हैलियोफ़ोबिक / तरूण भटनागर

Gadya Kosh से
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वह उसी कैंप से आता था। वह सुंदर था। बहुत सुंदर। लड़के कहाँ इतने सुंदर होते हैं। कैंप भयंकर और निर्दयी लोगों की बस्ती था। ग़रीबी और भुखमरी के कारण पागल और लुटेरे बने निर्मम लोग। जहाँ किसी का मरना खुशी लाता था। लोग हत्या और लूट के लिए हमेशा तैयार रहते।

इस कैंप को देखकर यकीन करना मुश्किल था, कि ये सब लोग अच्छे घरों से थे। शांत और अच्छे घरों वाले लोग, जो छोटी-छोटी इच्छाएँ पालते हैं और यकीन करते हैं कि वे और उनके माँ-बाप, भाई-बहन...कभी मरेंगे नहीं। पर यहाँ उनकी औरतों और बच्चों को कुत्तों की भाँति लाठियों से पीटकर मार डाला जाता था और उन्हें इससे ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ता था। कुछ लोग आत्महत्या कर लेते, ज़्यादातर नये लोग...पर अधिकतर ऐसा नहीं कर पाते थे।

वो 1988 की गर्मियाँ थीं। मैं उस दिन पाकिस्तान में पेशावर के पास था। कैंप में दूर-दूर तक लगे मटमैले, फटे और जोड़कर खड़े किए गए तंबू, जो धूल भरी गर्म हवा की फुफकार के साथ कंपकंपाते थे और कभी-कभार लाइनों से गिर जाते एक बेतरतीब, मनहूस और निर्मम बस्ती की तरह थे।

दूर-दूर तक, जहाँ धुआँ और धूल के कारण दिखना ख़त्म हो जाता था, उससे भी आगे, सूखे, नंगे पथरीले टीलों तक ये तंबू अस्त-व्यस्त से लगे थे, जैसे शहरों के बाहर कचरा फेंकने की जगह होती है, दूर तक रंगहीन हवा में कंपकंपाता काग़ज़, पॉलिथीन, रद्दी अख़बार, फटे कपड़ों, गत्ता, प्लास्टिक शीट्स, केले के छिलके...मटमैले बदबू मारते घिसे हुए रंग, जिन्हें घिन के साथ फेंक दिया गया हो। हर तंबू में कुछ लोग हैं, ज़्यादातर अकेले। कुछेक अपनी बीवी बच्चों के साथ। अपने साथ कोई किसी को रखना नहीं चाहता, जब तक कि कोई मजबूरी ना हो। पर कुछ लोग अपने रिश्तेदारों के साथ हैं। बहुत कम, इक्का दुक्का...उनके कुछ परिचित जो अब तक लड़-झगड़कर अलग नहीं हुए हैं।

एक से लोग, रुखे बाल, धूप में जलकर लाल-काले हुए गोरे चेहरे, तार-तार होते कपड़े जिनमें से ज़्यादातर गहरे ब्राउन रंग के मोटे लबादे थे, जो पाकिस्तान की सरकार ने बाँटे थे। ज़्यादातर नंगे पैर और कुछ घिसी-पुरानी चमड़े की जूतियाँ, गले या बाँह पर कोई ताबीज़, एक मात्र ऐसी चीज़ जो मरने के बाद उनके साथ कब्र तक जाती है, बाकी सब लोग नोच लेते हैं पर ताबीज़ से डर लगता है, सपाट भावहीन चेहरे, ना हँसी, ना खुशी, ना पश्चाताप, ना उम्मीद...बस दो पलक झपकाती आँखे...यंत्रवत।

