‘घुँघरी’ :डॉ०कविता भट्ट की कविताओं का सम्मोहन / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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काव्य जीवन के अनुभूत सत्य की अभिव्यक्ति है। यह सत्य जीवन के विभिन्न रूपों को जीकर, भोगकर, सहकर, रच-बसकर तब मिलता है, जब रचनाकार संवेदनशील हो। कवि के लिए कण से लेकर विस्तार तक, घर से लेकर पूरे संसार तक, एक भाव-सृष्टि फैली हुई है। जिसका हृदय उदार है, वह पत्ते से लेकर फूल तक, पर्वत से लेकर नदी, झरने तक, जड़ से लेकर चेतन तक सभी में कुछ न महसूस कर लेगा। रचनाकार की दृष्टि जितनी व्यापक होगी, उसका सृजित संसार उतना ही मोहक, वैविध्यपूर्ण, आकर्षक होगा। शब्द-ब्रह्म पर अगर गहरी पकड़ होगी, तभी उसकी भाषा भावों की अनुचरी हो सकेगी। डॉ.कविता भट्ट की जितनी अवस्था है, उनकी जीवन-अनुभूतियाँ उससे भी कहीं अधिक गहरी और बड़ी हैं। इसका कारण है, उनका ज़मीनी समस्याओं से जुड़ाव, उनका मानववादी उदार दृष्टिकोण। साहित्य से लेकर धर्म-दर्शन तक का गहन अध्ययन, इनके काव्य को अधिक गहरा और अनुभूतिपरक बनाता है।

'घुँघरी' के काव्य-संसार का फलक बहुत व्यापक है। पहाड़ का प्राकृतिक सौन्दर्य, जिजीविषा के लिए जटिल संघर्ष, जीवन की कठोरता से टकराहट, पलायन के कारण निरन्तर खाली होते टूटते घर-परिवार-गाँव, प्राकृतिक संसाधनों का अमर्यादित दोहन, आधे-अधूरे सपनों का कड़वा सच, प्रेम की अकुलाहट, वियोग का सन्ताप इनकी कविताओं में बार-बार छलक जाता है। डॉ.कविता भट्ट की 'माँ शारदा' से की गई प्रार्थना कोई परम्परागत रूढ़ प्रार्थना नहीं, बल्कि उनका एक स्वप्न है-' घरों में हँसी के किवाड़ खुलें, बंजर में हरियाली फैले, पहाड़ी पगडण्डी के घोर अँधेरे मिटें। गाँव में नए सवेरे की उत्कट आराधना की है-

पहाड़ी पगडण्डी पर घोर अँधेरे / गाँव के जीवन में कर दे सवेरे।

'बन्द दरवाजा'-एक प्रतीकात्मक कविता है, जो निरन्तर उजाड़ होते पहाड़ी गाँवों की व्यथा है। अतीत का उजाला, वर्तमान का सूनापन और भविष्य की आशा, तीनों चित्र बहुत गहरे हैं। पूरी कविता मानस पर फ़िल्म की तरह उभरती है। दरवाज़े वातायन, सूरज और हवा के साथ गहरी अभिव्यक्ति और भावों को साकार करने वाला बिम्बविधान बहुत सशक्त रूप में प्रस्तुत हुआ है। दरवाज़ा कविता गहरी पीड़ा जगा जाती है। अँधेरे में खिड़की का सुबकना-रोना मार्मिकता की पराकाष्ठा है। दरवाजे, खिड़कियाँ सभी उदास है, फिर भी कवयित्री ने आशा का दामन नहीं छोड़ा है-

लगता है; सुनेगी सिसकियाँ / पगडंडियों से उतरती हवा / पलटेगी रुख शायद अब

धक्का देकर चरमराते हुए / पहाड़ी की ओर फिर से / खुलेगा-बन्द पड़ा दरवाजा

चरमराहट के संगीत पर / झूमेंगी फिर से खिड़कियाँ / घाटी में गूँजेंगी स्वर-लहरियाँ।

परिस्थितियों के आगे सिर झुकाने से, रोने-कलपने से जीवन नहीं चलता। घोर निराशा और संघर्ष क्षणों में टूटने के बजाय डॉ.कविता भट्ट की कलम पीठ थपथपाती है-

