‘आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा’: प्रेमकथा के शिल्प में स्त्री-यातना का महाख्यान / रवि रंजन

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“आँसुओं से शर्मिंदा होने की कोई ज़रूरत नहीं थी, क्योंकि आँसू गवाही देते थे कि एक आदमी में सबसे बड़ा साहस था, कष्ट सहने का साहस। " - विक्टर ई. फ्रेंकल: ‘मैन्स सर्च फॉर मीनिंग’

“मछली खाओगी लेकिन काँटा नहीं यह कैसे होगा,मछली खानी है तो काँटा भी खाना होगा,गले में काँटा लगने पर पानी नहीं, भात का एक गोला निगल लो,काँटा धीरे-धीरे नीचे खिसक जाएगा। कुछ मान-अपनान ऐसे होते हैं जो कांटे की तरह चुभते रहते हैं जीवन भर। । । हम जीना सीख जाते हैं उसी चुभते-गड़ते काँटे के साथ। ” -गरिमा श्रीवास्तव: ‘आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा’(पृष्ठ। 182)

साहित्यिक कृतियों के विवेचन-विश्लेषण के क्रम में सबसे बड़ी समस्या उन प्रविधियों के अनुप्रयोग को लेकर पैदा होती है जिन्हें बड़े संदृष्टि-सम्पन्न विचारक-आलोचक वर्षों की मेहनत से विकसित करते हैं और अपने समय का सांस्कृतिक स्मारक कही जाने वाली कला-कृतियों की व्याख्या के क्रम में लगातार उन्हें निखारते हैं। किन्तु, कालान्तर में जब कोई भिन्न आस्वाद एवं संरचना में अनुस्यूत कृति प्रकाशित होती है तो विद्वानों के काम में आने वाली वे सारी युक्तियाँ और आलोचनात्मक तर्क नयी रचना की सम्यक व्याख्या के क्रम में अपर्याप्त प्रतीत होने लगते हैं।

सुपरिचित लेखक-आलोचक गरिमा श्रीवास्तव की ‘आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा’ उपन्यास समेत कुछ अन्य उल्लेखनीय रचनाकारों के औपन्यासिक कृतियों को समझने-समझाने में उपन्यास की सैद्धांतिकी को लेकर लिखित विश्वप्रसिद्ध पुस्तकें बहुत दूर तक हमारी मदद नहीं करतीं। ऐसे में ज़रूरी हो जाता है कि विवेच्य कृति की आत्मा में प्रवेश करके उन बिन्दुओं की शिनाख्त की जाय जो पूर्ववर्ती उपन्यासों की वैधानिक एवं भाषिक संरचना से उसे अलगाती हुई एक नया पाठकीय आस्वाद विकसित करती है। कहना न होगा कि ऊपर कथित ‘नया आस्वाद’ के मूल में नयी अनुभूति हुआ करती है, जो एक नई विश्व-दृष्टि से पैदा होती है। जीवन-जगत के प्रति यह सर्जनात्मक संदृष्टि स्वभावत: पीढ़ी-दर-पीढ़ी बदलती चली जाती है और इससे उत्पन्न वस्तु-विन्यास को अपनी अभिव्यक्ति के लिए नए रूप-विन्यास की दरकार होती है।

‘प्रेम’ आरम्भ से हिन्दी समेत विश्व-साहित्य का एक नाभिकीय संवेदन-बिंदु रहा है। किन्तु,रचनाशीलता के क्षेत्र में कालान्तर में इसका स्वरूप लगातार बदलता रहा है। औपन्यासिक लेखन को केंद्र में रखकर इस मुद्दे पर बहुत पहले विजयमोहन सिंह ने ‘हिन्दी उपन्यासों में प्रेम की परिकल्पना’ पुस्तक में विस्तार से लिखा था। पर तब से लेकर अब तक बीज भाव के रूप में प्रेम की कुछ बुनियादी विशेषताओं को छोडकर उसका स्वरूप परिवर्तित हो चुका है।

गरिमा श्रीवास्तव स्त्री-यातना की कथाकार और आलोचक हैं। उनकी रचना ही नहीं, बल्कि आलोचना में भी भारत समेत विभिन्न देश-काल में स्त्री-यातना को परत-दर-परत उधेड़ने की सर्जनात्मक जद्दोजहद दिखाई पड़ती है। ‘आउशवित्ज़ : एक प्रेम कथा’ उपन्यास में स्त्री-यातना के अनछुए पहलुओं को समेटकर पुनर्रचित करने की रचनात्मक बेचैनी है। इस कृति में जहाँ एक ओर ‘आउशवित्ज़’ से जुड़े दिल दहला देने वाले प्रसंगों के साथ ही यदि प्रेम का वैश्विक स्वरूप उभर कर सामने आता और तो दूसरी ओर उसमें एक स्थानीयता भी है जिसका ‘लोकेल’ भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन की प्रक्रिया से गुज़र रहा बंगलाभाषी पूर्वी पाकिस्तान है।

विवेच्य उपन्यास की संरचना इकहरी के बजाय दोहरी है,क्योंकि रचनाकार ने विलक्षण ढंग से कथा-निर्माण की प्रकिया को दो-तीन स्तरों पर पुन:सृजित करने के बावजूद उसे इस कदर परस्पर गूँथकर पेश किया है कि कदाचित असावधान पाठक भी कथा-विकास की पगडंडी पकड़कर पोलैंड से ढाका या कोलकाता पहुँच जाने पर असहज महसूस नहीं करेगा।

उपन्यास का आरंभ किसी अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में भागीदारी के दौरान उपन्यास की वाचक प्रतीति सेन की भारत आयी सबीना स्केमित्ज़ नामक एक पोलिश सैलानी स्त्री से आकस्मिक मुलाक़ात के क्रम में उसके मानसिक ऊहापोह से दो-चार होने के प्रभावशाली चित्रण से होता है। उपन्यास में प्रतीति सेन कनफ्लिक्ट क्षेत्रों पर शोध करने वाली जादवपुर विश्वविद्यालय की प्रोफ़ेसर बताई गयी है, जिसके शब्दों में “सबीना वह दरवाज़ा थी जिसकी दरार से मैंने उसके जीवन की ओर झांका। और जीवन ही क्यों उसके देश को भी तो। ”

वस्तुत: प्रतीति सेन के अंतर्मन में भी ‘कनफ्लिक्ट’ है। उसका कहना है कि “हम खुद से कितना गाफ़िल रहते हैं। अपने मन को ही समझ नहीं पाते। इतना पढ़-लिख लेने के बाद भी मेरे भीतर की स्त्री का मन क्या उन्नत हो पाया ?... कितना कठिन होता है खुद को संभालना, दूसरे को संभालने से कई गुना कठिन। नदी के इस पार खड़ी हुई मैं जीवन के सारे झंझावातों से अक्सर गुज़रा करती हूँ जिनके झोंके उस कम उम्र में झेलने शायद आसान थे,क्योकि समझ कम थी। उम्र ने ऊपरी तौर पर तो बहादुरी के साथ अपने आप को संभालना सिखा ही दिया। । । अम्मा ने बहुत क़ायदे से पाला है मुझे,सारी दुनिया का सामना करने के लिए तैयार किया है। क्या टूट ही जाउंगी एक टुच्चे प्रेम के असफल होने पर,और वो प्रेम भी क्या जो प्रिय के मन को न समझे। । । मैंने ही प्रेम को जीवन से निकाल फेंका ज्यों वह नासूर हो, नासूर ही सा तो टीसता है आज भी। लेकिन यह सब सुनने वाला कोई है क्या?” (पृष्ठ 8)

प्रेम की विफलता के इस मर्मान्तक बोध का आख्यान रचते हुए उपन्यासकार ने जगह-जगह अपनी सांद्र अनुभूति को तरल और सम्प्रेषणीय बनाने के लिए रवीन्द्रनाथ समेत कुछ बड़े और उल्लेखनीय कवियों की रचनाओं का यथास्थान इस्तेमाल किया है,जो कि उपन्यास –लेखन के क्षेत्र में नया प्रयोग है। वस्तुत: लेखन के क्रम में रचनाकार की संवेदना जब व्यापकता और गहराई के चरम बिंदु का संस्पर्श करने लगती है तो उपन्यास में बँगला, हिन्दी या उर्दू की कोई कविता-पंक्ति आती है जो पाठक की भावभूमि को संतृप्त करती है। कहने की ज़रुरत नहीं कि विशेषकर बंगला कविता का उपन्यास लेखन के दरम्यान ऐसा रचनात्मक प्रयोग हिन्दी में दुर्लभ है।