यहाँ जीवन रगड़े खाने की औक़ात है। कमज़ोर और बीमार...याने मौत। इसलिए यहाँ बच्चे बहुत कम हैं...कहीं-कहीं इक्का दुक्का, ज़्यादातर अपनी पर्दानशीं माँ से चिपके हुए...रोते-झींकते। मुझे बताया गया है कि ये लोग लगभग डेढ़ लाख हैं। रोज़ सुबह दस बजे ये सब लोग लाखों की तादात में, पत्थरों वाले टीले के पार जहाँ पेशावर से आने वाली रोड़ गुज़रती है, इकट्ठा हो जाते हैं। रंगबिरंगे और तरह-तरह की चमकीली चीज़ों से अटे पड़े पेशावर सूबे के पाकिस्तानी ट्रकों का एक हुजूम इन लोगों के लिए खाने के पैकेट लाता है। नार्थ वेस्ट फ्रंटियर स्टेट की पुलिस और पाकिस्तानी आर्मी के सैनिक जो ज़्यादातर पख्तून हैं या लोकल बाशिंदे रोज़ बेदर्दी से जानवरों की तरह इस अनियंत्रित भीड़ पर लाठियाँ लेकर टूट पडते हैं। वे भीड़ को, जो खाने के पैकेट के लिए बुरी तरह लड़ती झगडती है, नियंत्रित करने की बेजान-सी कोशिश करते हैं। भीड़ में फटे-पुराने अफ़गानी नीले लबादे-बुरके से सिर से पाँव तक ढँकी चीखती-चिल्लाती औरतें, एक दूसरे को लात-घूँसा मारकर आगे बढ़ते आदमी, जिन पर मुश्टंडे सिपाहियों की लाठियाँ भी बेअसर हो जाती हैं। यहाँ यह सब रोज़ होता है। बच्चे लाखों की दम घोंटू भीड़ से अलग रोते-चीखते खड़े होते हैं। उनकी माएँ लगभग उन्हें फेंककर, भीड़ में लड़ती झगड़ती समा जाती हैं। इस कातिलाना भीड़ में कभी-कभी कोई कुचलकर-दबकर मारा जाता है। ज़्यादातर कोई औरत या बूढ़ा जिसका शरीर धूल भरी ज़मीन पर बिखरा हुआ-सा पड़ा रह जाता है। सब चले जाते हैं...बस एक या दो बेजान शरीर छूट जाते हैं, जिसके पास से किसी के सिसकने की, या किसी बच्चे की चीख-चीखकर रोने की आवाज़ आती रहती है। फिर रात घिरती है और आवाज़ों को बंद होना पड़ता है। कुछ लोग जिन्हें खाने का पैकेट मिल जाता है, खुश होते हैं...ज़्यादातर आदमी जो लूट खसोट में कामयाब रहते हैं, जो पुलिस की काफ़ी लाठियाँ सह सकते हैं...वे एक भय के साथ दमकते चेहरे लिए तंबू पहुँचते हैं, तंबू की औरतें, आदमी और बच्चे उस पर टूटते से गिड़गिड़ाते हैं। यह यहाँ रोज़ होता है। पूरा दिन सिर्फ़ तीन काम ज़िंदा बने रहने के लिए ज़ोरमजस्ती, खाने की लूट और अक्सर कुछ लोगों की मौत...सिर्फ़ तीन काम।

वह इन्हीं लोगों के बीच से आता था। वह किसी बड़े अमीर घर में पैदा हुआ था। लगता नहीं था, कि वह इसी भीड़ का हिस्सा है। मरे हुए लोगों को दफ़नाना यहाँ एक बड़ा काम है। यह सरकारी पुलिस करती है। एक मुल्ला जिसकी यहाँ ड्यूटी है, दफ़नाने के समय फातेहा पढ़ता है। कभी-कभी किसी को दफ़नाते समय उसका कोई अपना वहाँ पहुँच जाता है। कभी-कभी वहाँ पहुँचने वाला सिसकता है, रोता है...पुलिस काग़ज़ों पर उसका अँगूठा लगवाती है। कभी कोई सिपाही सिसकते-रोते आदमी के कंधे पर हाथ रख देता है, पर वह औरतों के साथ ऐसा नहीं कर सकता। यहाँ औरतों को छूना हराम माना जाता है। इसकी सख़्त मनाही है। वह औरतों से कुछ कह भी नहीं पाता है क्योंकि ज़्यादातर औरतों को पख्तूनी, अंग्रेज़ी या उर्दू नहीं आती है, ज़्यादातर औरतें पढ़ी लिखी नहीं है, और ठेठ अफ़गानी बोलती समझती हैं।

