होली दो पाटन के बीच में हो ली / राजेंद्र त्यागी

Gadya Kosh से
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बजट दिवस भी भी चला गया और महिला दिवस भी। किंतु मेरा घर अभी तक ग्लोबल-वार्मिग सा गरमा रहा है। इन्हीं दो दिवसों के फेर में कमबख्त बसंत भी पतझड़ की तरह बीत गया। उस दौरान पत्नी का चेहरे पर पीत-आभा अवश्य नजर आती रही। मैं समझता रहा कि बसंती आभा होती ही पीतांबरी है, इसीलिए पत्नी का चेहरा सरसों के फूलों सा खिल रहा है।

पत्नी के चेहरे पर वासंती-आभा का भान कर, हमने उनसे कहा, सुनो जी बसंत आ गया।

वे बोलीं,” हाँ! ..बेचारा!”

हम झटके के साथ बोले, “ बसंत के आने का बेचारगी से क्या मतलब! अरे, भाई बसंत को आना था, सो आ गया।”

वे उसी वसंत-राग में बोली, “हाँ, आना था, सो आ गया! तुम पहले ही घर बैठे बेरोजगारी का फातिहा पढ़ रहे थे। अब मंदी का मारा बेटा भी तुम्हारे सुर में सुर मिलाने आ गया है। एक से भले दो! सुर-ताल मिलाने के लिए दाल-आटे के खाली कनस्तर-कनस्तरी और हाथ में ले लो!”

बसंत-नामा सुन हमें अहसास हुआ कि चंद्रमुखी के मुख पर वसंती-आभा बसंत के कारण नहीं वैश्विक-मंदी के कारण थी। लगा हमारा बसंत बिना बसंती के ही गुजर जाएगा। मैं पात-विहीन पेड़ की तरह ठूँठ सा खड़ा रह गया। मन में आया कि समकालीन बसंत पर व्यंग्य लिखूँ। पर जब-जब भी प्रयास किया बसंत की जगह कमबख्त पतझड़ ही याद आता रहा।

अब सुना है, होली आ गई है। मन ने फिर करवट बदली। इच्छा हुई बसंत पर न सही होली पर कुछ लिखा ही जाए। बस बुद्धिजीवी मुद्रा में आने की चेष्टा की। कलम कान के ऊपर अटकाई और होली का ध्यान कर ध्यानावस्था में बैठ गया। तभी अंतर्मन से आवाज़ आई, “क्या बात है, जनाब! होली पर व्यंग्य लिखने की चेष्टा कर रहे हो?”

हम बोले, “हाँ भाई, हाँ! बसंत तो पतझड़ सा बीत गया। सोचा होली पर ही कुछ लिख दिया जाए।”

हमारी अनधिकार चेष्टा देख अंतर्मन खिलखिला कर हँस दिया, “होली पर व्यंग्य लिखोगे! ..व्यंग्य पर व्यंग्य लिखोगे! ..होली तो खुद में ही एक व्यंग्य है, उस पर कैसा व्यंग्य? नंगे को नंगा करने की कुचेष्टा!”

अंतर्मन के तर्क में जान नजर आई। हाथ की कलम फिर कान के ऊपर जा अटकी और फिर से विचार मुद्रा धारण कर ली। तभी पत्नी की नजर हम पर पड़ी। बोली-”सुनो जी, आज दोपहर का भोजन नहीं बना सकूँगी महिला दिवस की मीटिंग में जाना है।

लो, इस बार महिला दिवस होली पर ही आना था? यह कैसा अफागुनी शकुन। जिस दिन पकवान खाने को मिलने थे उसी दिन फाका? खैर होली का मतलब सिर्फ खाना और गाना तो नहीं। मैं ठहरा बुद्धिजीवी मुझे लेखन की और ध्यान देना चाहिए। पत्नी ठहरी महिला उसे महिला दिवस मनाने दो। हम पुरुषों के सारे दिवस तो एक दिवस महिलाओं का हो जाने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। हमें शांत देखकर पत्नी को तरस आ गया।

बोली, “ क्या सोच रहे हो?”

हमने कहा, “भागवान! होली पर व्यंग्य लिखना था। उसके लिए मूड बना रहा था, किंतु तुम्हारे कार्यक्रमों को देखकर परेशान हो गया हूँ।”

अंतर्मन की तरह वह भी व्यंग्य भाव से बोली, “व्यंग्य पर व्यंग्य कैसा? खैर कोई बात नहीं, कान के पिछवाड़े से कलम उतारो। होली पर व्यंग्य हम लिखवाएँगे।”

पत्नी के वचन सुन हम अचकचा कर रह गए। खाना न मिले पर व्यंग्य पूरा हो जाए तो वह भी कुछ कम बड़ी बात नहीं है। हमने उनके मुख की ओर निहारा। फिर सोचा- कहते हैं कि हर सफल व्यक्ति के पीछे कोई न कोई महिला होती है।'कोई न कोई' के मामले में तो भाग्य कोरा ही रहा। हो सकता है कि पत्नी ही सफलता की सीढ़ी बन कर आई हो। अत: हमने कान का पिछवाड़ा कलम के बोझ से मुक्त किया और लिखने बैठ गए।

पत्नी ने इमला बोलना शुरू किया- “होली रूप परिवर्तना है। कभी होलिका है, तो कभी पूतना है। होली कभी महंगाई है, तो कभी मंदी है। होली सरकार का बजट है। महंगाई के दौर में, महंगाई का दाह-संस्कार करने के सपने दिखाए जाते थे। महंगाई का रामनाम-सत्त हुआ तो मंदी के जन्म की थाली-परात बजने लगी। इस बार मंदी है, तो मंदी-दाह-संस्कार के सपने दिखाए जा रहे हैं। मंदी पुण्यतिथि को प्राप्त होगी, तो महंगाई जयंती मनाती मिलेगी। उसी प्रकार होली के पावन पर्व पर होलिका-दहन का स्वांग कर बुराई समाप्त करने का दावा किया जाता है। होलिका का रामनाम-सत्त हो भी गया, तो रूप परिवर्तित कर मंदी की तरह पूतना सी आ टपकेगी। बहरहाल, आदमी व्यस्त ही रहेगा। कभी होलिका दहन में, तो कभी पूतना दहन में।

“महंगाई हो या मंदी, होलिका हो या पूतना दोनो ही राजनीति में भ्रष्टाचार की तरह नित-प्रति वृद्धि को प्राप्त हो रही हैं। दोनों ही स्त्रीलिंग हैं, अत: महिला-जागरूकता-आंदोलन से प्रेरित हैं। अब वह जमाना गया जब पुल्लिंग बजट महंगाई को पटा लेता था। कोई प्रह्लाद होलिका-दहन के बाद साबुत बच निकलता था। घरेलू हिंसा विरोधी कानून बन गया है। महिलाओं के हाथ में शक्ति है। प्रह्लाद भले ही जल जाए, होलिका नहीं जलेगी इसलिए महंगाई भी सुरक्षित है और होलिका भी!”

हमें नहीं मालूम कि पत्नी का व्यंग्य होली पर था, समाज पर था, या व्यवस्था पर। बहरहाल हम उदास थे, हमारा मनुआ उदास था। हम सोच रहे थे कि कमबख्त बजट और महिला दिवस दोनों ही इस बार होली के आसपास क्यों आ टपके हैं? मेरा लेखन तो इन दो पाटों के बीच पिसा जा रहा है। अवश्य ही कालिदास महाराज के समय में बजट और महिला दिवस का लफड़ा नहीं होगा! वरना वे लंबे लंबे वसंत वर्णन कैसे लिखे जाते?