रात का रोना तो बहुत हो चुका, / नई भोर की नई रीत लिखें अब।

नहीं ला सकता है समय बुढ़ापा, / युगल पृष्ठों पर हम गीत लिखें अब।

मनमोहक प्राकृतिक सौन्दर्य: पहाड़ों का मनमोहक प्राकृतिक सौन्दर्य चित्रित करने में कवयित्री का छलक-छलक आता गहन आत्मीय रूप आँखों के सामने दृश्यांकित हो जाता है। नदियाँ, बादल उन्नत पहाड़ों को चूमती हवाएँ, सब एक से बढ़कर एक हैं, जिनके लिए पद-धन-मान छोड़कर केवल इनमें खो जाने की लालसा प्रबल हो जाती है। स्वर्ग को जाने वाली सीढ़ियों का आभास देते खेत। इनके साथ पूरी प्रकृति मुग्धा नायिका का रूप धारण कर लेती है। इस कविता का अद्भुत सौन्दर्य मन को मोह लेता है-

ये घुँघरू बजाती अप्सराओं-सी नदियाँ / अभिसार को आतुर ये बादल की गतियाँ

बर्फीले बिछौनों पर ये अनुपम आलिंगन / सुरीली हवाओं के उन्नत पहाड़ों को चुम्बन

पक्षी-युगल की प्रणय-रत कतारें हैं, तो अपनी प्रतिध्वनि का लौट आना जैसे प्रियतम ने भावविभोर होकर पुकारा हो, एक नवीन उद्भावना एवं कल्पना से आप्लावित है-

अपनी ही प्रतिध्वनि कुछ ऐसे लौट आए / जैसे प्रेयसी को उसका प्रियतम बुलाए.

प्रकृति के प्रति पूर्ण समर्पण की यह कविता मन-प्राण में बसे पहाड़ के विस्मित करने वाले सौन्दर्य का शब्दचित्र है।

'बुराँस की नई कली' जब किवाड़ खोलकर चल पड़ती है, तो इसका मानवीकरण देखिए और इन पंक्तियों की सुमधुर लय भी, जैसे कोई नन्हा बच्चा कदमताल कर रहा हो-

'बुराँस की नई कली, किवाड़ खोलकर चली' तथा 'एक किरण छू गई नन्ही-सी डोलकर चली' इसी शृंखला में मूक निमन्त्रण पाकर, प्रणय-अभिसार लेकर, 'साँझ रंगीली' का आगमन हो रहा है जिसका 'नवपोषित यौवन शृंगार' हृदय में मधुर लालसा जगाने लगता है।

प्रकृति के शुद्ध आलम्बन के स्थान पर प्रतीक-रूप में कवयित्री 'ओ चम्पा की कली!' के व्याज से सामाजिक विडम्बनाओं से आहत होती है, आक्रोशित होती है, उद्विग्न होकर पाखण्ड-जडित धारणाओं पर चोट करती है। यहाँ चम्पा की कली अपने रूप के निखार के लिए, सुगंध को सँजोने के लिए, सारे सांसारिक कष्ट को सहती है। मधुर कल्पनाओं डूबने का अवसर आते ही अपने संकुचित और निहित उद्देश्य के लिए किसी स्वार्थी ने तुझे तोड़ लिया-

निज स्वार्थ को पूजन का नाम देकर / तेरे यौवन में, तेरे जीवन को मिटाकर

यही नहीं, बल्कि 'जिसने तुझे सँवारा उसी के लिए अनछुई' बनकर रह गई

तरह-तरह के लोग तुझे मिले

किसी ने तुझे सहलाया और किसी ने रुला दिया-

'चम्पा की कली' बहु आयामी कविता है, जिसमें अनेकार्थ गुम्फित हैं, जो सहृदय के सामने एक-एक पाँखुरी की तरह खुलते जाते हैं।

