‘चाँदनी की सीपियाँ’ और उसके मोती /रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
भारतीय काव्यशास्त्र और भाषा विज्ञान में शब्द की सत्ता बहुत महत्त्वपूर्ण है। उपयुक्त अवसर पर जब उपयुक्त शब्द प्रयुक्त किया जाता है, तो अर्थ की गरिमा बढ़ जाती है। किसी अच्छे रचनाकार को अच्छा श्रोता भी होना चाहिए. अधिक पढ़ें-सुनें और गुनें फिर लेखनी चलाएँ तो सर्जन सार्थक होगा। नाइजेरिया के कवि बेन ओकरी ने कहा है-"अच्छा लेखक बनने की पहली शर्त है अच्छा पाठक बनना। लेखन की कला के साथ ही पढ़ने की कला भी विकसित की जानी चाहिए, ताकि हम और बुद्धिमत्ता व सम्पूर्णता के साथ लिखे हुए को ग्रहण कर सकें।" मैं इस कथन से पूरी तरह सहमत हूँ। कुछ लोग आत्मप्रशंसा करने में दशानन हैं, सुनने में सक्षम होने पर भी अधीरता के कारण अकर्ण (कान–विहीन, वैसे साँप के भी कान नहीं होते) बन जाते हैं। दो आँखें होने पर भी साक्षात् सत्य से आँख मूँद लेते हैं। साहित्य में ऐसा नहीं चल सकता। साहित्य में दिल-दिमाग-आँख-कान खुले रखने पड़ते हैं। जब बोलने या कहने का अवसर आता है, तो रहीम के शब्दों में-'हिये तराजू तौली के, तब मुख बाहर आनि' का पालन ज़रूरी है। महाकवि श्रीहर्ष रचित नैषधीयचरितम् में जो कहा है, वह साहित्य का मूलमन्त्र है-'मितं च सारं च वचो हि वाग्मिता॥ 9.8॥' मित और सारयुक्त वचन ही वाग्मिता (बोलने की कला) है। '
हाइकु पर यह सूक्ति पूरी तरह लागू होती है। हाइकु रचने वाले के लिए भाषायी संयम सबसे बड़ी आवश्यकता है। हाइकु–पाठक के लिए भी ज़रूरी है कि वह अपने को सतही शाब्दिक अर्थ या अभिधेयार्थ तक सीमित न रखे। अर्थ केवल शब्दों में ही नहीं होता, बल्कि शब्दों से परे उस भाव-भंगिमा में भी अन्तर्निहित होता है, जो कवि का अभीष्ट या अभिप्रेत है। अभीष्ट अर्थ कोई दूर की कौड़ी नहीं, वरन् वह गहन अर्थ है, जो-जो शब्द की वास्तविक सामर्थ्य से जुड़ा है। भाव और कल्पना का सारगर्भित सामंजस्य, तदनुरूप भाषा का सहज सम्प्रेषण हाइकु की शक्ति है। हाइकु के लिए एक विशिष्ट दृष्टि (विज़न) की आवश्यकता है। यह मेले-ठेले में गोलगप्पे खाने का काम नहीं है। सर्जक और पाठक दोनों का एकाग्रचित्त होना आवश्यक है। फुनगी नन्ही चिड़िया का भार वहन कर सकती है, लेकिन फूल की पाँखुरी नहीं। फूल की पाँखुरी पर तितली बैठ जाए, तो वह आहत–क्षत-विक्षत नहीं होती, बल्कि अपने रंग-रूप आकर्षण से फूल की शोभा का ही एक हिस्सा बन जाती है। फूल की पाँखुरी की तरह हाइकु को भी भारी-भरकम विचारधारा से नहीं लादा जा सकता। गहन अनुभूति और माधुर्य या प्रसाद गुण युक्त भाषा ही हाइकु का शृंगार बन सकती है। शब्दों से परे अर्थ की यात्रा हाइकु की अन्तश्चेतना बनती है। किसी भी रचनाकार का पूरा सर्जन इस निकष पर खरा नहीं उतर सकता, फिर भी प्रयास किया जाए कि जो भी रचा जाए, उसमें रचनाकार का अनधिकृत प्रवेश न हो।