‘मेरे प्राण जिसे चाहते हैं वो तुम्हीं हो’ (‘आमारे पारानों जहाँ चाहे तुम्हीं ताई गो’- टैगोर) उपशीर्षक के अंतर्गत रचित उपन्यास के शुरुवाती अंश ही शिद्दत के साथ इसके प्रेमकथा होने का अहसास करा देते हैं। पर यह प्रेमकथा इकहरी नहीं है। इसमें असफलता की पीड़ा है तो प्रेम में असफल हो जाने के बाद स्त्री के स्वतंत्र एव दृढ़ व्यक्तित्व के विकास का आख्यान भी है। दोषारोपण करके खुद को पाक़-साफ़ साबित करने की हड़बड़ी की जगह इसमें दूसरे पक्ष की परिस्थितिगत बाध्यताओं के स्वीकरण का नैतिक साहस भी है और अंतत: उन अमानवीय घटनाओं का दर्दनाक गत्वर चित्रण भी जो अंतर्दृष्टि सम्पन्न लेखकीय कैमरे में वह सब कुछ क़ैद कर लेता है। इस चित्रण का आधार ऐतिहासिक स्मृति का सर्जनात्मक अनुप्रयोग है जिसमें एक स्त्री के माध्यम से जेंडर आधारित एक पूरे सामाजिक समूह की व्यथा-कथा बाँच देने की प्रबल आकांक्षा है।

उपन्यासकार को आनन-फ़ानन में कथा को आगे बढ़ाने की कोई ज़ल्दी नहीं है। वह मानवीय संवेदना के रेशे-रेशे को उधेड़ने और पुनर्रचित करने की कला में पारंगत है। इसीलिए उपन्यास के पात्र जितना बाहर देखते हैं ,उससे कहीं ज्यादा आत्मालोचन करते हैं। उदाहरण के लिए जिस अभिरूप के प्रेम में प्रतीती आपादमस्तक डूबी हुई है उसे ‘टुच्चा’ कहने के लिए जो निस्पृहता चाहिए,वह उसके भीतर रचनाकार ने पैदा कर दिया है। किन्तु,इस कड़वे सच का दूसरा पहलू यह भी है कि ‘अनफ्रेंड का बटन दबाकर’ प्रतीति के लिए उस टुच्चे प्रेम से बाहर निकल आने के बावजूद अभिरूप को भुला देना लगभग असंभव है।

याद रहे कि भारतीय उपन्यास की स्वकीय संरचना के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कभी आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा था कि “उपन्यास को काव्य के निकट रखनेवाला पुराना ढाँचा एकबारगी क्यों छोड़ा जाए ? उसके भीतर हमारे कथात्मक गद्य-प्रबंधों (जैसे-कादम्बरी, हर्षचरित) के स्वरूप की परम्परा छिपी हुई है। योरप उसे छोड़ रहा है,छोड़ दे। यह कुछ आवश्यक नहीं कि हम एकदम हर क़दम उसी के पीछे-पीछे चलें। ”

विवेच्य उपन्यास भी हिन्दी में एक हद तक भारतीय उपन्यास का नया मॉडल पेश करता है जो पश्चिमी उपन्यासों के संरचनागत वैशिष्ट्य की नकल करते हुए लिखित अनेक हिन्दी उपन्यासों से भिन्न भारतीय आख्यान परम्परा के निकट है। गरिमा श्रीवास्तव ने इस कृति को रचने के दौरान अपने पूर्ववर्ती उपन्यासकारों के कथा-शिल्प से इसे एक हद तक मुक्त करते हुए उसमें कुछ नया जोड़ा है। उनका रचनाकर्म इस बात का पुख्ता सबूत पेश करता है कि स्त्री-जीवन के यथार्थ को पुनर्रचित करने की एक बँधी-बँधाई शैली नहीं होती।

यह ठीक ही कहा गया है कि यथार्थवाद कोई शैली नहीं,बल्कि जीवन-दृष्टि है। विवेच्य कृति में इस जीवन-दृष्टि के तहत किया गया यथार्थ-चित्रण इसलिए सार्थक है,क्योंकि यदि एक ओर वह कल्पना की ऐन्द्रिकता या रोमांच की परिणति तक पाठक को पहुँचाने में समर्थ है तो दूसरी ओर इसमें कल्पना को इस कदर रचा गया है कि वह यथार्थ प्रतीत होने लगती है। समकालीन हिन्दी उपन्यास-लेखन की प्रचलित परिपाटी से विलग यह नया आख्यान है जो सतही तौर पर भावुकता के कलेवर के भीतर नए यथार्थ को प्रकट कर रहा है।

सच तो यह है कि प्रत्येक श्रेष्ठ कृति एक ‘राउन्डेड होल’ होती है और इसके लिए ज़रूरी है कि उसके पात्र सपाट के बजाय जटिल और संजीदा पात्र हों। याद आ सकती हैं जार्ज इलियट,जिन्होंने अपने उपन्यास ‘एडम बीड’ (1895) में सपाट चरित्रों के बारे में लिखा है कि “दुष्ट चरित्र सदा आपत्तिजनक आचरण करें और अच्छे चरित्र हमेशा सदाचरण करें तो वे सपाट चरित्र होंगे। ” उनका मानना है कि लेखक अपनी कृति में जबतक जीवंत चरित्रों का अनुप्रवेश नहीं करवाता तबतक कोई भी रचना कला की ऊँचाई के संस्पर्श से वंचित रह जाने के लिए अभिशप्त होगी। वे यह भी कहती हैं कि ‘उपन्यास में मनुष्य को उसी रूप में पुनर्रचित करना ज़रूरी है जैसे कि प्राय: वे होते हैं। इनकी टेढ़ी नाक सीधी नहीं दिखाई जानी चाहिए। ’

मनुष्य को ठीक ही उपलब्द्धि और संभावना का मिश्रण कहा गया है। उपलब्द्धि का संबंध जहां अतीत और वर्तमान से है वहां संभावना भविष्य का संकेत देती है। हम जानते हैं कि अच्छे से अच्छे आदमी में कुछ दुर्बलताएँ होती हैं और बुरे आदमी के भीतर भी कोई न कोई अच्छाई हुआ करती है। इस वास्तविकता के मद्देनज़र जब कलाकार जनजीवन से उठाकर कलाकृति में चरित्रों की सृष्टि करता है तो वे चरित्र जीवंत और ज़्यादा विश्वसनीय प्रतीत होते हैं। कृति में प्रसंगानुकूल छोटे-मोटे सपाट चरित्र तो हो सकते हैं,पर मुख्य पात्र जीवंत होने ही चाहिए। पात्रों की जीवन्तता इस बात पर भी निर्भर करती है कि वे अपने परिवेश से सम्बद्ध मुहावरे का इस्तेमाल करते हैं या नहीं। विवेच्य उपन्यास में परिवेश के अनुकूल जो जीवंत कथा-भाषा मिलती है उसे लेखक ने पात्रों की जिंदगी से छांटकर उठाया है। कथा जिन स्त्री—पुरुष युग्म-पात्रों के माध्यम से आगे बढ़ती है वे हैं- प्रतीति और अभिरूप, द्रौपदी देवी (जो बाद में परिस्थितिवश रहमाना ख़ातून हो जाती हैं) और बिराजित सेन तथा पोलिश स्त्री सबीना और उसकी माँ। उल्लेखनीय है कि उपन्यास में इस वजह से वह अनेकस्वरता पैदा होती है जिसे मिखाइल बख्तिन ने ‘डायलोगिक क्रिटिसिज्म’ के प्रसंग में विचार करते हुए श्रेष्ठ रचना का एक अनिवार्य लक्षण माना है।

उपन्यास में सर्वाधिक जटिल पात्र प्रतीति सेन है। उसका अपने बारे में बयान है: “मेरा ‘मैं’ मुझसे छिटका हुआ पड़ा है। कह नहीं सकती कब से ! जैसे कि मेरे भीतर की प्रतीति सेन के दो हिस्से हैं या शायद इससे भी ज्यादा। मैं अपने-आपको एक साथ कितनी जगहों पर पाती हूँ। अम्मा को लिखती हूँ तो ख़ुद ही रहमाना ख़ातून हो जाती हूँ। सबीना से मिलती हूँ तो उसकी आँख का आँसू मेरे गले की हिचकी बनकर अटक जाता है। । । दूर-दूर तक मेरा अपना कोई नहीं है। फिर भी भरी काली रात में आकाश को अकस्मात आच्छादित कर देने वाले मेघों की गंध का पता मेरी नींद को कैसे लग जाता है। ”(पृष्ठ 125)

