होलिका मंदिर / सुधा भार्गव
-क्यों मुंह लटकाए बैठा है?
-क्या करूँ? घर-घर दस्तक दी…गिड़गिड़ाया, पर ऐसी दुत्कार मिली कि कुत्तों को भी नहीं मिलती।
-अरे, तूने कहा क्या?
-यही कि मेरा बेटा बहुत बीमार है, अगर थोड़ी मदद हो जाये तो अपनी जमा पूंजी, उधारी और बढ़े हाथों के सहयोग से उसका इलाज करा पाऊँगा।
-हम इक्कीसवीं सदी में रह रहे हैं, लेकिन कुछ बातें बिलकुल नहीं बदली। एक बार फिर जा, मगर दूसरे मोहल्ले में और जो मैं कहूँ वह कहना…एक कागज पर लिख ले, सच्चाई के पुजारी। कितनी बार तुझे समझाया…सच की तरह बोल, पर सच मत बोल…।
-हो गया उपदेश, जल्दी लिखवा!
-लिख…कल मेरे सपने में होलिका आई थी। आँखें उसकी अंगारों की तरह दहक रही थीं, मुँह से निकल रही थी आग की लपटें। कह रही थी—मेरी एक गलती की इतनी बड़ी सजा कि हर वर्ष मुझे जलाते हो। और इन पापियों और दरिंदों का क्या! जो बिना खूंटे से बंधे हजार गलतियां करते मस्त रहते हैं। मैं सबको जलाकर राख कर दूंगी…सबको बर्बाद कर दूंगी। मेरे क्रोध से बचने का एक ही तरीका है। जा अपने गाँव वालों से कह दे— मेरे नाम से एक मंदिर बनवाएं, जिसका नाम हो होलिका मंदिर और हाँ, जब पहली बार वहाँ पूजा हो तो मेरी प्रतिमा पर फूलों का हार न चढाया जाय, सोने का हार हो।
सबसे बाद में कातरता से कहना—मुझे गाँव को बचाना है—मदद करो माँ, मदद करो।
अगले दिन मजबूर बाप ने ऐसा ही किया। शाम को घर लौटा तो बैग में दानराशि समा नहीं रही थी।