होश की दवाई / तराना परवीन
— “अंटी जी, ओ अंटी जी” ज़ोर-ज़ोर से कोई फाटक पर खड़ा आवाज़ दे रहा था और फाटक के कुंडे को ज़ोर से खड़खड़ बजाने के साथ उसने डिंग डोंग डिंग डोंग डिंग डोंग लगातार कुछ देर तक डोरबेल भी बजाई, जैसे कोई बहुत जल्दी में हो। सलोनी झट से घर के अंदर से बाहर निकली और फाटक की ओर गई तो उसने देखा कि एक दुबली-पतली, करीब तीस से पैंतीस साल की औरत जो की मैली -कुचैली साड़ी जिस पर कभी खिले हुए गुलाबी फूल छपे थे, जो अब मैले होकर सिकुड़ चुके थे, में लिपटी थी खड़ी थी, और उसके सिर पर एक बड़ा सा गुमड़ा भी था ।
— “लीलाबाई” — सलोनी ने उसे पहचानते हुए कहा और उसकी आंखों में चमक आ गई।
आज जनवरी की एक तारीख़ थी महीने का पहला दिन। दो बहुत ज़रूरी कामों के लिए सलोनी ने अपने मोबाइल में अलार्म लगा रखे थे। सुबह आठ बजे मोबाइल पर रिमाइंडर अलार्म बजा। रिमाइंडर मैसेज था- मिसेज़ शर्मा को फोन करना है कामवाली बाई के लिए। सलोनी ने बहुत कोशिश की थी पर कोई बाई नहीं मिल रही थी। लॉकडाउन के बाद से ही उसने ऑफिस के काम का वर्क फ्रॉम होम का प्रेफरेंस लिया था। शुरू-शुरू में खुश थी कि घर के काम के साथ-साथ ऑफिस का ऑनलाइन काम भी आसानी से हो जाएगा। पर धीरे-धीरे पता चला कि ऑफिस के काम के साथ-साथ घर का काम करना बहुत भारी है। कितना काम करे? सलोनी बहुत परेशान थी सोच रही थी कि घर संभाले, कि बच्चे संभाले, कि नौकरी संभाले, कि पति संभाले, सास को संभाले, कि रिश्तेदारों को संभाले, कि धर्म-कर्म संभाले रात होते-होते तो सलोनी थक कर चूर चूर हो जाती थी।
— “क्या काम करना है, अण्टी जी ?”
— “वही झाड़ू-पोंछा बर्तन ।”
— “पर मैं तो ये काम नी करूँ ।”
— “तो क्या करेगी ?”
— “बाथरूम, बरामदे की सफाई और पौधों को पानी दे दूंगी । गधा मजूरी मेरे से नी होवे ।”
— “इस काम में क्या स्पेशलाइजेशन है तेरा ? बाथरूम, बरामदे की सफाई और पौधों को पानी देने में ? झाड़ू पोंछा नहीं आता क्या ? वा भाई जो करना है कर । बहुत दिनों से इस घर में बाई नहीं है और मेरी तबीयत भी खराब रहती है । कल रात मिनी को बुखार था सो सारी रात जागना पड़ा। थक गई हूँ काम कर करके” — हताशा के स्वर में सलोनी बोली।
— “कित्ते पैसे दोगे ?”
