हौसला / सेवा सदन प्रसाद

Gadya Kosh से
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ट्रेन जब देहरादून पहुंची तब रात के दो बज चुके थे। सविता ने तय कर लिया कि स्टेशन पर ही रात गुजार लेगी। अतीत जो उभर आया।

'इंटरव्यू' के लिए जब दिल्ली गई थी तो रात के बारह बज गये थे। हॉटेल की बुकिंग भी कर रखी थी - ऑनलाईन। - कोई सवारी नहीं मिली। होटल करीब ही था, अतः पैदल ही चल पड़ी। अचानक सिलसिलेवार घटनाऐं घट गई - पहले छेड़छाड़ फिर अपहरण और अन्ततः बलात्कार। जंगल की आग की तरह खबर पूरे हिंदूस्तान में फैल गई और मिडियावाले उस आग को हवा देते रहे। किसी तरह छुटकारा पाकर सविता लौट पड़ी कानपुर।

पर यह क्या? सब 'अछूत' की तरह व्यवहार करने लगे। सांत्वना के बदले मिली सिर्फ - नफरत। आखिर उसका कसूर क्या है? तब हिम्मत टूट गयी। मौत को गले लगाना सहज लगा। तभी मीना की याद आई. मोबाइल पर आंसू बहाकर थोड़ा जी हल्का कर लेना चाहा, पर मीना के शपथभरे वाक्य सुनाई पडे़ - "तुझे कसम है मेरी..., चली आ मेरे पास देहरादून, मैं सब संभाल लूंगी।"

सहेली के आश्वासन ने ऐसा हौसला प्रदान किया कि जीने की तमन्ना बुलंद हो गई.