कैंप से दूर पत्थरों वाले टीले के पार, रोड और टीले के बीच फैली हज़ारों कि.मी. लंबी बंजर ज़मीन पर सिपाहियों के टैंट लगे हैं। ज़्यादातर सिपाही पाकिस्तानी आर्मी के सैनिक या रेंजर हैं और कुछ स्थानीय पुलिस स्टेशनों के वर्दीधारी। पर सभी लोग एक ही शब्द से जाने जाते हैं - दरोगा, अगर अलग-अलग जानना हो तो 'बड़ा दरोगा' और 'छोटा दरोगा'। इन्हीं टैंटों के किनारे एक टपरीनुमा ढाबा है - 'भिश्ती बाबा का होटल'...यह उर्दू में लिखा है और उर्दू ना जानने के कारण काफ़ी दिन बाद मुझे पता चला कि खालिद भाई की दुकान का नाम भिश्ती बाबा पर है, एक सूफी बाबा जिसकी एक अनजान और तुच्छ-सी मज़ार यहाँ से पास ही है।

इस कैंप में आए हुए पूरा एक सप्ताह हो गया है। मैं यहाँ आने के बाद सिपाहियों के टैंट के पास ही रहने लगा। इस तरह रोज़ पेशावर से आने की झंझट और यहाँ की बेहतर कवरेज, बेहतर कहानियाँ, बेहतर फ़ोटो मैं अपने पेपर के लिए पा सकता था। फिर यह सुरक्षित भी था। खालिद भाई के होटल में ही मेरी एक खटिया लग जाती। खालिद एक पहाडी है, नार्थ वेस्ट फ्रंटियर स्टेट के पूर्व में पहाड़ों पर रहने वाले पुराने लोग। रात को होटल में सिपाहियों का हुजूम होता। ज़्यादातर दारू पिये होते और अनर्गल बातें करते रहते। वहाँ हर रात बकरा, भेड़, मुर्गा या गाय का मांस पकाया खाया जाता। वे उजड्ड और गँवार किस्म के सिपाही थे। उनके चेहरे निर्दयी और पथरीले से लगते। यद्यपि मुझे धीरे-धीरे पता चला कि उनमें से ज़्यादातर का अपना परिवार है, बच्चे हैं और वे अपने परिवारों के बारे में अक्सर बातें करते हैं। यह एक अजीब-सा मेल था निर्मम और उजड्ड से लंबे तगडे, लाल-लाल आँखो वाले, दरिंदो की तरह मांस और दारू पीने वाले ये सिपाही अपने घर-परिवार की बातें बड़ी संजीदगी से करते थे।

इस कैंप में दूसरे शरणार्थियों का आना अक्सर होता था। सामान्यत: वे किसी ट्रक में या मिलिट्री की भारी भरकम गाड़ी में लाए जाते। उनके साथ कुछ सैनिक होते। कभी-कभी एक या दो ट्रक भरकर सौ-डेढ़ सौ लोग, तो कभी कोई एक मात्र परिवार आदमी-औरत और दो-तीन बच्चे, तो कभी कोई अकेला आदमी या औरत या बच्चा। सबसे पहले पुलिस के टैंट में उन सबके नाम लिखे जाते। एक तगड़ा-सा पख्तून जो अफ़गानी जानता था, उनके नाम पूछता, फिर उन्हें कुछ चीज़ें दी जातीं तंबू का कपड़ा, एक दो हिंडालियम के बर्तन, कत्थई रंग का लबादा एक आदमी को एक के मान से, कुछ दवायें बुखार और उल्टी दस्त के लिए, तंबू बाँधने की मोटी रस्सी...कुल जमा आठ या दस सामान जिसे लेकर वे पथरीले टीले के पार फैले गंदले और बेदम इलाके में गुम हो जाते। इस बस्ती का एक नाम भी है...जखूदी जिसका मतलब है - महफूज़ इलाका।

