होड़ के बादलों में शिक्षा का सूरज / सुरेश कुमार मिश्रा
शिक्षा एक ऐसा बेमिसाल उपकरण है जिससे हम दुनिया बदल सकते हैं। इसके बिना किसी भी देश की प्रगति नहीं हो सकती। भारतीय शिक्षा व्यवस्था में खामियों के इतने छेद हैं कि इनको भरना कोई आसान काम नहीं है। ठीक से तीन वर्ष की दहलीज़ न पार करने वाले अबोध शिशु को आई.ए.एस. की ट्रेनिंग देना आरंभ कर देते हैं। यहाँ शिक्षा दी नहीं बेची जाती है। यहाँ शिक्षा कि गुणवत्ता उसकी महंगाई पर निर्भर करती है। महंगी शिक्षा का आरंभ पाठशाला के जूते, टाई, बेल्ट, से शुरु होकर उसके बैठेने-उठने-आने-जाने की व्यवस्था पर समाप्त होती है। बच्चा शिक्षा के योग्य है या नहीं इसका पता माता-पिता को देखकर लगाते हैं। मानो ऐसा लगता है कि वे बच्चों को नहीं उनके माता-पिता को पढ़ाने वाले हैं।
वेदों में कहा गया है कि शैशवास्था माँ की छाया में बीतना चाहिए। आजकल के कार्पोरेट शिक्षण संस्थान वेदों को पुनः परिभाषित करने पर तुले हैं। वे बच्चे की महत्त्वपूर्ण जीवन अवस्थाओं–शैशव, बाल, किशोर सब पर कुंडली मारकर बैठे हैं। यही बच्चा जब बड़ा होकर अपने बीते जीवन के गिरेबान में झाँककर देखेगा तो उसे उसके सिवाय वह सब कुछ दिखाय़ी देगा, जिसे वह कभी चाहता ही नहीं था। शिक्षा बदलाव का पर्याय होना चाहिए न कि शोषण का स्थाई पता। दस से बारह घंटे पाठशाला में बच्चों को ऐसे रखा जाता है मानो कि वह कोई रसदार फल हो और पाठशाला मिक्सी। दिन तमाम उस मिक्सी में बच्चे का इस तरह रस निकाला जाता है कि शाम तक वह नीरस हो जाता है। बच्चा बोतल होता तो कुछ और बात होती। मान लेते कि बोतल का ढक्कन खोलकर उसमें कुछ भरा जा सकता है। लेकिन यह शिक्षा ही ऐसी है कि वह उसे बच्चा छोड़कर सब मानने पर तुली है। इसका दुष्प्रभाव बच्चों में शारीरिक और मानसिक रूप से देखने को मिलता है।
बच्चे को उस भेड़-चाल का हिस्सा बना दिया जाता है जहाँ उसे स्वतंत्र रूप से सोचने की कोई छूट नहीं होती। उसके दिमाग़ में यह रूढ़ कर दिया जाता है कि दो गुणा दो चार होता है। उसे यह क्यों नहीं सिखाया जाता कि उत्तर 'चार' पाने के लिए कितने तरह के प्रश्न बनेंगे? फिर इसके लिए जोड़ना, घटाना, गुणा करना, भाग करना, निष्पत्ति निकालना जो चाहे करना पड़े, कि छूट क्यों नहीं दी जाती? क्यों उससे यह पूछा जाता है कि पके टमाटर का रंग क्या होता है? जाहिर है कि सबका उत्तर एक ही होगा- 'लाल' ! यदि हमें बच्चे के दिमाग़ में लाल रंग की अवधारणा ही बिठानी है तो प्रश्न बदल क्यों नहीं देते? उससे पूछिए कि लाल रंग में पायी जाने वाली वस्तुएँ क्या हैं? मैं आपको गारंटी देता हूँ कि दुनिया कि जितनी आबादी है उतने उत्तर निकलकर आएँगे।
पढ़ाई के नाम पर हम बच्चों को क्या सिखा रहे हैं? बच्चा कहने को तो पढ़-लिखकर बड़ा हो जाता है लेकिन वही सड़क के यातायात नियमों को पढ़कर उसकी समझ को ताक पर रख देता है। क्या लाभ ऐसी पढ़ाई का? ऐसी शिक्षा का होना न होना कोई मायने नहीं रखता है। कबीर के समय को लेकर लिखे विरोधाभासी दोहों-'काल करै सो आज कर, आज करै सो अब' और 'धीरे-धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय' पंक्तियों को बच्चा पढ़ तो लेता है लेकिन दोनों के बीच अंतर नहीं बता पाता। हमारी शिक्षा बच्चों को इंजीनियर, डॉक्टर, कलेक्टर न जाने कितने तीसमार खान बनाने की क्षमता रखती है, फिर वही शिक्षा बलात्कार, भ्रष्टाचार हत्या, आत्महत्या जैसी समस्याओं का शक्ल क्यों ले लेती हैं?
