‘तुम हो 'मुझमें’ नवगीतों की आत्मीय यात्रा / पूनम चौधरी
कविता आत्मा का नाद है-वह आवाज़ है, जो काल की सीमाओं से परे, अनुभूतियों के सबसे कोमल हिस्सों को स्पर्श करती है। जब कविता केवल अभिव्यक्ति नहीं आत्मा की तापमयी यात्रा बन जाती है और नवगीत केवल लय नहीं; बल्कि जीवन के धूप छांव में सुलगते सचों की अनुभूति बनकर पाठक के अंतस्तल में उतरने लगते हैं तब वह सर्जन एक साधना का रूप ले लेता है। रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी का नवगीत संग्रह 'तुम हो मुझमें' इसी आत्मीय संस्पर्श की काव्यात्मक परिणति है, जहाँ प्रत्येक शब्द अपने भीतर एक सम्पूर्ण जीवन संवाद लिये हुए हैं यह मात्र काव्य नहीं; बल्कि कवि के अंतर-जगत् की वह झलक है, जो पाठक को न केवल स्पर्श करती है; बल्कि उसे भीतर से खोलती भी है। 'हिमांशु' जी का यह संग्रह इसी साधना का जीवंत, संवेदनशील और समय संवेदन से ओतप्रोत साक्षात्कार है।
इस संग्रह को पढ़ते हुए लगता है कि हम किसी आत्मीय व्यक्ति के साथ बैठे हैं, जो अपने जीवन की सबसे गूढ़ अनुभूतियों को हमारे सम्मुख बिना किसी कृत्रिमता के रख रहे हैं। बिना किसी कलात्मक चमत्कार और काव्य नाटकीयता के एक अपूर्व सम्मोहन के साथ जो पूरे काव्य संग्रह में व्याप्त है। इस संग्रह को पढ़ना मानो किसी झरते हुए आँसू में झाँकना है, किसी टूटे हुए पल में साँस लेना है, किसी उजड़ती हुई राह में सिसकती उम्मीद की लौ को पहचाना है। 'तुम हो मुझमें' एक शीर्षक मात्र नहीं है, यह एक प्रतीक है, उस समस्त मानवीय जिजीविषा का, जो टूटती है, बिखरती है, छलती है, फिर भी पुनः उठ खड़ी होती है-प्रार्थना की तरह, रुदन की तरह, मौन की तरह।
इन नवगीतों को पढ़ते हुए अनुभूति होती है कि यह कवि मात्र शब्दों से नहीं रचते वह तो अपने जीवन की अनुभूतियों को, अपने समय की विद्रूपताओं को और हृदय की शिराओं में बहती आशा-अश्रु की नदी को लेकर शब्दों के माध्यम से संवेदना की धुन रचते हैं। एक धुन-जो कहीं विरह का गीत बनती है, कहीं प्रतिरोध की गूँज, कहीं मन की पीड़ा, कहीं प्रेमिका की प्रतीक्षा, कहीं श्रमिक की घुटन, कहीं प्रवासी की थकान और कहीं उस भारतीय आत्मा की अस्मिता जो तमाम व्यथा के बाद भी आशा की लौ थामे खड़ी है। इनके नवगीत में व्यथा है; लेकिन करुणा भी है; विसंगति है; पर दिशा भी है; टूटन है, पर पुनर्निर्माण की संभावना भी। यह विरोधाभास ही इनके काव्य को गहराई देता है क्योंकि जीवन भी अंततः इन्हीं विरोधाभासों का संगम है।
'हिमांशु' जी के शब्दों में एक अनोखी आत्मीयता है। वह जब लिखते हैं, 'तुम हो मुझमें' तो यह शीर्षक में 'तुम' केवल कोई व्यक्ति विशेष नहीं है। यह कभी समय होता है, कभी समाज, कभी चेतना और कभी ख़ुद कवि का ही कोई अंश। यह 'तुम' पाठक भी हो सकता है जिससे कवि सीधे संवाद करता है, यही संवाद उन्हें एक शिक्षक के रूप में और भी प्रभावशाली बनाता है; क्योंकि शिक्षक केवल ज्ञान नहीं देता, वह अनुभव बाँटता है, वह भावों की थाली परोसता है। यह संग्रह ऐसे ही शिक्षक की लेखनी से निकली आत्मा की आवाज़ है, जो पाठक के मन को न केवल शिक्षित करती है; बल्कि संस्कारित भी करती है और संवेदना से मन का कोना-कोना सुवासित कर देती है।
कवि की भाषा कहीं मिट्टी की महक लिये हुए हैं कहीं खेतों में बहती हवा की तरह सरल और मन को छूने वाली, तो कहीं वह शहरी धुएँ और झूठ से जूझती आत्मा की गूँज बन जाती है। हर कविता के साथ एक गहरी करुणा बहती है-एक ऐसी करुणा जो केवल रुलाने के लिए नहीं; बल्कि भीतर कुछ तोड़कर फिर नया विश्वास बोने के लिए जन्म लेती है।
संग्रह की पहली ही कविता-
अंगारों पर
चलकर ही हम
किनारों तक पहुँचे हैं। -
एक प्रकार से संग्रह की वैचारिक भूमिका बन जाती है। यह नवगीत केवल एक यथार्थ नहीं कहता, यह संघर्ष की वह यात्रा कहता है, जो पीड़ा से नहीं; बल्कि पीड़ा को स्वीकार कर उससे ऊपर उठने से जन्मती है।