— “जितने मांगेगी दे दूंगी। पहले काम तो कर, तेरे कम नहीं पड़ेंगे।” — सलोनी ने उसे तीनों बाथरूम दिखा दिए।
काफी देर हो गई थी, अभी तक एक बाथरूम भी साफ कर कर नहीं निकली, ये सोच सलोनी ने उस बाथरूम में झांककर देखा, जिसमें लीलाबाई सफाई कर रही थी।
— “अरे यह क्या कर रही है ? बाथरूम के फर्श पर भी कोई आलकती पालकती मांड कर बैठता है क्या? साड़ी गीली हो गई ना तेरी! अरे इस डब्लू सी को तो ब्रश से साफ करते हैं ताकि हाथ भी न छुएं।” सलोनी ने देखा कि वह बर्तन साफ करने के स्क्रबर को हाथ में लिए हुए कमोड को अंदर से मांझ रही थी।
— “नहीं पड़ोस वाली अंटी जी ने कहा कि चीनी के बर्तन की तरह चमका तभी पैसे मिलेंगे। फिर काम इतनी सफाई से करना चहिए कि कराने वाले का दिल खुस हो जाए और वह आपको बार-बार याद करें। बाथरूम इत्ते साफ कर दिए हैं कि अब रोज-रोज साफ करने की जरूरत नहीं है।” उसने डेढ़ घंटे में तीनों बाथरूम के वॉश बेसिन, कमोड और फर्श चमका दिए फिर सलोनी से बोली-
— “अंटी जी अब जल्दी से पैसे दे दो मैं जाऊं। दो तो बज गई है।”
— “अब बरामदे की सफाई और पेड़ पौधों को पानी भी पिला दे, ज्यादा पैसे ले लेना।”
— “नी नी मुझसे इत्ता काम नी होगा। मैं दो बजे से ज्यादा काम नी कर सकती। आदमी बहुत जालिम है। ठीक दो बजे चाय मांगता है। यह देखो कल देर हो गई तो लकड़ी से इत्ती कूटी के सिर पर बड़ा गूमड़ा सूज गया। रोज रात भी दारु पी कर आता है और खूब पीटता है।”
— “बाप रे ! पुलिस में जा।”
— “गई कई बार पर कुछ नहीं होता। अंटी जी जल्दी से पैसे दे दो। दो बजने वाली है।” सलोनी ने उसे सौ रुपए का नोट दिया तो वह खुश हो गई और बोली,
— “अंटी जी आपको जब भी जरूरत हो पास वाली अंटी जी से कहकर मुझे बुलवा लेना और मैं भी कभी-कभी या एक-दो दिन में आ कर पूछ ही लूंगी।”
— “अरे तू रोज़ ही आ जा। रोज़ काम कर, टुकड़ों टुकड़ों में क्या काम करती है और थोड़े थोड़े पैसे लेकर जाती है। आज एक तारीख़ है आज ही से काम पर लग जा, ज़्यादा पैसे मिलेंगे।”
— “बताया ना अंटी जी के जमकर काम करती हूं तो भी आदमी जमकर मारता है, इसलिए अब मैं कहीं भी जमकर महीना भर काम नी करती। तो अब इसलिए मारता है, कि कहीं जमकर काम नी करती। जब हर हाल में उसकी मार से ही हड्डियां तोड़ वाणी हैं तो हड्डियां दो बार क्यों तुड़वाऊं ? पहले तो बाहर जाऊं लोगों के यहां काम करूं, वहां काम की मार से हड्डी तुड़वाऊं फिर घर आकर एक बार फिर आदमी से हड्डी तुड़वाऊं। डबल बार हड्डी तुड़वाने में कुछ समझदारी है? बोलो? बहुत कर लिया अंटी जी अब और नी होवे। बस। फिर मैं कित्ता खटूं? बच्चे संभालूं, कि नौकरी संभालूं , कि पति को संभालूं, सास को संभालूं, उनके रिश्तेदारों को संभालूं, या धर्म कर्म संभालूं ,तो फिर खुद को कब संभालूं ? अपनी तबीयत कब ठीक करूं? अपने बारे में कब सोचूं ?” लीलाबाई लगातार बोले जा रही थी। यह सुन सलोनी सोच में पड़ गई। मेरी लिस्ट में भी इन सब को संभालना लिखा है पर इसकी लिस्ट में एक आखिरी काम और है जिसके बारे में मैं कभी क्यों नहीं सोचती? मैंने तो अपने आपको काम में इतना झोंक दिया है कि सोचने का वक्त ही नहीं है। इतने में उसके मोबाइल का अलार्म बजा, दो बजी थी सलोनी की दवाई खाने का रिमाइंडर था क्योंकि अक्सर वह काम के चक्कर में टाइम से अपनी दवाइयां लेना भूल जाती थी और कई बार तो रिमाइंडर सुनने के बाद भी भूल जाती थी। लीलाबाई जा चुकी थी, दो बज चुके थे।
