‘उग्र’ को फाँसी दी जाए / पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(हमारे हवाई रिपोर्टर ने येन केन प्रकारेण आगरेवाले, दक्षिण अफरीक़ी, म्याअऊँ-मुख, पड़पुड़गंडिस्टद प्रवर, पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी के उस भाषण की एक हस्तेलिखित प्रति, बल्कि, एडवांस कापी पा ली है, जिसे वह राष्ट्र भाषा सम्मेालन के आगे भाखेंगे। हम भरपूर जिम्मे,वारी के साथ उसे यहाँ उद्धत करते हैं।)

साधु, सीधे, विश्वाीसी, महात्माू सभापतिजी, हिन्दीय के अज्ञात लेखकों, घासलेट आन्दोटलन के ज्ञानी समर्थको, विशाल भारत के परिवारियो और परिवारनियो!

मैं जानता हूँ और मैं दावे के साथ जानता हूँ कि मुझसे ज्यादा इस राष्ट्र और इस भाषा में कोई भी नहीं जानता। यद्यपि मैं क्याे जानता हूँ, यह जानना कोई मामूली काम नहीं।

मैं जानता हूँ, भाई घासलेटमंडली को! कि यह राष्ट्रमभाषा सम्मेालन है। यहाँ पर अखिल भारतीय राष्ट्र के विद्वान, साहित्यिक, श्रीमान और कलाकार एकत्र हैं। यहाँ पर विख्यामत बंगाली विद्वान विराज रहे हैं जिनकी भाषा और जिनका साहित्यिक उत्कीर्ष भारतवर्ष ही की नहीं, वरन् संसार की किसी भी भाषा के पीछे नहीं। यही बात मद्रासी, मराठी, गुजराती आदि भाषाओं के एकत्र पंडितों की मातृभाषाओं के बारे में भी कही जानी चाहिए। मगर, दोस्तोंर, मित्रों, फ्रेंडो, बन्धुरओं, भाइयों, सगो, सम्ब न्धियों! अ क्खे...क्ख ... खि...खि...खु..., खु...खे...खै... खौ...खं...खं... आप जरा मुझे खाँस लेने दीजिए। मुझे दक्षिण अफरीकी वायु लग गयी है।

भाइयो... मैं कह रहा था कि मैं जानता हूँ, और आप विश्वा.स मानिए - मैं फिर-फिर कह रहा हूँ कि, मैं जानता हूँ तथा मैं जीवन भर इस विशाल भारत में कहता रहूँगा कि मैं जानता हूँ। मैं जानता हूँ कि यह राष्ट्रतभाषा सम्मेवलन है। इसमें अन्य भाषाओं के भाखी हमारी भाषा की विशेषता, विभूतियाँ, जानने के लिए आये हैं। मगर, भाइयो! मुझे अपनी भाषा की खूबी के बारे में कुछ भी नहीं कहना है। उसे तो सभापति महोदय कह चुके - या यदि नहीं कह चुके तो कहेंगे। मैं तो आपको अपनी राष्ट्र भाषा की ‘घास-लेटता’ बताने के लिए यहाँ ‘ठाढ़भयौं हों सहज सुभाये, जे बिनु काज दाहिने बायें,’ जैसा कि गोस्वासमी श्रीतुलसीदासजी ने साधुओं के वर्णन में कहा है।

आप पूछेंगे यह ‘घासलेटता’ कौन-सी बला है। इस पर मेरा म्याेऊँ उत्तर यह है कि घासलेटता ‘चाकलेटता’ का दूसरा रूप है। मगर यह तो ‘मघवा’ का अर्थ ‘विडौजा’ हो गया! अस्तुक।