नये आने वाले लोगों को यहाँ हिकारत से देखा जाता है। नये आने वालों को यहाँ दुत्कारा जाता है। या तो उनका सामान छीन लिया जाता है या उन्हें मारा पीटा जाता है। पर फिर भी नये लोग कहीं और नहीं जा सकते, सो उन्हें वहीं कहीं अपना तंबू लगाना पड़ता है। अक्सर नये लोग अपने साथ कोई छोटा-मोटा सामान लाते हैं, ज़्यादातर टीन की पेटी, चमड़े का बैग, कपड़े की पुटरिया, सुतली या जूट से बंधा गठ्ठा...ऐसा कुछ जिसमें तरह-तरह का सामान होता है - औरतों के बचे हुए ज़ेवर, कुरान, सुन्नत या हदीस जैसी क़िताब, कुछ तस्वीरें, इत्र, शीशा, रंग-बिरंगे कपड़े के टुकड़े, गोश्त काटने का चाकू, काजल की डिब्बी, कुछ अफ़गानी नोट आदि, जिस पर बस्ती के दूसरे आदमी औरतें गिद्ध की तरह नज़र गड़ाए रहते हैं और मौका पाते ही लूट लेते। थोड़ी देर शोरगुल मचता। कोई औरत चीखती-रोती। फिर सब शांत हो जाता।

वह इसी बस्ती से आता था। उसका नाम नहीं पता। जब वह इस कैंप में आया था, तब रूस ने पहली बार अफ़गानिस्तान पर हमला किया था। तब वह तीन साल का था और उसे उसका नाम नहीं पता था। उसे उसकी बस्ती के ही कुछ लोग अपने साथ ले आए थे। उसका पूरा परिवार माँ-बाप और दो बहनें लड़ाई में मारी गई थीं। रूस के लड़ाकू जहाज़ों ने उसकी बस्ती पर बम गिराए थे। पत्थरों की चिप और लोहे से बना उसका पूरा घर एक धमाकेदार आवाज़ के साथ गिर गया था। चारों ओर लाल-पीली रौशनी तैर गई थी। मानों दिन निकल आया हो और भयानक किस्म की चीख पुकार के बीच वह जाने कहाँ मलबे में देर तक दबा रहा। कुछ लोगों ने जब उसका घर खोदा तब वह उसमें मिला था। एक धुँधली-सी स्मृति आज भी उसके भीतर चीत्कारती है। वह जब याद करता है, तो कुछ बौखला जाता है और पागलों जैसी हरकत करने लगता है। उसने पहली बार देखा था कि किस तरह मरे हुए लोगों को हड़बड़ाए, डरे और चीखते पुकारते लोग गड्ढों में गाड़कर भागते हैं। वह बुरी तरह डरा था, जब उसके बाप, माँ और बहनों को घसीटकर एक ही गड्ढे में फेंका गया था जैसे कचरा फेंकते हैं। वह अपनी बड़ी बहन को यों फेंकते वक्त बुरी तरह से चीख़ा था। यह उसकी आदत थी। वह चीखता था, जब कोई उसकी बहन को चिढ़ाता या मारता था। उस दिन उसने उसकी बहन को फेंकने वाले आदमी का हाथ अपने पैने दाँतों से काट दिया था और उसे अजीब लगा था, जब उस आदमी ने उसे थप्पड़ मारने कि बजाय अपने लबादे में भर लिया था।

वह किसी के साथ घिसटता-सा चल रहा था। चारों ओर धमाकों के साथ आतिशबाजी-सी छूट रही थी। वह उस आतिशबाजी को देखकर खुश हुआ था, फिर थोड़ी देर बाद माँ को पुकारकर रोने लगा था। फिर एक धुँधली-सी सुबह याद है, वह चितराल (उत्तर पूर्वी पाकिस्तान का एक शहर) था एक बड़े से घास के मैदान में कुछ लोग पोलो खेल रहे थे। उसके साथ के बाकी सब खुश थे...यह पाकिस्तान था, एक पराया मुल्क खुशी की बात तो थी ही..। फिर वे किसी ट्रक से आए थे, सिपाहियों से भरा ट्रक...रास्ते से गुज़रता एक गाँव जहाँ साँड़ों की दौड़ हो रही थी... चीखता चिल्लाता हुजूम। उसे उन दिनों का कुछ और याद नहीं...। वह बहुत सुंदर दिखता था। लड़के कहाँ इतने सुंदर होते हैं। पनीली-हरी बड़ी-बड़ी आँखें, संगमरमर-सा गोरा रंग, ब्राउन पतले हवा में उड़ते बाल,.. जब वह धूप में भटकता तो उसके चेहरे का गुलाबी रंग थोड़ा बदलकर चिकना और गहरा हो जाता। कैंप की सारी गंदगी, धूल, लूट-खसोट...रेत भरी हवा बुरी तरह उस पर चिपकती, उसे रोज़ और गंदला कर देती, पर पिछले कई सालों से वह ऐसा ही सुंदर दीखता रहा है...वह इस बस्ती का बाशिंदा ना होकर, मानो कहीं और से आया हो। उसे देखकर मुझे फ़रिश्तों की कहानियों पर यकीन करने का मन करने लगता।