छह जनवरी थी आज। थोड़ा बुख़ार था। सलोनी ने पेरासिटामोल खा ली थी। पति नाराज़ थे कह रहे थे “थोड़े दिन देर रात तक क्या जगना पड़ गया और थोड़ा सा काम क्या ज़्यादा करना पड़ गया कि बुख़ार हो गया, कितनी नाज़ुक हो कुछ बर्दाश्त नहीं होता तुमसे।” घर, ऑफिस, बच्चे संभाल कर सलोनी पूरी तरह से थक चुकी थी। धीरे-धीरे घर और ऑफिस में सब उससे नाराज़ रहने लगे थे क्योंकि वह किसी का भी काम सही तरह से नहीं कर पा रही थी। वह बहुत परेशान थी और सब को खुश करने की पूरी कोशिश कर रही थी। मोबाइल का अलार्म बजा रिमाइंडर लगाया था, बाहर पेंटर की दुकान पर फोन करना है कामवाली बाई भेजने के लिए। कुछ देर बाद एक मरियल सी आवाज आई-
— “अंटी जी अंटी जी” और घर की डोर बेल बजी ।
— “अब आ रही है तू छः दिन बाद।” सलोनी लीलाबाई को देखकर झल्लाई।
— “तबीयत बहुत खराब है अंटी जी। आज तो काम नी कर सकती। बस बीस रुपए दे दो। कल से आपका पूरा काम कर जाऊंगी। दवाई लेनी है।”
— “अरे तेरे स्पेशलाइजेशन वाले काम तो कर जा, बाथरूम, बरामदे की सफाई और पेड़-पौधों को पानी। अब समझ आया तू सिर्फ यह तीन काम क्यों करती है ताकि तू रोज नहीं भी करे तो चलेगा, क्योंकि घर के अंदर का झाड़ू पोंछा तो रोज़ ही करना पड़ता है बहुत होशियार है। थोड़ा कुछ तो कर जा मुझे आराम मिल जाएगा।”
— “अब मैं क्या करूं आपको देखूं या खुद को संभालूं ? कल जरूर आ जाऊंगी आंटी जी।” बहुत मजबूरी थी इसलिए सलोनी उसे बीस का नोट थमाते हुए बोली-
— “दवाई खाकर कल ज़रूर आ जाना।” मोबाइल का अलार्म बजा, दो बज रही थी, सलोनी की दवाई लेने का रिमाइंडर था । आज तो घर की पूरी सफाई सलोनी को ही करनी थी। कोई मदद करने वाला नहीं था । कल रात को भी काम करते-करते रात के दो बज गए थे। आज भी ऑफिस और घर का काम करते-करते रात की बारह तो बज ही जाएंगे । अगर ऑफिस का काम पूरा नहीं किया तो पैसे कटेंगे। यह सोच - सोच कर सलोनी बहुत परेशान थी। लीलाबाई ने ख़राब तबीयत का बहाना बना लिया था। उधर लीलाबाई बीस रूपए ले मुड़कर अपने घर की ओर रवाना हो चुकी थी। उसके घर जाने का टाइम हो चुका था। दो बज चुके थे।
आज सात जनवरी थी। सलोनी का बुख़ार बढ़ गया था दूसरी ओर ऑफिस और घर के कई ज़रूरी काम बाकी थे। वर्क फ्रॉम होम में छुट्टी नहीं मिल रही थी, होम में थी पर वक्त नहीं था, घर था पर आराम नहीं था। घर पर होकर भी ऑफिस में थी। तीन दिन से ब्रूफेन खाकर - खाकर काम संभाल रही थी। पति को बताना बंद कर दिया था कि उसे बुखार रहता है । बहुत परेशान थी इतने दिनों से ना कोई काम वाली मिल रही थी और ना ही बीमारी ठीक हो रही थी कि दवाई लेना बंद करे। सुबह आठ बजे का मोबाइल अलार्म बजा, रिमाइंडर था - कारपेंटर को फोन करना है कोई काम वाली बाई भेजने के लिए। इतने में घर की घंटी बजी और फिर वही “अंटी जी” “अंटी जी” की मरमरी आवाज़। सलोनी ने दरवाज़ा खोला। लीलाबाई को देख झाड़ू उठाई और चिढ़कर बोली