प्रकृति पर्वतीय जीवन का प्रमुख केंद्र है। इसी केंद्र में पुरखों की विरासत के रूप में फूलदेई का लोकपर्व आता है। समय के साथ और भौतिकता की अंधी दौड़ में सब कुछ गुम हो गया। चैत्र संक्रांति से बैशाखी तक अनवरत चले वाला यह पर्व भी उपेक्षित होता चला गया। कवयित्री आज भी उसके लिए तरसती है। उसकी यह तड़प इस प्रकार प्रकट होती है-

मेरा बचपन-उसी छज्जे पर / लटकी टोकरी में; खोजो तो कोई-फूलदेई

हो सके ताज़ा कर दो फूल पानी छिड़ककर; / अब भी बासी नहीं-फूलदेई

'मैतियों के आर्से-रुटाने' में लौकिक जीवन में आया बदलाव संताप दे जाता है। कहने को हम आधुनिक हो गए; लेकिन इसके लिए हम अपनी सहजता खो चुके हैं। सारे लोकगीत, नृत्य, त्योहार खो गए; जिनमें हमारी आस्था और आत्मा जुड़ीं थी, वे सभी ध्वस्त हो गए-

सड़कों के तो जाल बन गए / जिनमें सारे धारे ताल छन गए

कट गए चीड़-बाँज-बुराँस-अँयार / हट गए मन्दिर पुराने और घर-द्वार डॉ.कविता भट्ट की इन कविताओं के साथ गहन प्रेम, अभिभूत करने वाला सौन्दर्य, भुजपाश में बाँधने वाले आकर्षण और तीव्र आसक्ति को सम्प्रेषित करने वाली वे माधुर्य-सिक्त कविताएँ हैं, जो सहृदय को स्वप्नलोक की सैर कराती हैं, कभी उसकी तड़प को चित्रित करती हैं, तो कभी प्रतीक्षाकुल नायिका की व्यथा को स्वर देती हैं। प्रणय-निवेदन, प्रिय का सामीप्य, आश्वस्ति का आलिंगन आदि को लेकर लम्बी कविताएँ हों या संश्लिष्ट अभिव्यक्ति देने वाले हाइकु, ताँका, चोका क्षणिकाएँ; सभी स्थलों पर इनकी अनुभूतियाँ बाँध लेती हैं। किसी भी रचनाकार की सफलता का मापदण्ड होती है, उसकी शब्द-सामर्थ्य, अल्पतम शब्दों में बहुत कुछ कह देना। इन क्षणिकाओं में प्रेम और आकर्षण का चित्रण जितना सहज है, अनुभव और संवेदना का फलक उतना ही व्यापक है। जीवन के छोटे-छोटे क्षण उनकी रचनाओं में पाठक की संवेदना को झकझोर कर रख देते हैं। अर्थ की सूक्ष्म पकड़ में आपको महारत हासिल है। इन क्षणिकाओं में 'प्रेम' और ' प्रेम को प्राप्त करने की आतुरता की अभिव्यक्ति की प्रस्तुति, किसान और आकाश जैसे लोक-प्रचलित सहज प्रतीकों के प्रयोग भी देखिए-

1.जिस शिद्दत से देखते हो / तुम मेरा चेहरा / काश! ज़िन्दगी भी / उतनी ही कशिश-भरी होती। 2.जिस उम्मीद से / किसान देखता है / आकाश की ओर / उसी उम्मीद-सा है, प्रिय! / तुम्हारा प्रणय-निवेदन।

3.मिलन में भी-प्रेम की पराकाष्ठा / तुमसे लिपटी हुई / तुम्हारे पास ही होती हूँ / तब भी तुम्हारी ही याद में रोती हूँ।

ताँका जैसी जापानी शैली में, कम से कम शब्दों में 'नभ-सी बाहें पसारने' में निहित अर्थ का अवगाहन किया जाए, तो इन पंक्तियों में आए आकुल प्रेम की व्याख्या में कई पन्ने लिखे जा सकते हैं, फिर भी सम्भव नहीं कि उस अतल गहराई में पूर्णतया उतरा जा सके-

