‘जी’ का जंजाल / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु'
यों तो जमाने में बहुत ग़म हैं मुहब्बत के सिवा। गम न होने पर गम की तलाश करना सच्चे फ़क़ीरों का काम है। ये फ़क़ीर अगर किसी को हँसते देख लें, तो उसके ऊपर कहर ही बरपा हो जाए। अगर किसी को छींक आ जाए, तो ये उसे भी किसी का षड्यंत्र मानने को उतावले रहते हैं। छींक का कारण न जुकाम है, न उपचार कोई दवाई। ये नाक कटवाना छींक का बेहतर इलाज मानते हैं।
किसी भद्र व्यक्ति को 'जी' कहना सचमुच में जी का जंजाल बन सकता है, इसका अनुभव मुझे अपने एक अग्रज के सात्त्विक व्यवहार से मिला। मेरे बच्चों को स्कूल ले जाने वाला रिक्शाचालक कालूराम एक दिन कुछ पैसे उधार लेने घर पा आ गया। "कहो कालूराम जी, कैसे आना हुआ?" अनायास मेरे मुँह से निकल गया। कालूराम ने अपने आने का उद्देश्य बताया और पचास रुपये उधार लेकर चला गया।
उसके जाते ही मेरे ये अग्रज आपे से बाहर हो गए-"तुम रिक्शेवालों को भी 'जी' कहते हो। ये लोग तुम्हारे सिर पर पैर कर लेंगे। इन छोटे लोगों को इस तरह महत्त्व देना ठीक नहीं।"
"इसमें क्या बुरा हो गया"-मैंने उनको समझाना चाहा-"रिक्शा चलाने से क्या वह छोटा हो गया? आदमी भी नहीं रहा? बेचारा मेहनत करता है; चोरी तो नहीं करता। दिल का भी नेक है। जो दफ़्तरों में जाकर कामचोरी करते हैं, हेराफेरी करते हैं; उनसे यह रिक्शावाला छोटा नहीं है।"
मेरा अंतिम वाक्य परम पूज्य संस्कारवान् अग्रज को भाले की नोक-सा चुभ गया। वे फुँफकारते हुए उठ खड़े हुए-"मैं नहीं समझता था कि तुम इतने नीच होगे। आज मेरी आँखें खुल गई। अब तुमसे सोच-समझकर सम्बन्ध रखूँगा। तुम्हें ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं।"
अपने ज्ञान का घूरा लेकर वे उस दिन चले गए थे। फिर उन्होंने इधर का रुख नहीं किया।
मैं इस झटके से उबर भी नहीं पाया था कि प्रसिद्ध समाज-सुधारक श्री मायावी जी से भेंट हो गई। बातों ही बातों में मेरे मुँह से उनके सहकर्मी रत्नेश जी का नाम निकल गया। लगा-मानो उनके ऊपर खौलता हुआ तेल डाल दिया हो। मायावी एकदम बौरा गए-"रत्नेश जैसे आदमी के नाम के साथ 'जी' लगाते हो। तुम्हें शर्म नहीं आई? रत्नेश भी कोई आदमी है? आदमी के नाम पर साक्षात् कलंक है। तुम्हारी उदारता धन्य है, जो ऐसे लोगों के साथ 'जी' शब्द का दुरुपयोग करते हो। मैं तुम्हारी इस उदारता पर थूकता हूँ।" वे बहुत देर तक थूकते रहे और थूक उन्हीं के मुँह पर गिरता रहा।
"किसका रुपया हड़प लिया उन्होंने? क्या वे शराब पीकर कहीं नाली में पड़े थे? क्या उन्होंने किसी को धोखा दिया है? क्या कभी किसी को गाली दी है। क्या कभी किसी की पीठ में छुरा भोंका है?" मैंने टोका।
"तुम्हारी जानकारी में ये दुर्गुण हैं? मुझे तरस आता है तुम्हारी बुद्धि पर। मुझे तुमसे ऐसी आशा नहीं थी। वह तुम्हारे शहर में आता है। तुम लोग उसे बहुत इज़्जत देते हो"-मायावी जी के मुँह से झाग निकलने लगे थे। चेहरा विद्रूप हो गया था।
"इज्जत तो आपकी भी करते हैं। हम आपके इशारे पर नाच नहीं सकते। अगर आपकी हाँ में हाँ मिलाते रहते, तो शायद आपको हम पर विश्वास हो जाता।"
"क्या मुझमें ओर रत्नेश में कुछ फर्क नहीं है"-मायावी गरजे।
"है, बहुत फर्क है। वे आपकी बुराई कभी नहीं करते। इसी से पता चलता है कि कौन आदमी है और कौन आदमी के नाम पर कलंक। आप अपने पिताजी को भी गालियाँ दे सकते हैं और रत्नेश जी आपको गाली देना पापा समझते हैं।"
मायावी रूठकर चले गए। आज तक नहीं लौटे।
यह सबका पुनीत कर्तव्य है कि अग्रज इन मायावी के विचारों पर एक गोष्ठी करें। सर्व-सम्मति से इनको शिष्टाचार का ठेकेदार बना दें। इनको निम्नलिखित अधिकार दे दिए जाएँ—ये एक डायरेक्टरी तैयार करें, जिसमें उन लोगों के नाम हों, जिनके साथ 'जी' लगा सकें जैसे-रावण जी, कंस जी, डाकू जी। -इनकी मर्जी के बिना जो व्यक्ति कुछ काम करे, उसे कोड़े लगाए जाएँ। कुछ अर्थदंड भी दिया जाए। -जो इनके पागलपन में भागीदार न हो सके, उसे नपुंसक घोषित किया जा सके, उसकी नागरिकता छीनी जा सके। -गली-मोहल्ले के लोग इनकी गरिष्ठ सेवाओं के बदले इन्हें पुरस्कार प्रदान करें।
किसी को 'जी' कहना भी जी का जंजाल बन जाता है, इसका अनुभव मुझे पहली बार हुआ। लेकिन 'जी' का यहीं अंत नहीं था। डाकू जी, चोर जी, रावण जी, कंस जी कहना मुझे अटपटा लगता था। अब मुझे लग रहा है कि कुछ पवित्र आत्माएँ अपने पिता को भी पिताजी कहना पाप समझती हैं। मायावी और अग्रज उन्हीं में से हैं।
मैंने अपने पत्रों में मित्रो के नाम के साथ 'जी' लिखना छोड़ दिया है। इसका परिणाम भी जल्दी ही मेरे सामने आ गया है। हर एक मित्र की चिट्ठी में एक ही बात लिखी हुई है-"लगता है तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है। अगले पत्र में तुम अपने स्वास्थ्य के बारे में ज़रूर लिख भेजना।"
'आपकी' और 'आप' शब्दों के स्थान पर लिखे हुए 'तुम्हारी' और 'तुम' शब्द रह-रहकर चुभ रहे हैं।
(1992)