— “ले यह झाड़ू और पहले बरामदा साफ कर दूसरे काम बाद में करना।”
लीलाबाई अपना सिर पकड़ कर जमीन पर बैठ गई।
— “अंटी जी आज बस आज मने बीस रुपए और दे दो। छोरी की तबीयत खराब है और अस्पताल ले जाना है। मेरी भी तबीयत खराब है।” उसकी कमज़ोरी उसकी आवाज में झलक रही थी।
— “तू रोज़- रोज़ बीस रुपए ले जाती है और काम नहीं करती, बस अब और नहीं मिलेंगे।”
— “अंटी जी बस आज दे दो। देखो कल मने ऐसी ठोकी कि हाथ सूज गया।” उसने सूखी हुई चमड़ी और उभरी हुई नसों वाले हाथ पर से बांह को ऊंची कर हाथ पर नीले चोट के निशान दिखाए। सलोनी ने उसे बीस का नोट दे दिया।
— “मम्मी इस औरत को पैसे देती रहती हो ,यह क्या रोज़ अपनी चोटें दिखाती है। सप्ताह में मुश्किल से दो दिन काम करती है और पांच दिन उधार मांग कर ले जाती है। काम-धाम तो कुछ करती नहीं।” चौदह साल की मिनी बोली।
आज ग्यारह जनवरी थी। कल पति की सगी बुआ की लड़की की शादी थी। सलोनी को बहुत कमज़ोरी महसूस हो रही थी। बुख़ार जैसा लग रहा था। हाथ पैर टूट रहे थे। शादी में जाने से मना किया तो घर में हंगामा हो गया। पति को खुश करने के लिए खराब हालत में भी जाना ही पड़ा। आज सुबह से हरारत महसूस हो रही थी। अलार्म बजा, रिमाइंडर आया स्कूटर पंचर ठीक करने वाले को फोन करना है कामवाली बाई को भेजने के लिए।
तीन दिन बाद आज घर की घंटी बजी थी। अंटी जी अंटी जी की आवाज़ सुन सलोनी घर के बरामदे में आई और लीलाबाई को देख गुस्से से बोली :
— “शर्म नहीं आती तुझे ? पैसे मुझसे ले जाती है और दूसरी जगह काम करती फिरती है वह भी आसपास। कल पड़ोस में काम किया था तो यहां क्यों नहीं आई ? काम नहीं करना हो तो आज के बाद यहां आना मत और यह घंटी बजा कर दिमाग मत ख़राब करना। पैसों की जरूरत होती है तभी काम करने आती है और कई बार तो सिर्फ उधार मांगने आती है।”
— “कर तो रही हूं काम अंटी जी। अब जितनी सकत है उतना ही तो काम करूंगी उससे ज्यादा कैसे करूं और करना भी नी चाऊं। बहुत कर लिया, क्या मिला उसके बदले? जिनके यहां काम करूं उन काम वालों की झिड़की-ताने , कभी पैसे काट ले, तो कभी काम से ही छुट्टी कर दे, कोई आधी तनखा देकर भगा दें तो कोई - कोई तो पैसे ही नहीं दे रहे और अधबीच में निकाल कर घर बिठा दें। महीना भी पूरा नहीं होने देते। यह सब भुगतने के बदले और क्या दूं उन्हें?” उसने झाड़ू उठाई और फटाफट कचरा निकाला , पांच मिनट में पौंछा मार दिया। थोड़े बहुत पौधों को भी जल्दी जल्दी पानी पिला दिया।
— “दो बजने वाले हैं, जल्दी से पैसे दे दो, अंटी जी। बीस, बीस के चार नोट दे देना, चार दिन की उधारी हो गई है, चुकानी है, वरना आगे दवाई नहीं मिलेगी ।”
— “आई तो पंद्रह मिनट पहले। काम पूरा किया नहीं, बस पैसे चाहिए वह भी सौ रुपए।”
— “अंटी जी टाइम से दवाई तो लेनी पड़े है नहीं तो हाथ पैर काम करना बंद कर दें। तबीयत बिगड़ जाए।”
— “मुझे भी तो दो बजे दवाई लेनी होती है, फिर भी मैं अपना काम पूरा करके ही दवाई लेती हूं चाहे एक-दो घंटे ज़्यादा हो जाए। दवाई लेने के लिए अलार्म बजता है पर मैं अपना काम पूरा करके ही दवाई लेती हूं। तेरे ऐसी कौन सी दवाई लेनी पड़ती है ठीक दो बजे। और खरीदनी भी रोज पड़ती है ताजा?”