कभी पसारो / बाँहें नभ-सी तुम / मुझे भर लो / आलिंगन में प्रिय / अवसाद हर लो। आजकल 5-7-5 की जोड़-तोड़ करके शुष्क लेखन की भरमार है, वहीं डॉ.कविता भट्ट के हाइकु रस से सराबोर करने वाले हैं। बर्फीली सर्दी में आलिंगनरता, आलिंगन में आकर समा जाने का निमन्त्रण, अलाव-सा स्पर्श, बिछोह के पलों में विकल मन से रोना और प्रिय को पा जाना, आँसुओं से लिखी पाती को बाँच पाने का अनुरोध करना इनके हाइकु को अतीन्द्रीय ऊँचाई के साथ भाव-सागर में निमग्न करने की सामर्थ्य रखते हैं-

प्रेम-अगन / अनोखे आलिंगन / बर्फीली सर्दी। अबके आना / प्रिय आलिंगन में, / भूल न जाना।

अलाव–सा है, / सर्द रात-पीड़ा में / स्पर्श तुम्हारा।

जब भी रोया / विकल मन मेरा / तुमको पाया।

नैन विकल / लिखें पाती आँसू से / कभी तो बाँच।

'प्रेमग्रंथ के पन्ने ...' चोका में पत्रों के सन्दर्भ से प्रेम की शाश्वत अनुभूतियों और आँखों की प्रतीक्षारत उत्सुकता का सजीव चित्रण किया गया है–

झँपती नहीं कभी / मुस्काती आँखें / और कनखियों से / देखती हुई / प्यारी तरल आँखें।

कवयित्री की प्रेम की उड़ान अम्बर-सी व्यापक है, जो लिपटने को उद्यत है। 'मैं हूँ सरस होंठों की छुवन' में बाहुपाश में जकड़कर अवसादों की बर्फ़ को पिंघलाने की सामर्थ्य है। यह छुवन जड़ बन्धनों से मुक्त है

गुदगुदाती लिपट लूँगी / जब तीखी हवाएँ हेरेंगी।

मुक्त हूँ-जड़ बंधनों से / मैं हूँ सरस होंठों की छुवन

'प्रिय! अब जाने की करो नहीं हठ' कविता में प्रिय से रुकने का आग्रह है, क्योंकि साक्षात् न सही, स्वप्न में आलिंगन का जो सुख मिल रहा है, उससे वंचित नहीं होना चाहती। अधर चुम्बनरत हैं, जिनसे प्रेम प्रतिध्वनित हो रहा है, नयनों से नयन उलझे हुए हैं। वह चरम सुख के इन क्षणों को खोना नहीं चाहती-

प्रिय! हम स्वप्न-पाश में आलिंगनरत / अधर धरे अधरों पर प्रेम-प्रतिध्वनित

क्षणिक आकर्षण में बँधने वाले, बहुत से प्रेम-लोलुप भीड़ बनकर सामने आ जाएँगे, जिनकी सच्चा प्रेमी उपेक्षा ही करेगा। 'मुझे प्रतीक्षा है' कविता में पाषाण-हृदय कहे जाने का उत्तर बहुत दृढ़ता से दिया गया है। भाव एवं वैचारिक द्वन्द्व को गहनता से अभिव्यक्त करती है सशक्त कविता। प्रत्यक्ष रूप से, जो व्यक्ति जैसा दिखाई देता है, वैसा ही हो, ज़रूरी नहीं। पत्थरों के नीचे असीम जल का सोता छुपा हो सकता है। आवश्यकता है प्रयास करने वाले की और उस उद्दाम प्रेम को सँभालने और सँवारने की। ये पंक्तियाँ हृदय को छू गईं-

मैं चाहती हूँ द्रवित होना; / किन्तु मुझे प्रतीक्षा है- / निश्छल भगीरथ-शंकर की

जो पिघला सके पाषाण-हृदय! / और...मेरे चिर-प्रवाह को सँभाले-सँवारे

वचनबद्ध हूँ-तृप्ति हेतु; किन्तु / तुम भगीरथ-शिव बनने का / वचन दे सकोगे क्या प्रिय?

