हैदराबाद का जायका और दंतेवाड़ा की भूख / जयप्रकाश चौकसे

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हैदराबाद का जायका और दंतेवाड़ा की भूख
प्रकाशन तिथि : 05 जुलाई 2014


बाबी जासूस की पृष्ठभूमि रमजान के महीने में हैदराबाद है और फिल्मकार ने हैदराबाद के वातावरण और उसकी निहायत ही मीठी जबान को बखूबी प्रस्तुत किया है। जिस तरह विद्या बालन अभिनीत सुजॉय घोष की 'कहानी' में कलकत्ता को जीवंत पात्र की तरह प्रस्तुत किया गया था, वैसा ही इस फिल्म में हैदराबाद को प्रस्तुत किया है। वहां की आंकी-बांकी गलियों में मौज मस्ती से जीते हुए पात्रों को बड़ी कोशिश से प्रस्तुत किया गया है। विद्या बालन ने फिर एक बार अपने अभिनय से मंत्रमुग्ध किया है और फिल्मकार इस कदर अपनी पृष्ठभूमि से न्याय करने की चेष्टा करता है कि उसने अपनी मजेदार फिल्म का क्लाइमैक्स भी हैदराबादी बिरयानी के आधार पर रचा है। इस फिल्म के रिश्तों में महत्वपूर्ण है पिता और संतान का रिश्ता। फिल्म में एक पिता दंगों में अपने से बिछड़े पुत्र दो पुत्रियों की खोज रहा है तो दूसरा पिता अपनी गैरपारम्परिक जासूसी की शौकीन पुत्री से भावनात्मक तादात्मय आखिरी रील में बना पाता है।

इस फिल्म में मुख्य पात्र के साथ सहायक भूमिकाओं पर बहुत ध्यान दिया गया है और सारे लोग अत्यंत विश्वसनीय ढंग से प्रस्तुत हुए हैं। छोटी-छोटी बातों पर खूब ध्यान दिया गया है। यहां तक कि एक पुराने घर के एक कोने में धूल खाता एक साज भी रखा गया है। विद्या बालन के साथ ही चरित्र भूमिकाओं को अभिनीत करने वाले पात्र जीवंत लगते हैं। फिल्म की प्रेम-कथा भी अपनी जगह बहुत सटीक बैठी है। फिल्म में कुछ इस तरह का आभास है मानो शौकिया जासूस अनजाने ही गुनहगार के हाथ की कठपुतली बन गया है और रहस्य के आवरण के हटने पर जो तथ्य सामने आया है, वह विश्वसनीय नहीं लगता। हम अपराध की उम्मीद लगाए बैठते हैं परंतु अंत में एक भावुक पिता के प्रयासों को देखते हैं गोयाकि कहीं कोई गुनाह नहीं हुआ है फिर भी यह जासूसी फिल्म है जो रिश्तों के टूटे धागों को जोड़ती है। हैदराबादी लहजे में बोले गए संवाद बड़े अच्छे लगते हैं। फिल्म में मजेदार चरित्र चित्रण है। दरअसल शौकिया जासूस की मासूम सी गलतियां और अंत में सफल होना एक फार्मूला ही है परंतु इस फिल्म का वातावरण हैदराबादी लहजे इसे अलग बनाने में सफल होते है।

इसी के साथ आरिफ अली 'दीवाना दिल' उसी युवा प्रेम कथा का दोहराव मात्र है जो दर्शक एक दशक से देख रहे हैं कि प्रेमी मिलते है, बिछड़ जाते हैं और फिर मिलते हैं। आरिफ अली ने अपने बड़े भाई इम्तियाज अली की तरह एक यात्रा कथा चुनी है परंतु उनके पास अपने भाई की गहराई नहीं है। इस फिल्म के युवा प्रेमी अपनी गंतव्यविहीन यात्रा में छत्तीसगढ़ के माओवादी क्षेत्र दंतेवाड़ा जा पहुंचते हैं परंतु इसका कोई लाभ नहीं उठाया गया है। उस सदियों से अन्याय भोगते क्षेत्र में कैसे माओवादी विचारधारा फली-फूली है, यह एक गंभीर राजनैतिक क्षेत्र था। अगर दोनों अमीरजादे पात्र दंतेवाड़ा में हो रहे अन्याय और उसके खिलाफ जन्में विरोध को नजदीक से देखते तो उन्हें उनके तब तक किए जीवन का खोखलापन समझ में आता। बहरहाल इस फिल्म में प्रस्तुत अरमान जैन और दक्षिण से चुनी गई नायिका प्रतिभाशाली हैं और अनुभवी कलाकारों की तरह आत्म विश्वास से भरे हैं परंतु सतही पटकथा और फिल्मकार के अपने द्वंद उनकी प्रतिभा के साथ न्याय नहीं करते।