हो ओ ओ ली है! / प्रताप नारायण मिश्र
1- अरे भाई, कुछ बाकी भी है कि सभी उड़ा बैठे? सच तो कहते हो, विद्या गई ऋषियों के साथ, वीरता सूर्यवंशी चंद्रवंशियों के साथ, रही सही लक्ष्मीड थी, सो भी अपने पिता (समुद्र) के घर भागी जाती है। फिर सब तो इन्हीं तीनों के अधीन ठहरे, आज नहीं तो कुछ दिन पीछे सही हो (तो) ली ही है।
2- अरे वाह तुम भी निरे वही हो, कहो खेत की सुनो खलियान की। अजी आज धुलेंड़ी है! अब समझे? हाँ! हाँ!! आज ही पर क्या है, जब कभी कोई अन्यडदेशी विद्वान वा यहीं का ज्ञानवान आगे वालों के चरित्र से हमारी तुम्हा री करतूत का मिलान करेगा तो कह उठेगा - 'धु: लेंड़ी है'! कुछ न किया, जितनी पुरुषों ने पुण्यर की उतनी लड़कों ने … क्या कहैं, ह ह ह ह!
1- वाह जी हजरत वाह! हम तो कहते हैं आज तेहवार का दिन है, कुछ खुशी मनाओ। तुम वही पुराना चरखा ले बैठे! बाहर निकलो, देखो नगर भर में धूम है-कहीं नाच है कहीं गाना है, कहीं लड़कों बूढ़ो का शोर मचाना है, कहीं रंग है कहीं अबीर है, कहीं फाग है, कहीं कबीर है, कहीं मदपिए बकते हैं, कहीं निर्लज लोग अश्ली,ल (फुहुश) बकते हैं। कहीं कोई जूता उछालता है, कहीं कुछ नहीं है तो एक दूसरे पर सड़क की धूल और मोहरी की कीच ही डालता है, तरह-तरह के स्वां ग बन-बन आते है।, स्त्री़ पुरुष सभी पर्व मनाते हैं। सारांश यह कि अपने-अपने बित भर सभी आनंद हैं, एक आप ही न जाने क्योंक नई बहू की तरह कोठरी में बंद हैं, न मुँह से बोलो न सिर से खेलो-भला यह भी कोई बात है! उठो-उठो
1- ह अच्छा ! आप ने तो खूब ही फारसी की छारसी उड़ाई (यह हिंदी की चिंदी का जवाब है), लखनौ के मियां भाइयों की काफियाबंदी को मात किया।
2- खैर जी अब चलते भी हो कि यहीं से बातें बनाओगे?
1- मैं नहीं जाता, यह बहेंतूपन तुम्हींे को रंजा पुंजा रहे। भला यह भी कोई तमाशा है जिसके लिए तुम्हाारी तरह गली-गली पड़ा फिरूँ? यह तो इस देश का सहस्रों वर्ष से तार ही है, होली ही पर क्या विलक्षणता आ रही है। आप एक नगर को लिए फिरते हैं, यह कहो कि यूरुप अमेरिका तक हमारे अतिमानुष करमों की धूम है। नाच देख के तुम्हीं प्रसन्नस होते होंगे, हमारी जन में तो कामाग्नि में और घृताहुती देने में रात भर आँखें फोड़ने में, सिवाय बची खुची बुद्धि को स्वााहा करने के क्या धरा है? फिर यदि नाच भलेमानसों का काम नहीं तो अपनी धर्म्मयपत्नी् का हक वेश्यााओं के भाड़ में झोंक के नाच का देखना ही किस सज्ज न को सोहता है?
2- वाह, नृत्यन चौंसठ विद्या में से है, भगवान श्री कृष्णचंद्र जी नाचते हैं, उसे बुरा कहते हो!
