हे हिन्दी के आलोचकों! / गोपालप्रसाद व्यास
मैं हास-परिहास की कविताएं अच्छी लिखने लगा हूँ। अच्छी ही नहीं, बहुत अच्छी लिखने लगा हूँ। इसके प्रमाण में मैं आपको संपादकों के पत्र, कवि सम्मेलनों के निमंत्रण और छपी हुई रचनाओं की छोटे-बड़े अखबारों की वे सब 'कटिंग' जो मैंने सम्हालकर एक रजिस्टर में चिपका रखी हैं, जब चाहें तब दिखा सकता हूँ। मेरी सफलता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि कविता सुनने से पहले ही लोग मेरी सूरत पर हंसते हैं। सुनने के बाद ताली पीटते हैं और बाहर निकलने पर उंगली उठाते हैं कि ये चले, वे चले।
इसलिए जब हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने वाले आचार्य रामचंद्र शुक्ल के असामयिक निधन पर दृष्टि डालता हूँ तो कभी-कभी मुझे बड़ी निराशा होती है।
हाय! अब शुक्लजी के बिना कौन मेरे महत्त्व को हिन्दी साहित्य में स्थापित कर सकेगा?
तब ऐ हिन्दी साहित्य के नवीन इतिहास-लेखको! विधाता की इस भूल को, जो उसने असमय ही शुक्लजी को अपने पास बुलाकर की है, अपने इस उत्तरदायित्व को, जो अनायास आपकी कलम पर आ पड़ा है, क्या तुम निबाह सकने में समर्थ हो सकोगे?
बुद्धिमानी इसी में है कि तुम इस अवसर से लाभ उठाओ। तुम्हारी लेखनी मेरे विषय में लिखते हुए धन्य हो उठे। तुम लिखो-”व्यास जैसे अमर व्यक्तित्व साहित्य के इतिहास में कभी-कभी ही उदित होते हैं। हिन्दी के इतिहास में इने-गिने दो-चार ही व्यक्ति हैं, जिनका नाम श्रद्धेय व्यासजी के साथ लिया जा सकता है। इस छोटी उम्र से ही उनकी कलम ने जो जौहर दिखाए हैं, ऐसे उदाहरण तो हमें हिन्दी साहित्य में देखने को नहीं मिले।”
कोई भले कहे कि शुक्लजी नवीन लेखकों के यशगान में बड़े कृपण थे, पर आज कहीं वह होते और मुझे देख पाते तो विश्वास मानिए कि वह मेरे अंतर को खोलकर रख देते और लिखते- “व्यासजी की कविताओं में हमें शिष्ट हास्य की सुंदर झांकी मिलती है। उन्होंने अपरूप वस्तुओं में से हास्य की उदभावना न कर, जीवन की हास्योन्मुखी वृत्ति का उदघाटन किया है। क्रिया के अभिव्यंजनावाद में छायावाद (इंप्रेशनिज्म) का पुट देकर सामयिक लहरियों से उच्छलित व्यासजी की हास्य-सृष्टि अपूर्व हो उठी है।” पर हाय! वह रत्नपारखी न रहा। तब हे नए युग के उदार समालोचको! तुम अब यह लिखो-
“व्यासजी ने हिन्दी के सारे परिहास-लेखकों को सौ कदम क्या हजार मील पीछे छोड़ दिया है। उर्दू के अकबर होते तो दांतों तले उंगली दबा जाते। 'हास्यरस' के चुटकुले कहना और बात है। उक्तियों में स्वयं वैदग्ध्य होता है, पर हास्य को विषय और वस्तुओं में बांधना टेढ़ा काम है। व्यासजी ने इस महत्त्वपूर्ण कार्य को अपने हाथ में लेकर हिन्दी का मस्तक ऊँचा उठाया है। वह सूर की तरह सरस, तुलसी की तरह व्यापक और बिहारी की तरह सदैव प्रिय रहेंगे।” और ऐ मेरे आलोचक दोस्तो! तुम्हारी मित्रता यदि आज के दिन काम न आई तो फिर कब