हिन्दी हाइकु के आरम्भकाल में जो रचनाकार जुड़े, उनमें गम्भीरतापूर्वक सर्जन करने वाले भी थे और मनमाना लिखने वाले भी। आज भी दोनों तरह के रचनाकारों के कारण यथास्थिति बनी हुई है। एक बात ज़रूर अच्छी हुई है कि वरिष्ठ रचनाकारों की परम्परा में कुछ प्रतिभाषाली और नए रचनाकार हिन्दी हाइकु से जुड़े हैं। इन्होंने हाइकु के मर्म को समझा। जीवन को गहराई से अनुभव किया और अपने हाइकु में अभिव्यक्त किया। ऐसे रचनाकारों में डॉ भावना कुँवर, डॉ हरदीप सन्धु, डॉ कुँवर दिनेश, कमला निखुर्पा, रचना श्रीवास्तव, प्रियंका गुप्ता, डॉ जेन्नी शबनम, हरेराम समीप, सुशीला शिवराण, डॉ ज्योत्स्ना शर्मा, ज्योत्स्ना प्रदीप, अनिता ललित, कृष्णा वर्मा, पुष्पा मेहरा, सुभाष लखेड़ा, भावना सक्सेना, सुभाष नीरव, डॉ नूतन गैरोला, हरकीरत 'हीर' , नमिता राकेश, आदि प्रमुख हैं।
अनिता ललित कविता के क्षेत्र में अपनी भावपूर्ण रचनाओं के कारण अलग पहचान बना चुकी हैं। मेरा मानना है कि भाव की गहनता हाइकु का प्राण तत्त्व है। जागरूक रचनाकार का सरल और निश्छल व्यक्तित्व इस विधा को और अधिक गहरा कर सकता। अन्य समकालीन हाइकुकार की तरह अनिता ललित में बच्चों के भोलेपन जैसी व्यक्तित्व की यह विशेषता विद्यमान है। अनुभव का संसार तो सबके आसपास बिखरा है, ज़रूरत है ग्राह्य शक्ति की, सजगता की, आत्मसात् करने की, हृदय में बसाने की। चाणक्य ने कहा है-
दूरस्थोऽपि न दूरस्थो यो यस्य मनसि स्थित:।
यो यस्य हॄदये नास्ति समीपस्थोऽपि दूरत:। ।
'जो जिसके मन में बसता है, वह दूर होकर भी दूर नहीं है। जो जिसके हृदय में विद्यमान नहीं है, वह समीप होकर भी उससे दूर ही है।'
'चाँदनी की सीपियाँ' संग्रह के प्रारम्भ में 'भाव-कलश' के अन्तर्गत आराधना के रूप में कहा है-
भाव-कलश / प्रेम, संवेदना से / भरे, छलके.
गुरु सँवारे / शिष्य-मन-जीवन / माँजे, निखारे।
'प्रतिबिम्ब' में जीवन–जगत् के सम्बन्धों की अनिवार्यता, आत्मीयता के निकटतम मार्मिक क्षणों को रूपाकार दिया है।
बेटी के स्वरूप की ये पंक्तियाँ एक बेटी के सौन्दर्य का पूरा भाव-जगत् चित्रित कर देती हैं-
प्यारा-सा फूल / वो माथे का ग़ुरूर / बेटी है नूर।
विदा हो बेटी, / रोए घर आँगन, / कचोटे मन!
माँ के स्वरूप को चित्रित करते समय अनिता ललित भाव-विह्वल हो जाती हैं। माँ की कोख, माँ के आँसू-सिसकियाँ और मुस्कान नूतन स्वरूप के साथ उपस्थित हैं। माँ के आँसू संकट के समय सो जाते हैं और खुशी के समय स्रोत बनकर बहने लगते हैं। बेटी की बिदाई पर माँ का सिसकना और आँगन का हुड़कना द्रवित कर जाता है, साथ ही हाइकु की शक्ति का अहसास भी करा जाता है-
माँ तेरी कोख, / कितनी महफूज़! / दुखों से दूर!
