होरहा / विद्यानिवास मिश्र
पहले में हिंदी के सुविज्ञ पाठक से निवेदन कर दूँ कि 'होरहा' क्या चीज है। हिंदी का पाठक हरे चने की सुगंधित तहरी से परिचित होगा, कुछ और नीचे उतरकर वह बूट से भी परिचित होगा, पर डंठल-पत्ती-समेत भूनकर और तब छील-छाल कर नए अधपके चने का बिना नमक-मिर्च के आस्वादन शायद उसने न किया हो। जिसने किया होगा, उसे 'होरहा' का अर्थ बताने की जरूरत नहीं। सिर्फ इतनी याद दिला देने की चीज रह जाती है कि यह मौसम होली के साथ-साथ होरहा का भी है।
देहातों में वन-महोत्सव की तीसरी वर्षी गुजर जाने के बाद भी ईंधन की समस्या हल करने के लिए अरहर ही काम में आ रही है, सो माघ का जाड़ खेपाने के पहले ही वह खप जाती है। इसलिए विधिवत रसोई का सरंजाम हो नहीं पाता। कचरस और मटर की छीमी पर ही दिन कटते हैं, फागुन चढ़ते-चढ़ते होरहा के रूप में भुने अन्न का सुअवसर प्राप्त हो पाता है। जिन भू-भागों में जड़हन (अगहनी धान) नहीं उपजती, वहाँ माघ दूभर हो जाता है और अभावों के साथ जूझने वाले किसान का जी 'होरहा' हो उठता है। इसलिए जब वह अपनी कमाई को नई फसल में इतनी प्रतीक्षा के बाद आँखों के सामने फलते देखता है तो उसके मन में मधुर प्रतिहिंसा जग उठती है और अधपके डाँठ काट-काटकर वह होरहा जलाने लगता है। इस महीने वह 'सम्मति मैया' (संवत माता) को फूँकने के लिए छानि-छप्पर कोरों-धरन (कडी़-बल्ली) खटिया के टूटे पाए और गोहरा (उपलों के डंडे) के अंबार चोरी कर-कर के जुटाता है। जलाने के लिए यह उल्लास उसमें जलते रहने का अवश्यम्भावी परिणाम है। इस साल मेरे गाँव के इर्द-गिर्द ओला पड़ा है; बाढ़ और सूखा की सुदृष्टि तो बरसों से यहाँ बनी हुई है, इस ओला में समूची खेती पथरा गई है, सरसों और मटर के फूलों से धरती भिन गई है; गेहूँ और जौ की बालियों के झुमकों की एक-एक लर (लड़ी) बिथुर गई है और आस की अंतिम साँस भी घट कर टूट गई है। रह गई है धाँय-धाँय जलती हताशा, जो सर्वस्व चले जाने पर निश्चिंत और निर्द्वंद्व होकर बैठ गई है। कल की फिक्र करते-करते किसानी थक गई हे और इसलिए वह वर्तमान की बची-खुची उपलब्धि को फूँक डालने पर एकदम उतारू हो गई है डेहरी में अनाज भरा जाएगा या नहीं, खलिहान की राशि में गोवर्धन लोट-पोट करेंगे या नहीं, बेंग (बीजऋण) भरा जाएगा या नहीं, फगुआ के दिन पूड़ी के लिए दालदा आएगा या नहीं, इसकी उसे लेशमात्र भी चिंता नहीं; वह ओले की मार से कोना-अंतरा में बचे डाँठ का होरहा बना रही है, चिर युगों से क्षुधित उदर को जी-भर पाट लेने की उसे उतावली है, कौन जाने फिर यह देवदुर्लभ पदार्थ मिलेगा भी या नहीं, क्योंकि वह आज मुक्ति की राह पा चुकी है। किसानी की समस्त ममताएँ, धरती के प्रति सारा चिपकाव और देहली के लिए अशेष मोह सभी आज स्वप्न के तार की भाँति टूट गए हैं। प्रेमचंद के होरी के गोदान-वेला सच्चे माने में आज आई है, अंतर इतना ही है कि आज उस गोदान को संपन्न कराने के लिए उसकी धनिया के पास बछिया क्या छेरी तक का निकर (निष्क्रय-द्रव्य) नहीं है, उसके पास दान करने को केवल जली खेती का चिता-भस्म बच रहा है।