1- फिर नाचो न! मना कौन करता है? अरे उन सज्ज्न महात्मा ओं को क्योंर बदनाम करते हो? हाँ, रासधारियों के ठाकुर जी को चाहो जो करो। भगवान कृष्णैचंद्र के और ही किसी काम का पक्ष करते। देखो महाभारत में उनके धर्मनिष्ठ ता, धीरता, वीरता और गंभीरतादि सद्गुणों की कैसी स्तुति है! यदि हम एक भी उन की चाल सीखते तो लोक परलोक में कैसा कुछ आनंद होता!
2- यह पोथा फिर कभी खोलना-आज तो चलो परीजन (वेश्याी) की तानों से कानों और प्राणों को प्रमोदित करैं।
1- क्या लज्जार की मूरत अनुसुइया (अत्रि ऋषि की पतिव्रता स्त्री ) की औतार घर की अप्सैरा देवी के सीठनों (ब्याजह के गीतों) से तृप्ति नहीं हुई? चलो, उसे कहोगे कि कुल परंपरा है, पर ऐसे-ऐसे गीत कि 'मिरजा परे सरग जा रे, मैं तो नागर बाम्हेनी' किस कुल की परंपरा है? रासलीला वाले व्यामभिचारोद्दीपक गीत, जिन में मजे का मजा और (हो न हो झूठ ही सही) धर्म की भी चाट है, यही क्या काम थे जो महाअपावन म्लेीक्षों के साथ पूजनीय ब्राह्मणियों के इश्क के गीत गाए जाए! हाय कलियुग देवता! वेश्याह तो गावें-'चलत प्राण काया कैसी रोई' और कुलांगनाएँ वह गावें? क्या ही काल की गति है!
2- यार, सच है, मैंने भी लाला कूड़ामल के लड़के के ब्याईह में एक रंडी को 'हुए दफन जो कि हैं वे कफन उन्हेंत रोता अब बहार है' गाते सुना था।
1- फिर ले भला! जब विवाह ऐसे मंगल कार्य में मुर्दों के गीत होते हैं तो होली में किस मनभावन गान की आशा है?
2- हम ने जान लिया कि नाच और गाने में तो तुम जा चुके पर चलो बाहर लोगों की हा हा हू हू ही से जी बहलावें।
1- यह शोर ही शोर तो रही गया है। देखो तो किसी काम के न रहे नहीं, हल जोतने तक का तौ सलीका नहीं, तौ भी 'हम बाला के सुकुल आहिन, हम ससुर धाकर के हियां तलाए का पानी लेवे? 'महाराज कुछ पढ़ते हो?' 'का सुआ मैना आहिन? हम तौ आहिन जगतगुरू! हमारे पुरखिन यज्ञ कीन ती!!!' बलिहारी-रौरे! (कनवजियों का प्रतिष्ठात शब्दा) कि विद्या के नाम तो यह बातैं पर जो कोई दे कि - 'अविद्यो ब्राह्मण: कथम्' तो जनेऊ तोड़ने को तैयार हैं।
2- हम तौं ढैये उच्चाकुल के क्षत्री (खत्री) हैं ना?
1- ढैये हो चाहै साढ़साती हो, पर राजा साहब। क्षतियत्वक इसी में है कि अपने देश भाईयों की शारीरिक और मानसिक शत्रुओं से रक्षा करो। सो तो इन नाजुक हाथों से आसरा ही नहीं, हाँ, यह कहो कि हम मेहरे हैं, सो तो हम तुम सभी, क्योंसकि सच्चीक योग्यीता के नाते तो ढोल के भीतर बोल, पर मुँह से सब बड़ाई कूट-कूट के भरी है।
2- वाह रे गुरू! क्यों् न हो, कोई कुछ कहै तुम अपनी ही राह पकड़ोगे। अच्छा ले आओ, तुम्हेंद बना तो दें! और क्या, (मुँह रंग के) आए! ये आए होली के!