जरा बुद्धि की खुरपी उठाकर आप मुझे घासलेटता को परिष्कृंत करने दें अपने को हिन्दीष का क्रान्तिकारी कहने वाले साहित्यिक छोकरे ‘उग्र’ ने - जो सम्भषवत: मेरे और मेरे महादल के भय से काशी या बनारस अथवा B-E-N-A-R-E-S-C-I-T-Y- भाग गया होगा या अपने दुर्भाग्यस से शायद इस मजलिस में उपस्थित हो - एक गलीज भद्दी, गैर-जिम्मेपवार पुस्तँक लिखी। उसका नाम ‘चाकलेट’ है। अब उसी के वजन पर यह ‘घासलेट’ मैंने तैयार किया है। मगर, ठहरिए। मेरे मुँह से एक झूठ सरासर निकला भागा जा रहा है। इस ‘घासलेट’ में बीज है ‘चाकलेट’ का, जो ‘उग्र’ की सृष्टि है, और गर्भ है ‘आर्यमित्र’ सम्पाादक पंडित हरिशंकर शर्मा का जो महात्माक गांधी तक को जिम्मे वाराना ढंग से गाली देने वाले श्रद्धेय महाकवि शंकरजी के S, O, N, हैं। मैं तो केवल इस असुन्दंर के सुन्दलर बच्चे की ‘दाई’ मात्र हूँ। मैं इसे पाल-पोस कर बड़ा कर रहा हूँ, इसलिए कि सयाना होकर अपने बाप ‘चाकलेट’ को मार डाले। और, आप बुरा न मानें, सिद्धान्तम के लिए बाप तक को मार डालना कोई बुरी बात नहीं है। क्यों कि मैंने साबरमती आश्रम में प्रहलाद की कहानी सुनी है।

सज्जंनों, यह चाकलेट पुस्त क बाल व्यनभिचार-विरोधिनी कहानियों का कलेक्शहन है। साथ ही, इसकी एक कहानी का शीर्षक है, ‘चाकलेट’। वह कहानी, इस कलकत्ता के प्रसिद्ध साप्ता हिक ‘मतवाला’ में सन् 1924 ई. की 31वीं मई को प्रकाशित हुई थी। और उसी सन् में, उसी विषय पर, उसी गंदे गल्प –गढ़क द्वारा, चार कहानियाँ प्रकाशित हुई थीं। मुझे मालूम नहीं उस समय मैंने उन कहानियों को पढ़ा था या नहीं, मगर, मुझे यह मालूम है कि उनका विरोध उस समय से लेकर मेरे मुँह खोलने तक किसी ने नहीं किया। और मुझे तो यदि उस समय उन कहानियों की खबर होती तो भी मैं उनका विरोध न करता - क्यों कि उस समय मुझे भाषा का ज्ञान नहीं था। साहित्यिक परिष्कारर का ध्यासन नहीं था, और श्रीहरिशंकरजी के गर्भ के इस ‘घासलेट’ का भाग नहीं था। साथ ही, मेरे पाँवों तले विशाल भारत-सा कोई इंटरनेशनल ‘चहचहाता चिड़ियाघर’ का अड्डा नहीं था।

उसी सन् के लगभग वह गन्दाच लेखक गोरखपुरी ‘स्वअदेश के’ विजयांक में, कुछ राजद्रोह करने के अपराध में, 124 अ. में - गैर जिम्मेडवाराना ढंग से जेल चला गया। जेल से आने के बाद वह कलकत्ता आया और यहाँ ‘मतवाला-मंडल’ में मंडित होकर उसने अनेक कथा-पुस्तनकें लिखीं और प्रकाशित करायीं। यद्यपि मैंने यह बात अपने इंटरनेशल चिड़ियाघर में नहीं प्रकट की है - क्योंुकि, मैं प्रोपॉगैंडिस्टं हूँ और प्रचार की दृष्टि से यह लिखना भूल होती - फिर भी यह सच है, और मेरा जाँचा हुआ सच है, कि, जब मैंने दरियाफ्त किया उस समय राष्ट्र भाषा मार्केट में उस ‘उग्र’ की पुस्त‍कें ऐसी चलती थीं जैसे पंजाब मेल! बस, इसी से तो मेरे कान खड़े हुए और मैं दो-चार तपस्वियों की सलाह से ‘चाकलेट’ की ओट में, उस दुष्टो साहित्यु-निर्माता पर टूट पड़ा।

पर ध्यांन रहे! - टूट पड़ने के पूर्व में कई बार उस चाकलेट-विधाता के प्रवासाश्रम पर गया भी था। मैंने उस छोकरे से एकबार कहा -