— “अंटी जी दवाई तो रोज दो बजे ही खरीदनी पड़े।”
— “बिना घड़ी के तुझे पता कैसे चल जाता है कि दो बजने वाले हैं? मुझे तो दो बजे दवाई का अलार्म लगाना पड़ता है फिर भी कई बार काम की धुन में भूल जाती हूं , पर जब से तू आई है लगता है अब अलार्म की जरूरत नहीं। दो बजते ही भागती है। तेरा बॉडी क्लॉक तो बड़ा सही चलता है। देख मैं भी तो बहुत मेहनत करके मुश्किल से कमा रही हूं। कितने काम हैं। तू तो रोज अपने शरीर की चोट दिखा देती है, मैं अपने मन की चोट, शरीर की थकान किसे दिखाऊं? तू रोज झूठ बोलती है। अपनी चोट दिखाती है मेरा मन पिघल जाता है। आज से बिना काम के कोई पैसा नहीं मिलेगा। तू क्या मेरी रिश्तेदार है जो रोज़ तुझे उधार दे दूं।”
— “कल कर दूंगी, अंटी जी, तुम्हारा सारा काम ।”
— “फिर झूठ । नहीं, आज कोई पैसे नहीं मिलेंगे, कल काम पर आएगी तो ही पैसे मिलेंगे ।”
आज चौबीस जनवरी थी सुबह आठ बजे मोबाइल का अलार्म बजा। रिमाइंडर दिया सर्विस प्रोवाइडर एजेंसी पर फोन लगाना है कामवाली बाई के लिए। आज घंटी नहीं बजी थी सिर्फ धीमी धीमी आवाज आई ‘अंटी जी, अंटी जी’
सलोनी बाहर निकली देखा , लीलाबाई गेट के बाहर उकड़ू बैठी थी सिर पकड़ कर।
— “क्या हुआ? जब तेरी तबीयत ठीक नहीं है तो आई क्यों है परेशान करने?”
— “अंटी जी बीस बीस के दस नोट दे देना। उधारी ज्यादा हो गई है। बिना पैसे लिए दवाई नहीं दे रहा दुकानदार और दवाई नहीं खाने की वजे से तबीयत खराब है फिर भी आज काम करके ही पैसे लूंगी”
— “बीस के दस नोट का मतलब पता है तुझे कितने होते हैं - दो सौ रूपये। इतना क्या काम करेगी?”
— “जो आप बताओगी सब कर दूंगी।” सलोनी ने उससे महीने भर तक घर में पड़े हुए अधूरे काम पूरे करवा लिये और उसे दो सौ रुपए देते हुए बोली-
— “कभी तो तू इतनी अच्छी हो जाती कि सारा काम कर देती है और कभी झूठ बोलकर उधार ले जाती है। बात समझ, महीने भर काम कर, अच्छे पैसे मिलेंगे।”
— “अरे अंटी जी बात समझने के बाद ही पूरे महीने काम करना छोड़ा है। कितनी बार बोलूं , जित्ता मिले उतना ही दे सकूं अब, किसके लिए खटूं? लोगों के लिए? आदमी के लिए? और किसके लिए ज्यादा पैसे कमाऊं मर मर के? तबीयत बिगड़ी तो कोई नहीं संभालेगा खुद ही भुगतना पड़ेगा। आदमी काम करूं तो मारे नी करूं तो मारे। भोत मारे। भोत सक्की है। मैं छुप कर काम करती हूं अपनी दवाइयां खरीदने के लिए। देखो कल कित्ता ठोका उसने मुझे। उसने पीछे मुड़कर कमर से साड़ी को नीचे करते हुए चोट दिखाते हुए कहा ।
— “मत दिखा। ढक ले। यह रोज-रोज क्या है ? ठोकी- कूटी? तू ठुकती -कुटती क्यों है? इंसान है या जानवर है? बर्दाश्त क्यों करती है? छोड़ उसे। जा अभी जा पुलिस में, जा, नहीं तो पीहर ही चली जा।”
