‘आस्था की धूप / कुँवर दिनेश
'आस्था की धूप' : डॉ •गोपाल बाबू शर्मा, अरविन्द प्रकाशन, अलीगढ़, उ• प्र•, 2015, पृष्ठ 48, मूल्य 50 / -।
आस्था की धूप हिन्दी में हाइकु छंद के नए-नए प्रयोग देखने को मिल रहे हैं। नए हाइकु का विषयवस्तु मात्र प्रकृति के बिम्बों, चित्रों, दृश्यों तक सीमित न रहकर जीवन के विविध रंगों का समावेश कर रहा है। वैयक्तिक, सामाजिक, राजनीतिक व दार्शनिक पहलुओं को तीन पंक्तियों में सँजोते हुए डॉ •गोपाल बाबू शर्मा के नए हाइकु संग्रह 'आस्था की धूप' में हाइकु के रोचक प्रयोग देखे जा सकते हैं। इन हाइकु रचनाओं में भाषा, शैली, शिल्प तथा विचार की परिपक्वता अनायास हृदय को छू जाती है। 'आस्था की धूप' का एजेंडा कवि के मुखबंधीय हाइकु से ही स्पष्ट हो जाता है:
उन्हें नमन / जो सच की खा़तिर / बाँधे क़फ़न
यानी कवि ने सच के रास्ते पर चलने वालों का साथ देने का संकल्प लिया है, जो नि: संदेह सिर पर क़फ़न बाँधने से कम नहीं है। जा़हिर है सत्यवादी कवि स्पष्टवादी भी होगा। अत एव इन हाइकु रचनाओं में सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ पर कवि की व्यंग्योक्ति / कटूक्ति देखी जा सकती है, जैसा कि निम्न हाइकु में स्पष्ट है:
(1) मिली भगत / चल रही काँटों में / फूल आहत (पृ.6)
(2) आज गालियाँ / राजनीति की रीति / कल तालियाँ (पृ. 7)
(3) उन्हीं की तूती / हाथ में जिनके है / चाँदी की जूती (पृ। 9)
(4) आम बजट / अरे, आम आदमी / तू पीछे हट (पृ. 10)
(5) अजीब दशा / रूप-धन, यश का / नशा ही नशा (पृ. 13)
(6) कुछ बदला / जले सिर्फ़ पुतला / रावण नहीं (पृ. 15)
(7) तुलसी-सूर / हो गए हैं हमसे / कितनी दूर (पृ. 16)
तथाकथित रूप से अत्याधुनिकता के द्वार पर खड़े भारत में आज भी कन्या-भ्रूण हत्या, नारी उत्पीड़न / उपेक्षा जैसी समस्याएँ जस की तस बनी हुईं हैं। विशेष रूप से शिक्षित-प्रशिक्षित राष्ट्र में ऐसी घटनाएँ / विद्रूपताएँ बेहद शर्मनाक हैं:
(1) बेटी के पिता / जलती ही रहती / चिन्ता की चिता (पृ. 24)
(2) कन्या-जनम / क्या होता है अब भी / मौत से कम (पृ. 23)
(3) चकई बनी / रात-दिन औरत / फिर भी त्रस्त (पृ. 25)
(4) कैसी समीक्षा? / होती क्यों नारी की ही / अग्नि-परीक्षा (पृ.26)
(5) मदिरापान / नारी की मुसीबत / मर्द की शान (पृ. 26)
(6) नारी का घर / कल्पना ही कल्पना / कहीं भी नहीं (पृ. 25)
अत्यधिक भौतिकता, यांत्रिकता एवं भावशून्यता के कारण बदलते / बिखरते मानवीय सम्बंधों पर कविमन चिंतित है:
(1) नए-पुराने / खाइयाँ ही खाइयाँ / सेतु चाहिए (पृ. 28)
(2) वृद्धावस्था में / अपना ही चेहरा / मुँह चिढ़ाए (पृ. 27)
आज प्रेम की अनुभूति भी अपना रंग व (प्र) भाव बदल चुकी है, जैसा कि इन हाइकु में आभासित है:
(1) 'आई लव यू' / सच लगने वाला / आज का झूठ (पृ. 29)
(2) पैसे के बिना / आजकल की प्रीति / कटी पतंग (पृ.। 30)
कटु यथार्थ से प्रभावित कवि मन कटाक्ष / व्यंग्य की भाषा बोलने लगता है, परन्तु प्रेम की मृदुल छुवन से कदाचित् असम्पृक्त नहीं है। कवि ने अपने हृदय में प्रणय के कोमल अन्तर्भाव को कुछ इस प्रकार अभिव्यक्त किया है:
(1) तुम हमको / मिले कोई किरण / जैसे तम को (पृ. 30)
(2) तुम जो मिले / पथरीली राहों में जैसे / सुमन खिले (पृ.30)
(3) आँसू-उच्छ्वास / उपहार तुम्हारे / हमारे पास (पृ.31)
(4) याद तुम्हारी / जगा जाती मन में / चाँद पूनो का (पृ. 31)
यदा कदा कवि मन दार्शनिक हो जाता है:
(1) जिससे जुदा / नाखु़दा तूफान में / उसका खुदा (पृ. 43)
(2) जी भर फूलो / झरोगे एक दिन / यह न भूलो (पृ.45)
(3) जीते जी साथ / वर्ना सब जाएँगे / खाली ही हाथ (पृ. 45)
(4) छोटे या बड़े / कोई नहीं अन्तर / माटी के घड़े (पृ। 46)
(5) आस्था की धूप / छँट जाता कुहरा / राह बुलाती (पृ. 46)
आज के दारुण समय में कविमन भीतिग्रस्त है, कुछ निराश है, परन्तु घने काले मेघों में एक रजतरेखा अभी दृश्यमान है:
गूँगे बोलेंगे / बहरे भी सुनेंगे / वक्त आने दो (पृ. 44)
नि:सन्देह, डॉ .गोपाल बाबू शर्मा के हाइकु मानवीय संवेदनाओं से भरे हैं। उनका यह संग्रह बहुत सादा ढंग से छपा है, परन्तु पठनीय है तथा कवित्त रस से तृप्त करने वाला है।