वह भी इसलिए ज़रूरत है; क्योंकि वह उफनती धारा है, पवित्र है। उसे सँभालने वाला भी वैसा ही होना चाहिए

'प्रेम है अपना' में चलताऊ प्रेम करने वालों को आगाह किया है-

वेदों की ऋचा-सा प्रेम अपना / मधुर ध्वनि में इसको गाना

तथा

गंगाजल-सा शीतल मन है / और दीप्त शिखा-सा मेरा तन है

इसी तरह के प्रेम के लिए वह सर्वदा समर्पित है-मन, वचन और कर्म से। 'समर्पण' में यही भाव समाया है, उसके लिए, 'निज आलिंगन से जिसने जीवन सँवारा'

आजीवन पिया को समर्थन लिखूँगी / प्रेम को अपना समर्पण लिखूँगी।

'हे प्रिया! मैं तुम्हारे पास आना चाहता हूँ' कविता में प्रेमी की निकटता और निजता इन पंक्तियों में मुक्त भाव से उमड़ पड़ी है-

सर्दी में तुम्हें; बाहों में भरकर / वासना से रहित प्रेम-आलिंगन / ध्वनित हों प्रेम के अनहद गुंजन / सर्दी में बाहों में भरना, वासना रहित आलिंगन और प्रेमी-युगल का वह प्रेम, जो अनहद गुंजन की ओर अग्रसर हो, वही तो स्थायी प्रेम है, गहन भावों का अनुवाद है, पावन अतल अनुरक्ति है।

'स्वप्न-सभा में प्रिय तुम आना' में वह द्वार खोले प्रतीक्षारत है। नव कुसुमित अधर व्याकुल हैं, युगों-युगों से प्रेम-घट रीते हैं, जिन्हें भरे जाने की आशा है। हृदय के राजा का आसन खाली है, उस पर वही विराजमान हो सकता है, जो प्रेम के सच्चे निकष पर खरा उतरता हो। वहाँ चुपचाप पहुँचना है-

नव कुसुमित अधर लिये हूँ शोभा तुम्ही बढ़ाना / पदचाप रहित मंद-मंद पग-पग बढ़ते जाना।

लेकिन एक शर्त भी है, वह यह है-'सतरंगी विश्राम-भवन से कभी नहीं जाना'।

प्रिय की यह निकटता मिल जाए, तो पूरा जीवन मधुमास बनकर खिल जाएगा, सब अवसाद चूर-चूर हो जाएँगे। इस मधुर कल्पना को बड़ी संज़ीदगी से अभिव्यक्त किया है।

पतझड़ भी सुवासित मधुमास होते, / प्रिय! यदि तुम पास होते!

हर इंसान को प्रेम की तलाश और प्यास है, लेकिन वर्जनाएँ सब नष्ट कर देती हैं, जिनके कारण सच्चा स्नेह दम तोड़ देता है। दुःख-भरे मन की अँधेरी सीमा में सब कुछ गुम हो जाता है, तभी एक शाश्वत प्रश्न उभरता है-

पुरुषत्व की ऊँची वर्जनाओं में / कुछ स्नेह क्या तुम पा पाओगे? -कायाओं का है मोहपाश / सम्बन्धों का वासना-लिप्त / अत्यंत संकीर्ण ,किंतु, विस्तृत आकाश।

विछोह का दु: ख सबसे भारी है। मन मधुर स्मृतियों में डूब जाता है। पुराने दिन याद करके आनन्द और विछोह, दोनों ही हृदय को मथ देते हैं। 'प्रिय जब तुम पास थे' , ऐसी ही विछोह भरी कविता है-

प्रेम चरम शिखर आरूढ़ होने को उन्मुख। / विगत विछोह-विदा, दुःख-विस्मरण के आभास थे।

वहीं यह प्रश्न मन पर भारी पड़ता है-

क्या होगा कभी पुनर्मिलन / अब नित्यप्रति है यही प्रश्न

निरुत्तर तुम्हारे-मेरे अधरों के उसी दिन से प्रयास थे।

'गुँथा मिलन कब' वियोग की चरम परिणति की कविता है। पूरा जीवन यूँ ही बीत गया। आँसुओं की टूटी माला को गूँथने-पिरोने में ही जीवन के स्वर्णिम पल बिखर गए. प्यार करने वाला तो पुष्प बिछाता रह गया, लेकिन प्रारब्ध में तो काँटों पर सोना ही लिखा था-इस मार्मिक कविता को पढ़कर मन में एक हूक-सी उठती है कि क्या यही जीवन है, क्या यही प्रेम का अवसान है-