' जलधारा
नहीं थी शीतल
अपने पैरों के नीचे,
गर्म अश्रु से
संकल्प सभी
अहर्निश हमने सींचे'
ये साधारण पंक्तियाँ नहीं है। यह जीवन के उस मोड़ की स्वीकारोक्ति है, जहाँ आँसू हार का प्रतीक नहीं; बल्कि आत्मबोध और पुनर्नवा होने की प्रक्रिया बन जाते हैं।
एक अच्छे शिक्षक की तरह काम्बोज जी जटिल को सरल में रूपांतरित करते हैं, बिना उसकी गरिमा को काम किए। इनकी कविता किसी क्लिष्टता अथवा अबूझ दर्शन की माँग नहीं करती, इनका दर्शन तो जीवन के छोटे-छोटे संवेदनात्मक अनुभवों से बना है और यही इनकी भाषा को एक आत्मीयता प्रदान करती है, जो पाठक को अपने पास बुलाती है दुत्कारती नहीं। इनके नवगीतों की लय सरल है; लेकिन प्रभावशाली है। इनका काव्य इतना सहज है कि बालमन भी उसे समझ सकता है, साथ ही उसकी संवेदना और गहराई पाठकों के लिए नई विचार भूमि तैयार कर देती है।
इस संग्रह की विशिष्टता इस बात से भी बढ़ जाती है; क्योंकि यह केवल कवि का आत्मकथ्य नहीं यह समय का दस्तावेज भी है। इसमें समाज की गिरती नैतिकता, लुप्त होती संवेदना, राजनीतिक पाखंड, धार्मिक संकीर्णता, शहरी जीवन का अकेलापन, संत्रास और मानवीय संवर्धन का पुनर्पाठ समाहित है; परंतु नवगीत मात्र समस्या नहीं बताता, साथ में समाधान का संकेत भी देता है। 'हिमांशु' जी भी जीवन के आलोक की बात करते हैं। यहाँ तक की अँधेरे में भी आस की गुंजाइश ढूँढ लेते हैं, यही नवगीत की शक्ति है, वह अँधेरे को नकारता नहीं, उसे स्वीकार कर, उसमें प्रकाश की खोज करता है; इसलिए कवि कह पाता है-
बीत गया जो
लेकर उसको
आँसू कौन बहाए,
नए साल में
नई आस की
दुनिया एक बनाएँ
कविता का स्वरूप बदल रहा है। नई पीढ़ी के कवियों के लिए भी यह पुस्तक एक मार्गदर्शन है। यह दिखाती है कि किस प्रकार व्यक्तिगत अनुभव को सार्वभौमिक बनाया जा सकता है। 'तुम हो मुझमें' कोई घोषणा-पत्र नहीं, वह एक आंतरिक याचना है कि हम अपने भीतर के ' तुम " को फिर से जानें, उसे जीवित रखें।
गढ़ने दो सबको
अपना असली चेहरा
खिलने दो श्वेत कमल-सा
यह पावन अंतर्मन
जलने दो
हर देहरी पर
दीप नए
करते रहें
उजाला का अभिनंदन।
इनकी कविता में 'पंख' , 'पत्थर' , 'धूप' , 'नागफनी' , 'अधजला गीत' जैसे प्रतीकों का प्रयोग केवल रूपक नहीं; बल्कि विचार की परतें खोलने वाले औजार हैं। जब वे कहते हैं,
जब तक पंखों में ताकत है
दूर देश तक जाना
बाट देखता जब तक कोई
तब तक वापस आना।
यह उड़ान केवल आकांक्षा नहीं, अनुभव से ऊपजी चेतना है, जहाँ उड़ना कठिन भी है और आवश्यक भी। साथ ही हर स्थिति में लौट आने का विश्वास कवि की जीवन में गहन आस्था का परिचायक है। यह नवगीत न तो भावात्मक उद्घाटन है, न ही बौद्धिक उद्घोषणा। यह हृदय और मस्तिष्क के बीच की वह सेतु है, जिस पर चलकर पाठक अपने जीवन के अनुभवों को पुनः देख सकता है। इनकी कविता सामाजिक चेतना से भी जुड़ी है, एक ऐसी चेतन जो नैतिक पतन से व्यथित है; पर फिर भी आस नहीं छोड़ती-
इस सभा में चुप रहो
हुआ बहरों का आगमन
या
असमंजस की पीड़ा बाँचे
कौन यहाँ पर,
बहुत दिनों से हवा रही है
मौन यहाँ पर
पथरीली राहों पर चलती नहीं देर तक धूप छाँव की बातें। "
ये यह पंक्तियाँ गहरी विडंबना को सशक्त व्यंग में रूपांतरित कर देती हैं। यह व्यंग्य केवल आलोचना नहीं, वह चेतावनी है, वह आग्रह है कि हम पुनः अपनी संवेदना को जाग्रत करे-
मन की हर गली में
उतर गया मौसम
ख़ुशबू का एक दरिया
भर गया मौसम
विहंगों के गूँजते स्वर
हर एक सरवर को मुखर
कर गया मौसम।
यहाँ सिर्फ़ मौसम का रूपक नहीं है, यह उस सांस्कृतिक दृष्टि का प्रतीक है जहाँ संवेदनाओं ने पूरे परिवेश को बदल दिया है। रामेश्वर काम्बोज जी का नवगीत इसीलिए सिर्फ़ 'गीत' नहीं है, वह 'कर्म' है—और यह कर्मधर्मी स्वर इनकी हर रचना में दीप्त है-
डूब गया तम की बाँहों में व्याकुल अंबर
अथवा
सूखता ही
जा रहा उदगम् अहर्निश
दूर तक
फैली हुई
रेत की लंबी नदी, क्या करें!
