मोह आदि गुणों का प्रकृति-दशा में कभी-कभी ऐसा प्रभाव होता है कि उसका वर्णन कवियों की सामर्थ्य से बाहर हो जाता है उसके अनुभव को हृदय ही जानता है, मुँह से कहने को अशक्य होता है। यदि यह बात नहीं हैं तो कृपाकर बताइये चिर-काल के बिछुरे प्रेमपात्रों के परस्पर सम्मिलन और एकटक अवलोकन में हृदय को कितनी ठंडक पहुँचती है या सहज अधीर, स्वभावत: चंचल मृदु बालक जब बड़े आग्रह से मचल कर धूलि में लोटते हैं वा किसी नई सीखी बात को बाल स्वभाव से दुहराते हैं उस काल उनके मुँह मुकुर पर जो मनोहर छवि छाती है वह आपके हृदय पर कितना प्रेम उपजाती है वा जिसको हम चाहते हैं वह गोली भर टप्पे से हमें देख कतराता है तो उसकी रुखाई का हृदय पर कितना गंभीर घाव होता है? अथवा बहु-कुलीन महादुखी जब परस्पर असंकुचित चित्त मिलते और अत्रुटित बातों में अपना दुखड़ा कहते हैं उस समय उनके आश्वासन की सीमा कहाँ तक पहुँचती है। शुद्ध एवं संयमी, नारायण-परायण को प्रभु-कीर्तन और भजन में जो अपूर्व आनंद अलौकिक सुख मिलता है व प्राकृतिक शोभा देख कवि का हृदय जो उल्लास, शांति और निस्तब्ध भाव धारण करता है उसका तारतम्य कितना है पाठक! हमारे लिखने के ये सब सर्वथा बाहर हैं, अपने आप जान सकते हो।
भक्ति रस पगे हुए महात्मा तुलसीदास जी राघवेंद्र राघव की प्रशंसा में कहते हैं -
'चितवनि चारु मारु मदहरनी। भावत हृदय जाय नहिं बरनी।।'
इससे जान पड़ता है कि हृदय एक ऐसी गहरी खाड़ी है जिसकी थाह विचारे जीव को उसमें रहने पर भी कभी-कभी उस भाँति नहीं मिलती जैसे ताल की मछलियाँ दिन रात पानी में बिलबिलाया करती हैं पर उसकी थाह पाने की क्षमता नहीं रखती। जब अपने ही हृदय का ज्ञान अपने को नहीं है तो दूसरे के मन की थाह ले लेना तो बहुत ही दुस्तर है। तभी तो असाधारण धीमानों की यह प्रार्थना है 'अनुक्तमप्यूहति पंडितो जन:' दूसर के हृदय की थाह लगाना बड़ा दुरंत है। न जाने इस हृदयागार का कैसा मुँह है, पंडित लोग कुछ ही कहें हमारी जान तो इसका स्वरूप स्वच्छ स्फटिक की नाई हैं। इसी से हर चीज का फोटू इसमें उतर जाता है जिस भाँति सहस्रांश की सहस्त्र-सहस्त्र किरणें निर्मल बिल्लौर पर पड़कर उसके बाहर निकल जाती हैं इसी तरह सैकड़ों बातें, हजारों विषय जो दिन-रात में हमारे गोचर होते हैं हृदय के शीशे के भीतर धँसते चले जाते हैं और समय पर ख्याल के कागज में तस्वीर बन सामने आ जाते हैं। इसमें कोई जल्द फहम होते हैं, कोई सौ-सौ बार बताने पर नहीं समझते। उनका हृदय किसी ऐसी चिंता कीट से चेहटा रहता है कि वह आवरण होकर रोक करता है जिस तरह अक्स लेने के लिये शीशे को पहले खूब धो-धुवाकर साफ कर लेते हैं इसी भाँति सुंदर बात को धारण के लिये हृदय की सफाई की बहुत बड़ी आवश्यकता है।
राजर्षि भर्तृहरि का वाक्य है - हृदिस्वच्छावृत्ति: श्रुतमधिगतैकवृतफलमद्' अर्थात हृदय स्वच्छवृत्ति से और कान शास्त्र-श्रवण से बड़ाई के योग्य होते हैं। सह स्वच्छ थैली जिनके पास है वही सदाशय हैं, वही महाशय हैं और वह गंभीराशय हैं उन्हें चाहे जिन शुभ नामों से पुकार लीजिये। और जिनकी उदरदरी में इसका अभाव है वे ही दुराशय, क्षुद्राशय, नीचाशय, ओछे, छोटे और पेट के खोटे हैं। देखी सहृदय के उदाहरण ये लोग हुए हैं। सूर्यवंश शिरोमणि दशरथात्मज रामचंद्र को कराली कैकेयी ने कितना दु:ख दिया था। बारह वर्ष के वन के असीम आपदों का क्लेश, नयन ओट न रहने वाली सती सीता का विरहजन्य शोक, स्नेह सागर पिता का सदा के लिये वियोग ये सब सहकर उनका शुद्ध हृदय उस सौतेली माँ-बाप की तिरछी आँख की आँच न सहकर कह बैठते हैं कि हमारा तो उनकी तरफ से हिरदै फट गया। प्रिय पाठक, श्री स्वामी दयानंद सरस्वतीजी महाराज भी एक बड़े विशद और विशाल हृदय के मनुष्य थे, जिन्होंने लोगों की गाली गलौज, निंदा-चुगली आदि अनेक असह्य बातों को सह कर उनके प्रति उपकार से मुँह न मोड़ा। आज जिनका विपुल हृदय मानो निकल कर सत्यार्थ प्रकाश बन गया है। एक बार यहाँ के चंद लोगों ने कहा कि वह नास्तिक मुँह देखने योग्य नहीं है। यह सुन कर कुछ भी उनकी मुख श्री मलिन न हुई और किसी भाँति माथे पर सिकुड़न न आई। गंभीरता से उत्तर दिया कि यदि मेरा मुँह देखने में पाप लगता है तो मैं मुँह ढाँप लूँगा पर दो-दो बातें तो मेरी सुन लें। बस इसी से आप उनके वृहत हृदय का परिचय कर सकते हैं। किसी ने सच कहा है -
'सज्जनस्य हृदयनवनीतं यद्वदन्ति कवयस्तदलीकम्।
अन्यतेहबिलसत्परितापात्सज्जनो द्रवतिननवनीतम्।।
एक सहृदय कहता है कि कवियों ने जो सज्जनों के हृदय की उपमा मक्खन से दी है वह बात ठीक नहीं है। क्योंकि सत् पुरुष पराया दु:ख देख विघल जाते हैं और मक्खन वैसा ही बना रहता है। बस प्यारों, यदि तुम सहृदय होना चाहते हो तो ऐसे उदार हृदयों का अनुकरण करो, ऐसे ही हृदय दूसरों के हृदयों में क्षमा, दया, शांति, तितिक्षा, शील, सौजन्यता, सच्ची आस्तिकता और उदारता का वीर्यारोपण करने में योग्य होते हैं और सच्चे सुहृद कहाते हैं।
(अक्टूबर, 1887)