होमगार्ड्स या रक्षावाहिनी / कांग्रेस-तब और अब / सहजानन्द सरस्वती
होमगार्ड्स के नाम पर स्वराजी सरकार ने एक दूसरी ही रक्षावाहिनी तैयार करने की ठानी है। नाम तो बहुत ही सुंदर है। पर काम भी जब ऐसा ही हो तब न ? महामना लेनिन ने राष्ट्रीय जनसेना ( National Miltia) पर सबसे ज्यादा जोर दिया है। कहा है कि नौकरीपेशा फौजियों की जगह जनसेना ही रहे। यदि वही बात यहाँ भी होती तो क्या कहना ? मगर एक तो खूब ठोंक-पीट कर पक्के सरकारपरस्त ही इसमें लिए जाते हैं। जो सरकार के विरुध्द चूँ भी कभी करेंगे ऐसे लोगों से दूर रहा जाता है। दूसरे ट्रेनिंग कैंपों में हरेक के पीछे खुफिया लगे रहते हैं जो उन्हीं में से होते हैं। यह तो मध्यमवर्गीय लोगों की एक नयी फौज और पुलिस तैयार की जा रही है जिसमें मध्यमवर्गीयता की भावना कूट-कूट कर भरी जा रही है। वर्तमान पुलिस और फौज से नए शासक घबराते हैं , भयभीत हैं। भविष्य में खतरे का भी अंदेशा है।
इसीलिए शायद रक्षावाहिनी के नाम पर नई सेना खड़ी की जा रही है जो उनके लिए संकट की घड़ी में काम आए! जो लोग आजाद हिंद फौज पर विश्वास न कर सके वही जनता की सेना संगठित करेंगे यह विश्वास राजनीति का बच्चा ही कर सकता है। लेकिन इतना तो सही है कि जब खतरे की घंटी बजेगी तब यह रक्षावाहिनी पिघल जाएगी और काम न दे सकेगी। रूसी जार की सेना में घुड़सवारों का प्रधान दल कज्जाकों का था जो जार के पूरे पालतू थे। मगर 1917 की फरवरीवाली क्रांति में उनने भी ऐन मौके पर साथ छोड़ दिया। सचमुच ही क्रांति की हवा वह जादू की लकड़ी है जो छूते ही सबों को पलट देती है। वह ऐसी गर्मी है जो पत्थर को पिघलाती है।