— “सब कर देख लिया। पुलिस आदमी से पैसे लेकर चली जावे। उसके बाद और पीटे। पीहर में कोई रिश्तेदार नी रखता मुझे। सड़क पर पड़ी रहती हूं तो आदमी कम से कम घसीट के घर के अंदर तो ले लेवें और रात को सोने का आसरा तो देवे। दूसरा कोई रखने को तैयार नहीं।”
— “महिला आश्रम चली जा।”
— “वहां भी जा कर देख लिया। बहुत काम करवाते हैं। अंटी जी मुझे तो जल्दी से दो सौ रुपए दे दो मैं खोटी हो री हूं। दो बजने वाले हैं चाय बनानी है घर जाकर। फिर दवाई लेने जाना है। टाइम से दवाई नी ली तो बीमार पड़ जाऊंगी, फिर नी आ सकूंगी काम पर।”
— “वैसे भी तू कौन सा रोज आ रही है काम पर। जब पैसों की ज़रूरत होती है ,या मर्जी हो तो आ जाती है।” दो बज चुकी थी, सलोनी का अलार्म बजा, दवाई लेने का रिमाइंडर आया, पर काम बहुत था सो उसने सोचा काम निपटाने के बाद दवाई ले लूंगी। लीलाबाई अपने घर रवाना हो चुकी थी टाइम से अपनी दवाई लेने के लिए, क्योंकि दो बज चुके थे।
आज छब्बीस जनवरी थी। सुबह आठ बजे सलोनी का मोबाइल रिमाइंडर अलार्म बजा। बिजली का बिल देने वाले रोहन को फोन करना है कामवाली बाई भेजने के लिए। कुछ घंटे बाद फाटक पर फिर डोर बेल बजी , ‘अंटी जी, अंटी जी’ की आवाज आई। सलोनी ने दरवाज़ा खोला
— “अरे यह क्या?आज सूरज कहां से निकला? आज तो तू दूसरे दिन ही काम पर आ गई। चलो अच्छा किया, आज मुझे बहुत तेज़ बुखार है। और आज छब्बीस जनवरी पर देश में महिलाओं की आज़ादी और महिला सशक्तिकरण पर ऑनलाइन प्रोग्राम में लेक्चर देने की तैयारी भी करनी है”
— “अंटी जी क्या बताऊं कल मुझे फिर बहुत कूटी। बहुत बुरी मारी।” उसने फिर अपने एक हाथ से पेटिकोट ऊपर उठाते हुए पिंडली की चोट के निशान दिखाएं। कहा
— “देखो, चोट के नीले निशान। बस, आप आज मुझे बीस रुपए और दे दो । कल आपका पूरा काम कर दूँगी।" वह लड़खड़ा रही थी। सिर्फ ज़बान ही नहीं शरीर भी काँप रहा था।
— “तू पागल है । फिर उधार माँगने आ गई । कल तो दिए दो सौ ।"
— “मुझे पुरानी उधारी चुकानी थी दवाई की । बाक़ी पैसा आदमी ने छीन लिया ।"
— “करती क्या है बीस रुपए का रोज़ ? बता दे आज ।”
— “कुछ नहीं दवाई लेती हूँ ।”
— “आज बताएगी तभी पैसे मिलेंगे । कभी सब्ज़ी का बहाना, कभी बच्चे की दवाई, कभी खुद की दवाई । क्यों झूठ बोलती है ? मैं समझती नहीं हूँ क्या ? क्या छुपा रही है इतने दिनों से मुझसे ?”
— “झूठ क्यों बोलूँ, अण्टी जी, सच है सब । इतना काम करूँ दिन भर, इतना खटूँ घर में भी, बाहर भी। इतनी थक जाऊँ, फिर आदमी इतना मारे तो दवा-दारू तो करनी पड़े ना । उसके लिए बीस रुपए तो चावे कम से कम । इसके बिना जीयूँ कैसे ?"
