‘झील दर्पण’ में सुशोभित चाँद -से सलोने हाइकु / सुरंगमा यादव
अँजुरी में सागर भरने वाली हाइकु कविता देखने में लघु अवश्य है; पर अर्थ विस्तार व्यापक है। उपदेशात्मकता को छोड़ दें, तो हाइकु को सूक्ति वाक्य भी कहा जा सकता है; क्योंकि इससे भी वाच्यार्थ से भिन्न कोई विशेष अर्थ छिपा रहता है। अर्थ ग्रहण पाठक के बुद्धि कौशल पर निर्भर है। हृदयाकाश में जब अनुभूति के मेघ उमड़ते हैं तो चपला की भाँति भाव सहसा जाग्रत जाते हैं और जलधारा की भाँति कविता स्वतः फूट पड़ती है। अनुभूति की सघनता में एक उत्कृष्ट कविता जन्म लेती है। हाइकु भी अनुभूति के चरम क्षण की अभिव्यक्ति है। यह भी सत्य है कि अनुभूति को चरम सीमा तक का अनुभव करना सहज है, अपेक्षाकृत उसे शब्दायित करने के। सहजा प्रतिभा का धनी साहित्यकार ही इसे कविता का रूप दे पाता है। हाइकु के लघु कलेवर तक पहुँचना तो आसान है; परन्तु उसकी आत्मा का स्पर्श करना कठिन अवश्य है। भारत में नये-पुराने उत्कृष्ट हाइकु रचनाकारों की कमी नहीं है। वरिष्ठ हाइकुकार डॉ. सुधा गुप्ता, शैल रस्तोगी, नलिनीकांत, निर्मलेंदु सागर, डॉ रमाकांत श्रीवास्तव, उर्मिला कौल तथा उर्मिला अग्रवाल के साथ-साथ एक नाम और है जो विशेष रूप से उल्लेखनीय है-श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' । आप हाइकु सर्जन के साथ-साथ उसे देश के भीतर और बाहर प्रसारित करने में सतत् संलग्न हैं। 21 वीं सदी में हाइकु का विस्तार हिन्दी भाषा ही नहीं अपितु देश की अन्य भाषाओं में भी बहुत तेज़ी से हुआ है।
अनेक समर्थ रचनाकार हाइकु पर अपनी लेखनी चला रहे हैं। हाइकुकारों का एक बड़ा वर्ग ऐसी भी है, जो हाइकु के कलेवर को ही हाइकु मान रहा हैं। वास्तव में हाइकु एक ऐसी लघु परंतु पूर्ण कविता है, जो सद्यः आनंद प्रदान करती है। केवल सतरह वर्णों की कविता जब अपना अर्थ खोलती है तो मन आश्चर्य व आनंद से भर उठता है। जिसने हाइकु के मर्म को समझ लिया वही सच्चा हाइकुकार हो सकता है। पुष्पा मेहरा एक ऐसी ही समर्थ हाइकुकार हैं, जिनका मन हाइकु का सर्जन बड़ी तन्मयता के साथ करता है। बेहद सरल और सौम्य व्यक्तित्व की धनी पुष्पा मेहरा जी की लेखनी से अत्यंत सहज प्रवाहयुक्त ऐसे हाइकु रत्न निकले हैं, जो नये हाइकुकारों के समक्ष हाइकु लेखन की कला के उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में उद्घृत किए जाने की सामर्थ्य रखते हैं। पुष्पा जी के हाइकु की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे सहज बोधगम्य हैं तथा अभिव्यक्ति-सौंदर्य में अनूठे हैं। हाइकु में कहन का सौंदर्य ही उसे श्रेष्ठता प्रदान करता है व पाठक को चमत्कृत करता है। यूँ तो आपके हाइकुओं का रसास्वादन विभिन्न ब्लॉग्स व पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से प्राप्त होता रहता है; परंतु 'झील-दर्पण' की पांडुलिपि पढ़ते हुए आपके हाइकु लेखन के विविध आयामों से साक्षात्कार हुआ। पुष्पा मेहरा जी के कई काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। आपके प्रथम हाइकु-संग्रह 'सागर मन' (2015) को साहित्य जगत् में काफ़ी प्रशंसा मिली। लंबे अंतराल के पश्चात् आपका दूसरा संग्रह 'झील-दर्पण' शीघ्र ही पाठकों के बीच होगा। कवयित्री ने अपने इस हाइकु संग्रह के कथ्य को पाँच मुख्य प्रभागों में नियोजित किया है-जीवन-राग, जीवन सूत्र हमारे, रंग-तरंग, धरा का शृंगार तथा विविध रंग पाती। समग्र रूप से देखा जाये तो कवयित्री का मन प्रकृति के विभिन्न उपादानों के चित्रण में अधिक रमा है। प्रभात, साँझ, वसत, ग्रीष्म, वर्षा, शीत, झील, सागर, पर्वत, धरती, हवा आदि हरेक के रूप को उन्होंने मन की आँखों से निहारा है।
प्रभात की बेला जीवन व प्रकृति दोनों में ही मनोमुग्धकारी होती है। भोर में झील-दर्पण में मुखड़ा निहारतीं सूर्य की स्वर्णिम रश्मियाँ, सूर्य नमस्कार करती-सी प्रतीत होतीं झूमती टहनियाँ। कवयित्री की कल्पना शक्ति प्रशंसनीय है। भोर-सुंदरी का नदी में बैठकर आलता लगाने का बिंब नवीनता लिये हुए है-