प्रतीति सेन में रचनाकार के व्यक्तित्त्व का प्रक्षेपण ढूंढनेवाला कोई मासूम पाठक जब द्रौपदी देवी से रहमाना ख़ातून बन चुकी बिराजित सेन की पूर्व पत्नी से परिचित होता है तो एक झटके के साथ उसका विभ्रम दूर हो जाता है। सच तो यह है कि प्रतीति सेन कई बार अपनी नानी रहमाना ख़ातून का आल्टर-इगो लगती है। इतना ही नहीं,रचनाकार ने पोलिश सैलानी सबीना को भी बहुत तल्लीनता के साथ रचा है। उपन्यास के पुरुष पात्रों में अभिरूप वस्तुत: बिराजित सेन के व्यक्तित्व का ही उत्तर-आधुनिक विस्तार प्रतीत होता है। इन पाँच पात्रों के माध्यम से लेखिका ने जिस तरह से इतिहास को कथात्मक बनाया है उसके मूल में निहित इतिहास गाथा के बजाय इतिहास का साहित्य-सृजन के दौरान इस्तेमाल करने वाली स्त्री-दृष्टि ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है। दूसरे शब्दों में कहें तो साहित्यिक कृतियों में इतिहास-दृष्टि होती है,पर कोई रचनाकार जब सुपरिचित ऐतिहासिक घटनाओं को उपन्यास का विषय बनाता है तो उसकी रचनात्मक चुनौती बढ़ जाती है। ‘आउश्वित्ज: एक प्रेमकथा’ उपन्यास में गरिमा श्रीवास्तव ने स्त्री के नज़रिए से इस रचनात्मक चुनौती का सामना करते हुए जो गल्प रचा है वह इतिहास की सूचनात्मक और इतिवृत्तात्मक जकड़बंदी को तोड़कर एक ऐसा सर्जनात्मक पाठ बन पड़ा है जो हमारी संवेदना को झकझोर देने में समर्थ है।

उपन्यास में लेखिका ने आउशवित्ज़ के जातीय नरसंहार के साथ ही बंगलादेश के मुक्तिसंग्राम की बारीक छानबीन करते हुए उन अछूते पहलुओं को आख्यान का विषय बनाया है जिनके बारे में इतिहास लगभग चुप है। आम तौर पर इतिहास की पुस्तकों और लेखागार आदि से प्राप्त विवरण के आधार पर हम जानते हैं कि आउशवित्ज़ का भयावह नरसंहार मानवता के नाम पर कलंक है और बांगलादेश के मुक्तिसंग्राम में पश्चिमी पाकिस्तान की सेना ने पूर्वी पाकिस्तान की बेकसूर जनता पर अमानुषिक अत्याचार किया था,पर भारतीय सेना ने पाक फौज के लाखों सैनिकों को आत्मसमर्पण करने के लिए बाध्य कर दिया और दुनिया के नक्शे पर एक नये राष्ट्र के रूप में बांगलादेश का उदय संभव हुआ।

इस उपन्यास में यहूदियों और खासकर यहूदी स्त्रियों को दी गयी यातना से गुजरते हुए ‘द सिटी विदाउट ज्यूज़’ उपन्यास का अनायास स्मरण हो आता है जिसके प्रकाशन के बाद इस कृति की लोकप्रियता से घबराकर नाज़ी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने लेखक की हत्या कर दी थी।

‘आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा’ में पहली संज्ञा थियोडोर अडोर्नो के महाग्रंथ ‘नेगेटिव डायलेक्टिक्स’ की भी याद दिलाती है जिसके बारे में कहा जाता है कि यह एक ऐसा दर्शन है जो अवधारणाओं, वस्तुओं, विचारों और भौतिक जगत के बीच प्रचलित परस्पर सम्बन्ध को पुन:समायोजित करता है। वैसे तो ‘आउशवित्ज़’ एक स्थान का नाम है,पर यहूदी समुदाय के साथ-साथ मानवतावाद के बुनियादी सिद्धांतों के पैरोकारों की क्षत-विक्षत चेतना में यह ‘होलोकास्ट’ से जुड़ा हुआ है जिसकी खौफ़नाक छाया अडोर्नो की सम्पूर्ण पुस्तक में अपनी सारी ट्रैजिक सघनता के साथ अनुस्यूत है।

गरिमा श्रीवास्तव द्वारा रचित इस औपन्यासिक तानेबाने में सघन प्रेम की तरलता के साथ उपरोक्त ‘ट्रैजिक सघनता’ की अंत:क्रिया आदि से अंत तक सजग पाठकों को कथारस में डूबने-उतराने के लिए बांधे रखने में समर्थ है। स्पष्ट ही बंगलादेश के मुक्ति-संग्राम के दौरान हुई जातीय हिंसा का लोमहर्षक चित्रण इस कृति को एशियाई संदर्भ प्रदान करता है।

‘आउशवित्ज़’ दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान हिटलर द्वारा यहूदियों के समूल विनाश के लिए बनाये गए कैम्पों में से सबसे ख़तरनाक कैम्प था। वहाँ जो घटनाएँ घटीं वे इतिहास का विषय हैं जिसके बारे में अब वास्तविक आंकड़े और दस्तावेज़ मिलते हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि कोई भी रचनाकार इतिहास के सम्यक बोध के बिना इतिहास को पुनरुज्जीवित नहीं कर सकता। विवेच्य कृति में मौजूद शोध और आंकड़ों का उल्लेख उपन्यासकार के इतिहास-बोध को अधिक प्रामाणिक और पुख्ता साबित करता है।

यह उपन्यास इस बात का प्रमाण है कि शोध और ‘फ़ील्ड वर्क’ सिर्फ शोधार्थी ही नहीं, ऐतिहासिक-समाजशास्त्रीय कल्पना से लैस साहित्यकार भी करता है। किन्तु, आंकड़ों को अगर वह ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर दे तो रचना यांत्रिक होगी और वह कलाकृति कहलाने की अधिकारिणी नहीं होगी,क्योंकि तब वह समाजविज्ञान की श्रेणी में रखी जायेगी। जब ऐतिहासिक तथ्य लेखकीय चेतना का हिस्सा बन जाते हैं और रचनाकार की कल्पना-शक्ति अपने ढंग से उसे राह दिखाने लगती है तब आंकड़े महज़ आंकड़े न रहकर जीवंत और सर्जनात्मक दस्तावेज़ बन जाते हैं। ‘आश्वितज़:एक प्रेम कथा’ में सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे के अंदाज़ में लेखकीय कल्पना कब आंकड़ों के साथ मिलकर कथा का ताना -बाना बुन लेती है, यह सावधान पाठक को भी पता नहीं चलता।

इस उपन्यास में युद्धकालीन और युद्दोत्तर यूरोप में हुए जातीय नरसंहार के साथ ही बंगलादेश के मुक्ति संग्राम के दौरान हुई भयानक जातीय हिंसा का प्रमाणिक चित्रण भी है। लेखिका ने कथा-प्रसंग के अनुरूप पात्रों का सृजन किया गया है, आंकड़े इकट्ठे किये हैं और उनका संवेदना के स्तर पर संश्लेषण करते हुए रूपायित किया है कि भारतीय उपमहाद्वीप समेत विश्व के कई समाजों में स्त्रियों –बच्चों के लिए स्थितियाँ दमघोंटू हैं, जिन्हें आउशवित्ज़ के समकक्ष रखा जा सकता है। यह ठीक उसी तरह है जैसे 1857 की ‘म्युटिनी’ विद्याधर नायपॉल के यात्रा वृतांत में ‘इण्डिया:अ मिलियन म्युटिनीज नाउ’ के रूप में रच दी गयी है।

‘आउशवित्ज़:एक प्रेमकथा’ सरीखे उपन्यास का सृजन ज़िंदगी का मक़सद खोजते हुए ही संभव है। यह परंपरागत अर्थों में प्रेमकथा नहीं है । लेखिका ने कई प्रसंगों के चित्रण-क्रम में संदेश दिया है कि यदि हमारे जीवन में कोई उद्देश्य है तो उसके लिए हम कठिन से कठिन हालात में जीते हैं। ऐसे में हमें जीवन की कठिनतम परिस्थितियों में भी जीवन का राग अपनी ओर खींच लेता है।