‘कुछ जिम्मे वार, सिकुड़-मुख, दढ़ियल और तपस्वीट तुम्हा री रचनाओं के घोर विरोधी हैं - खासकर ‘चाकलेट’ के और उन कहानियों के जिन का सम्ब्न्धद दाढ़ी-चोटी से है। अत:, मैं मौका ढूँढ़कर तुम्हाखरे साहित्यल का विरोध करना चाहता हूँ। इसे कहे दे रहा हूँ इसलिए कि, जिसमें हमारे सामाजिक प्रेम में बट्टा न लगे। क्योंककि यह शुद्ध साहित्यिकक-विवाद होगा।’

इस पर उस उग्र ने ठठाकर कहा, ‘हा हा हा हा! कीजिए विरोध। पर, यह तो बताइये कि आपने मेरी कौन-कौन-सी कृति पढ़ी हैं?’

सज्जरनों! इसका भला मैं क्या उत्तर देता? मैं तो प्रोपोगैंडिस्ट हूँ। मैं कुछ पढ़ता थोड़े ही हूँ। फिर, इस ‘विशाल भारत’ में कोई कितना पढ़ सकता है? मैंने तो दूसरों ही की राय पर अपनी राय चढ़ा रखी थी। जब चन्दा दाढ़ीदार तपस्वीो कह रहे हैं कि ‘उग्र’ की रचनाएँ घासलेट हैं तब वे अवश्यी ही घासलेट होंगी। मैं उनकी जिम्मेीवार राय पर सन्देरह कैसे करता? आखिर वेदों में भी तो लिखा है - ‘बाबा वाक्यं प्रमाणम्।’ अत: मैंने सीधे से स्वीहकार कर लिया कि मैंने तो तेरी एक भी रचना नहीं पढ़ी। फिर भी ओ दुष्ट्! मैं तेरा विरोधी हूँ।

इस पर उस पागल ने अपनी सारी कृतियों की एक-एक प्रति मुझे मुफ्त ही में दी। कहा, ‘इन्हेंन पढ़कर इनका विरोध कीजिएगा।’ पर मैंने उन सबको नहीं पढ़ा। खासकर जिन पुस्तदकों की हिन्दी् के अनेक प्रतिष्ठिधतों, विद्वानों, कलाकारों ने प्रशंसा की उन्हेंा तो मैंने छुआ तक नहीं। केवल ‘चाकलेट’ पढ़कर मस्ति हो गया और एक ही चावल से राष्ट्र भाषा की उस ‘उग्र-हाँड़ी’ का सारा भेद मेरे पेट में मलमला कर रह गया।

यह मैं अपने ‘सत्यएम् शिवम् सुन्दोरम्’ अनुभव के आधार पर दक्षिण अफ्रीका के पूज्या पिता की शपथ खाकर कह सकता हूँ कि प्रोपोगंडिस्ट के लिए न तो कोई झूठ झूठ है और न कोई आचरण असत्! अत: ‘चाकलेट’ की आलू, चना के पूर्व मैंने ‘उग्र’ के समर्थकों को कागजी घोड़े दौड़ा-दौड़ाकर, कोने-कोने में ढूँढ़-ढूँढ़कर, अपने दल में मिलाने की कोशिश की। मैंने ‘प्रताप’ वालों को समझाया कि यद्यपि ‘चाकलेट’ - विषय पर सारे जिम्मेकवारों के मुँह पर दही जमा रहने पर भी ‘उग्र’ ही ने पहली आवाज उठायी है, फिर भी, उसका ढंग तो नालायकाना है। आप लोग उसकी रचना को अयोग्यप कहकर अपनी योग्य ता के भोंपू अब फूँक दें और उसी में कृपा कर मेरे इस घासलेट स्वसर को भी मिला लें। ‘चाकलेट विरोध’ को भी मिला लें। ‘चाकलेट विरोध’ के लिए मैं काशी गया, प्रयाग गया, कानपुर गया और आगरा तो मेरा घर ही है और उस ‘घासलेट’ शब्दघ का भी जो चाकलेट से चार कदम आगे बढ़कर इंटरनेशनल हो रहा है।