पथ में प्रिय पुष्प बिछाते, पर विरहन काँटों में सोती।

गुँथा मिलन कब हृदय सुचि से, टूटी अश्रुमाल पिरोती॥

प्रेम को स्थायी बनाने के लिए एक-दूसरे के साथ रहने का नहीं, बल्कि एक साथ होने का भाव ज़रूरी है। यह तभी सम्भव है, जब प्रेम करने वाले हर तरह के अहंकार से मुक्त हों। कवयित्री एक दोहे में अपने अनन्य प्रेम को बनाए रखने के लिए आग्रह करती है-

छोटी-छोटी बात पर, मत करना तुम रार।

मेरे जीवन का सभी, तुम पर ही अब भार।

'अन्तिम अनुभव' करुणार्द्र करने वाली प्रेम कथा है। सच्चा मन जब बार-बार आहत होता है, बार-बार टूटता है, अकारण व्यथित किया जाता है, तो अवसाद की स्थिति पैदा हो जाती है। जीवन के प्रति सारी कामनानाएँ, आकांक्षाएँ दम तोड़ देती हैं। ऐसी मन: स्थिति में मृत्यु भी भयाक्रान्त नहीं करती, इस कविता में एक प्रकार की निस्संगता अवतरित होती है

न तुमसे दूर जाने का दु: ख / न तुम्हारे आलिंगन का सुख

मृत्यु-शांति! न जीवन भय है आज मुझे /

शब्दों में इतने भाव भर देना सचमुच एक साधना है, जिसमें डॉ.कविता भट्ट समर्थ ही नहीं, सक्षम और सफल भी हैं। भाषा की यह परिणति उनके दार्शनिक-मंथन और चिन्तन की भी द्योतक है। थके शिशु की तरह सिसकना अवसाद से भर जाता है। कविता की अधोलिखित पंक्तियाँ मुझे भी द्रवित कर गई-

कामना थी रोने की अपनी मृत्यु पर / थके शिशु-सी सिसक-सिसककर

XX

मेरा पीला चेहरा लेकर हाथों में अपने/ मेरे ठंडे-कोमल कपोलों पर तप्त अधर रखे अपने / किन्तु आज देह में नहीं कोई सरसराहट / तेरे, न मेरे अधरों पर कहीं कोई मुस्कुराहट /

पाठक यह सोच सकते हैं कि कवयित्री प्रेम के आकर्षण और वियोग की सन्तप्त धारा से बाहर नहीं निकल पाती, लेकिन ऐसा नहीं। यह प्रेम-विछोह सबको सहना होता है, क्या धनी, क्या निर्धन, क्या सामान्य जन, क्या विशिष्ट जन। अगर मानव मन में प्रेम की यह तरल धारा नहीं होती, तो वह केवल पशु होता या राक्षस।

इससे भी और आगे बढ़ें, तो पता चलेगा कि डॉ.कविता भट्ट सामाजिक जागरूकता में कहीं पीछे नहीं है। 'पहाड़ी महिला' , पर्वतीय सौन्दर्य और शक्ति की प्रतीक ही नहीं, बल्कि रीढ़ है, पहाड़ की जीवन-रेखा है। कवयित्री की दृष्टि पर्यावरण विनाश से लेकर ध्वस्त होते जीवन मूल्य, कल्याण की आड़ में अभिशाप बाँटती योजनाएँ, पलायन से खाली गाँव, मूल जन-सुविधाओं का अभाव, राजनीति की क्रूरता, सुनहरे सपने दिखाकर सामान्य जीवन-यापन के साधनों से भी वंचित करने का दुश्चक्र; सभी पर आपकी गहरी विश्लेषणात्मक दृष्टि गई है। पहाड़ी महिला इनकी कविताओं में बार-बार आई है। घुँघरी, शैल-बाला, काँच की चूड़ियाँ, पहाड़ की नारी, घुँघरी तब ही मनाएगी, पहाड़ी नारी, कौन-सी चर्चा चलती है आदि कविताएँ, केवल कविताएँ नहीं, वरन पहाड़ी नारी के जीवन का महाकाव्य हैं। डॉ.कविता भट्ट की इन कविताओं में केवल शाब्दिक सहानुभूति नहीं वरन एक चुनौती है, दृढ़ता है, जो पहाड़ी जीवन की कठोरता का आख्यान है। सोचकर देखिए, जिसका प्रिय फौज में सीमा पर तैनात है। दिल्ली में या देश की सीमा पर मोमबत्ती जलाने वाले उसके महकते जीवन को दहकते शोलों के बीच नहीं देख पाते-