कहाँ जा छिपी / मैं ढूँढ के लाऊँगी / माँ तेरी हँसी.
माँ सिसकती / आँगन हुड़कता, / हो बेटी विदा।
माँ तेरे आँसू / तूफानों में हैं सोते / ख़ुशी में 'सोते' ।
नारी के हृदय की गहनता, तरलता और निर्मलता की तुलना नदी से की है। तीन पंक्तियों में सारे भाव समा गए हैं। हाइकु की अर्थ-व्यापकता का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है-
नारी है नदी, / समा लेती, दिखाती / सबका अक़्स!
प्रिय के लिए अटूट प्रेम का की धारा हृदय में निरन्तर प्रवाहित होती रहती है। चाँद का यह केसरिया रूप करवाचौथ को और अधिक गरिमामय बना देता है-
आज की रात, / केसरिया है चाँद, / प्यारा सलोना!
'चाँदनी की सीपियाँ' संग्रह का नाम तीसरे अध्याय पर आधृत है। प्रकृति के बहुआयामी सौन्दर्य की छटा इन हाइकु में बिखरी हुई है।
चाँदनी रात / सीपियों की बारात / ढूँढ़ें साहिल।
प्रेम के आँसू / जो पिए वह जी उठे / सीप ये कहे।
प्रकृति का सौन्दर्य प्रकृति की अनुपम है, जो विभिन्न रूपों में अपनी सुषमा बिखेरती है। शीत काल में धूप की तलाश किस व्याकुलता से की जा रही। कहीं वह धूप छिप-छिपकरके शरमाती–झाँकती है तो कहीं धरा के मुख पर ढीठ लटों—सी बिखरी हुई है। खेलने के कारण थककर चूर हुए मेघों का सौन्दर्य और मानवीकरण देखिए-
सर्द लहर, / ठिठुरती है काया / धूप कहाँ हो?
सर्दी की धूप / शरमाती, झाँकती / छिप-छिप के.
बिखरी धूप / धरा के मुख पर / ढीठ लटों-सी.
खेल-थक के / ज्यों माँ से लिपटे, यूँ / मेघ हैं सोए!
धरा और आकाश का सूरज और धरा का तो बहुत पहले का आकर्षण है। कवयित्री ने मोहक चित्र प्रस्तुत किए हैं-
धरा निहारे / आँखों में प्यास लिये / नीले नभ को।
सूरज झाँके / धरा के मुख मले / हल्दी-कुंकुम
बादलों के घूँघट में से झाँकती साँझ का दृश्य और दुल्हन का बिम्ब बहुत आकर्षक बना है-
साँझ-दुल्हन / काढ़ घन-घूँघट / लजाती चली।
भोर के चित्रण में अनिता ललित का मन बहुत रमा है। कहीं वह सिन्धु में स्वर्ण कलश ढुलकाने वाली है, कहीं वह नहाकर निकली गुलाबी भोर है तो फिर कहीं नहाने के बाद केश सुखाती और ओस के मोती लुटाती चली आ रही है। अनिता ललित के शब्दों का कैमरा प्रत्येक स्नैप को, क्षन को कैद कर लेता है-
स्वर्ण–कलश / सिंधु में ढुलकाती / उषा पधारी!
भोर गुलाबी. नहाकर निकली / छटा निराली।
केश सुखाती / भोर आई लुटाती / ओस के मोती।
प्रकृति के माध्यम से मन की पीड़ा का बादल के रूप में बरसना नई कल्पना है
मन की पीड़ा / बादलों ने जो पी ली / बूँदों में जी ली!
दूसरी ओर मानव–शोषित प्रकृति भी है, जिसका अभिशाप सबको भोगना पड़ रहा है। हँसती–मुस्कराती हमारी सृष्टि अभिशप्त हो गई है। उसकी मुस्कान चीत्कारों में बदल गई है। बादल रूठ गए हैं, नदियाँ सिमटती जा रही हैं। वन-विनाश से बादल भी सुलग उठे हैं। ओजोन की पर्त तो धरती का नक़ाब है। प्रदूषण से वह भी जल गया है। अनिता ललित का भाषा–वैभव इन पंक्तियों में देखते ही बनता है-
हँसती सृष्टि, / महकती प्रकृति / अब चीत्कारे!