सुना है महाकाल के मंदिर में शिव को चिता-भस्म चढ़ाना जरूरी होता है, जो आज, गोदान, हम मुमूर्षु भारतीय होरी को करा सकें या नहीं, उसकी चिता से बटोर करके महाकाल के अधिष्ठाता दैवत के शीश पर दो मुठ्ठी गरम राख तो चढा़ ही सकते हैं। अबीर और गुलाल से ये देवता रीझने वाले नहीं। इन्हें फल के नाम पर कनक और मदार चाहिए, दोनों ही बौराने वाले फूल इन्हें पत्ति के नाम पर भाँग चाहिए, फल के नाम पर बैर (बदरी) जो इस मौसम का प्रतिनिधि भारतीय फल है। इन चीजों का अकाल इस देश में कभी भी न पड़ेगा और अपने शिव को प्रसन्न करने के लिए कम से कम हमें विदेश के आयात पर अवलंबित नहीं होना पड़ेगा खैर ये तो जड़ प्रकृति की वस्तुएँ हुई, शिव की पूजा में मानवी कला के उपादान भी चाहिए। वे डमरू की घ्वनि-से-सृष्टि करने वाले और प्रत्येक युग-संध्या में तांडव रचने वाले नटराज हैं, कला उनके लिलार में लिखी है, वे चिता-भस्म वालों से कुछ और भी माँगते हैं, वे अपने उपासक प्रेत-कंकालों से नृत्य-संगीत भी माँगते ही हैं। यह न मिले तो शिव शव हो जाएँ; इसलिए खेती-बार, घर-दुआर, तन-मन और राग-रंग सब कुछ होरहा करने से ही नहीं चलेगा सब कुछ गाँवों के और सब कुछ होम करके भी हमें ताल देना सीखना होगा, शिव के साथ नाचना सीखना होगा। हम न सीख सके तो हमारी विफलता होगी, हमारी भारतीयता को बहुत बड़ी चुनौती होगी। अभी बसंत-पंचमी के आस-पास अपने प्राचीन स्वतंत्रता दिवस तथा नए गणराज्य दिवस के समारोह में हमने लोग-नृत्य उत्सव धूमधाम से मनाकर अपनी क्षमता का परिचय दिया है। हमें कायम रखना है।
हम यदि मसान की मस्ती कायम न रख सके तो हमारा शिव शव हो जाएगा, तब छिन्नमस्ता महाकाली उसके ऊपर तुरंत खप्पर लिए नाच मचाने लगेगी। उस शोणित-रंजित दृश्यपट से अपने क्षितिज को बचाने के लिए ही हमें आज यह चौताल उठाना है -
'शिवशंकर खेलैं फाग गौरा संग लिए'
गौरा को संग लेने पर कुछ कलमुँहों को आपत्ति होगी, पर वे यह नहीं जानते कि हमारे शिव अर्धनारीश्वर हैं, या यों कहा जाए कि उनके आधे अंग से तो प्रत्यक्ष रूप से और शेष का अप्रत्यक्ष रूप से, इस प्रकार उनके सर्वाड़्ग का स्वामित्व जगद्धात्री 'गौरा' के हाथ में ही है। हिमालय के अंक में बसी हुई अलका से दूर मैदानों में रहने वाले अभागों को शायद यह आपत्ति हो सकती है कि उनके शिव गंगाधर भी तो हैं। गंगा को उन्होंने अपने जटाजूट में धारण किया है। केवल इतना ही नहीं उन्होंने अपनी जटा खोलकर जगत को अमर जीवन दान भी किया है, उन्होंने तपती धरती को रसाधार देकर जिलाया हे और कैलाश छोड़कर गंगा की मध्यबिंदु काशी में अपना आसन जमाया है। इसलिए 'हरहर' के साथ 'गंगे' की टेर लगाने वाले बनारसी फक्कड़ो की इस आपत्ति को एकदम उड़ाया नहीं जा सकता।
इस पर कुछ विचार करने की जरूरत है। होरी अपने तन-मन-धन की होरी करके मुक्तिधाम में 'हरहर' को बोल लगाते समय 'गंगे' पर अटक जाता है। उसे लगता है कि उसके शिवशंकर बहुत श्वसुरालय-प्रेमी हो गए हैं, क्योंकि उसकी गंगा दिन-ब-दिन कृश से कृशतर होती जा रही हैं। यह शिव की ओर से कुछ सरासर ज्यादती हो रही है। विष पीनेवाले शिव से इस विलास-लीनता की अपेक्षा नहीं की जाती थी। पर कदाचित वे विषपाई शिव ये नहीं हैं। ये इस नए कल्प में कुछ बदल गए हैं, इन्होंने शंकराचार्य की भाँति किसी अमरुक के शरीर में प्रवेश कर लिया है, और अब ये गंगा और गंगातीरवासियों का दुख एक दम बिसरा चुके हैं।