मैं प्रिया पहाड़ी सैनिक की, लोग मुझको कहते हैं घुँघरी / टूटा मन कच्ची शाखा-सा / खिली नहीं स्वप्नों की डाली

यौवन-विवश बूढ़े वृक्ष-सा / ठूँठ-प्रिय-वियोग ने कर डाला (घुँघरी)

दूसरी ओर अहर्निश श्रम, संघर्षरता वह शैलबाला है, जिसके हिस्से में आराम नाम का कुछ भी नहीं। तमाम संघर्षों के बीच यह शैलबाला हमें अपराजिता ही नज़र आती है-

पहाड़ी-सूरज से पहले ही, उसकी उनींदी भोर / रात्रि उसे विश्राम न देती, बस देती झकझोर / विकट संघर्ष; किन्तु अधरों पर मुस्कान / दृढ़, सबल, श्रेष्ठ वह, है तपस्विनी महान (शैल-बाला)

'काँच की चूड़ियाँ' वाली नारी-

'घास काटी मगर खनखनाती रही / पीर में भी मधुर गीत गाती रही'

यह है उसका उदात्त जीवन। या

लोहे का सिर और बज्र-कमर संघर्ष तेरा बलशाली

रुकती न कभी थकती न कभी तू हे पहाड़ की नारी। (पहाड़ की नारी)

'पहाड़ी नारी' कविता में कवयित्री कहना चाहती है कि उसके सिर और कमर लौहनिर्मित हैं, लगता है वह इसी कारण से पशु की तरह बोझ ढोने को अभिशप्त है

अस्थियों के कंकाल शरीर को / वह आहें भर, अब भी ढो रही है,

'घुँघरी तब ही मनाएगी' को आशा है कि कभी न कभी उसका भाग्य बदलेगा, उसके प्रश्नों का उत्तर मिलेगा, तभी वह घुँघरी लोकतन्त्र का उत्सव मनाएगी-

'सिसकते-प्रश्नों के उत्तर / ये पहाड़न जब पा जाएगी / झुकी कमर में प्राण-संचार होगा

झुर्रियों में धँसी हँसी-आँख नचाएगी / लोकतन्त्र का उत्सव घुँघरी तब ही मनाएगी

पहाड़ को पीठ पर बँधे बच्चे की तरह निरन्तर ढोती है-

पहाड़-पीठ पर बँधे बच्चे-सा / फिर भी शान से चलती है

खेतों में खपती है हर दिन / इसके पालन को निकलती (कौन-सी चर्चा चलती है)

पुरुषत्व जहाँ नशे में झूम रहा है, वहीं सारी प्रताड़ना सहती यह नारी, पारिवारिक अस्तित्व बचाने के लिए शराब के ठेकों को बन्द कराने की मुहिम चलाने के लिए कटिबद्ध है। पहाड़ी महिला के जीवन-संघर्ष, अभाव, उपेक्षा के बीच जीवन-यापन की समस्याओं के बहुआयामी चित्र खींचने में डॉ.कविता भट्ट सफल रही हैं।

सरकारें भले विकास की बातें करें, फिर भी पहाड़ का बचपन पगडण्डियों में गुम होकर रह जाता है। अगर हम इस देश के भविष्य की बात करें, तो उसके दर्शन इनकी 'बचपन पहाड़ का' कविता में होते हैं, जिसमें बच्चों का दर्द भी समाया हुआ है। बचपन के सुखद और अल्हड़ दिन बर्फ़ की तरह गलकर तिरोहित हो जाते हैं।

