‘अभ्युदय’ पर विपत्ति / गणेशशंकर विद्यार्थी
अभ्युदय' के जीवन-मरण का प्रश्न
हिंदी संसार इस समाचार को सुनकर चकित और खिन्न होगा कि उसके प्रतिष्ठित और उपयोगी पत्र 'अभ्युदय' पर इन प्रांतों की सरकार की भस्म कर देने वाली तीखी दृष्टि पड़ी है। प्रेस एक्ट के अनुसार 'अभ्युदय' से पूरे ढाई हजार की जमानत माँगी गयी है। इस कड़े जमाने में, जबकि भारतीय समाचार पत्रों की स्वाधीनता का गला घोंट देने के लिए कड़े से कड़े शिकंजों का जन्म होता जा रहा है, किसी पत्र पर जमानत की बिजली का गिरना कोई आश्चर्य या अपूर्व घटना नहीं है, परंतु हमें स्वप्न में भी इस बात की शंका नहीं थी कि 'अभ्युदय' का गला इस फाँसी में फँसेगा। हमारी यह धारणा केवल इसलिये न थी कि हमें 'अभ्युदय' के संचालकों की धीरता और बुद्धि पर विश्वास था, परंतु इसलिये भी थी कि उस घड़ी से, जबकि 'अभ्युदय' का जन्म हुआ, आज तक-हाँ, हम पूर्ण विश्वास के साथ कह सकते हैं कि आज तक-उसने अपने विचारों और अपनी कार्यशैली से राजा की उतनी ही सेवा की, जितना कि प्रजा की। देश के प्रति उसने भक्ति दर्शायी और भक्ति दर्शायी उसने सम्राट और शासन के प्रति भी। भूलने पर भी वे दिन नहीं भूलते, जब भारत में - 'अभ्युदय' उन दिनों नन्हें पौदे के रूप में प्रकट ही हुआ था - गरमागरमी और उथल-पुथल के भावों की लहर बह रही थी। अत्यंत उत्तेजना के समय में भी पूरी धीरता, शांति और देश-भक्ति के साथ जिन थोड़े से पत्रों ने गालियाँ खाते और बुराइयाँ सुनते हुए भी, राजा और प्रजा दोनों की यथेष्ट सेवा की थी, उनमें 'अभ्युदय' का एक विशेष स्थान था। उसके बाद, जब आवश्यकता पड़ी, 'अभ्युदय' उसी कर्मण्यता के साथ आगे बढ़ा और सर्वदा नियमबद्ध आंदोलनों का पक्ष लेते हुए उसने देश और अधिकारियों को यथोचित सलाहें दीं। अंत तक उसकी यही गति रही। हाल में उसका दैनिक संस्करण निकला था। दैनिक 'अभ्युदय' ने देश की सेवा की और देश की सेवा से बढ़कर की सरकार की सेवा। महीनों घाटा सहकर उसने वह काम किया, जो सरकारी प्रेस ब्यूरो के दस पत्र भी न कर सकते थे। बाजारी गप्पों और लोगों के भ्रम को दूर करने में उसने अधिकारियों का पूरा साथ दिया। परंतु आज उसकी धीरता, उसकी शांति, नियमबद्धता, उसकी कर्मण्यता और हितैषिता, उसकी देश-सेवा और उसकी राज-सेवा का यह गहरा 'पुरस्कार' मिलता है। 'पुरस्कार' की माया अगम्य है। बेचारा पृथ्वी पर चलने वाला प्राणी उसे क्या जाने!
जो होना था सो तो हो गया, अब क्या होना चाहिए? 'अभ्युदय' देश-सेवा के लिए निकला। उसने जो सेवा की, उसे सब जानते हैं, पत्रों के पाठक जानते हैं और जानता है हिंदी संसार। यह भी जानी हुई बात है कि उसे सालों घाटा सहना पड़ा और उसका दैनिक संस्करण घाटे ही के कारण बंद हुआ। हमें मालूम है कि 'अभ्युदय' की आर्थिक दशा अच्छी नहीं और उसके संचाक जमानत का रूपया सरकारी खजाने में नहीं पहुँचा सकते, परंतु जमानत का रूपया खजाने में न पहुँचना एक बड़ा ही भयंकर अर्थ रखता है। उसका अर्थ है कि 'अभ्युदय' बंद हो जायेगा, 'मर्यादा' बंद हो जायेगी, अभ्युदय प्रेस से उच्च और अच्छा साहित्य निकालना बंद हो जायेगा। उसके अर्थ हैं कि हिंदी साहित्य-क्षेत्र का एक बड़ा ही उपयोगी खंड विध्वंस हो जायेगा और हिंदी-संसार के माथे पर एक टीका लग जायेगा, किसी यश का नहीं, कृतघ्नता और कलंक का। उसके अर्थ हैं कि उच्च भावों और नवीन जीवन का एक स्रोत बंद हो जायेगा और उसको चुपचाप बंद होते देखने पर निश्चेष्ट बैठे रहने वालों पर कोई शाप नहीं लगेगा, परंतु उसी क्षण से, अकर्मण्यता की उसी घड़ी से उनके हृदय पर एक छाप लग जायेगी- नपुंसकता की और निर्जीवता की और क्रूरता और मूर्खता की। हम हिंदी संसार से पूछते हैं कि ऐसे अवसर पर वह क्या करना चाहता है? यदि वह चुप रहा, यदि उसने अकर्मण्यता का पल्ला पकड़ा तो उसे मालूम होना चाहिये कि न केवल उसने 'अभ्युदय' और अपने हृदय की हत्या कर दी, परंतु हम कहेंगे और पूरे जोर के साथ कि उसने अपने भविष्यत् की भी हत्या कर दी। कोई नहीं कहता कि हमारी जेबें अपने धन से भर दो, कोई नहीं कहता कि हमारी पूजा और अर्चा करो, परंतु यदि हृदय है तो यह तो समझ लो कि जब हमारे प्राण तुम्हारी सेवा में जाते हों, तो उनके बचाने का उपाय करना तुम्हारा कर्तव्य है। यदि इस बात के समझने के लिए भी हृदय नहीं है तो, कर्तव्यशून्यता और कृतघ्नता के देवता, बताओ तो सही, किस बिरते पर कोई तुम्हारे चरणों को चापे!