1- सो सही, पर उत्तम तो यह था कि ऐसे-ऐसे कामों में सहाय देते जिनसे सचमुच की सुर्खरूई होती। बाल विवाह की कुरीति उठाई होती-ब्रह्मचर्य की फिर से प्रथा चलाई होती, तो देखते कि कैसा रंग आता है। क्या एक दिन अबीर लगवा के हनोमान जी के भाईबंद बन गए! जहाँ मुँह पर पानी पड़ा फिर वही मोची के मोची! आए क्या सब ही ओर से गए, यह कौन किससे कहे? यहाँ तो आर्यसंतानों को हिंदू, काला आदमी, बुतपरस्त , काफर, बेईमान, अधसिखिया इत्या दि अवाच्यब कबीरों के सुनने की लत पड़ गई है। इन की समझ में गाली तो खाने ही को बनी है! जहाँ घर ही में जूत उछलौअल है-हम तुम्हेंह पोप का चेला कहैं, तुम हमें दयानंदी गपाष्ट क वाला बनाओ, फिर भला बाहर वाले (ईसाई मुसलमान) क्योंा न लथाड़ें? अरे मतवाले भाइयों! तुम्हेंफ यह क्या सूझी है कि तुम शैव हो कर वैष्णहव मात्र की छाँह न देख सको? ईश्वार के सच्चेा प्रेमी को भी राख न लगाने के पीछे 'तन्य्ूझी-जेद्यन्य्व मजम् यथा' कहा? क्योंश महाराज घटाटोप टंकार रामानुज स्वारमी जी! अर्धपुड्र न लगावे और हाथ न दगावे पर विद्वान सज्जहन हो, तौ भी वह निरा राक्षस है? यदि श्रीमद्रामानुजस्वाीमी की तुम्हाडरी ही सी समुझ होती तौ उन के उपदेश द्वारा लाखों लोगों का सुधरना सर्वथा असंभव था! हाँ, मिस्टछर पंचमकारानंद साहिब से मैं डरता हूँ, कहीं मार न खाए! पशु और कटक तो बनाते ही हैं, पर इतना तो फिर कहे बिना नहीं रहा जाता कि जो 'वेद शास्त्रख पुराणानि निर्लज्जा गणिका इव' हैं तो केवल आप कहते और छिप-छिप के मनमानी अंधाधुंध मचाने से 'शांभवी विद्या गुप्तत कुलवधूरिव' कैसे हुई जाती है? यती जी महाराज! जो बहुत फूँक-फूँक पाँव धरते थे उन्हों ने माहीधरी टीका देख के यह बेपर की उड़ाई कि-'त्रयो वेदस्यक कर्त्तरी भांड़ धूर्त निशाचरा।' यह भी न सोचा कि - 'अहिंसा परमोधर्म्म :', जिस के ऊपर हमारे मत की नींव है, किसी वैदिक ही का बचन है या जैनी का? हमारे यहाँ के सब के सब ही यद्यपि जानते हैं कि जैनी किसी दूसरे देश से नहीं आए, चाल ढाल ब्योहहार हमारा ही सा उन के यहाँ भी है परंतु तौ भी-हस्तिनापीड्यमानोपि न गच्छेीज्जैीनमंदिरम्-इस झगड़े की बात को वेद की ऋचा मान बैठे हैं! अरे भाई! धर्म की बात है और मतवालापन और बात है। पर तुम समझते तौ फूट और बैर तुम्हाैरे देश का मेवा क्योंि हो जाता, जिस का यह फल है कि तुम - 'निबरे की जुइया सब कै सरहज - बन गए, अन्यक देशियों की गुलामी करनी पड़ी। अस्तुह, यह दुख रोना कब तक रोवें? अब जरा स्वांुगों की कैफियत सुनिए। चाहै निरक्षर भट्टाचार्य हो, चाहै कुल कुबुद्धि कौमुदी रट डाली हो, पर जहाँ लंबी धोती लटका