इन पंक्तियों में जीवन का संघर्ष और साथ में प्रशासनिक उपेक्षा का यथार्थ चित्रण उल्लेखनीय हैं-

पहाड़ी बर्फ़-सा गलता है-बचपन पहाड़ का।

होटलों में बर्तन मलता है-बचपन पहाड़ का। -

यह कहना बहुत ज़रूरी होगा कि जहाँ प्रेम की रससिक्त अनुभूतियों को प्रेम से पागकर रचा है, वहीं पहाड़ के जीवन के दर्द को भी उतनी गहराई से अपनी कूँची से रूपाकार दिया है।

पहाड़ का एक और भी चित्र है, जो बहुत महत्त्वपूर्ण और मार्मिक है।

'मुकद्दमा' में विकास की ओट में निरन्तर होते विनाश का संकेत है, तो कुछ रचनाओं में रोजी-रोटी के अभाव और अभाव के कारण उपजे पलायन की व्यथा है। 'वह धोती पगड़ीवाला' का दरिद्रता और अभाव में जीने वाला, 'क्या मेरे टूटे मकान में' का वह प्रिय, जो अब टूटे मकान में शायद ही लौटकर आए, 'बूढ़ा पहाड़ी घर' काँपती आवाज़ में पुकारता ही रह जाएगा, लेकिन उसकी खोज-खबर लेने कोई नहीं आएगा। 'दूर पहाड़ी गाँव में' भी ऐसी ही कविता है, जहाँ-

वीराने से एक मौन-सी चीख निकलती है, / ...किसी के होने की गवाही देती,

दो बूढे़ शरीरों को ढाँढ़स देती।

या वह 'पहाड़ी गाँव' जिसकी पगडण्डी के किनारे बिखरी शीशियाँ, टूटी चूड़ियाँ, बिखरे हुए कंगन जीवन की विडम्बना और करुणा को सिसकते हुए बयान करते हैं। कवयित्री ने टूटी चूड़ियाँ और बिखरे हुए कंगन से नारी पर किए गए अत्याचार और अनाचार को संकेतात्मक रूप में वर्णित किया है-

'उन पाप के नोटों का क्या होगा' में गंगा की दुर्गति की कथा है, जिसकी चम्पई काया काली कर दी गई है। दुर्दशा के लिए उत्तरदायी लोगों पर डॉ.कविता भट्ट ने बहुत करारा व्यंग्य किया है-

कहने को कुम्भ नहाते हो, / अगणित मुझमें पाप बहाते हो।

उन पाप के नोटों का क्या होगा? / जो तकियों में छिपाये जाते हो।

सीधे-साधे लोगों का जीना मुहाल करने में शराब के ठेकों की भूमिका बहुत क्रूर है। जीवन की न्यूनतम सुविधाओं का भले ही अभाव हो, लेकिन पहाड़ों में शराब कोई किल्लत नहीं। यह क्रूर विनाश सारे सुख, सारी शान्ति का अपहरण कर ले रहा है। 'ठेके का टेण्डर' कविता इसकी सबसे बड़ी साक्षी है।

भाव और भाषा की धनी डॉ.कविता भट्ट को [1]काव्य-विषय के किसी एक दायरे में बाँधना बहुत कठिन है। उदात्त और उद्दाम प्रेम, परदु:खकातरता, प्रकृति से आत्मिक प्रेम, पुष्प-लता, पर्वत-घाटी से अटूट सम्बन्ध, सामाजिक जीवन और सरोकारों से सीधा रिश्ता, परिवेश का सूक्ष्म पर्यवेक्षण, इनको किसी एक विषय तक सीमित नहीं करता। ये जिस भाव में उतरती हैं, उसमें स्वयं को तद्रूप कर लेती है, जैसे पानी और उससे उपजी लहर। विषय-वैविध्य इनके वृहत्तर अनुभव का परिचायक है। अनुभूति की सरसता इनके व्यक्तित्त्व और स्वभाव का प्रमुख अंश है। मैं आशा करता हूँ कि वैविध्य से भरपूर यह 'घुँघरी' काव्य-संकलन इनके सर्जन को नए आयाम देगा।

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

2मई-2018