इसके बाद अपने मन की सारी काई और कालिख बटोरकर मैंने ‘चाकलेट’ को काला करना आरम्भ़ किया, उस बंगाली मासिक ‘चिड़ियाघर’ में। सारी पुस्ताक छोड़ कर मैंने पहले उसकी उस पुरानी कहानी में से राम, कृष्णि, सुकरात और शेक्स।पियर का नाम ढूँढ़ निकाला। आह! उन्हेंन पाते ही मैं फूलकर कुप्पाप हो गया। मगर, याद रहे, स्वघच्छक गोघृत का। घासलेट-घी का नहीं। मैंने सोचा जनता ज्योंाही इस अपवित्र प्रसंग में रामादिक का नाम सुनेगी त्योंबही उस उग्र को फाँसी के तख्ते पर लटका देगी। उस समय मैंने यह नहीं विचार किया कि उक्त नाम कहानी के पात्रों के मुँह से आये हैं। और वे पात्र, लेखक की तस्वी र नहीं, समाज के पठित - धूर्त चाकलेट पन्थियों के चित्र हैं। ‘कहि महिष, मानुष, धेनु, खर, अज, खल निशाचर भक्षहीं’ में तुलसी के मनोभाव नहीं, बल्कि राक्षसों की साफ छवि है। मगर मुझे तो ‘उग्र-साहित्यच’ का, उसकी पुस्त कों की बिक्री का, उसकी आर्थिक और सामाजिक उन्न ति का विरोध करना है। फिर मैं क्योंष विचारता कि वह राम, कृष्ण , सुकरात, शेक्सरपियर, ‘उग्र’ के नहीं; बल्कि ‘उग्र’ की तस्वी!रों के हैं। फिर मैं ‘उग्र’ के ‘इन्द्रषधनुष’ को उठाकर ‘सीता-हरण’ में राम की दूसरी उज्जीवल छवि क्यों देखता। मेरी आँखों पर तो प्रोपोगैंडिस्ट का चश्मा् था।

मैंने यह भी पता नहीं लगाया कि ‘चाकलेट’ के प्रथम संस्क रण के आवरण पर, ‘A Public discussion of this very difficult and delicate subject has become necessary’ -Young India. आदि वाक्यी नहीं थे। उसकी आलोचना में मैंने यह भी नहीं कहा कि ये वाक्यo ‘उग्र’ के नहीं, बल्कि बिहार के बाबा सीताराम दास के उस पत्र से लिये गये हैं जो दूसरे संस्ककरण की भूमिका के रूप में है। बस मुझे तो ‘उग्र’ को बदनाम करना था। अत: राम, कृष्णm, के साथ महात्मासजी का नाम भी जोड़कर और यह लिखकर कि ‘गांधी सिगरेट’ की तरह यह ‘चाकलेट पुस्त,क’ भी महात्मा जी के नाम पर बेची जा रही है, मैंने अपनी प्रोपॅगेंडा-गाड़ी हाँक दी। मैंने लिख मारा - हमारी सम्म ति में वे मोहक-भाषा में लिखी हुई ‘सुगर कोटेड’ संखिया है, ‘घासलेट-साहित्यख’ का निकृष्ट उदाहरण है और छिछोरी मनोवृत्ति का गन्दाई नमूना है।’ मगर यह लिखने के पूर्व मैंने ‘चाकलेट लेखक’ के ‘कैफयित’ के ये शब्दृ नहीं पढ़े - या पढ़कर भी पी गया -

‘पढ़ें - समाज के बड़े-बूढ़े पढ़ें, "उग्र" की इस नाटकीय कृति को, कहानी और कला का सुख लेने के लिए नहीं, उसकी प्रतिभा की उड़ान देखने के लिए नहीं, बल्कि अपने बच्चों का भविष्‍य उज्जऔवल रखने के लिए। उन्हें‘ समाज के भिन्नड-भिन्नी रूपधारी दानवों से बचाने के लिए। उनका तेज और ब्रह्मचर्य रक्षित रखने के लिए। उन्हेंा पशुता से दूर और मनुष्यंता से निकट रखने के लिए।’