'खान ऊपर देख'। सिपाही अक्सर उससे चुहल करते रहते। उससे कहते आकाश की तरफ़ देख, पर वह नहीं देखता, ढीठ-सा खड़ा रहता। उसका कोई नाम नहीं था, सो सब सिपाही उसे खान कहते थे। सिपाही उससे बार-बार ऊपर देखने को कहता और वह लगातार उस सिपाही को घूरता। 'अबे देख...।' 'देख तो कैसा नीला आकाश है...।' सिपाही ने उसका चेहरा पकड़कर आकाश की ओर घुमा दिया। 'क़ादिर...।क़ादिर...। उसने सिपाही को धक्का दिया, अपना चेहरा उसके हाथों से छुड़ाया और पथरीले टीले की और दौड़ पड़ा। सिपाही हँसने लगे। लड़के को लगा जैसे वह एकदम से क़ादिर के लबादे में धँस सकता है। लोग 'या खुदा' कहते हैं और यह 'क़ादिर..क़ादिर..'। एक सिपाही ने मुँह बनाते हुए कहा। बाकी सब हँस दिए।

क़ादिर का पूरा नाम क़ादिर-उल-अली है। वह एक अफ़गानी लडा़का है। एक तालिबानी, अल-कायदा का नया मुरीद। वह अनपढ़ है, पर उसे कुरान के बहुत से पाठ और अयातें याद हैं। वह अक्सर अपने लाव-लश्कर जिसमें पाँच-छह लड़ाके, कुछ हथियार ढोने वाले अफ़गानी टट्टू और कई किस्म के हथियार होते हैं, के साथ इस जगह आ धमकता है। कैंप के फटीचर से दिखने वाले लोग क़ादिर के लाव-लश्कर के ईद-गिर्द मधुमक्खी की तरह भिनभिनाते रहते हैं। लोग अफ़गानी में चिल्लाते से उससे पूछते हैं और वह एक ही बात बार-बार कहकर लोगों को बहलाता है...एक स्वप्न, जो वह बार-बार कहता है, जब उनकी ज़मीन, उनके गाँव, उनके लोग, उनके घर उनको वापस होंगे...जब वे वापस अपने मुल्क जाएँगे। एक दिन तालीबान रुसी काफ़िरों से उनकी ज़मीन छुड़ा ही लेगा। तो क्या हुआ अगर तालिबान पर बेहतर हथियार नहीं हैं, खुदा उन्हीं पर मेहरबान होगा, जंग ख़त्म होगी और तालिबान उनकी ज़मीन का सुल्तान हो जाएगा। क़ादिर चीख-चीखकर उन्हें यकीन दिलाता...वह पिछले आठ सालों से यह यकीन दिलाता आया है। पर लोग हर बार उससे बुरी तरह चिपक जाते हैं...और फिर वह अपनी क्लैश्नेकौफ़ (रुसी मशीनगन जैसा हथियार) आकाश की ओर करके आधे-एक घंटे तक गोलियाँ चलाता रहता है, उसके दूसरे साथी भी दनादन गोलियाँ दागते हैं। चारों ओर कानफोडू आवाज़ होती है, लोग पगलाये-से खुशी में चीखते हैं। कुछ हाथ आकाश में उठकर दुआएँ माँगते हैं। हाँ अबकी बार ज़रूर, हाँ इस बार पक्का उन्हें उनका घर और उनके लोग मिल जाएँगे, लड़का आकाश की ओर लपकती मशीनगनों की आग और गोलियों को देखता है। वह पागलों-सा चिल्लाता है, उसे यकीन है क़ादिर के हथियार एक दिन आकाश को ख़त्म कर देंगे। आकाश से खून निकलेगा और आकाश हमेशा के लिए मर जाएगा। सिपाही पथरीली पहाड़ियों से यह तमाशा देखकर हँसते।