उपन्यास में आउशवित्ज़ के कैम्प का लोमहर्षक चित्रण है, जहाँ अपनी रिसर्च के सिलसिले में प्रतीति सेन जाती है । यह आउशवित्ज़ सिर्फ़ श्रमिक कैम्प या गैस चेम्बर नहीं है,बल्कि यह अनेक ज़िदगियों का सच है। दूसरी ओर बंगलादेश में प्रतीति सेन की नानी रहमाना ख़ातून के लिए धर्म परिवर्तन और अपने पति -परिवार से टूटकर अलग रहना विवशता की पराकाष्ठा है जो स्त्री होने के कारण उपजी विवशता है। वह पति का प्रेम कभी नहीं भूली ,भूल ही नहीं पायी और वापस कलकत्ते जा भी नहीं पायी। प्रतीति ने और सबीना ने प्रेम किया लेकिन सबके अपने -अपने अपने गैस -चेंबर थे,जिनसे बाहर निकलने का एक ही रास्ता है -मनुष्यता की ओर लौटना ,मनुष्य में विश्वास करना ,बार –बार छले जाने पर भी बृहत्तर मनुष्यता में अपनी आस्था को बनाये रखना।

अपने पास-पड़ोस से लेकर वैश्विक परिघटनाओं की ओर से आँखें मूँदे विकसित एवं विकासशील देशों के खुशहाल समुदायों के बुद्धिजीवियों को याद दिलाना ज़रूरी है कि युद्ध और अमानुषिकता से आछन्न इस विश्व में आये दिन प्रेम के बदले हत्या ,धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर मार -काट, नस्ल के नाम पर भेदभाव, शोषण, पाशविकता आदि की भयावह खबरें किसी भी संवेदनशील मनुष्य का कलेजा चाक कर देने के लिए काफी हैं। ग़रीब ही नहीं,बल्कि हमारे समय में भी कई बार उक्रेन जैसे सुखी-सम्पन्न देश मिसाईल से ज़मींदोज़ किए जा रहे हैं और गोद में भूख से बिलबिलाते बच्चे को ज़िंदा रखने के लिए रोज़ औरतें मरती हैं। इतना ही नहीं, हथियारों के विश्वव्यापी व्यापार (वार इकॉनमी) और पर्यटन के नाम पर देह व्यापार के बल पर कई देशों की अर्थव्यवस्था टिकी हुई है जहाँ शिक्षा और रोज़गार में बराबरी के अवसर कागज़ी हैं और औरतों -बच्चों की खरीद-ओ-फ़रोख्त जारी है।

मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो ‘अपने दुखों को तमगों-सा पहन लेना’ आसान है, लेकिन मुश्किल है अपनी करुणा,प्रेम का क्षेत्र विस्तृत कर देना जिसकी कोई सीमा न हो,जो प्रचलित अर्थों में प्रेम ,बाल -बच्चे ,घर-गृहस्थी से आगे बढ़कर प्राणिमात्र से प्रेम करे, अपने प्रेम का विस्तार वह समूची मानवता में देखे और जो अपराधियों को क्षमा इसलिए करे क्योंकि उसके भीतर अब किसी के लिए घृणा का लेशमात्र नहीं बचा है।

आलोच्य उपन्यास से गुजरते हुए बंगलादेश के मुक्तिसंग्राम के दौरान हुई तबाही-बर्बादी और ख़ास तौर से स्त्रियों की दुर्दशा पर केन्द्रित महुआ माजी के ‘मैं बोरिशाइल्ला’ उपन्यास के साथ ही याद आ सकते हैं ‘मैन्स सर्च फॉर मीनिंग’(1946) जैसी आत्मकथात्मक औपन्यासिक कृति के रचनाकार और पेशे से चिकित्सक रहे विक्टर ई। फ्रान्कल, जो ख़ुद आउशवित्ज़ यातना-कैंप के क़ैदी थे। इस विश्वप्रसिद्ध रचना में एक जगह विक्टर फ्रान्कल आदमी के दुःख और गैस की प्रकृति के बीच सादृश्य निरुपित करते हुए कहते हैं कि “यदि किसी खाली कक्ष में पम्प से एक ख़ास मात्रा में गैस भर दिया जाए तो वह कक्ष के बड़ा या छोटा होने के बावजूद सम्पूर्ण चैंबर में वैसे ही पूरी तरह भर जाता है जैसे छोटा या बड़ा दुःख मनुष्य की आत्मा और चेतन मन में। इसलिए मनुष्य के दुःख का बड़ा या छोटा होना बेमानी है। ” एक अन्य स्थान पर वे ‘दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना’ के अंदाज़ में लिखते हैं कि दुःख जिस क्षण कोई अर्थ प्राप्त कर लेता है तब वह दुःख नहीं रह जाता। (“In some ways suffering ceases to be suffering at the moment it finds a meaning, such as the meaning of a sacrifice। ”)

फ्रान्कल ने अपनी कृति में जहाँ दोस्तोवस्की के उस पर्यवेक्षण को विस्तार दिया है जिसके तहत यह कहा गया है कि मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो किसी भी स्थिति में रहने का आदी बन सकता है, पर यह न पूछा जाए कि वह ऐसा कैसे कर पाता है। ‘यातना कक्ष के अनुभव’ शीर्षक अध्याय में विक्टर फ्रान्कल ने जिन्दगी के मक़सद की तलाश के लिए कठिन से कठिन परिस्थितियों में पीड़ा सह सकने की मनुष्य की क्षमता पर निर्भर ‘लोगोथेरापी’ कहे जाने वाले भविष्य पर केन्द्रित मनोचिकत्सकीय दृष्टिकोण के अनुप्रयोग हेतु यातना भोगते हुए व्यक्ति द्वारा सजगता के साथ तात्कालिक भौतिक परिस्थितियों से स्वयं को विलग महसूस कर सकने की प्रक्रिया का गल्प रचा है।

ज़ाहिर है कि गरिमा श्रीवास्तव ने कंसंट्रेशन कैंप में चरम यातना भोग चुके कैदियों या उनकी तरह के अन्य लोगों की मनोचिकित्सा के उद्देश्य से अपना उपन्यास नहीं रचा है। उन्होंने संसार-भर की स्त्री के विशेष सन्दर्भ में कंसंट्रेशन कैंप का यथास्थान अर्थादेश करते हुए भारतीय उपमहाद्वीप के दमघोटूं पारिवारिक जीवन के यथार्थ को भी रचा है जो पाठक के अंतस को मथ देता है। इसे उपन्यास में चित्रित द्रौपदी देवी के रहमाना ख़ातून बनने की प्रक्रिया के चित्रण से गुजरकर भलीभाँति अनुभव किया जा सकता है।

इस उपन्यास को पढ़ते हुए उपर्युक्त ऐतिहासिक सच का वह अनदेखा पहलू सामने आता है जिसे इतिहास में दर्ज़ करना न तो संभव हो पाया है और न ही शायद पूरी तरह मुमकिन है। उदाहरण के लिए मंटो की ‘टोबा टेक सिंह’ कहानी में भावबोध और संवेदना के स्तर पर जिस शिद्दत से बिना कोई बयान दिए भारत-विभाजन की निरर्थकता को कला के स्तर पर उजागर किया गया है वह इस मुद्दे पर लिखित बड़े इतिहासकारों के ग्रंथों के माध्यम से संभव नहीं है। ‘आउशवित्ज़: एक प्रेमकथा’ उपन्यास की ख़ूबी यह है कि इसमें ऐतिहासिक इतिवृत को उपन्यास के स्त्री-पात्रों के बीच पत्राचार के शिल्प में रखा गया है। संघर्ष क्षेत्रों पर शोध करनेवाली जादवपुर विश्वविद्यालय की अध्यापिका प्रतीति सेन का द्रौपदी देवी से रहमाना ख़ातून बनी अपनी नानी को लिखित पत्रों के साथ ही सबीना नामक पोलिश स्त्री और प्रतीति सेन के बीच की बातचीत और ख़त-ओ-क़िताबत में इसे पढ़ा जा सकता है। इनमें नरसंहार को लेकर जगह-जगह कुछ आंकड़े भी मिलते हैं जो इस बात की गवाही देते हैं लेखिका ने अपनी पूर्व प्रकाशित कृति ‘देह ही देश:क्रोएशिया प्रवास डायरी’ की तरह ही गहन शोध करने बाद यह उपन्यास लिखा है।

किसी उपन्यास की ख़ूबी इसका इतिहास होना नहीं होता। वस्तुत: उसकी ख़ूबी उन चीज़ों पर रौशनी डालना है जिसे इतिहास में जगह नहीं मिलती। ऐसे भी आउशवित्ज़ और बंगलादेश में हुए नरसंहार पर इतिहास ग्रंथों की कमी नहीं है। इस कृति का महत्त्व उपन्यासकार की स्त्री-दृष्टि में निहित है जिसके तहत उसने अपनी कल्पनाशक्ति का इस्तेमाल करते हुए इन दोनों घटनाओं के दौरान स्त्रियों को दी गयी यौन-यातना के आतंकित कर देने वाले चित्र उकेरे हैं। ‘आमि के? चोखे आमार तृष्णा’(मैं कौन हूँ? मेरी आँखों में तृष्णा है। ) अध्याय में मुख्य पात्र प्रतीति सेन द्वारा वर्णित आउश्वित्ज में स्त्रियों के साथ हुई हिंसा और यौन-हिंसा के दिल दहला देने वाले प्रसंगों से गुजरकर इसे महसूस किया जा सकता है:

“यहाँ सुन्दर औरतों के साथ खुलेआम बलात्कार होता था और बार-बार होता था। यूक्रेन की एक सुन्दर औरत जिसके बाल घने-काले थे उसे वे लोग बार-बार उठवा लेते थे। कैम्प के जर्मन सुपरवाइजर से लेकर साधारण सिपाही उसे इस्तेमाल करके लहूलुहान कर देते थे। पता नहीं कैसे उस सुन्दर गुड़िया-सी दीखने वाली औरत के केश उन्होंने नहीं मूड़े,वरना तो कैम्प में घुसते ही सभी औरतों के बाल काटने का रिवाज़ था। यह काम भी वहाँ के क़ैदियों से ही करवाया जाता था जो लोहे की वज़नी कैचियाँ लिए हुए तैयार रहते थे। ज्यों ही यहूदियों और अन्य कैदियों की नयी खेप आती,नाइयों को मालूम रहता कि उन्हें क्या करना है-कुछ ही देर में घने काले, भूरे, सीधे, रेशमी, घुँघराले खूब जातां से पाले गए खूबसूरत केश भू-लुंठित हो जाते। इन बालों को इकट्ठा करके जर्मनी के कारखानों में विग और ऊनी धागे बनाने के काम में लाया जाता। गंजी औरतें नंगी कर दी जातीं। अब शुरू होती उनकी परेड, नितांत निर्वस्त्र स्त्री-पुरुष एस। एस। के अधिकारियों के सामने लाए जाते तब उनकी ड्यूटी का निर्धारण होता। ” (पृष्ठ 77)

उपन्यास में आए ऐसे अनेक विवरणों से गुजरते हुए ह्यूगो बेत्तोएर द्वारा 1922 में रचित सुप्रसिद्ध जर्मन उपन्यास ‘द सिटी विदाउट ज्यूज़’ की याद ताज़ा हो आती है जिस पर आधारित फ़िल्म भी बहुत लोकप्रिय है और जिसके प्रकाशन के कुछ ही माह के अंदर नाज़ी पार्टी के कारकून द्वारा लेखक की हत्या कर दी गयी थी।

बांग्लादेश के मुक्तिसंग्राम के दौरान हुई भयानक हिंसा से पीड़ित स्त्रियों के सन्दर्भ में इस उपन्यास में कहा गया है कि “इस दौरान पूर्वी पाकिस्तान की स्त्रियों के साथ क्या नहीं गुजरा –बलात्कार, क़ैद, मानसिक-दैहिक अत्याचार के कौन से प्रयोग छोड़े गए कहना मुश्किल है। एक अनुमान के मुताबिक़ ऐसी करीब हजारों स्त्रियाँ थीं जिनके साथ बलात यौन-सम्बन्ध बनाना सामान्य सी बात थी। लड़ाई के पहले ही दिन से 563 बंगाली महिलाओं को डिंगी मिलिट्री कैम्प में क़ैद कर दिया गया था। ये उनके लिए ‘कम्फर्ट वूमेन’ थीं। वे कैम्प में उनके लिए खाना बनातीं, उनके शारीरिक अत्याचार सहतीं... पूर्वी पाकिस्तान में झड़पों के दौरान होने वाली घटनाओं में स्त्रियों एक सिरे से नदारद था। अखबार मीडिया सब चुप थे। औरतें ज्यों कभी इस देश की नागरिक रहीं ही नहीं। । । यौन-हिंसा, बंदी-जीवन,भूख,परित्यक्त जीवन जीने के लिए विवश स्त्रियों में से ऐसी बहुत कम स्त्रियाँ थीं जिनके बयान दर्ज़ होकर दुनिया के सामने आए। अधिकांश तो वे रहीं जिनसे कोई पूछने वाला ही कोई नहीं था। । । किसी अभिलेखागार,शोध और पुस्तकालय में इन स्त्रियों की जीवंत स्मृतियों के अनुभव दर्ज़ नहीं किए गए। ” (पृष्ठ 196)

हिन्दी में विभाजन की त्रासदी पर केन्द्रित साहित्यिक कृतियों में साम्प्रदायिकता की समस्या पर एक से बढ़कर एक मार्मिक रचनाएँ मिलती हैं। किन्तु, ‘आउश्वित्ज: एक प्रेमकथा’ में इसका एक अनोखा पहलू चित्रित हुआ है। उपन्यास में विस्तार से विवरण मिलता है कि कोलकाता में साड़ियों का व्यापार करने वाले बिराजित सेन जब व्यापार के सिलसिले में सपरिवार ढाका की यात्रा करते हैं और हसनपुर में अचानक दंगा भड़क उठता है। उनके सामने आंगन में पत्नी के साथ अनहोनी घटित होती है और उन्हें अकेले जान बचाकर कोलकाता भागना पड़ता है। साम्प्रदायिक उन्माद से पागल भीड़ के हाथों उनकी पत्नी द्रौपदी देवी और बेटी टिया भयानक यातना का शिकार होती है और द्रौपदी देवी अंतत: रहमाना ख़ातून बनकर कई बेगमों के शौहर एक बूढ़े मौलवी की आठवीं बेगम के रूप में अपनी जान बचाती है। मौलवी उसे बेटी टिया को खोजने में मदद का आश्वासन भी देता है जिसके मिल जाने पर एक अबोध बच्ची के साथ हुई यौन हिंसा कल्पनातीत है:

“जब टिया का इलाज़ शुरू हुआ तो वह अक्सर डॉक्टर के बेड पर चौपाए जैसी खड़ी हो जाती।

उसे डांटकर नीचे उतारना पड़ता ।

वह चड्डी नहीं पहनना चाहती । बाद में टिया ने ही बताया कि एक उम्रदराज़ व्यक्ति ने नज़दीक बुलाकर नाम-पता पूछा और उसे भरोसा दिलाया कि माँ के पास लेकर जाएगा यदि टिया उसकी बात माने तो।

वे कैम्प में मूढ़ी-बताशा जमीन पर बिखेर कर लडकियों को खाने को कहते। बेचारी भूखी-लाचार एक-दूसरी के ऊपर गिरती-पड़ती। मूढ़ी के दाने दोनों हाथों से बटोर कर भकोसने लगती जिसकी जितनी क्षमता। एक तनाव भरे युद्ध के माहौल में यह एक सायंकालीन मनोरंजन हुआ करता। वह आदमी प्लेट में पानी दाल कर जमीन पर रख देता और टिया को बकरी की तरह पानी पीने को कहता। कैम्पवासियों के अट्टहास का ठिकाना नहीं रहता जब एक पन्द्रह वर्षीया मानवी चौपाया बन झुक जाती पीछे से सैनिक उसमें लिंग घुसाता... ”(पृष्ठ। 218)

उपन्यास में बंगलादेश में लगभग परित्यक्त और कठिन जीवनस्थितियों का सामना करती रहमाना ख़ातून के आत्मिक संतोष का उल्लेख है कि अंतत: टिया उस हादसे से निकलकर विवाह के बाद कनाडा में रहने लगी है।

इस क्रम में सबसे ह्रदय विदारक प्रसंग वह है जिसमें विराजित सेन जड़-संस्कारवश धर्मांतरण के बाद अपनी पत्नी द्रौपदी देवी को अपनाने का नैतिक साहस नहीं जुटा पाता और उसे उसके हाल पर छोड़ देता है। जो बात यहाँ सीधे-सीधे कही जा रही है उपन्यास में उसका चित्रण बहुस्तरीय,सर्जनात्मक और बेहद मार्मिक है:

“बिराजित सेन भी तो लौटे थे कलकत्ता- लेकिन जो आदमी गया था स्त्री और सन्तान का हाथ थामे, लौटा था अकेला, बिलकुल अकेला हारे हुए जुआरी जैसा,फटी धोती की खूंट से कीच से सनी सूखी आँखें पोछता, विमूढ़ –सा... सपरिवार ढाका जाना ही गलत था। बिराजित अब पराजित थे। अकेले में खुद से बातें करते। । । सलाहें तमाम मिलतीं –स्टेशन जाकर देखिए, रेड्क्रॉस में नाम लिखाइए,फोटो दिखाइए। बिराजित चुप- मौन! हिले-डुले नहीं। कहीं नहीं जाना उन्हें। कोई है ही नहीं तो ढूँढें किसे ?” (पृष्ठ 134)