झील दर्पण / निहारतीं किरणें / उसी में बैठ।
झूमा उद्यान / डाल-डाल कहती- / सूर्याय नमः।
भोर-सहेली / लगा रही आलता / नदी में बैठ।
भोर होते ही सड़कों का कर्म की राह पर चल पड़ने में कवयित्री ने कर्म की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए लाक्षणिकता का सुंदर प्रयोग किया है-
हुआ सवेरा / कर्म की राह पर / सड़कें चलीं।
वसन्त ऋतु को ऋतुराज कहा जाता है। शीत ऋतु का अंतिम चरण वसंत के द्वार खोलता है। शीत ऋतु में पाले और कुहासे की मार झेल कर थकी-थकी-सी प्रकृति सूर्य की पाती पाकर चैतन्य—सी हो उठती है। हवा भी हिमकणों को झटककर अठखेलियाँ करने लगती है। प्रकृति का कण-कण प्रेम के रंग में रंग उठता है-
टूटी खुमारी / प्रकृति ने आ बाँची / रवि की पाती।
हवा पछोरे / निज अंग-अंग से / हिम के कण।
अल्हड़ हवा / धरती का बदन / छू-छू भागती।
पिघला हिम / भाग चलीं नदियाँ / पिया की ओर।
फूली लतर / ठूँठ के काँधे चढ़ी / देखती स्वप्न।
मानवीकरण का प्रयोग करते हुए कवयित्री ने बहुत सुंदर हाइकु रचे हैं। ग्रीष्म ऋतू में लू से पीड़ित धूप का छाँव ढूँढना, जेठ मुखिया का तपती छावनी छाना, तो कहीं लू का चाबुक चलाना, वर्षा ऋतु में वर्षा धोबिन द्वारा पेड़ों के धूसर वस्त्र धोना तथा शीत ऋतु में चाँदनी रात का रुदाली बन जाना। एक बानगी प्रस्तुत है-
लू खाई धूप / जलन से तड़पी / ढूँढती छाया।
जेठ मुखिया / तपती छावनी छा / अकड़ा पड़ा।
जेठ का गुस्सा / लू की चाबुक बन / तन पर पड़ा।
वर्षा धोबन / पेड़ों के धोती गई / धूसर वस्त्र।
धुंध के बीच / रुदाली बनी बैठी / चाँदनी रात।
अपने सामाजिक दायित्वों के प्रति कवयित्री सजग हैं। सच्चा साहित्यकार कभी भी यथार्थ से मुख नहीं मोड़ता, तभी तो विकास के नाम पर उजड़ते वन-बाग, ढहते पहाड़, क्रूर दानवों का शिकार बनती बेटियों की पीड़ा देखकर कवयित्री का मन व्याकुल हो उठता है-
बुलडोजर / विकास खूँद रहा / पर्वत गढ़।
काँपे पहाड़ / गायब खपरैलें / उठीं मंजिलें।
खोलके पंख / स्वप्नलोक में बेटी / बाजों से नुची।
साहित्यकार ज़िंदगी के अनुभवों से ही समृद्ध होता है। उसकी चेतना इन अनुभवों को एक निधि की भाँति सँजो लेती है तथा उनके साथ गहन संवेदनशीलता का सम्बंध स्थापित कर लेती है। ये अनुभव भविष्य की दिशा तय करने में भी अपनी भूमिका निभाते हैं। कवयित्री द्वारा रचित अनुभवजन्य हाइकु भी सुन्दर बन पड़े हैं-
शब्दों को सौंप / मन का द्वन्द्व मनु / हो गया शांत।
शब्दों की आरी / चुपचाप काटती / रिश्तों के वन।
रस्सी के बट / तूफानों के बीच रिश्ते / लिपटे रहे।
वक्त के साथ / मिटे शूलों के निशाँ / टीस जवान।
धूप को चिड़िया के रूप में अनेक कवियों ने चित्रित किया है, परंतु कवयित्री के समक्ष भोर चिड़िया यादों के रूप में चहकने लगती है। ये यादें लॉकडाउन के समय डरे-सहमे मन का सहारा बन जाती हैं और दौड़-दौड़कर मन ही मन सबसे मिल लेती हैं-
भोर चिरैया / उड़ मुँडेर आई / चहकीं यादें।
लॉकडाउन / लोग घरों में बंद / दौड़तीं यादें।
पुष्पा जी के हाइकु काव्य में दार्शनिक भाव भी यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं। जगत मंच है और जीवन नाटक का सूत्रधार नेपथ्य में है जो प्राण वायु का संचार कर तन की वीणा को मुखरित रखता है-
जगत्-मंच / मंच के नेपथ्य में / वो सूत्रधार।
तन की वीणा / साँसों के तार पर / हुई मुखर।
चले औ रुके / सात चक्रों में घूमे / गति दे हवा।
पुष्पा मेहरा जी ने 'जीवन सूत्र हमारे' खण्ड के अंतर्गत गुरू, माँ, पिता तथा रिश्तों पर अपनी लेखनी चलाकर इनकी महत्ता का प्रतिपादन किया है।
वरिष्ठ साहित्यकार पुष्पा मेहरा जी के हाइकु झील दर्पण में मुखड़ा निहारने वाले चाँद की तरह सलोने हैं। कवयित्री का शिल्प-सौष्ठव, शब्द-चयन, काव्यात्मकता, भावाभिव्यक्ति का नैसर्गिक प्रवाह हाइकु के निर्बाध संप्रेषण की सामर्थ्य रखता है। निश्चय ही यह हाइकु संग्रह हाइकु प्रेमियों के बीच अपना विशेष स्थान बनाएगा।
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