आएगी? अपनी पुस्तक की पहली प्रति मैं आपके पास भेज रहा हूँ। तुम हिन्दी के पत्रों में वह तूफान बरपा दो कि कहर मच जाए। मेरी कविता में जो गुण नहीं हैं, उन्हें खोज निकालो। चाहता हूँ कि कहर मच जाए। मेरी कविता में जो गुण नहीं हैं, उन्हें खोज निकालो। पाठक जो सोच न सकें, वह लिख डालो। मैं तुम्हें रास्ता बताता हूँ। तुमने आलोचना लिखने के लिए वे जो सौ-पचास शब्द डायरी में नोट कर मेज पर रख छोड़े हैं, मैं चाहता हूँ कि तुम उन सबका एक बार ही मेरी पुस्तक पर प्रयोग कर बैठो। तुम लिखो- “व्यासजी अंग्रेजी के यह हैं और फ्रैंच के वह। रूस का अमुक लेख भाषा-सौष्ठव में उनसे यों पीछे रह जाता है और अमरीकी लेखक अपनी अश्लीलता के कारण हमारे व्यासजी का पल्ला यों नहीं पकड़ सकते।” यही नहीं, तुम यह भी लिखो- “इधर पच्चीस वर्ष से हिन्दी में ऐसी दिलचस्प कोई दूसरी पुस्तक नहीं निकली। हम प्रत्येक हिन्दी पाठक का ध्यान इस पुस्तक की ओर आकृष्ट करना चाहते हैं।” आप क्या हिन्दी के पाठकों की आदत से परिचित नहीं कि वे किसी भले आदमी की कद्र नहीं करते। भले न करें! यदि हम आपस में संगठित हैं तो हमारा कर भी क्या सकेंगे? आप मेरी कद्र कीजिए मैं आपको दाद दूँगा। मैं कवि ही नहीं, आलोचक भी हूँ। आप मेरी प्रशंसा कीजिए, मैं मौका मिलते ही आपकी तारीफ़ के पुल बांध दूँगा। यदि कवि हैं तो व्यास और वाल्मीकि से भी बढ़ा दूँगा। यदि आप विचारक हैं तो बर्नार्ड शॉ और विनोबा से भी दस-हजार मील (आजकल के वायुयानी-युग में कदम क्या चीज है) आगे बढ़ा दूँगा- “मनतुरा काजी बिगोयम तो मरा हाजी बिगो।”
मित्रो! मैं चाहता हूँ कि तुममें से कुछ जान-बूझकर मेरे विरुद्ध लिखना शुरू कर दें। क्योंकि मुझे बताया गया है कि ये विरोधी आलोचनाएं प्रचार में बड़ी सहायक सिद्ध होती हैं। हां, तो बनारसीदास चतुर्वेदीजी, एक आंदोलन मेरे नाम पर भी सही। भाई रामविलास, मैं प्रगतिवादी नहीं हूँ, एक तमाचा मेरे गाल पर भी। मेरी कविता के छंद-अलंकार और शब्दानुशासन, किशोरीदासजी कहां हो, तुम्हें पुकार रहे हैं। मैं कनवजिया नहीं हूँ। मेरे पूर्वी मित्रो, कहां सो रहे हो? तुम लिखते क्यों नहीं- “जिसे देखो आज वही कवि बनने जा रहा है। हास्य लिखना तो लोगों ने खिलौना समझ रखा है। अभी व्यास नाम के महाशय की एक पुस्तक देखने को मिली। लेखक अपने आपको न जाने क्या समझे बैठा है! पर असल में ऐसे हास्य का नमूना हमें तो अन्यत्र दिखाई दिया नहीं। जनाब को पत्नी के सिवाय दूसरी चीजों में हास्य ही नहीं फूटता। कविताओं की टेकनीक एकदम पुरानी है और विचार हज़रत के सोलहवीं शताब्दी के। नारी को गलत चित्रित किया गया है। नारी को बदनाम करने की मिस मेयो जैसी प्रवृत्ति भी इस पुस्तक में दिखाई पड़ती है। ऐसा लगता है कि मिस्टर व्यास की अपनी विकृत भावना ही पत्नी के रूप में मुखर हो उठी है। अधिकांश कविताओं को पढ़कर लगा कि यह भारतीय घर का चित्र नहीं, स्वयं लेखक के अपने घर का पहलू है।