के निकले बस - 'अहं पंडितं-सरस्व ती तौ हमारे ही पेट में न बसती है!' लाख कहौ एक न मानैंगे। अपना सर्वस्व खोकर हमारे घाऊघप्पत पेट को ठांस-ठांस न भरै वही नास्तिक, जो हमारी बेसुरी तान पर वाह वाह न किए जाए वही कृष्टाघन, हम से चूं भी करै सो दयानंदी। जो हम कहैं वही सत्यत है। ले भला हम तौ हम, दूसरा कौन! यह मूरत स्वा मी कलियुगानंद सरस्वहती शैतानाश्रम बंचकगिरि जी की, उन से भी अधिक है। क्योंौ न हो, ब्राह्मण-गुरू संयासी प्रसिद्ध ही है। जहाँ-'नारि मुई घर सम्पंहत्तिनाशी मूंड मुंड़ाय भए संयासी'! फिर क्या, ईश्वार और धर्म के नाम मूंड ही मुड़ा चुके, अब तो 'तुलसी या संसार में चार रतन हैं सार। जुआ मदिरा माँस अरू नारी संग विहार'! काशी आदि में, दिनदहाड़े विचारे गृहस्था चात्रियों की आँखों में धूल झोंकना ही तो लाल कपड़ों का धर्म है! धन्यद है! जहाँ ऐसे-ऐसे महापुरुष हों उस देश का कल्यापण क्योंर न हो जाए! भला यह रामफटाका लगाए चिमटा खटकात कौन आ रहे हैं।? यह लम्पाटदास बाबा हैं। मोटाई में तो गणेश जी के बड़े भाइ ही जान पड़ते हैं! क्यों न हो-'रिन की फिकर न धन की चोट, यहु धमधूसर काहे मोंट'! न जाने यह वे मिहनत के मालपूए कहाँ जाते होंगे? यह न पूछो, जहाँ कोई सेवकी आयी-'ह हच्छा राधाराणी, ये बड़ी भगतिण हैं, बोल क्या इंछा है?'
"महाराज संतान नही होती।'
'संतान क्या लिए बैठे हैं?'
'हें हें बाबाजी, आप के वचनों से सब कुछ होता है। मेरी परोसिन के लड़का न होता था सो आप ही के ऐसे एक महात्माे की दया हुई, अब उसके दो खेलते हैं, आप जो करैं।"
'तेरी मणसा फलेगी रामासरे से। (हाथ देख के) संताण तो लिखी है पर किसी गिरही से नहीं दिक्खैह।'
'हें हें, फिर महाराज?'
'अच्छाे माई, विरक्तथ हैं पर क्या चिंता है-पर स्वाीरथ के कारणें संतण धरे शरीर। यह भी न सही तौ बालोपासना तो कागभुसुंड ऐसे महात्माद का धर्म ही है। धर्माधर्म का विचार तो किसी विद्वान को होता है, यहाँ तौ अपणे राम भगत ठहरे, हरे कृष्ण् गोविंद जाणते हैं। और पढ़कर क्या पंडिताई करणी है?' फिर पढ़ें भी तो इतना कि रामायण ऐसी उत्तम काव्यष से ऐसी-ऐसी बातें चुन रक्खीि हैं 'राम राम कहि जे जमुहाहीं। तिनहिं न पाप पुंज समुहाही'। फिर क्या डर है, सब के गुरू घंटाल गोस्वा मीजी की और भी विचित्र लीला है। कथा बाँचने के समय वह ग्रीवा की हलन, भौंहन की चजन, अंगुरिन की मटकन, कामदानी दुपट्टा के छोरन की लटकन, मंद-मंद मुसिकान, बीरो का चबान, घूंघर बारे-फलेल सों संवारै-भौरे से कारे-कारे केश, मदनमनोहर वेष, किस स्त्री अथवा पुरुष के मन को नहीं लुभाता? दशम स्कंरध में तो विहार वा विलास ही आदि