कहते हैं समस्या जहाँ है उसका हल भी वहीं से निकालना चाहिए। जब समस्या जड़ की हो तो फूल-पत्तों पर दवा छिड़कना बेकार है। प्रतिद्वंद्विता के प्रभाव से बच्चों में होड़ की भावना इस कद्र घर कर गयी है कि सबको न केवल बढ़िया अंक चाहिए बल्कि यह भी कि मेरे सिवाय किसी और का भला न हो। अंकों के आधार पर बच्चों की योग्यता, क्षमता और कौशल को आंका जाने लगा है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि कला, साहित्य, संस्कृति, संगीत में रंगने वाला विद्यार्थी इन सबसे दूर होता जा रहा है। उसे बच्चे के रूप में नहीं यंत्र के रूप में देखा जा रहा है। क्या लाभ ऐसी शिक्षा का जो बच्चों को स्वकेंद्रित तथा स्वार्थी बनाए? शिक्षा का यह भयावह रूप बच्चों को लील जाएगा। इसलिए बहुत ज़रूरी है कि हमारी शिक्षा के उद्देश्य क्या हैं और क्या होने चाहिए, इस पर व्यापक बहस होनी चाहिए। आज अंकों की होड़ में बच्चों की सृजनशीलता ख़त्म हो रही है। बच्चा सिर्फ़ पाठ्यपुस्तक की सामग्री तक सीमित कर दिया गया है। वह वही उत्तर देता है जो शिक्षक चाहते हैं। बच्चा क्या बनना चाहता है, इस पर परिवार ध्यान नहीं दे रहे हैं। वे अपने बच्चों को सिर्फ़ ऐसे पेशे में डालना चाहते हैं जिससे अधिक से अधिक आय हो। यह वही बात हुई कि उड़ने वाले को तैरने के लिए, तैरने वाले को रेंगने के लिए, रेंगने वाले को दौड़ने के लिए और दौड़ने वाले को उड़ने के लिए कहा जा रहा है। जब बालक अपनी क्षमता और रुचियों के विरुद्ध काम करेगा तो वह शारीरिक और मानसिक रूप से अलग-थलग और कमजोर पड़ जाएगा। उधर शिक्षकों से इधर माता-पिता के दबाव में घुट-घुटकर मरने लगेगा। क्या फायदा ऐसी शिक्षा का जो उसे बच्चा छोड़कर सब मानने पर तैयार है? कोई उसे डॉक्टर तो कोई उसे इंजीनियर बनने के लिए कहता है, तो कोई उसे अधिकारी तो कोई उसे व्यापारी बनने के लिए कहता रहता है। कोई यह जानने की कोशिश क्यों नहीं करता कि आख़िर बच्चा क्या बनना चाहता है? यह केवल दृष्टिकोण का अंतर है। जो हमें इस ओर से 6 दिखायी देता है वह बच्चे की ओर से 9 देखने की कोशिश क्यों नहीं करता? शिक्षा का कार्य अच्छे-बुरे की समझ का विकास करना है। यह जीवन के लिए तैयारी नहीं है; बल्कि यही जीवन है। यह रुकावटों को अवसरों के रूप में बदलने की क्षमता रखता है।