पर जाने दीजिए इस पुराण-पचड़े को। यह पुराणपंथी भी पुरानी, शिव भी पुराने, किसी नए मनमोहन की चर्चा चलाइये। यों तो इस महीने में बूढ़े बाबा भी देवर लगते हैं, पर जो नवेलियों को भी नवल लग सके, ऐसे नंदलाल की रसीली बातें किजिए, जिसकी साँवली सलोनी मूर्ति आज बसंती रंग में नख-शिख सराबोर हो उठी है। हाँ यह दूसरी बात है कि हमारा यह बाँका छैला भी परकीया के पीछे ही अधिक पागल है, यहाँ तक कि उसे अपने पीतांबर के लिए चीनांशुक के बिना काम नहीं चलता और वह अपनी 'उज्ज्वल नीलमणिता' खोकर लाल-लाल रह गया है। उसे इतनी भी अपने गाँव-घर की सुधि नहीं है कि आज होली के दिन जब गाँव का गाँव इस नए बसंत में होरहा हो चुका है, तब बीतते संवत्सर की चिताधूलि उड़ाने के लिए उसे बार-बार फेरी लगाना है फागुन में छाने वाली घनघटा चीरकर उसे एक किरण झलकानी है, द्वार-द्वार दुख की लरजती छाया में उसे आनंद की धूप-छाँह खेलती है, और न जाने किस युग से चला आता हुआ यह गीत उसे गाना है -
आनंद लाने के लिए बाँकी जवानी को अपने 'घर की वर बात' विलोकनी होगी, नहीं तो घर एकदम उजड़ चुका है, सुरमा लगाने वाले रंगी बुढ़ऊ से कोई उम्मीद वैसे ही नहीं है, अब आशा है तो उसी अल्हड़ मनमोहन से जो न जाने कहाँ-कहाँ रँगरेली करके अनमने और सूचो भाव से रीति निभाने के लिए मधुरात के ढुलते प्रहर में अपनी थकित और निराश प्रेयसी के पास फाग खेलने आता है, दुख में पगी हुई नवेली इस सूखे स्नेह को दूर से झारती हुई कहती है,
"चाल पै लाल गुलाल सौं, गेरि गरै गजरा अलबेली।
वों बनि बानक सौं 'पद्माकर आए जो खेलन फाग तौ खेलों।
पै इक या छवि देखिबे के लिए मों बिनती कै न झोरिन झेलौं।'
रावरे रंग रँगी अँखियान में, ए बलवीर अबर न मेलों।"
'फाग खेलने की मनाही नहीं है, पर तुम्हारी आँखों में जो किसी दूसरी बड़भागिनी का रंग चढ़ा हुआ है, उसी को अपने में पाकर मेरी आँखें निहाल हैं, उसमें फिर अपनी यह अबीर न मिलाओ, इतनी ही विनती है। मैं तो होरहा हो ही रही हूँ, अब प्रेम को होरहा न करो।'
मैं गँवार अनपढ़ किसान ठीक यही बात अपना होरहा भूनते-भूनते सोचता हूँ कि मेरी बात कौन समझेगा। मानता हूँ, लोकगीतों का फैशन चल गया है, आधी रात बेला अब दिल्ली शहर के बीच भी फूलने लगा है और जिसमें ग्राम्यता की झीनी पालिश पर हृदय शहराती, रजत बोलपटों से ऐसे परघट वाले रूमानी गीत हर एक बँगले में लहराने लगे हैं। परंतु क्या इन अभिनयों में मेरी अभिव्यक्ति और तिरोहित नहीं हो रही है। मेरी विथा को कोई ओढ़ना नहीं चाहता, पर मेरे 'शैवलेनापि रम्यं' सरसिज को अपने फूलदान में सजाने के लिए अलबत्ता शौकिनों में लड़ाई छिडी़ हुई है, गालियों की धूम मची हुई है। मैं तो इस उधेड़-बुन में देखता हूँ कि होरहा की आग हवा के झोंकें में बुझ गई है। अधझुलसा रहिले (चने) का डाँठ धुँअठ भर गया है। कड़े छिलके के भीतर छिपे हुए दाने अभी दुधार बने हुए हैं, उनके रस तक आँच पहुँच न सकी। परंतु मेरे अंतर की अधपकी फल, बाहर की ज्वाला की लहक पाकर ही एकदम राख हो गई है। उसका एक दाना भी कोयला हुए बिना नहीं रहा सका है, क्योंकि उसके पास चने का-सा-कड़ा छिलका नहीं रहा, जो उसकी रक्षा कर सके। बस इसके अनुताप में गुनगुनाता बच रहा है -
'नहिं आवत चैन हाय जियरा जरि गइले'
- होली 2009, प्रयाग