शब्द लिखे होंगे जिनके कई उत्तम अर्थ भी हो सकते हैं पर आपरूप उसे बाहर इश्क ही (एक मसनवी कर दिखावेंगे! ऐसा न करैं तो वह नित नए पधरावने कैसे हों, ठाकुर जी की परिक्रमा में 'अहं कृष्णरशचत्वां राधा की कैसे ठहरे! हाय, इन्हींत स्वांशगों की बदोलत क्या-क्या अनर्थ हुए और होते जाते हैं, पर न जाने कब तक हमारे हिंदू भाई जीती मक्खीि लीलेंगे।
2- सब को स्वांहग बनाते हो, तुम किस से कम हो जो काले रंग पर भी कोई पतलून पहिन कर निरे गड्डानी ही बने जाते हो? ऊपरी बातों की नकल और अपनी बोली में कैट पैट मिलाने के सिवा अंग्रेजों का सा स्वीजाति हितैषी काम तो कोई भी न देखा। खरी कहाते हो, तुम्हाारे चचा साहब दयानंदी हैं, उन्हेंस भी मुहीं से धर्म-धर्म वेद-वेद उन्नलति-उन्नहति चिल्लांते पाया, करतूत कुछ भी न देख पड़ी। क्या हिंदू के बदले आर्य सलाम प्रणाम के बदले नमस्तेव कहना ही धर्म का मल वेद का तत्वन और उन्निति की सीढ़ी है? सच्चीम बातें चूना सी लगती हैं।
1- तुम्हा रे लगती होंगी जो जग उठे, यहाँ तो पहिले अपनी उतार लेते हैं तब दूसरे की पर हाथ डालते हैं। पर आप निहायत सच्चम कहते हैं। हम को, तुम को और सभी को अपने नाम की लाज रखना अति उचित है।
2- यार यह तो होता ही रहेगा, एकाध तान तो उड़ै।
1- हाँ हाँ, लीजिए, धी-धींता-धींता-धींता-होली।
कैसी होरी मचाई-अहो प्रिय भारत भाई।। आलस अगिन वारि सब फूँक्योंह विद्या बिभव बड़ाई। हाय आपने नाम रूप की निज कर धूरि उड़ाई।। रहे मुख कारिख लाई।। आपस में गारी बकि-बेकि कै कीन्हीं् कौन भलाई। महामूढ़ता के मद छाके हित अनहित बिसराई।। लाज सब धोय बहाई।। सर्बस खोय परे हो पर्बस तहूं न जात ढिठाई। भावी बर्तमान दुख शिर पर ताकी शंक न राई।। बुद्धि कैसी बौराई।। अबहू सुन हुरिहार की बिनती तजौ निपट हुरिहाई।। सांचे सुख को जतन करौ कछु नहिं रहिहौ पछिताई।। बीत जब औसर जाई।।
2- गाते हो कि रोते हो! तुम्हें और कुछ न आया, ले अब हमारी सुनो, अ र र र कबरी!
जहाँ राजकन्यगन के डोला तुरकन के घर जायं। तहाँ दूसरी कौन बात है जेहमाँ लोग लजायं।। भला इन हिजरन ते कुछ होना है।।1।। कहैं गऊ को माता तिन की दुरगति देखें रोज। लाज शरम और धरम करम का इन में नाहीं खोज।। भला इस हिंदूयन पर लानत है।।1।।
1- अरे यार, इन कोरी बातों में क्या है। देखा बहुत खेल चुके! अब खेलते-खेलते लस्त-पस्त हो चुके! तुम पर सैकड़ों घड़े पानी पड़ चुका, मुँह में स्या।ही लगी है, अब तो स्वुच्छ ता धारण करो, अब तो शुद्ध हो जावो! आओ हम तुम मिलें, दूसरों से भी मिलें और अपने-अपने काम से लगें। औरों से भी कहो, छोड़ो इन ढंगों को, इसी में सब का मंगल है।