‘उसने कहा था’ सौ साल बाद / मनोज कुमार पाण्डेय
'उसने कहा था' पहली बार सरस्वती में जून 1915 में प्रकाशित हुई थी। जल्दी ही इसके सौ साल पूरे होने को हैं। इन सौ सालों में यह निर्विवाद रूप से हिंदी की सबसे लोकप्रिय कहानियों में से एक बनी हुई है। हिंदी के पाठ्यक्रमों के लिए निर्मित संकलनों को छोड़ भी दें तो भी हिंदी की सर्वकालिक श्रेष्ठ कहानियों का शायद ही ऐसा कोई संकलन हो जो इस कहानी के बिना पूरा हो जाता हो। आखिर ऐसा क्यों है! इसमें ऐसी कौन सी खूबियाँ हैं जिनकी वजह से यह अभी भी पाठकों को अपनी तरफ लगातार आकर्षित कर रही है? पहले से कुछ ज्यादा ही, जबकि इसे लिखे-छपे हुए लगभग सौ साल होने को आए।
आगे हम इन्हीं सवालों से दो-चार होने की कोशिश करेंगे कि 'उसने कहा था' की रचनात्मक बुनावट में आखिर ऐसा क्या छुपा हुआ है जो हमें अभी भी बार बार अपनी तरफ खींचता हैं। और इस बार बार के बावजूद यह कहानी हमें आज भी उतनी ही नई और समकालीन लगती है। क्यों! 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ा। साल भर के भीतर ही उसे केंद्र में रखकर ऐसी कहानी रच पाना लगभग अविश्वसनीय है। यह अंतरराष्ट्रीय लोकेल को लेकर लिखी गई संभवतः हिंदी की पहली कहानी है। आज भी ऐसी कहानियाँ हिंदी में कम ही हैं। डिक्शन की बात करें तो भी यह अपने समय से बहुत आगे की कहानी ठहरती है। और यह भी कि इसका डिक्शन आज तक पुराना नहीं पड़ा। भाषा ललित निबंधोंवाली, विषय ऐसा कि इसकी समकालीनता आज भी जस की तस बनी हुई है और दूसरी तरफ बिना किसी शोर-शराबे के यह कहानी चुपचाप हिंदी की कालजयी कहानियों में शामिल हो गई है।
क्या यह युद्ध विरोधी कहानी है, इसलिए! यह युद्ध की भयावह स्थितियों को बहुत ही सहजता से हमारे सामने रख देती है। इसकी खूबसूरती इस बात में भी है कि अपने वर्णन में यह युद्ध के विरोध में कोई बात नहीं कहती। स्थितियाँ खुदबखुद मुखर होकर बोलने लगती हैं कि लगातार युद्ध की मनःस्थिति में जीना किस कदर भयावह है। यही भयावहता स्मृतियों के लिए एक जरूरी खिड़की खोलती है। सबसे भयावह स्थितियों के बीच सबसे कोमल स्मृतियाँ ही जिंदगी को जीने लायक बना सकती हैं। वहीं से यह उदात्तता भी आती है कि कोई मरने-मारने के उन भयावह रूप से निर्णायक क्षणों में भी किसी और के लिए खुद को होम कर दे।
युद्ध को लेकर हिंदी में आज भी न के बराबर कहानियाँ उपलब्ध हैं। जबकि आजादी के बाद का ही समय लें तो भी जाने अनजाने हम कई युद्धों का सक्रिय हिस्सा रहे हैं। इस कहानी में आया युद्ध इसलिए भी खास है कि यह जिस धरती पर लड़ा जा रहा है वह धरती राष्ट्र या वतन की किसी भी परिभाषा के तहत लड़नेवालों की नहीं है। जिनसे लड़ा जा रहा है वह शत्रु भी अपने नहीं हैं। यही नहीं अगर वे यह युद्ध जीत भी जाते हैं तो भी यह धरती उनकी नहीं होनी है। वे वतन के लिए या आजादी के लिए नहीं बल्कि किसी स्वामी के लिए लड़ रहे हैं जो कि कहानी में ब्रिटेन है। इसके बावजूद वे मर और मार रहे हैं। यह युद्ध की सबसे भयानक परिणति है। जहाँ हम अपने ही जैसे कुछ दूसरों को मारकर वीर बन जाते हैं जिनके बारे में हम कुछ भी नहीं जानते। न उनका नाम न पृष्ठभूमि, न घर-परिवार के बारे में कुछ, न उनकी भाषा। वे हमारे तथाकथित शत्रु भी हमारे बारे में कुछ नहीं जानते फिर भी एक सैनिक के रूप में हम मारते हैं और मरते हैं। और मजे की बात यह है कि दोनों ही स्थितियों में कुछ चमकीले विशेषणों से सुशोभित होते हैं।