‘पढ़ें - जीवन की ड्योढ़ी पर खड़े हमारे नवयुवक मित्र मेरी इस काली रचना को अवश्यल पढ़ें; और इसे पढ़कर अपने हृदय की घृणित छाया को अपने किसी बन्धुह या मित्र के कोमल हृदय पर डालने से परहेज करें। प्याकर को शुद्ध प्याीर की तरह प्यािर करें और उसके मुख पर वासना की स्यारही पोतने से हिचकें। अपने हृदय की कोठरी में धुआँ न फैलावें। किसी अबोध मित्र के घर में आग न लगावें।’

‘पढ़ें - देश के छोटे-छोटे फूल के खिलौने, सुन्दवर बच्चेा भी मेरी इन लकीरों को पढ़ें और शुरू से ही काँप उठें चाकलेट-पन्थियों के षड्यन्त्रोंे से, उनकी धूर्त्तताओं से। इन राक्षसी तस्वीररों को देखकर वह राक्षसों को पहचानना सीखें और सीखें उनके आक्रमणों से अपने फूले-फूले गुलाबी गालों को रक्षित रखना, अपने अधर-पल्लनवों की रक्तिमा को महफ़ूज रखना और हृदय की पवित्रता को साधारण प्रलोभनों से अधिक महत्वर देना।’

‘मुझमें दोष हैं, मेरी कृतियों में भी अवश्यफ ही दोष हैं।’ मगर पाठको को उस अमर कवि की इन लकीरों को स्मझरण कर ही किसी की कृति को देखना चाहिए -

‘जड़, चेतन गुण, दोष मय विश्वड कीन्हह करतार, सन्तव हंस गुण गहहिं पय परिहरि वारि विकार।’

इस तरह सज्जनो! गोकि उस ‘उग्र’ ने अपनी कृति ‘चाकलेट’ को स्वकयं ही कोस लिया है और अपनी खाकसारी से धूल उड़ानेवालों के मुँह में खाक भर रखने की चेष्टा की है, मगर मुझे तो उसे साहित्य से गिराना है, बदनाम करना है। इसी से मैंने इन बातों को जानबूझकर भुला दिया था। क्यों कि, मैं प्रोपोगैंडिस्ट हूँ। इसी से मैंने और मेरे पीर पंडित पद्मसिंह शर्मा ने भी ‘मतवाला’ को उतना नहीं कोसा, जिसमें ये सारी चाकलेटी रचनाएँ छपी हैं, क्योंेकि हम तो केवल सरकश ‘उग्र’ का सिर चाहते हैं।

मुझसे यह भी बताया गया है कि आयरिश अंग्रेजी-जीनियस मिस्टिर आस्ककर वाइल्डत ने एक कहानी - Portrait of Mr. W.H. - लिखकर शेक्समपियर को चाकलेटपन्थीट साबित किया है। मगर मैं इस पर नहीं विश्वाiस करता, क्यों कि मैं ‘उग्र’ का नाश चाहता हूँ। मुझसे यह भी कहा गया है... ‘Aristotle advised abstinence from women, and preached sodomy in the place of natural love.’ मुझसे यह भी कहा गया है कि - Socrates regarded sodomy as the privilege and sign of higher culture. The male Greeks shared this view and lived in harmony with it. और मुझसे यह कहा गया है कि उक्तh बातें जर्मनी के किसी विख्याiत कम्युnनिस्ट दार्शनिक August Bebel की पुस्तनक Women: Past & Present में हैं। और है अनेक बड़े-बड़े चॉकलेट-पन्थियों की लिस्ट् कहा गया है कि, ‘हैवलाक एलिस’ की ‘साइकालजी आफ सेक्से’ नाम्नीi छह जिल्दी‍ पोथी में भी है। साथ ही मैंने यह भी पढ़ा है कि ‘उग्र’ इस चाकलेट पन्थt का विरोधी है - अरस्तूी और सुकरात की तरह समर्थक नहीं। फिर भी मैं, चाकलेट और ‘उग्र’ का विरोधी हूँ। क्योंaकि वह क्रान्तिकारी बनता है; और बिना मूँछ-दाढ़ी निकले ही, तपस्वील बने ही, साबरमती आश्रम देखे ही तथा सबसे बड़ी बात यह कि बिना मुझ दक्षिण अफरीकी सन्तब से पूछे ही।