लेखिका ने रहमाना ख़ातून के मुँह से उस पूरी घटना का विवरण प्रस्तुत करवाया है जिसके अनुसार बिराजित सेन जिस दिन हसनपुर से कलकत्ता लौटने वाले थे उसके ठीक एक दिन पहले उनके मेज़बान मौसा-मौसी के आंगन में मुक्तिवाहिनी के कारकूनों को खोजते लीग के लोग फरसा- गंडासा आदि लेकर जब खड़े हो गए तो कैसे सबकी घिघ्घी बंध गयी। मौसी ने और दो-चार दिन रुकने का आग्रह नहीं किया होता तो वे लोग सब अब तक कलकत्ते पहुँच गये होते। आसपास के लोगों ने लीग वालों को ख़बर दी थी कि लाल बंगले पर कलकतिया मुक्तियोद्धाओं की मेहमाननवाज़ी हो रही है। उपन्यासकार के शब्दों में “आंगन में बाहरी आ गए,सभी को घेर लिया, वे मुक्तियोद्धाओं को खोज रहे थे,एकदम काटने को तैयार,मेजबान ने कहा- ये भांजा है। कलकत्ते में दूकान है। इसका मुक्ति से क्या लेना- देना,एक ज़ोरदार थप्पड़ ने मेशो मोशाय को चुप करा दिया। बिराजित सेन को लाठी से मारकर जमीन पर गिराकर फरसे का प्रहार करने के लिए दल तैयार था... पति को अवश लेटा देखकर पत्नी ने आव देखा न ताव दौड़कर बिराजित को अंकवार में कस लिया। चिल्लाई –मुझे मार दो मेरे पति को छोड़ दो। लाल पाड़ की साड़ी पहने आभूषण से लदी सुन्दर स्त्री को देखकर उनका ध्यान भटक गया,सबकी जान बचनेवाली थी एक जान के बदले ,एक-एक कर लुंगियां खुलने लगीं ,बिराजित के सामने पत्नी की देह। । । बिराजित धोती संभालते उठे तो उन्हें निर्देश मिला-एखुनी पालिए-जा(अभी भाग जा यहाँ से)... एक ज़ोर की लात से फुटबाल की तरह बिराजित अहाते से बाहर। ”(पृष्ठ 187)

इस प्रसंग में ध्यान देने की बात है कि यह उपन्यास उस पवित्रतावादी हिन्दू पितृसत्तात्मक सनातनी मानसिकता को भी कटघरे में खड़ा करता है जिससे ग्रस्त होने के कारण बाद में बिराजित सेन मजबूरन इस्लाम धर्म अपनाकर रहमाना ख़ातून बन जाने वाली अपनी प्यारी पत्नी द्रौपदी देवी को स्वीकार नहीं करता। उपन्यास में भारत विभाजन के प्रसंग में गांधी जी का 7 दिसंबर सन 1947 को इस बारे में जारी एक बयान उद्धृत किया गया है जिसमें उन्होंने इस मानसिकता की निंदा की थी:

“ऐसा सुनने में आ रहा है कि अपहृत की गयी औरतों को उनके परिवार वापस स्वीकार नहीं कर रहे हैं। जो पति या पिता ऐसा करता है वह बर्बर है। मुझे नहीं लगता कि उसमें अपहृत हो जाने वाली स्त्री की कुछ ग़लती है- वे हिंसा का शिकार हुई। उन्हें वापस न लेना अन्याय है। ”(पृष्ठ 193)

लेकिन उपन्यास में केवल निंदा से काम नहीं चल सकता। इसलिए रचनाकार ने इस मानसिकता की परत-दर-परत उधेड़कर रख दिया है। बिराजित सेन भले ही पत्नी को स्वीकार नहीं,पर वे इस अपराध-बोध से शायद कभी मुक्त नहीं हो पाए:

“वे कई बार अजानते ही रेलवे स्टेशन पर जाकर खड़े हो जाते कहीं पत्नी दीख जाए शरणार्थियों की भीड़ में बेटी टिया का हाथ थामे ट्रेन से उतरती हुई। कई बार लाल पाड़ की साड़ी पहने हुए किसी अन्य को देखकर भ्रम भी हुआ । लेकिन वे अपनी बात किसी से साझा नहीं कर सकते थे। प्रश्न-प्रतिप्रश्न अपने भीतर ही चलते रहते-

-तुम वहाँ रुके क्यों नहीं ?
-कहाँ रुकता, देखा नहीं तुमने वे मुझ पर फरसा चलाने को तैयार थे ?
-तुम पुलिस के पास जा सकते थे।
-चारों ओर मारो-काटो के शोर में मुझे कुछ सूझा ही कहाँ,हाथ में पैसे भी नहीं थे कि कहीं ठहर कर सोच सकूं।
-तुम्हारे सामने तुम्हारी पत्नी के साथ,और तुम्हें अपनी जान की पड़ी थी, बेटी के बारे में भी नहीं सोचा ?
-पर मैं अकेला था,बलात्कार से पत्नी को कैसे बचाता,वे छह –सात थे,दरिन्दगी उनकी आँखों से टपक रही थी।
-तुमने पत्नी की रक्षा का वचन दिया था !
-अब शायद ही जीवित हो वह,पर बेटी याद आती है। ” (पृष्ठ 190)

उपन्यासकार ने बिराजित सेन के माध्यम से तथाकथित सनातनी हिन्दू पुरुष की उस घृणित मानसिकता को बेनकाब किया है जिसके तहत वे अपने-आप से बातें करते हुए कहते हैं कि ‘व्यावहारिक जीवन कुछ और होता है। भूलुंठित पुष्प को देवता को तो नहीं चढ़ाया जाता। ’ यहाँ खुद को देवता और साम्प्रदायिक दंगे में यौन हिंसा की शिकार हुई अपनी पत्नी को ‘भूलुंठित पुष्प’ कहने से जो व्यंजित होता है, उसे अलग से बताने की ज़रुरत नहीं है।

उपन्यास में द्रौपदी देवी से रहमाना ख़ातून बनी स्त्री के माध्यम से सवालिया अंदाज़ में अनेक मार्मिक बातें कही गयी हैं : “उच्छिष्ट भोजन को कोई वापस थाली में लेता है क्या, देह और मन को तार-तार करने वालों के मन में करुणा उपजना तो दूर की बात है,उससे पहले अपना कहे जाने वालों के मन में करुणा उपजती है क्या। अपनों के साथ स्नेह ही ढाढ़स बँधा सकता है,लेकिन जब वे ही आपको त्यक्त समझ लें तो कहाँ जाया जाय। किसके मिलन की आस,किसका चेहरा आँख के आगे झलमलाए,किसके आने की प्रतीक्षा में जीवन की सांझ काटी जाय...” (पृष्ठ 194)

मुक्तिसंग्राम के बाद अत्याचार की शिकार स्त्रियों को शेख मुज़ीबुर्रहमान द्वारा ‘बीरांगना’ कहे जाने पर उपन्यासकार की तल्ख़ टिप्पणी है कि “उन्हें क्या मालूम कि जिन्हें वे बीरांगना कह रहे हैं वह अपने घर-परिवार में कलंक का कारण है... उन्हें जात बाहर कर दो ,रातों-रात गर्भवती लडकी को पोखर में डुबो दो या इतना प्रताड़ित करो कि वह अपनी ही जान ले ले... औरत का कोई देश नहीं होता,नहीं होती उसकी कोई जाति।” (पृष्ठ 197)

इस कृति में प्रतीति सेन का विवश होकर रहमाना ख़ातून बन चुकी अपनी नानी से हुए पत्राचार को पढ़ते हुए दो पीढ़ियों की स्त्रियों की मानसिकता में अंतर के बावजूद उस सजल भावबोध का पता चलता है जो माँ के मन में सन्तान के प्रति अथाह ममता से भरपूर है। रहमाना ख़ातून को इस बात का सुकून है कि टिया कनाडा चली गयी है और प्रतीति भारतीय नागरिक के रूप में अच्छी शिक्षा प्राप्त करके शोध कर रही है।

प्रतीति सेन के पुरुष मित्र अभिरूप के व्यक्तित्व को भी लेखिका ने जबरदस्त ढंग से रचा है। प्रतीति कल्पना करती है कि यदि उसने अभिरूप को ई-मेल भेज दिया होता तो वह क्या जवाब देता। उसका संभावित पत्रोत्तर उपन्यासकार ने कविता की शक्ल में बयान किया है:

वह पत्र जो कभी लिखा नहीं गया
न लिखा जाएगा
तुम्हें भेज रहा हूँ
इस पत्र को लिखने की कल्पना के पहले
मैं एक ऐसा पन्ना था
जिस पर दूसरों की लिखी –कटी-फटी-इबारतें
ज्यादा थीं
अपनी लिखी साफ़-सुथरी कम
आह्लाद और सुख का एक निर्भर आकाश
अवतरित हुआ –
पिछले को मिटाता साफ़ स्लेट की तरह
अनलिखे को आमंत्रित करता
उत्सुक और व्यग्र।
पत्र की आशा और प्रतीक्षा
जैसे कि हम और तुम
हरदम
हरदम !

