होली : समाज के प्रेशर कुकर का वॉल्व / जयप्रकाश चौकसे

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होली : समाज के प्रेशर कुकर का वॉल्व
प्रकाशन तिथि : 27 मार्च 2013


मेहबूब खान की 'मदर इंडिया' से लेकर यशराज चोपड़ा की 'डर' तक अनेक फिल्मों में होली के दृश्य और नृत्य रहे हैं तथा घटनाक्रम में जबरदस्त मोड़ होली दृश्य से आया है, जैसे राजिंदर सिंह बेदी की धर्मेंद्र-वहीदा अभिनीत 'फागुन' या रमेश सिप्पी की 'शोले' में। होली उत्सव में भांग की मस्ती के गीत भी रहे हैं, जैसे राजेश खन्ना व मुमताज अभिनीत फिल्म में 'जय जय शिवशंकर, कांटा लगे ना कंकर' इत्यादि। यशराज चोपड़ा की फिल्म 'सिलसिला' में 'रंग बरसे' के फिल्मांकन में अमिताभ बच्चन द्वारा रेखा के पति व अपनी पत्नी की मौजूदगी में भूतपूर्व प्रेमिका के साथ बेहूदा ढंग से प्रेम प्रगट करने के दृश्य से दर्शक खफा थे और फिल्म की असफलता का एक कारण यह गीत भी था। यह उत्तरप्रदेश का एक लोकगीत है और वहां के 'सिपहिया' गीतों की शृंखला का हिस्सा है।

फिल्म उद्योग में १९५१ से १९८८ तक आरके स्टूडियो में फिल्म उद्योग के अनेक लोग सामूहिक होली मनाते थे और सितारा देवी प्रतिवर्ष कथक करती थीं। आरके की एक होली में ही संघर्षरत अमिताभ बच्चन ने उत्तरप्रदेश का एक लोकगीत 'मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है' पूरी तरह अभिनय करके प्रस्तुत किया था और सभी को बहुत अच्छा लगा था। यह घटना 'जंजीर' के बहुत पहले की है। यह आश्चर्य की बात है कि अपने जीवन में धूमधाम से होली मनाने वाले राज कपूर की किसी फिल्म में होली का दृश्य नहीं है।

कुछ वर्ष यशराज चोपड़ा के बंगले में बड़ी धूमधाम से होली मनाई जाती रही, परंतु रंगे चेहरों के पीछे छिपे अवांछनीय तत्वों को नहीं पहचान पाने के कारण फिल्म उद्योग में सामूहिक होली उत्सव बंद कर दिया गया। बहरहाल, समाज में मिजाज के परिवर्तन के कारण होली उत्सव की पुरानी धूमधाम और मस्ती अब कहीं देखने को नहीं मिलती। कुछ अमीर लोग अपने फॉर्महाउस में सामूहिक होली आयोजित करते हैं। महानगरों में कुछ नए त्योहारों ने पुरानों को चलन से बाहर कर दिया है, जैसे खोटे सिक्के बाजार में अच्छे सिक्कों का अवमूल्यन कर देते हैं। हर क्षेत्र में खोटा ही खरा हो गया है। यहां तक कि विष्णु खरे भी कविता और आलोचना क्षेत्र से विमुख हो गए हैं और जर्मन कविताओं का हिंदी में अनुवाद करने प्राय: यूरोप में रहते हैं। वे भारत से भी विमुख हो गए हैं।

टेलीविजन के कलाकार जमकर होली मनाते हैं, क्योंकि वह घर में देखा जाता है और सड़कें त्योहार के लिए सुुरक्षित नहीं रहीं, इसलिए सिनेमा में होली दृश्य नहीं होते। जिस देश की सड़कें आज असुरक्षित हैं, उसके घर कब तक सुरक्षित रहेंगे? महानगरों में विदेश प्रेरित आतंकवाद के कारण भी उत्सवों का स्वरूप बदला है। हमारे अपने भ्रष्टाचार और मिलावट के कारण पारंपरिक मिठाई के बदले चॉकलेट का प्रयोग होने लगा है। बदले हुए समय ने अपने नए त्योहार भी बनाए और इसमें कोई खराबी नहीं है। होली तो एक कूपमंडूक और रूढिय़ों से बने समाज में आजादी का प्रतीक रहा है। समाज के प्रेशर कुकर का वॉल्व है होली। मनुष्य के उन्मुक्त होने के क्षणों का त्योहार रहा है होली। हिरण्य कश्यप अपने बदले हुए स्वरूप में आज भी विद्यमान है। क्या बैलेट बॉक्स से कोई नरसिंह अवतार प्रगट होगा?

मनोरंजन जगत में एक नकली विभाजन स्थापित हो गया है कि मल्टीप्लैक्स के दर्शक और एकल सिनेमा के दर्शकों की रुचियां भिन्न हैं। आर्थिक खाई द्वारा हर क्षेत्र में विभाजन देखा जा सकता है। प्राय: फ्लाईओवर के एक ओर अभावग्रस्त समाज रहता है, तो दूसरी ओर साधन-संपन्न लोग रहते हैं। फ्लाईओवर की पूर्व दिशा के युवा पश्चिम दिशा के मौज-मस्ती के ठिकानों पर आते हैं, परंतु सुविधा-संपन्न पश्चिम के लोग किसी वीआईपी रोड से गरीबी की सीमा रेखा को छूते हुए एयरपोर्ट तक पहुंचते हैं। इसके अतिरिक्त उनके पास कोई वजह नहीं है दमित पूर्व में जाने की।

होली के हुड़दंग का मंत्र है 'बुरा न मानो होली है' और आज समाज इतना असहिष्णु और हास्यविहीन हो चुका है कि बिना बात भी बुरा मान जाते हैं। राजनीति में भी अतिशीघ्र बुरा मान जाते हैं। जाने क्यों ममताजी बुरा मानती रहती हैं। अब करुणानिधि बुरा मान गए हैं। तमिल क्षेत्रीयता की लहर जगाकर वे चुनाव वैतरणी पार करना चाहते हैं, परंतु उनकी तो नाव में ही 'राजा' का तूफान है। कभी अत्यंत उदार रहा भारत अब एक अनुदार देश हो चुका है। राजनेता होली पर होली नहीं खेलते, उन्होंने चुनाव को होली बना दिया है। विरोधी का मुंह काला करने का अधिकार इसी समय प्रयुक्त होता है। अब तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए होल बारहमासी त्योहार है। प्रबल प्रचार शक्तियों ने सत्य को ढांक लिया है, इसीलिए बैलेट बॉक्स से नरसिंह अवतार के प्रगट होने की कोई संभावना नहीं है। उस बक्से से बाहर निकलेंगे प्रांतीयता और क्षेत्रवाद में रंगे हुए शेर।