नदी सिमटी. वियोग में सिसकी / मेघ जो रूठे।
ना काटो वन, / घुटने लगीं साँसें / सुलगे घन!
जले नक़ाब, / धरा के सौंदर्य का / बचाओ उसे।
'जीवन-तरंग' में जीवन की धड़कने व्यक्त हुई हैं। जीवन में दु: ख आकर हमको झकझोर देते हैं। हमारे ये सांसारिक सम्बन्ध सदा हमारी परीक्षा लेने का उपक्रम करते नज़र आएँगे।
यादों के रेले / उदासी के मेले में / कैसे मुस्काएँ?
चाँदनी खोई / चन्दा की तलाश में / अँखियाँ रोईं!
आँखों में आँसू / अपनों ने दी भेंट / कहें किससे?
दूसरी ओर हमारे जीवन को बाँधने वाले वे रिश्ते हैं, जिनकी नमी धीरे-धीरे गायब होती जा रही है। रिश्ते नेह से सींचने पर ही फूलते–फलते हैं। जीवन तो आग का दरिया है, जिसमें हमें रोज झुलसना है। हमें इसी दुनिया में रहना है। यथार्थ की कठोर दुनिया से बचकर कहाँ जाया जा सकता हैं
कैसी ये हवा / जो उड़ा दे, सुखाए / रिश्तों की नमी?
रिश्तों के पेड़ / खिलेंगें, महकेंगे / सींचो नेह से
जीवन क्या है? / ये आग का दरिया / कश्ती-हौसला!
शीशे का दिल / पत्थर ये दुनिया / जाऊँ कहाँ?
प्रेम का महत्त्व इसी में है कि प्रिय का पथ निष्कण्टक बना दिया जाए, उसके पथ की बाधाएँ दूर कर दी जाएँ। ईश्वर ने जिस बन्धन में बाँधा है, उसे सँवारने का ही काम करें।
फूल जो खिले / सब तेरे हवाले / मैं चुनूँ काँटे।
कष्ट के काँटे / चुन-चुन के सारे / फूल बिछा दूँ।
बंधन प्यारे / ईश्वर ने बनाए / चलो सँवारें।
यादों का अपना महत्त्व है। अनिता जी ने कहा है कि जिसके पास यादों की सौगात है, वह कभी अकेला नहीं है। जीवन में जिन परायों ने हमारा पथ प्रशस्त किया है, उनको भुलाना सम्भव नहीं। ज्यों-ज्यों उम्र ढलती है, व्यक्ति पुराने अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के दिनों को याद करके आहत होता है
अकेले कहाँ? / तेरी यादों के मेले / घेरे हैं सदा!
कैसे भूलेंगे / परायों ने प्रेम से / राहें बुहारी!
ढलती उम्रव / ज़िन्दगी के माथे पर / खींचें लकीरें।
जीवन का अवगाहन करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि, जब तक जीवन है, उसे खुशी से जीना चाहिए, न कि रोते-कलपते
ये पल-छिन / दोबारा न मिलेंगे / जियो जी भर।
घर के टूटने और विभाजित होने का दर्द बहुत व्यथित करता है। दीवारों के रोने और आँगन के शर्मिन्दा होने का लाक्षणिक प्रयोग, अर्थ को विषिष्ट गहनता प्रदान करता है-
दीवारें रो दीं / आँगन है शर्मिंदा / जो घर टूटा।
इस प्रकार भाव की गहनता, सटीक भाषा–मार्दव के कारण अनिता ललित का यह प्रथम हाइकु–संग्रह काफी हद तक आश्वस्त करता है। इस संग्रह के अधिकतम हाइकु अपनी सरल–सहज भाषा और अभिव्यक्ति के कारण दिल को छू जाते है
"'रामेश्वर काम्बोज' हिमांशु" '
22-11-2014
- "'[ [रामेश्वर काम्बोज' हिमांशु'। पुस्तक पढें] ]"'