यह कविता जितना अभिरूप के व्यक्तित्व का पता देती है उससे ज़्यादा अभिरूप को लेकर प्रतीति के रुख को व्यक्त करती है। प्रतीति का कहना है कि “मेरे और अभिरूप के बीच अब कुछ ख़ास संवेदना का सम्बन्ध बचा हो तो मालूम नहीं पर मैं जब भी दुखी होती हूँ एक छांह के लिए उसी की याद आती है जिसने समय रहते कभी कंधा छूकर ‘ओ!’ नहीं कहा। ” जिस प्रकार प्रतीति अपनी नानी द्रौपदी देवी के व्यक्तित्व का विस्तार प्रतीत होती है उसी प्रकार अभिरूप कई बार बिराजित सेन का उत्तर-आधुनिक संस्करण लगता है। वह बोहेमियन नहीं है,पर उसे कर्तव्यनिष्ठ प्रेमी भी नहीं कहा जा सकता। कर्तव्य-निर्वाह से बिराजित सेन के पीछे हट जाने का कारण यदि सामन्ती दकियानूसी सोच के उत्पन्न लोकलाज है तो अभिरूप की बौद्धिकता के बावजूद अपने परिवार की संभावित अनिच्छा उसे प्रतीति से जुड़ने नहीं देती। प्रतीति के शब्दों में “उसे लगता था वह जेठी माँ की आँख का तारा है। कुलनामहीन शरणार्थी बंगलादेशी से विवाह का सुन तो माँ विष ही खा लेगी। मैंने क्यों नहीं किया उससे इसरार? क्या मेरे भीतर पैठी अम्माँ ने मुझे रोका। अम्मा का स्वाभिमानी जीवन क्या मेरे ऊपर ऐसा असर डालेगा। बिराजित सेन से अम्माँ ने कभी नहीं कहा –मुझे वापस ले चलो ना,रह नहीं पाउंगी तुम्हारे बगैर,बच्चों के बगैर। मैंने भी तो नहीं कहा अभिरूप से। इतिहास ने अपने-आप को फिर से दोहराया।” (पृष्ठ 141)

आउशवित्ज़ के प्रसंगों को विस्तार देने के लिए उपन्यास में आयी पोलिश सैलानी पात्र सबीना को लेखिका ने बड़े जतन से रचा है। बंगलादेशी मुक्तिसंग्राम की तरह नाज़ी सेना द्वारा यहूदियों के नरसंहार को चित्रित करने के क्रम में फ्लैश बैक तथा चेतना-प्रवाह शिल्प का विलक्षण प्रयोग किया गया है। सबीना का पारिवारिक जीवन ऊपर से भले सुखी-सम्पन्न दिखाई देता हो,पर उसके जीवन में गहरी उदासी है। इस उदासी का कारण वे तल्ख स्मृतियाँ हैं जिनका सम्बन्ध दुनिया के इतिहास में कुख्यात हिटलर और नाजी सेना द्वारा किये गए जातीय नरसंहार से है। सबीना के पति रेनाटा यहूदी हैं, जो एक बड़े वैज्ञानिक होने के साथ ही परम धार्मिक हैं। वे जब भी विचलित होते हैं, ‘क़ादिश’ (यहूदी धर्म की प्रार्थना) पढ़ने लगते हैं। एक बार तो वे अपनी पत्नी सबीना के साथ अन्तरंग क्षणों में होते हुए भी क़ादिश पढ़ने लगे थे। सबीना को इसकी वजह का अंदाज़ा है। वह कहती है:

“एक बच्चा जिस तरह की कहानियाँ सुनकर बड़ा होता है,उसके साए से निकलना शायद मुमकिन नहीं होता,बड़े होने पर भी नहीं। रेनाटा के पास अपने परिवार का लहूलुहान इतिहास है जिनके पन्ने उनके लिए कभी पुराने नहीं पड़े। अतीत को काँधे पर लादे हुए वर्तमान की राह पर हम झुकी पीठ और बोझिल कमर के साथ ही चल सकते हैं। भविष्य की ओर दौड़ नहीं सकते। मैं जानती हूँ कि अपने समुदाय का अतीत रेनाटा को कभी उच्छवसित नहीं होने देता।” (पृष्ठ 32)

उपन्यास में विस्तार के साथ वर्णन मिलता है कि किन भयावह परिस्थितियों में रेनाटा के दादा याकूब को यहूदियों के साथ जर्मनी से पोलैंड भागना पड़ा था और वहाँ भी उनकी कैसी दुर्दशा हुई थी। अफ़रातफ़री के माहौल में जर्मनी में रह गए याकूब के बड़े भाई जाकोव का उसके नाम पत्र इस सन्दर्भ में बहुत महत्त्वपूर्ण है और यह इतिहास की भूमि पर खड़ी लेखिका की साहित्यिक कल्पना शक्ति को उजागर करता है। जर्मनी से जाकोव ने पोलैंड भाग आए अपने छोटे भाई और सबीना के पति रेनाटा के दादा याकूब को लिखा था:

“दुःख की बात है कि अब हम साथ नहीं हैं। अच्छा हुआ कि तुम पोलैंड चले गए। यहाँ बच रहे यहूदियों के साथ बहुत बुरा बर्ताव किया जा रहा है। ,जिसके बारे में पत्र में लिखना मुमकिन नहीं है,जासूस चारों ओर फैले हुए हैं,मालूम नहीं कि यह चिट्ठी तुम्हें मिलेगी कि नहीं या मिलेगी तो कब... इंतज़ार करूंगा तुम्हारे पत्र का जिसमें अपने हाल चाल लिखना और कोई ऐसी बात न लिखना जो जासूसों को नागवार गुज़रे। ”(पृष्ठ 34)

उपन्यास में सबीना की छवि एक अत्यंत संवेदनशील और प्रबुद्ध भारतप्रेमी स्त्री की है। प्रतीति सेन से उसकी लगातार बातचीत और पत्राचार के द्वारा लेखिका ने एक योरोपीय आहत स्त्री के मन में पाठकों को प्रवेश कराने की सफल कोशिश की है। सबीना का उसकी माँ से जो बहुकोणीय रिश्ता है,उससे गुजरते हुए सिमोन द बोउवार की आत्मकथा ‘ए वेरी इजी डेथ’ की याद ताज़ा हो जाती है। इस आत्मकथात्मक रचना में सिमोन और उनकी माँ के बीच की बातचीत के साथ ही कृष्णा सोबती की सुप्रसिद्ध रचना ‘ऐ लड़की’ में अम्मू और बेटी के बीच की बातचीत को मिलाकर पढ़ने पर गरिमा श्रीवास्तव के उपन्यास में सबीना और उसकी माँ ही नहीं,बल्कि रहमाना ख़ातून और प्रतीति सेन के बीच के संवाद की बारीकियाँ ज्यादा समझ में आने लगती हैं। यहाँ यह बताना शायद ज़रूरी हो कि गरिमा श्रीवास्तव ने कृष्णा सोबती के साहित्य का गहन अध्ययन किया है जो पुस्तकाकार प्रकाशित भी है। साथ ही यह भी कि उन्होंने बहुत पहले सिमोन द बोउआर की ‘ए वेरी इज़ी डेथ’ का हिन्दी में अनुवाद किया था। इन दोनों बातों के साथ उनकी कृति “देह ही देश:क्रोएशिया प्रवास डायरी’ की अंतर्वस्तु को ध्यान में रखने पर इस औपन्यासिक कृति की रचना-प्रक्रिया पर कुछ प्रकाश ज़रूर पड़ता है।

प्रचलित अर्थों में यह उपन्यास कोई प्रेमकथा नहीं है। सच तो यह है कि आज पहले की तरह न तो जीवन बचा है और न ही प्रेम। इसलिए हमारे समय की प्रेमकथा त्रासद होने के लिए अभिशप्त है। स्त्री-जीवन की यह त्रासदी ही इस उपन्यास का मूल विषय है। इस बात को उपन्यास के अधिकांश अध्यायों के शीर्षक तथा कृति में बड़ी संख्या में पिरोए बंगाली प्रगीतों से गुजरते हुए भी अनुभव किया जा सकता है। प्रभावान्विति की दृष्टि से स्त्री-जीवन की इस त्रासदी से एक क्लासिकी उदासी पैदा होती होती है जो अंतत: पाठक को त्रासदी के विरेचन में सहायता करती हुए एक उदात्त मानवीय भावभूमि पर ले जाती है। उपन्यास में ‘एबार आमाय डाकले दूरे’(इस बार तुमने मुझे दूर बुलाया) शीर्षक अध्याय में प्रतीति सेन के माध्यम से अम्मा के लम्बे आत्मालाप के बाद बांग्लादेशी कवि सैयद शम्सुल हक़ रचित प्रगीत से गुज़रते हुए यह बात गहराई से महसूस की जा सकती है:

किछू शब्द उड़े जाय
किछू शब्द डाना मुड़े थाके
तरल पारार मतों किछू शब्द पड़े जाय
एमन से कोन शब्द नक्खेत्रेर मतों फूटे
थाके,तुमि कि देखेछो ताके
हृदयेर आयनाय ?