— “कौनसी दवा लाती है तू, रोज़ बीस रुपए में ? बुखार, हाथ-पैर दर्द की कौनसी गोली है जो बीस रुपए में आती है ? हाथ-पैर दर्द और बुखार की गोलियाँ तो बहुत सस्ती आती हैं ।"
— “अण्टी जी, दवा-ववा अब कुछ असर नहीं करती मुझ पर ।"
— “तो क्या करती है तू बीस रुपए का ?"
— “बताया ना दवा-दारू करती हूँ। दवा-दारू ! दारू !"
— “तू दारू पीती है रोज़ ?" — आश्चर्य से सलोनी का मुंह खुला रह गया ।
— “दारू ही तो दवाई है, अण्टी जी । शरीर का और मन का, दोनों का दुख दूर हो जावे । डॉक्टर की गोली-दवाइयाँ खाने से तो सिर्फ़ शरीर की थकान दूर हो जाए मन तो बेचारा दुखी का दुखी रहे । अब मेरे पास तो इत्ता पैसा नहीं कि मन के लिए अलग गोली खाऊँ और तन के लिए अलग दवाई लूँ। इससे दोनों को आराम मिल जावे, अण्टी जी । सारे दुख-चोट-घाव भूल जाओ और इसी से तो सब सहन कर सकने और हर मुसीबत का सामना करने की ताक़त मिले । इससे सस्ती और आराम वाली कोई दवा नी है दुनिया में ।"
— “अरे, दूध पिया कर बीस रुपए का, बेवकूफ़ । ज़्यादा फ़ायदा करेगा। ताक़त आएगी ।"
— “दूध पियूँ ! एक गिलास दूध ! दूध बीस का लाऊँ तो बच्चों के सामने अकेली नहीं पी सकूँ । उनको पिला दूँ तो फिर हड्डियों के दुख दर्द को कैसे सहूँ ? घर का काम कैसे करूँ ? और दूध में इतनी ताक़त नहीं कि रोज़ आदमी की लकड़ी की मार सह सकूँ? बहुत कोशिश की उसको रोकने की, पर मेरा हाथ ही नहीं उठता , बचपन से आदमी की मारपीट बर्दाश्त करने का संस्कार जो कूट-कूट कर भेजे में भर दिया घरवालों ने। ये कोई शिक्षा है कि मरद कितना भी जुलम करे अच्छी पत्नी बर्दाश्त करती रहे क्योंकि पति भगवान है । कौन जाने दारू पी पीकर कभी किसी दिन मुझमें भी इतनी हिम्मत-ताक़त आ जाएगी कि मुझे ठोकने वाले को मैं भी ठोक दूँगी ।"
— “ओ तो यह है तेरी तेरे दर्द की दवाई ? कॉपिंग मेकैनिज्म । तू नशा करती है ?” चकित होकर सलोनी ने पूछा ।
— “यह नशा ही तो मुझे होश में लावे है, अण्टी जी । पति को जवाब देने की ताक़त आ जावे है इससे, यह बेहोशी ही होश में लावे है मुझे । मुझ पर हाथ उठावे तो हाथ पकड़ लूँ उसका। गाली बके है, तो वैसा ही जवाब दूँ। वरना तो ये लोक-लाज, ये संस्कार बाँधे रखे हैं मुझे । जब दारु नहीं पियूँ तो होश में होती हूँ, तब कुछ करने की हिम्मत ही नहीं होती । चुपचाप सुनती हूँ गालियाँ, सिर झुकाकर मार खाती हूँ उसकी। अच्छा बनने का नशा झूठा नशा है। होश में होती हूँ तो अच्छी पत्नी बनने के लिए मार खाती रहती हूँ । दारु पीती हूँ, इसलिए भी वो मुझे बहुत मारता है, वह चाहता है कि मैं होश में रहूँ ताकि उसकी मार खाती रहूँ और उसका सामना ना कर सकूँ । वह जानता है कि दारु पीने से ही मेरे में हिम्मत आती है उसका सामना करने की ।
— “और रोज़ तेरा यह दो बजे भागने का क्या चक्कर है ?"