पाठको, तुमसे हमारी एक प्रार्थना है और यह प्रार्थना है, विशेषकर उन पाठकों से जो युवक हैं, जिनके हृदय किसी तुषार की मार से मर नहीं गये, जो देश से प्रेम और उसका सम्मान करना जानते हैं और साहस और दृढ़ता के साथ कठिनाइयों का सामना करना अपना कर्तव्य मानते हैं। प्रिय युवक! यदि 'अभ्युदय' का अंत हो गया, तो याद रखो, उसकी मृत्यु का कलंक तुम्हारे ही सिर रहेगा, क्योंकि गये-गुजरे मिट्टी और पत्थर उत्तरदायित्व के समय बेजबान होने का ढोंग रचेंगे, परंतु तुम-तुम, जिनके हृदय में नवजीवन की लहर हिलोरें मारती है - कोई भी ऐसा बहाना पेश न करोगे और न कर ही सकते हो। नवजीवन और कर्मण्यता का पवित्र संदेश सुनाने वाली एक शक्ति का ह्रास हो जाय और तुम चुप बैठे रहो! कर्तव्यपरायणता तुम्हें अवकाश दे और तुम उसकी अवहेलना करो! तुमसे ऐसी निर्जीवता की आशंका नहीं, क्योंकि सारी आशाएँ तुम्हीं पर केंद्रित हैं और दुर्भाग्य है उस देश का जो मुरदों से कुछ और कोई आशा करे। इस अवसर पर तुम तनिक भी निश्चेष्ट नहीं होगे, नहीं, निश्चेष्ट नहीं रह सकते और यह न केवल इसलिए कि तुम अपने भावों के स्रोत की रक्षा करोगे, किंतु इसलिए कि ऐसे अवसर की चूक तुम्हारे नैतिक बल को ऐसा गहरा धक्का मारेगी- तुम्हें इतना नीचे गिरा देगी कि उससे पनपने के लिए तुम्हें कितनी ही शताब्दियों की आवश्यकता पड़ेगी। तो, बतलाओ, कौन-सा मार्ग तुम चुनते हो? ऊपर उठने का, या नीचे गिरने का? अपने मुहल्ले में भीख माँग कर, अपने मित्रों से चंदा लेकर, अपने हितैषियों से रकमें लेकर 'अभ्युदय' की जमानत की रकम पूरी करने का पूरा प्रयत्न करके अपनी उन्नति का, या अल्प कठिनाइयों के सामने पूरी नीचता के साथ गर्दन झुकाकर लोगों को अपने भाव, अपनी दृढ़ता और अपने बल पर कहकहा लगाने का अवसर देने का? मुस्लिम पत्र मुस्लिम भावों की अपील करके अपने मित्रों से इतना चंदा पा लें कि उनकी बड़ी से बड़ी जमानत दी जा सके और तुम-तुम जो राष्ट्रीयता का दम भरते हो और उच्च और महान् भविष्य के स्वप्न देखने वाले हो - अपने भावों के लिए उतनी सच्चाई, उतना प्रेम और त्याग भी न प्रकट कर सको। आह! यदि तुम ऐसे हो, तो तुम पर देश गर्व नहीं कर सकता! आह! यदि तुम ऐसे हो, तो मातृभूमि उस घड़ी को बड़ी ही अशुभ समझेगी, जब तुम ऐसे कृत्रिमता-प्रेमी उसकी कोख में आये थे। परंतु नहीं, हम नहीं समझते कि तुम ऐसे हो और हम उस समय तक यह भी नहीं कह सकते कि तुम कैसे हो, जब तक तुम इन शब्दों के पढ़ते ही हमें सूचित न करो कि तुमने 'अभ्युदय' के लिए क्या विचार और किस प्रकार अपना कार्य आरम्भ कर दिया?