(कुछ शब्द उड़ जाते हैं। कुछ शब्द अपने देने मोड़कर यहीं रह जाते हैं। कुछ तरल पारे की तरह गिर जाते हैं। इनमें कौन-सा शब्द नक्षत्र की तरह उग जाता है,क्या तुमने हृदय के आईने में उसे देखा है?)

फ्रांसीसी रचनाकार पाल वैलरे का मानना है कि ‘एक अच्छा उपन्यास अंतत: संगीत होता है। ” उपन्यास लेखन के दौरान गरिमा श्रीवास्तव द्वारा यथास्थान हिन्दी और उर्दू के अलावा अच्छी संख्या में बंगाली प्रगीतों के विन्यास से जो सांगीतिकता उत्पन्न हुई है वह ‘आउशवित्ज़: एक प्रेमकथा’ के औपन्यासिक पाठ को अपने समय के उपन्यासों में विशिष्ट बनाता है। सांगीतिकता की दृष्टि से मलिक मुहम्मद जायसी की काव्यपंक्ति –‘फूल मरै पै मरै न बासू’ और टैगोर की ‘तुमि रबे नीरबे हृदये ममो’ शीर्षकों से रचित उपन्यास के अध्यायों में सबसे ज़्यादा कवित्वपूर्ण हिन्दी गद्य से हम रू-ब-रू होते हैं।

विवेच्य औपन्यासिक कृति में विभिन्न सन्दर्भों के तहत कुछ ऐसे सार्थक कथन पिरोये हुए हैं जिन्हें सूक्ति कहा जा सकता है और इनकी एक विशेषता वह सूत्रबद्धता है जो प्राय: सिद्धहस्त रचनाकारों के यहाँ मिलती है। उदाहरण के लिए : ‘शायद दूसरे को बचाने में हम खुद बचते हैं’, ‘वे कौन-सी विवशताएँ होती हैं जिनकी शृंखला तोड़ना पुरुष के वश का नहीं होता’, ‘कौन जान पाता है मन के बदलते मौसमों का हाल’, ‘जब आप प्रेम में होते हैं तो कोई भी यातना स्पर्श नहीं करती’, ‘पेट की आग सबसे पहले सोचने-समझने की क्षमता को सुन्न करती है’, ‘लिखना जैसे मुझको, मुझसे परे ले जाता है,मुक्त करता है’, ‘प्रेम वह ऊर्जा देता है जिससे जीवन के दुखों का सामना हम कर पाते हैं’, ‘प्रेम बौद्धिक विश्लेषण से दूर रहकर ही बचा रह सकता है’, ‘अतीत को काँधे पर लादे हुए वर्तमान की राह पर हम झुकी पीठ और बोझिल कमर के साथ ही चल सकते हैं,भविष्य की ओर दौड़ नहीं सकते’, ‘प्रेम और घृणा का उत्स एक ही है- घृणा प्रेम की विकृत अवस्था है’। ऐसे सैकड़ों मानीख़ेज़ कथन इस कृति में वज़न पैदा करते हैं। ऊपर उद्धृत अंतिम कथन से गुजरते हुए याद आ सकते हैं मार्खेज़, जिन्होंने अपने उपन्यास ‘लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा’ में लिखा है: “प्रेम के लक्षण हैज़ा के सामान ही होते हैं। ”(The symptoms of love are the same as those of cholera। )

बाईस लघु-अध्यायों में रचित इस उपन्यास की एक बड़ी विशेषता यह है कि इसमें आदि से अंत तक आस्वाद के स्तर पर वैविध्य है। ‘जेहि घट विरह न संचरै’ अध्याय में परिस्थितिवश द्रौपदी देवी से रहमाना खातून बनने को अभिशप्त स्त्री के कभी प्रेमी और पति रहे मूर्छित बिराजित सेन अपनी जीवन लीला समाप्त होते समय रवीन्द्रनाथ के जिस ‘गीत वितान’ की बार-बार याद करते हैं उसका सत्त्व उपन्यासकार की अनुभूति की संरचना में भी निहित है:

“बिराजित सेन कुछ कह रहे हैं,अस्पष्ट है आवाज़,मास्क है मुँह पर – गीत वितान –गीत वितान ! उनका बेटा चिढ़-सा रहा है, कह रहा है –“पता नहीं क्या हो गया है हर समय टैगोर का ‘गीत वितान’ पढ़ने को मांगते रहते हैं, पढ़ –वढ़ पाते नहीं और बुदबुदाते रहते हैं। उसके स्वर की अवहेलना मुझ तक नहीं पहुँचती। ‘गीत वितान’ उनकी स्मृति का हिस्सा है –यह मालूम है मुझे। तो वे नहीं भूले अपने प्रथम प्रेम को ! भीतर आनन्द और संतोष की एक लहर दौड़ गयी है। अब मैं कौन होती हूँ प्रिय के वियोग की सूचना देने वाली। तो वही अंतिम छवि हो उनकी स्मृति में। बिराजित के राल टपकते मुख के लटपटाए उच्चारण को और कोई न समझ पाए,पर मैं सुन सकती हूँ-

जानि तोमार अजाना नाहि गो, कि आछे मने
आमि गोपन करिते चाहि गो धरा परे दूनयने।

(मैं जानता हूँ कि तुम मेरी भीतर की बात से अनजान नहीं हो। मैं छुपाना चाहता हूँ पर मेरी आँखें सब भेद खोल देती हैं)

दुनिया की विभिन्न भाषाओं में जातीय नरसंहार को लेकर रचित श्रेष्ठ कलाकृतियों की तरह यह उपन्यास भी पाठक की संवेदना को गहरे प्रभावित कर सकने में समर्थ है। जातीय नरसंहार पर केन्द्रित अनेक इतिहास-ग्रंथों और अंग्रेज़ी और हिब्रू के साथ ही विभिन्न यूरोपीय भाषाओं में रचित कुछ उल्लेखनीय साहित्यिक कृतियों के बीच गरिमा श्रीवास्तव का ‘आउशवित्ज़: एक प्रेमकथा’ उपन्यास अपनी स्त्रीवादी रचना-दृष्टि के कारण विशिष्ट है। इससे गुज़रते हुए हमारे दिल-ओ-दिमाग़ में एक ख़ास तरह की कशिश पैदा होती है जो हमारी संस्कारगत जातीय दकियानूसी प्रवृत्तियों को बरतरफ़ करती हुई सुषुप्त मानवीय संवेदना को झकझोर कर जगाती है। नतीज़तन पाठक धीरे-धीरे व्यापक मानवता और ख़ास तौर से स्त्री के प्रति संवेदनशील होते हुए पहले से कुछ और बेहतर इंसान बनने की दिशा में अग्रसर होता है।

कुल मिलाकर योरोप और भारतीय उपमहाद्वीप में जातीय नरसंहार के दौरान स्त्री-जीवन की त्रासदी को कवित्वपूर्ण भाषा और सुगठित औपन्यासिक शिल्प में सफलता के साथ पुनर्रचित करने में समर्थ ‘आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा’ उपन्यास जातीय नरसंहार को लेकर संसार की विभिन्न भाषाओं में रचित श्रेष्ठ कथासाहित्य में शुमार करने योग्य कृति है। यदि इसका अंग्रेज़ी और खासकर बंगला,ज़र्मन और हिब्रू आदि भाषाओं में अनुवाद हो तो एक वैश्विक कृति के रूप में इसे दुनिया भर के पाठक याद करेंगे।

(गरिमा श्रीवास्तव: ‘आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा’(2023), वाणी प्रकाशन, दिल्ली, मूल्य 399 रूपये मात्र)