युद्ध इनसानी समाज की सबसे भयानक त्रासदियों में से एक है फिर भी हम इससे निकलने का कोई सही रास्ता नहीं ढूँढ़ पाए हैं। कि दुनिया को शांति मिले, बल्कि सबसे ज्यादा लड़ाइयाँ इसी मरजानी शांति के नाम पर लड़ी गई हैं और लड़ी जा रही हैं। उसने कहा था हमें इस लिए भी बार बार अपनी तरफ खींचती है कि यह युद्ध के बरक्स बल्कि युद्ध के बीच प्रेम की संभावनाओं की खोज करती है।
हिंदी के कायदन पहले आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसके इसी प्रेमवाले पक्ष पर ही जोर देते हुए लिखा कि, 'उसने कहा था में पक्के यथार्थवाद के बीच सुरुचि की चरम मर्यादा के भीतर भावुकता का चरम उत्कर्ष अत्यंत निपुणता के साथ संपुटित है। घटना इसकी ऐसी है, जैसी बराबर हुआ करती है; पर उसके भीतर प्रेम का एक स्वर्गीय रूप झाँक रहा है - केवल झाँक रहा है, निर्लज्जता के साथ पुकार या कराह नहीं रहा है। कहानी भर में कहीं प्रेम की निर्लज्ज प्रगल्भता, वेदना की वीभत्स विवृति नहीं है। सुरुचि के सुकुमार स्वरूप पर कहीं आघात नहीं पहुँचता। इसकी घटनाएँ ही बोल रही हैं, पात्रों के बोलने की अपेक्षा नहीं।'
ज्यादातर कालजयी कहानियाँ पहली नजर में अविश्वसनीय क्यों लगती हैं। 'उसने कहा था' भी इसका अपवाद नहीं है। एक भूल गई स्मृति पर लहना सिंह अपना जीवन बलिदान कर देता है। भला क्यों? देखा जाय तो सूबेदारनी और लहना सिंह के बीच ऐसा कुछ भी नहीं है जिसकी बिना पर लहना सिंह के आत्मबलिदान का मर्म समझा जा सके। और यह तब तक अविश्वसनीय ही लगता है जब तक कि हम इस बलिदान की पृष्ठभूमि में चल रहे युद्ध की तरफ नहीं देखते।
तब हमें समझ में आता है कि युद्ध की अतिरेकी स्थिति के बीच हम सबसे ज्यादा किसके बारे में सोचेंगे? हिंसा और भयावह रक्तपात के बीच ऐसा क्या है जिसकी कमी हमें सबसे ज्यादा खलेगी। या कि वह कौन सा एहसास है जो हमें इस सब के बीच भी जानवर में नहीं बदलने देगा। हम तब भी मनुष्य बने रहेंगे। इन सब का जवाब एक ही है - प्रेम... भले ही यह किसी से भी हो और किसी भी तरह का हो। और इसके बाद बड़े से बड़ा बलिदान भी सहज लगता है। क्या इसीलिए दुनिया की कुछ सबसे शानदार प्रेम कहानियों की पृष्ठभूमि में हथियारों का बहरा कर देनेवाला शोर गूँजता रहता है जिसे चीरकर यह कहानियाँ बाहर आती हैं!
जब सूबेदार और बोधा सिंह गाड़ी में बैठकर चल देते हैं और लहना सिंह अपनी आखिरी साँसें गिन रहा होता है तो उस पर स्मृतियाँ इतनी हमलावर क्यों होती हैं! नहीं स्मृतियाँ पहले से ही हमलावर हैं उस पर नहीं तो वह अपना बलिदान यूँ ही नहीं देता। या कि सूबेदार की जगह पर वही गाड़ी में बैठकर चला जाता। याकि साथ में ही चला जाता। इनमें से कुछ भी नहीं करता वह। उसने अपने लिए मौत चुन ली है। क्यों? इस क्यों का उत्तर आखिर कहाँ है प्रेम में या युद्ध में? क्या वह जिंदगी के बारे में किसी निर्णायक नतीजे पर पहुँच चुका है?