मैं ‘अबलाओं का इन्सा फ’ और ‘मनोरमा के पत्र’ के लेखकों के भी विरुद्ध हूँ। मगर बाद में हुआ हूँ। जब मुझे यह पता चला कि बिना इन्हें भी हथियाए ‘उग्र’ मारा न जाएगा। पर, ‘मनोरमा के पत्र’ के लेखक ने, मेरी डाँट सुनते ही, मिनमिना कर मुझसे क्षमा याचना कर ली है। हाँ-हाँ - विश्वा स न हो तो चलिए चिड़ियाघर में, मैं आपको उनकी ‘दन्तकनिपोर चिट्ठी’ तक दिखा दूँ। इसी से मैं उन्हेंग क्षमा कर देने पर तैयार हूँ। पर, सभापति महोदय, और घासलेट-मंडलिको! इस पापी ‘उग्र’ को अवश्यक ही फाँसी दी जाए। जैसा कि मेरे साबरमती - शुद्ध खोपड़े ‘चाँद’ के फाँसी अंक के सिलसिले में लिखा है। ‘इन्सा्फ’ के प्रकाशक ने चाकलेट नहीं लिखा, साथ ही तपस्वियों की पुस्त कें और जीवनियाँ छापकर उसने अपने पाप-पुण्यल का ब्योभरा कुछ-कुछ ठीक कर लिया है। अत: उसे आजन्मन द्वीपान्तहरवास की सजा ही काफी होगी। मैं अनुचित अत्यााचार नहीं करना चाहता। क्यों कि मैंने बुद्ध, तीर्थंकर महावीर, टाल्सरटाय, गांधी आदि को पढ़ा भी है और देखा भी है।

यह ‘उग्र’ क्याभ चीज है मेरे महत्व् के आगे; सज्जउनो! मैं तो अपने मित्रवर सम्पूहर्णानन्द को अभिमानी समझता हूँ, क्योंरकि वह एम.एल.सी. हैं; दक्षिण अफ्रिका के संन्याेसी भवानीदयाल को व्यार्थ समझता हूँ, क्यों कि उन्हों ने भी मेरे ‘हेरिडेटरी’ अफ्रिका पर पुस्त;क लिखने की धृष्टता की है। पं. जवाहरलाल नेहरू के नाम के आगे से ‘त्याहगमूर्ति’ काट फेंकता हूँ, उन्होंने मेरे दक्षिण अफरीकी-खाते को ऐसी कड़ाई से जाँचा था जैसे लेनिन ने जार के खातों को। फिर भला यह कल का लड़का ‘उग्र’ मेरे आगे वैसे ही क्यों नहीं झुक जाता जैसे बूढ़े पंडित कृष्णाकान्तकजी झुक गये। हाँ, हाँ, कहिए तो चिट्ठी निकालकर दिखा दूँ।

अस्तु, सज्जसनों - बस। मैं आज यहीं समापता हूँ अपने भाषण को। यह सम्मे लन मैने केवल ‘उग्र’ को गिराने के लिए रचा है। इसकी सफलता तभी सम्भनव है जब आप लोग उस अप्रियवादी को आज ही फाँसी पर टाँग दें। दोहाई है महात्माी गांधी की! दोहाई है सारे नेताओं और विद्वानों की!! मेरे मुँह की ओर देखिए, मेरी तपस्यात की ओर निहारिए, मेरी अफ्रिकी सेवाओं को समझिए और मेरी बात मानिए। उसे अवश्यट ही फाँसी दीजिए, मैं फाँसी का समर्थक हूँ, मैं अहिंसावादी हूँ। मैं बारह बड़े-बड़े महीनों का अनुभवी जर्नलिस्टय हूँ। मैं कई जीवनियों का अनोखा जनक हूँ। भाइयो, बहनो, पुलिसो, सार्जंटो, सम्पादको, प्रूफरीडरो, लौंडो-लबाड़ियो! आप मेरी आज्ञा अवश्य - अवश्य -अवश्य मानिए मानिए!