क़ादिर की सिपाहियों से ग़जब की दोस्ती है, याराना। वह उनके लिए सूखे मेवे और बहुत सारे पैसे लाता है और बदले में उसे कुछ और नये हथियार मिल जाते हैं। पेशावर के पास ही एक शहर है डेरा। डेरा में हर तरह के हथियार बनते हैं। लोग डेरा से आलू प्याज़ की तरह हथियार ख़रीदते हैं। डेरा के बंदूकचियों ने क़ादिर की क्लैश्नेकाफ की नकल कर कई क्लैश्नेकौफ बनाई हैं, जो क़ादिर के दूसरे गुर्गों के पास हैं। सिपाही क़ादिर के लिए दुआ माँगते हैं और कुछ हाथ उसकी पीठ थपथपाते हैं, वह खून के आख़री कतरे तक लड़ेगा. . .वह पहाड़ पर खड़ा चिल्लाता है, ऐलान करता है। 'खान सिपाहियों का बड़ा ख़ास है।' खालिद ने मुझे बताया। 'कुछ ना कुछ खाने पीने को दे देते हैं। गोश्त रोटी या कुछ और, इसी से इधर आता है। खाने को कुछ मिलता नहीं, सो नियतखोर की तरह रोज़ आता है।' 'खान इसका नाम है।' 'यहाँ काफ़ी लोग बेनाम हैं। उन्हें नाम देना पड़ता है। पुलिस उनको नंबर दे देती है। जब बेनामी आते हैं, ज़्यादातर छोटे बच्चे-बच्चियाँ तब एंट्री के समय पुलिस वाले नंबर देते हैं। बताते हैं यही शऊर है।' 'इसका क्या नंबर है?' 'पता नहीं, बस खान कहते हैं। नंबर ज़रूर होगा, जब यह आया था तब तीन साल का था। नंबर तो ज़रूर होगा।' 'बहुत पुराना नंबर।' 'हाँ, और छोटा नंबर भी। जो लोग पहली-पहल खेप में दस ग्यारह साल पहले आए थे, उनके नंबर छोटे थे, अब बड़े नंबर मिलने लगे हैं। किसी को क्या पता था कि लोगों की भीड़ हो जाएगी।' 'खान तो फिर यहाँ की ज़बान बोलता होगा।' 'शायद।' 'क्यों तुमने नहीं सुना?'

खालिद कई बार मेरी बातों से चिढ़ जाता था। मैं हर बात को, हर कहानी को, विस्तार से जानना चाहता। वह काम जिसके लिए मैं यहाँ आया था। अपनी पत्रिका के लिए बेहतर कहानी और कवरेज ढूँढ़ने। खालिद को कैंप की बजाय दर्रे के पार उसके पहाड़ों की बात बताना ज़्यादा पसंद था। वह अक्सर पहाड़ों जिन्हें वह अपना मुल्क कहता था, की बातें बड़ी तल्लीनता से बताता। उसने मुझे खोवर (पाकिस्तान की पहाड़ों की भाषा) के बारे में बताया। वह शेंडूर पास में चितराल और गिलगित के बीच हर साल खेले जाने वाले पोलो मैच के बारे में मुझे बताता, खैबर लाइन वाली रेलों के बारे में, किसी अता-मोहम्मद-खान नाम के क़बीला सरदार के प्रिंस मलिक के किले की तर्ज़ पर बने विशाल संगमरमर के महल के बारे में जहाँ वह पहले काम करता था। पेशावर सूबे से लगे सूखे पहाड़ी इलाकों के लोग जहाँ मेहमान-नवाज़ी और बदला लेने होने वाले खून खच्चर की ढेरों कहानियाँ हैं। पाकिस्तान के पहाड़ों पर रहने वाले कलश नाम के आदिवासी जो खुद को सिकंदर की संतान मानते हैं और भी बहुत कुछ। पर खान में उसे दिलचस्पी नहीं थी। उसके बारे में बात करना उसे बोर करता था। शायद उसको पता था कि उस बात में मेरा कोई स्वार्थ है। पर फिर मेरी खालिद से जुगत हो गई। जितनी ज़्यादा बातें वह बताएगा उतने ज़्यादा पैसे मैं उसे दूँगा। वह बताते हुए बोर हो जाता, पर पैसे के लालच से बताना बंद नहीं करता। उन दिनों छोटे-हैंडी टेप नहीं होते थे, सो मैं उसकी हर बात को शार्ट हैंड नोट करता जाता और रात-बेरात अपनी डायरी में लिख लेता।