और अगर ऐसा है भी तो यह कहानी हमें अपनी सी क्यों लगती है? हम आज भी इसे पढ़ते हुए कुछ अबूझ सा क्यों महसूस करने लगते हैं जबकि न जाने कितने प्रेम और प्रेम कहानियाँ हमारे आसपास के वातावरण में तैरती रहती हैं और वे हमें उस तरह से नहीं छूतीं। जबकि यह कहानी लोककथाओं की तरह हमारी चेतना में जज्ब होकर नया नया रूप लेती रहती है।
सोचने का एक तरीका यह भी हो सकता है कि आज हम पल-प्रतिपल युद्ध की ही अतिरेकी मानसिकता में जी रहे हैं। विज्ञान के तमाम चिकित्सा चमत्कारों के बाद भी जिंदगी के बारे में एक अनिश्चितता की स्थिति बनी है। हम देखते हैं कि हर साल लाखों की संख्या में तो लोग सड़क दुर्घटनाओं के चलते ही दम तोड़ देते हैं। ऐसे ही मरने के न जाने कितने तरीके समय ने ईजाद किए हैं।
तकनीकी चमत्कारों ने बाहर की दुनिया को जितना भरा है हमारा भीतर उसी अनुपात में खाली होता गया है। बाहर जितना शोर है भीतर उतना ही अपरिचय और अलगाव है। इसके बावजूद बाहर की दुनिया में परिचय का शोर इतना ज्यादा है कि छोटी-छोटी चीजें अनकही ही रह जाती हैं और कभी कही भी जाती हैं तो कई बार पिछड़ी संवेदना करार दे दी जाती हैं तो कई बार बाहर के शोर के बरक्स उनका कहा जाना खुद-ब-खुद एब्सर्ड में बदल जाता है।
कहानी में लौटें तो वहाँ भी शोर है। भयावह शोर है। छल-कपट है, एब्सर्ड स्थितियाँ हैं कि जो लोग एक दूसरे को मार और मर रहे हैं वे एक दूसरे के बारे में कुछ भी नहीं जानते। इसके बावजूद कि वे मनुष्य हैं रोबोट नहीं। जान सकें ऐसी संभावना भी कम ही है क्योंकि वह युद्ध में हैं जो ऐसी किसी भी संभावना की भ्रूण हत्या कर देनेवाला है।
तो कहीं यह तो नहीं कि ऐसे में किसी सूबेदारनी की धुँधली सी याद हमें मनुष्य बनाए रखती है... और यह इतनी बड़ी बात है कि इसके लिए हम बड़ी से बड़ी कीमत चुकाने के लिए तैयार बैठे रहते हैं...। सूबेदारनी के साथ साथ अपने घर-परिवार के बारे में बेहोशी की हालत में भी सोचते हुए लहना सिंह जब अपने लिए मौत चुनता है तो क्या एक बार ही सही उसे उन जर्मन सैनिकों की भी याद आई होगी जिन्हें थोड़ी देर पहले उसने मौत के घाट उतार दिया था! या उसने उस जर्मन सैनिक के बारे में कुछ सोचा होगा जिसकी गोली उसका प्राण ले रही थी? कहानी ऐसे बहुतेरे सवालों के बारे में ठोस कुछ भी नहीं कहती। वह उन्हें छोड़कर आगे बढ़ जाती है। क्या लहना सिंह की तरफ?
नहीं। इसके बाद कहानी पाठकों की तरफ लौटती है। मुझे यह कहानी इस लिए भी प्रिय है - और मैं सोचता हूँ कि यह भी इसकी लोकप्रियता और चिरसमकालिकता के कारणों में से एक है - कि यह कहानी हमें हमारे बहुत भीतर बसे हुए उस लहना सिंह के करीब ले जाती है जिसे हम कई बार उसी तरह भूल चुके होते हैं जिस तरह से लहना सिंह सूबेदारनी से मिलने के पहले अपने बचपन का वह पहला आकर्षण भूल गया है। हम सब के जीवन में एक सूबेदारनी (सूबेदार भी) होती है जिसके लिए हम अपना सर्वस्व निछावर करने के लिए तैयार बैठे मिलते हैं। बिना किसी खास वजह के भी। यह सिर्फ अच्छे कहे जानेवाले लोगों की बात नहीं है बल्कि बुरे कहे जानेवाले लोगों के लिए भी इसी तरह से और इतना ही सच है। इसे पढ़ना बार बार अपने भीतर छुपे लहना सिंह की खोज है। यह एक ऐसी पुरानी बात है जो कभी भी पुरानी नहीं पड़नेवाली।