इन कविताओं में शैली की एकतानता है। सुरुचि, शिष्टता और सामाजिकता की अवहेलना की गई है। अधिकांश कविताएं अश्लील हैं। अभी पाश्चात्य देशों के मुकाबले हिन्दी साहित्य कितना तुच्छ और कितना नगण्य है कि उसकी तुलना नहीं की जा सकती। व्यास अगर अंग्रेजी नहीं जानते तो उन्हें अपने पड़ोसी बंगला-मराठी के साहित्य को ही देख लेना चाहिए। तब उन्हें अपना स्थान ठीक से दिखाई दे जाएगा कि जिनके पासंग में उनकी रचनाएं कितनी फूहड़, कितनी बोदी और एकदम बेतुकी हैं।” इसके बाद तुम आंख मूंदकर मेरी एक कविता को उठा लो और उसमें जगह-जगह छंद-भंग, पुनरावृत्ति, ग्राम्य प्रयोग और अश्लीलता की बारीकी से तलाश करो। प्रयत्न करने से बालू में भी तेल निकल आता है। पुस्तक के गेट-अप, कागज और मूल्य पर भी तुम्हारी टिप्पणी रहनी चाहिए। प्रेस की अशुद्धियों को बचा जाना सही आलोचना नहीं है और देखो, चलते-चलते मेरे प्रकाशक पर भी अपनी स्याही की दो बूंदें ऐसी छिड़कना कि अगली पुस्तक छापने से पहले उसे दस बार सोचना पड़ जाए। मतलब यह कि मेरी कविता को हर प्रकार से तुम्हें दो कौड़ी की सिद्ध करके ही दम लेना है, समझ गए न?
यह मेरी पुस्तक है। मुझ पर बड़ी-बड़ी किताबें तो बाद में लिखी जाएंगी, पर कुछ छोटी पुस्तकें यदि अभी निकल जाएं तो कोई हर्ज़ न होगा। मतलब मेरे कहने का यह है कि यदि 'व्यास की कला' (गुप्तजी की कला) 'व्यास : एक अध्ययन' (साकेत : एक अध्ययन) जैसी किताबें अभी न लिखी जा सकें, तो जनाब प्रभाकर माचवे, तुम जल्दी से जल्दी दिल्ली चले आओ। मैं आजकल यहीं हूँ। मुझसे आकर दो-चार 'इंटरव्यू' ले लो और जल्दी ही 'व्यास के विचार' (जैनेन्द्र के विचार) के नाम से एक पुस्तक तैयार कर दो। छपवाने का सब प्रबंध हो जाएगा।
और पाठको, मांगकर पुस्तक पढ़ने वाले साहित्य के शौकीनो और पुस्तकालयों में नवीन पुस्तकों की बाट देखने वाले चातको, कुछ कद्र करना सीखो। तुम्हारा शरीर अपना नहीं, राष्ट्र का है, और हम राष्ट्र का निर्माण करने वाले साहित्यिक हैं। तुम्हारा मन अपना नहीं, वह किसी और का है, और उस 'किसी और' की स्थापना तुम्हारे मन में हमने ही तो की है। तुम्हारा धन अपना नहीं, वह गरीबों का है, और हम हिन्दी के गरीब लेखक हैं। तुम्हारा ज्ञान अपना नहीं, वह हमसे उधार लिया हुआ है, आज हम इसकी एवज़ चाहते हैं। सबकी ओर से मैं चाहता हूँ। तुम्हें यह कर्ज़ चुकाना ही होगा। अर्थात मेरी पुस्तक खरीदनी ही होगी। न केवल तुम किताब ही खरीदोगे, मेरी भूख कुछ और बढ़ी हुई है। मैं यश का भूखा हूँ- मुझे कवि-सम्मेलनों का सभापति बनाओगे। मैं धन का भूखा हूँ-मुझे लखटकिया पुरस्कार दिलाओगे। मुझे ज़िंदा रहने के लिए सोसायटी चाहिए। कविता लिखने के लिए रंगीनी चाहिए। बोलो दे सकोगे? वाह रे कवि के स्वप्न! और उसकी कविता की फज़ीहत! और उसके ऊपर तैर आने वाला अहंकार! और व्यंग्य रूप में उसकी अपनी ही आत्म-प्रशंसा!