'खान कुछ कहे, तब ना सुनें। पर जानता ज़रूर होगा। बस्ती में जो तीन-चार साल से रह रहा है, उर्दू जुबान तो बोल लेता है। फिर यह तो दस साल से है। कुछ लोग तो माशा अल्ला पख्तूनी भी जानते हैं।' 'कुछ तो बोलता ही होगा। कोई ऐसे कैसे रह सकता है।' 'बात तो सौ फीसदी ठीक है। पर मैंने नहीं सुना। सिपाहियों ने सुना होगा।' 'बहुत सुंदर दिखता है, है ना।' 'खुदा की रहमत है। पर किस्मत...।' खालिद ने नाक सिकोडते हुए कहा। 'इसके घर वाले।' 'कहते हैं, सब ख़त्म हो गए, शायद पैंसठ की लड़ाई में। पूरा नहीं मालूम, बस इतना ही पता है। यह अकेला था, तीन साल का, बस्ती के एक जवान के साथ आया था। इधर चितराल के रास्ते।' 'बस्ती का नाम पता है।' 'बताते हैं कांधार के पास ही थी, मुझे नहीं मालूम।' 'किसी बड़े घर का रहा होगा।' 'शकल सूरत से तो ऐसा ही लगता है।'

उस उजाड़ कैंप में बड़े घर की बात करना काफ़ी बेतुका था। मैं जब यहाँ नया-नया आया था, तब उस ट्रांसलेटर को जो पुलिस के पास एंट्री करवाता था, अपने साथ लिए कैंप में भटकता था। यहाँ के बाशिंदे जो चीख-पुकार, गाली-गलौच, रोने-पीटने के अलावा ज़्यादातर चुप रहते हैं, उनसे बात करता था। उनसे उस घर की बात पूछता जो अफ़गानिस्तान में था। मुझे लगता कि इस तरह सबसे मार्मिक कहानी निकल सकती है। घर और परिवार काफ़ी भावनात्मक मामला होता है। पर मुझे ज़्यादातर निराशा ही मिलती। बुजुर्ग अवश्य घर की बात में दिलचस्पी लेते, पर ज़्यादातर जवान आदमी, औरत इस विषय पर ज़्यादा बात नहीं करते। उन्हें घर की बात करने की उत्सुकता नहीं होती थी। वे बस इसी फिराक में रहते कि मैं उनके लिए क्या लाया हूँ? विशेषकर खाने की कोई चीज़। कुछ औरतें सजने-धजने की चीज़ माँगती। मैंने शायद ही इनमें से किसी औरत का चेहरा देखा हो, पर सुना ज़रूर था कि अफ़गानी औरतों को सजने का बड़ा शौक होता है। हमेशा नीले कपड़े से अपना पूरा शरीर ढका होने के बाद भी, वे खूब सजती हैं। उन्हें कोई देख नहीं पाता है और यों वे खुद के लिए सजती हैं। उन्होंने खुद के लिए सजने की खुशी को बहुत सँभालकर अपनी बेटियों को दिया है। मैं उनके लिए काँच की चूड़ी, काजल की डिब्बी, कोई सस्ती-सी क्रीम या ऐसा ही कुछ ले जाता। बच्चों के लिए बिस्कुट जो मुझे सिपाहियों से मिल जाते थे, ले जाता था। पर कुछ भी काम नहीं आता। अफ़गानिस्तान का पुराना घर उन्हें उत्सुक नहीं करता था। मुझे ऐसा भी लगा कि वे सब उन यादों से छुटकारा पाने की फिराक में रहते थे। आगे क्या होगा, यह उनकी बातों का मुख्य विषय होता, पर ऐसे कुछ इक्का-दुक्का बूढ़े, जो मार-पीट और लूट-खसोट के बाद भी ज़िंदा बचे थे, पुरानी बातें बड़ी लगन से बताते थे। उनकी भाषा समझ नहीं आती थी, पर वे कहना जानते थे। उनके कहने को भाषा नहीं लगती थी। वह ट्रांसलेटर कभी मेरे साथ होता, तो कभी नहीं, पर मैं उनसे उनके घर की, उनके परिवार की बात कर पाता, उनको सुन पाता। उन बूढ़ी आँखों में छलक आने वाला पानी मुझे मेरे अपने देश के बूढ़ों की याद दिलाता था। उनकी चुप्पी घर की बात पर, बाँध की तरह टूटती थी और मैं शार्ट हैंड में उसे समेट नहीं पाता था। कुछ था जो छूट जाता था। कुछ था जिसे लिखते नहीं बनता था। कुछ ऐसा जिसे हम कभी भी लिख नहीं पाए। उनमें से कुछ बड़े घरों से थे और कुछ छोटे घरों से, पर घर के बड़े होने या छोटे होने की बात उनकी बात में नहीं होती थी। इस बात को पता करना पड़ता था। वे अपने घरों को बड़े घर या छोटे घर के रूप में नहीं जानते थे। इस तरह जानना वे भूल चुके थे।

