‘किसी के आंसुओं में मुस्कुराएंगे’ / जयप्रकाश चौकसे

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‘किसी के आंसुओं में मुस्कुराएंगे’
प्रकाशन तिथि : 09 अप्रैल 2020


कोरोना कालखंड में मरने वालों का शवदाह या इस्लाम अनुयायी लोगों को दफ्न करना कठिन होता जा रहा है। लेखक प्रेमचंद की ‘कफ़न’ कहानी के दो पात्र संवेदना विहीन हैं और चलते-फिरते मुर्दों की तरह हैं। कफन के श्वसुर और पति निठल्ले और जानवरों से बदतर मनुष्य हैं। एक स्त्री ही मेहनत-मजदूरी कर पति और श्वसुर को पाल रही है। प्रसव पीड़ा झेलने वाली स्त्री को सहायता के लिए दाई या वैद्य को न बुलाते हुए पिता-पुत्र बुझते अंगारों पर सेंके आलू खाने लगे हैं। स्त्री का निधन होने पर गांव वाले चंदा कर उसके कफ़न और दाहक्रिया के लिए धन एकत्रित करते हैं। पति-श्वसुर को धन दिया जाता है वे दाह संस्कार के लिए सामान खरीदकर लाएं। दोनों शराब और पूरियां खरीद लेते हैं। भोजन करते हुए याद करते हैं वह स्त्री कितनी महान थी, जिसने जीवनभर उनकी सेवा की और मृत्यु बाद भी उन्हें शराब और मिष्ठान उपलब्ध करा गई। कथा पर गुलज़ार ने दूरदर्शन के लिए फिल्म बनाई थी।

हॉलीवुड की अलपचीनो अभिनीत ‘स्कारफेस’ में आदर्शवादी शिक्षक मास्टर दीनानाथ का अध्यापन जारी रखना अपराध सरगना को पसंद नहीं है। वह जानता है अवाम का अशिक्षित बने रहना ही लाभप्रद है। उस समय किसी को यह कल्पना नहीं थी, भविष्य में पढ़े-लिखे ही भ्रष्ट, अंधविश्वासी हो जाएंगे। अपराध सरगना मास्टर दीनानाथ का कत्ल कर देता है और बस्ती में मुनादी करा देता है कि कोई भी व्यक्ति अंतिम क्रिया में सहायता नहीं करे। मास्टर दीनानाथ का किशोरवय पुत्र अकेले ही हाथगाड़ी पर शव लेकर जाता है, लकड़ियां एकत्र करता है और शवदाह करता है। उसी चिता की अग्नि में उसका चरित्र तपकर इस्पात में ढल जाता है। नरगिस दत्त का देहावसान होने पर शवयात्रा की तैयारी चल रही थी। नरगिस के भाई अनवर के पुत्र, सुनील दत्त के फिल्म निर्माण कार्य से जुड़े थे। उन्होंने पक्ष रखा, नरगिस जद्दनबाई की पुत्री थीं, उसे सुपुर्देखाक किया जाए। जद्दनबाई की कब्र के निकट दफ़नाया जाए। उस समय यह किसी ने नहीं बताया, नरगिस के पिता मोहनबाबू थे। पिता-पति दोनों ही बहुसंख्यक वर्ग के थे। अंतरंग मित्र राज कपूर भी इसी वर्ग के थे। यहां तक कि जद्दनबाई भी बहुसंख्यक वर्ग की थीं।

एक हिंदू की घर लौटती बारात को डाकुओं ने लूट लिया। दुल्हन को उठाकर ले गए वह उनका भोजन पकाएगी और अड्‌डे की सफाई करेगी। एक दिन वह नदी के किनारे कपड़े धोते हुए गीत गा रही थी। वहां से गुजरते हुए खानाबदोशोंे ने उसकी व्यथा-कथा सुनकर उसे साथ ले लिया। कलकत्ता में वह कोठे पर गीत गाती थी। मोहनबाबू मुग्ध हो गए और उससे विवाह कर मुंबई आ गए। जद्दनबाई ने फिल्मों में संगीत दिया और फिल्मों का निर्माण भी किया।

सुनील दत्त ने समझौता किया, शव हिंदू सधवा की तरह घर से ले जाया जाएगा, परंतु अग्निदाह नहीं करते हुए उसे दफ्न किया जाएगा। परंपरा है एक कब्र के स्थान पर कुछ वर्ष बाद ही दूसरा शव दफ्न किया जाता है। कुंदन शाह की अमर फिल्म ‘जाने भी दो यारों’ में ताबूत सारे शहर की यात्रा करता है और शव एक नाटक में एक पात्र के रूप में भी प्रस्तुत किया गया है। जयंतीभाई गढ़ा के पास ‘जाने भी दो यारों’ के नए संस्करण बनाने के अधिकार हैं, परंतु कुंदन शाह की मृत्यु हो चुकी है वैसा फिल्मकार अब कहां मिलेगा? क्रिश्चियन समाज में एक छोटा वर्ग है जो मृत परिजन का अग्निदाह करता है।

राज कपूर की ‘राम तेरी गंगा मैली’ में लंपटों से बचते हुए नायिका श्मशान में शरण लेती है। वहां डोम उससे पूछता है क्या उसे श्मशान में डर लग रहा है? वह उत्तर देती है डर तो जीवित लोगों से लगता है। शेक्सपीयर के नाटक ‘हेमलेट’ में ग्रेव डिगर दृश्य को महत्वपूर्ण माना गया है। कब्र खोदना रोजी-रोटी कमाने का साधन है। कब्र खोदते हुए वे जीवन की अर्थहीनता पर टिप्पणी करते हैं। क्या जीवन रूपी वाक्य में मृत्यु पूर्ण विराम है? शैलेंद्र याद दिलाते हैं ‘मरकर भी याद आएंगे, किसी के आंसुओं में मुस्कुराएंगे, जीना इसी का नाम है…।