— “शरीर मांगता है अंटी जी दो बजे की खुराक। अलाराम सेट हो चुका है शरीर में। और फिर दिन में ठेके पर जाना पड़े, अंटी जी, छुप के। दो बजे वहाँ कोई नहीं होए और तीस की दारू बीस में देवे ठेकेदार मुझे पीछे की खिड़की से । फिर सुबह-सुबह ये पी न सकूँ, पी जो लूँ तो काम नहीं हो सके मुझसे। इसलिए लोगों के घरों का काम करने के लिए सुबह-सुबह नी पियूँ और पिट के आऊँ क्योंकि इसके बिना पति से लड़ने की ताक़त पैदा ही नहीं होवे है मुझमें। सो दो बजे से पहले-पहले पिटने का टाइम होवे मेरा, फिर उसके बाद नहीं । इसके बाद मेरा संग्राम शुरू । इससे पहले अपनी सकत और जरूरत के हिसाब से जितना कमा सकूँ कमा लूँ।”
— “नशा करती है इसीलिए भी पति मारता है। रोज़-रोज़ पति से क्या झगड़ा करती है और मार खाती है, छोड़ पीना ।"
— “अरे, उसकी तो आदत है बिना बात के मारने की । उसका यही नशा तो छुड़ाना है । मैं नहीं पियूँ तो जान से मार डाले । पीती हूँ, इसीलिए उसका सामना कर सकती हूँ और इसीलिए पीती हूँ कि उसका सामना कर सकूँ, उसे रोक सकूँ, देखूँ, कितने दिन तक मारेगा मुझे । कितने दिन तक झेल सकेगा मेरी बदतमीज़ी । मेरा पीना मेरा जवाब देना, बदतमीज़ी लगे है उसको । कह दिया है मैंने उससे कि जब तक तू मारता रहेगा, तब तक मैं पीती रहूँगी, तुझे रोकती रहूँगी, जवाब देती रहूँगी, मुफ़त की मार तो नी खाऊँगी तेरी । तू पीटना छोड़ेगा, तभी मैं पीना छोड़ूँगी । यही तो मेरी लड़ाई है । मार ले, कित्ता मारेगा ? मर जाऊँगी, पर कुटूँगी नहीं, जैसे भी हो, दारू पीके ही सही, लड़ना तो सीख जाऊँगी और लड़ना तो ना छोडूँगी ।" लीलाबाई बहुत जोश में बोलती गई ।
— “अरे दीदी, देख दारु पीने वाली औरत ।" चुपके से पीछे आकर खड़े दस साल के रोहित ने अपनी दीदी को कहा ।
— “चलो अन्दर, तुम यहाँ खड़े क्या देख रहे हो ?" सलोनी ने डाँटकर बच्चों को अन्दर भगाया ।
— “अण्टी जी, एक बात कहूँ ?"
— “हाँ, बोल ।" सलोनी ने कहा ।
— “आप भी इतनी परेशान रहती हैं, क्यों खपती हो । मेरी मानो तो आपमें भी जितनी सकत है, ज़रूरत है, उतना ही काम करो । ज़्यादा देने की कोशिश की तो अस्पताल में भर्ती होना पड़ेगा । आप भी दो बजे तक का टेम बाँध लो काम करने का मेरी तरह । बुरा ना मानो तो एक और ज़रूरी बात कहूँ — एक दिन आपने कहा था ना कि आप अपने मन का और शरीर का दर्द किसे दिखाएँ ? दिनभर थक रोज़ गोलियाँ खाती हैं, बुखार थकान आपकी उतरती नहीं । आप अपना सही इलाज नहीं कर रही । ग़लत दवाई ले रही हैं । होश आने की दवाई लो । आप भी क्यों मेरा वाला इलाज नहीं करतीं ? मतलब, वही मेरी वाली दवाई ? उससे आपमें भी एक दिन सब का सामना करने की ताक़त आ जाएगी। फिर आप तो पढ़ी-लिखी हैं और भी दवाई और इलाज जानती होंगी, ये डॉक्टर वाली जो दवाइयाँ आप खाती हो, ये तो सिर्फ़ शरीर का दुख दूर करती हैं, मन के दर्द को दूर करने के लिए, मन की ख़ुशी के लिए क्या ?”
इतने में सलोनी के मोबाइल का अलार्म बजा । घड़ी दो बजा रही थी। रिमाइण्डर आया था, अब दवाई लेने का वक़्त हो चुका है।