होशो हवास में नशेड़ी के वचन / इन्द्रजीत कौर
कौन कहता है नशा हमारा नाश करता है? अरे, चौरासी लाख योनियों में से एक ही जीवन तो मानव का होता है। कीट-पतंगें, छोटे-बडे़ जानवर, पक्षी आदि भी कहीं नशा करतें हैं? उनमें तो अच्छा-बुरा सोचने की हिम्मत ही नहीं होती। हमारे में है। हम उसका सदुपयोग करतें हैं। झूम-झूम कर जीतें हैं। मस्ती में डूबे रहतें है। हमारे जैसे जो नहीं जीतें हैं वो खुद ही नाश के कागार पर खड़ें हैं अत: हमारी चिन्ता कोर्इ न करे प्लीज! हम लगातार विकास के मार्ग पर आगे बढ़ रहें हैं। हमारे पूर्वज बंदर थे, फिर मानव बने। महान विचारक नीत्शे की सोच पर विचार करें तो हमें मानव के आगे भी कुछ बनना है वह है- ’अतिमानव’। हम तो उसी दिशा की तरफ जा रहें हैं -सबसे विकसित। बाकी सब पिछड़े हुये हैं। हमारे लिये तो अब मानव भी बानर जैसे हो गये हैं। जो हमारी राह पर रहेगा, वही विकास कर पायेगा। उसी का अस्तित्व होगा। विश्वास न हो तो डार्विन की आत्मा से पूछ लो। ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’। जो फिट होगा वही टिकेगा बाकी सब ‘फिट्टे मुँह’।
कौन कहता है नशा हमारा नाश करता है? अरे नाश हो उन नाश पिट्टों का जो ऐसा कहतें हैं। बीड़ी, सिगरेट, शराब, अफीम, भांग वगैरह तो जिन्दगी जीने का तरीका समझाते हैं। अंग्रेजों के जाने के बाद दादा ने नींव रखी और पापा ने मकान बनाया। अब हमें तो कोर्इ मेहनत करनी नहीं। क्या करें पैसे का? मेहनत तो पुरखे कर ही गयें हैं। भोले-भाले बेचारे! एक वक्त का खाना खाया, हमारे लिये बचाया। इसमें हमारी कहाँ गलती है? ‘सरप्लस’ पैसे को सर झूमाने में ही तो लगायेंगें। ‘प्लस’ करने के लिये कहीं और लगायेंगें तो अर्थव्यवस्था में मुद्रायें बढ़ जायेंगी फिर मुद्रास्फीति दौड़ कर अपना जलवा दिखाने आ जायेगी। इसके बाद मँहगार्इ ऊपर जायेगी और लोग अपना साजो-सामान नहीं खरीद पायेंगें। फैक्ट्रियों में सामान खराब हो जायेंगें। हम अमरीका में तो रहते नहीं कि दवार्इ खपानी हो तो भारत जैसे देशों में बिमारी का हो-हल्ला मचाकर दवार्इ खत्म कर डालें। पड़ी हुर्इ क्रीम का ढेर जिस देश में बेचना हो, वहाँ की सुष्मिता सेन को आगे खड़ा कर दें। खाने वाली समान के लिये अपनी मार्केट बनानी हो तो अमिताभ बच्चन जैसे सुपर स्टार के हाथ में पकड़ा कर बेच दें। ऐसे पुण्य वाले पाप से तो अच्छा है हम पाप वाले पुण्य ही कर डालें। वैसे भी ‘नशा ’ को उल्टा पढ़कर देखो, इसमें ‘शान’ छिपा है। मित्रों छिप-छिपाकर भी जिसमें शान न हो, वह हमारा नाश कैसे कर सकता है?
कौन कहता है नशा शरीर का नाश करता है? अरे, बोतल के अन्दर नशा होता है, बोतल टूटती है क्या? पैकेट के अन्दर अफीम हो तो पैकेट फट जाता है क्या? इत्ती दूर पड़ोसी देशों से नशा छुप-छुपकर भी आ जाता है, वे रास्ते नष्ट हुयें हैं क्या? जिन गाड़ियों, नावों, नियमों और बन्दों के सहयोग से हमें नशा मिलता है, उनका नाश हुआ है क्या? तस्करी को मस्खरी समझने वालों का कुछ हुआ है क्या? नशा बेचने वाली दुकानें खत्म हुर्इ है क्यां? नशा कहाँ से आता है, इससे हमें कोर्इ लेना-देना नहीं है। वैसे भी ‘लेने-देने’ जैसे सद्कार्यों से जिसे ‘लेना-देना’ हो, वह भी एक नशा होता है। हमें ही क्यों कहा जाता है बस? यार छड्डो वी! ...हम जैसे पत्तों को कोसना। जिन जड़ों को पानी देने से नये पत्ते निकल रहें हैं, उन्हीं जड़ों और पानी के टैंकरों को नष्टों करने की वकालत क्यूँ नहीं करते? क्यूँ?...हो गये न जड़वत...? धत्त!...जड़ कहीं के?