हैप्पी-हैप्पी फिल्में और भारतीयता / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 22 अक्तूबर 2013
शाहरुख खान की फरहा निर्देशित फिल्म का नाम है 'हैप्पी न्यू इयर'। सैफ अली खान की फिल्म का नाम है 'हैप्पी एंडिंग'। प्रह्लाद कक्कड़ की फिल्म 'हैप्पी एनिवर्सरी' और पुनीत इस्सर की फिल्म का नाम 'हैप्पी डेज' है। इन फिल्मों के नाम में आनंद और उत्सव का आभास होता है और अगर चंद सदियों बाद इन फिल्मों के नाम के आधार पर भारत का आकलन एक खुशहाल देश के रूप में हो तो क्या यह आज के हालात का सही वर्णन होगा? आर्थिक खाई, असमानता, अन्याय आधारित व्यवस्था और धर्म के नाम पर बांटे जाने की आशंका वाले देश में अधिकतम लोगों के पास साधारण सा जीवन जीने के साधन भी नहीं हैं।
आर्थिक उदारवाद के साथ ही एक जीवन प्रणाली आती है जिसमें महंगाई शामिल है। चार लेन की चमकीली सड़कें किस धन से बनी हैं और अगर वह आम आदमी का धन ही सरकार के माध्यम से खर्च हुआ है तो आम आदमी वर्षों तक टोल टैक्स देने के लिए क्यों बाध्य है। विकास के नाम पर भव्य एयरपोर्ट बन गए हैं परंतु हवाई सफर में उसका दाम शामिल कर दिया गया है। शहरों का विकास बढ़े हुए प्रॉपर्टी टैक्स से हुआ है और यह एक दिन इतना बढ़ जाएगा कि साधारण आय वाले व्यक्ति को कर्ज लेकर संपत्ति कर चुकाना होगा और कालांतर में मालिक होते हुए भी वह मकान में किराएदार की तरह रहेगा।
वर्षों पूर्व विकास की राह पर अग्रसर होते दक्षिण एशियाई देश में एक कारखाने में दस हजार यूनिट बनती हैं और मुनाफा भी ठीक-ठाक है परंतु युवा मालिक कारखाने के संस्थापक अपने पिता से कहता है कि एक विदेशी कंपनी नई मशीनें देकर उत्पादन लाख यूनिट प्रतिदिन करने के साथ माल आंशिक मुनाफे पर खरीदने का इकरार कर रही है और संख्या बढऩे से आंशिक मुनाफे से समग्र आय बढ़ जाएगी। पिता के विरोध के बावजूद वह अनुबंध करता है और कुछ समय तक अपनी विराट सफलता और विकास से खुश होकर आकाश में उड़ रहा है परंतु एक दिन उसे सूचना मिलती है कि 'विदेशी मित्र' बाजार की मंदी के कारण बीस हजार यूनिट ही ले पाएगा। फिल्म के अंत में दिखाया गया है कि युवा मालिक अपने ही कारखाने में मामूली सी नौकरी कर रहा है।
इन बातों का यह अर्थ नहीं कि कोई आनंद और उत्सव या विकास के खिलाफ है। आज चुनावी परचमों में जो विकास अंकित है, उसका सच्चा रूप प्रकट किया जा रहा है। देश स्वदेशी साधनों और सामथ्र्य से विकसित किया जाना चाहिए ताकि आनंद और उत्सव किसी एक वर्ग विशेष तक सीमित नहीं रहे या महज खुशी का भ्रम बेचने वाली फिल्मों का नाम मात्र बनकर नहीं रह जाए।
फिल्में बाजार का हिस्सा हैं और बाजार ने खुशहाल फिल्मों का माहौल रचा है कि इसी माल को बेचना है। बाजार ने अनावश्यक चीजों की खरीदी को जीवन उपयोगी वस्तुओं के समकक्ष खड़ा कर दिया है। उपयोग करो और फेंको सुविधाएं मात्र नहीं हैं। वे आपके अवचेतन को बाजारोन्मुखी स्वरूप में गढ़ रही हैं। चीजों से रिश्तों तक जाने में कितनी देर लगती है और रिश्तों से आत्मा तक का सफर भी पलक झपकते पूरा हो सकता है। यह भारत से भारतीयता छीनने का खेल है और यहां भारतीयता किसी धर्म के अर्थ में नहीं कही जा रही। वरन् सांस्कृतिक पहचान के रूप में इस्तेमाल की जा रही है। इसे संकीर्ण राष्ट्रीयता के दायरे से भी बाहर रखा जाना चाहिए। इसी खेल के तहत दर्शकों को भी मल्टीप्लैक्स और एकल थिएटर में बांटा गया है, शहर के समृद्ध हिस्से में मल्टीप्लैक्स हैं और अन्य के लिए एकल सिनेमा है। यहां तक कि फिल्मकारों के दिमाग में भी यह बैठा दिया गया है कि मल्टीप्लैक्स दर्शक की रुचि वाली फिल्म ज्यादा कमाती है। एक जमाने में सारे देश में 'प्यासा' चली थी और आज उसे मल्टीप्लैक्स की फिल्म कहा जाएगा, जबकि वह भारत की सांस्कृतिक प्यास की फिल्म थी। अगला चुनाव कोई अंतिम भाग्य विधाता नहीं है और ना ही सुखद भविष्य उससे जुड़ा है। चुनाव का मुद्दा आयात किया गया विकास का मॉडल नहीं वरन् भारत होना चाहिए। भारतीयता होना चाहिए जो सांस्कृतिक विकास है और जीवन मूल्यों की स्थापना है तथा धर्मनिरपेक्षता उसका अनिवार्य अंग है।