खान की बातों ने मुझे उत्सुक किया था। उसका घर, उसकी कहानी...। 'मैंने इतना सुंदर लडका पहले कभी नहीं देखा।' खालिद हँसने लगा। 'सिपाही इसके साथ मज़े करने के चक्कर में रहते हैं।' 'क्या मतलब।' 'इसे पकड़ लेते हैं और...।' उसने आँख मारते हुए कहा। मुझे मतली-सी आई...एक अजीब-सी ऐंठन जैसे गीली रस्सी आग में जलते समय गुड़मुड़ी होती जाती है...एक नोचने वाला हिच, कि अब क्या? 'यहाँ यह सब बहुत होता है। पर्दानशीं औरतों को छू नहीं सकते, वरना गदर हो जाए। सो लड़कों की पकड़-धकड़ हो जाती है। फिर खूबसूरती सबकी कमज़ोरी है।' 'पर वह तो अक्सर यहाँ आता है।' 'गोश्त और रोटी की नीयत। भूखे को क्या चाहिए? बस कुत्ते की तरह सूँघता-साँघता चला आता है।' 'उसके बारे में और कोई बता सकता है।' मुझे रिपोर्टिंग के लिए कहानी मिलने लगी थी। 'वो ही लोग जो उसे यहाँ लाए थे।' 'तुम जानते हो।' 'पुलिस के रिकार्ड में होगा। एक-दो तो बूढ़े लोग थे, शायद मर खप गए हों, पर मालुमात हो सकता है।'

अगले दिन बड़ी मन्नतों के बाद बड़े दरोगा ने मुझे पुराने रिकार्ड दिखाए। इतनी पुरानी जानकारी पाने के लिए उसकी काफ़ी लल्लो-चप्पो करनी पड़ी। घूस भी देनी पडी। उसने मेरे सामने मोटे रजिस्टरों का बंडल-सा रख दिया। एक दूसरा सिपाही ढूँढने लगा। पूरे रजिस्टर में हर पन्ना किसी एक शरणार्थी की जानकारी से भरा था। कुछ के नाम थे, तो कुछ के नाम की जगह नंबर लिखे थे। सारी जानकारी उर्दू में। बहुत मशक्कत के बाद वह पन्ना मिला। उसमें एक तीन साल के लड़के का हुलिया उर्दू में दर्ज़ था। नाम ३३६४, नीली-हरी आँखे, गोरा रंग...निशान बायें हाथ की छोटी उँगली आधी कटी हुई। खान की भी बाएँ हाथ की छोटी उँगली कटी हुई है...। 'हाँ, बस यही।'