ये कविताएँ, उस आंतरिक संत्रास को बयान करती हैं, जहाँ द्रष्टा न केवल भावनाओं से गुजरता है; बल्कि उन्हें जीता है, निगलता है और अंततः आत्मा की वंशी से उसे नई धुन में ढाल देता है।
यहाँ करुण रस की प्रधानता होते हुए भी, उसमें एक अदृश्य सौंदर्यबोध है। —
जल में घुलकर
धुन वंशी की हो गई नई
रिश्तों की
पावन प्रतिमा को
आज सिराकर। —यह नवजन्म की घोषणा है। यहाँ कविता स्वयं अपने को पुनर्सृजित करती है।
वहीं
दुख में होकर
निपट अकेले
हम सब कुछ सहते हैं
में कवि अपने समय के उस अकेलेपन को पकड़ता है, जो तथाकथित आधुनिक समाज का अपरिचित अभिशाप है।
जब
सुख में कोई
साथ ना हो —तो यह केवल उपालंभ नहीं है, यह सम्बंधों के बदलते समीकरणों पर एक गहरा व्यंग्य है। आज का आदमी आंतरिक रूप से इतना अकेला क्यों है? उत्तर मिलता है—
जानोगे तुम कैसी होती
मन की व्याकुलता है
पता तभी तो चल पाता है
जब कोई छलता है
यह 'छल' केवल व्यक्तिगत नहीं है—वह व्यवस्था का है, समाज का है, सम्बंधों का है और उस तमाम कथित नैतिकता का है जो केवल मुखौटों के लिए रची गई है। काम्बोज जी अपने नवगीतों में इस 'छल संसार' का कोई क्रूर चित्रण नहीं करते, वे इसे जैसा है वैसा ही हमारे सामने रख देते हैं—इतने सहज, इतने संजीदा ढंग से कि वह अनुभव हमें भीतर से कुरेद देता है।
लो पोथियाँ हमने
पुरानी ताक पर रख दीं
—यह सिर्फ़ अतीत को समेटने की बात नहीं है, यह उस सांस्कृतिक विस्थापन का संकेत है, जहाँ इतिहास की धूल हटाकर हमने आधुनिकता का आवरण पहन लिया है, बिना यह समझे कि हमने क्या खोया। यह नवगीत इतिहास, स्मृति और आधुनिक बोध का एक साथ समांतर पुल बनाता है, जहाँ 'संन्यास' की चर्चा केवल दार्शनिक विमर्श नहीं रह जाती, वह एक सामाजिक निस्संगता की स्वीकृति बन जाती है।
रामेश्वर काम्बोज का नवगीत समाज के प्रति उदासीन नहीं है, वह उससे जूझता है और उसके भीतर टूटे हुए मनुष्य को खोजता है।
पत्थरों के इस शहर में
मैं जब से आ गया हूँ —यह कविता मात्र शहरीकरण की आलोचना नहीं है, यह मनुष्य के भीतर के खो जाने की दास्तान है। शहर यहाँ केवल धुएँ और भीड़ का प्रतीक नहीं है, वह मानवीय करुणा के लुप्त होते जाने का दर्पण है। मन की पीड़ा, आत्मा की थकन और स्वार्थ की धूप—ये सभी आधुनिक मनुष्य के भीतर की दरारों को उजागर करती हैं।
खड़े जहाँ पर ठूँठ
कभी यहाँ
पेड़ हुआ करते थे
सूखी तपती
इस घाटी में कभी
झरने झरते थे
छाया के
बैरी थे लाखों
लम्पट ठेकेदार
मिली-भगत सब
लील गई थी नदियाँ पानीदार —यह एक व्यंग्यात्मक नवगीत है, जो आज के राजनीतिक, सामाजिक विमर्शों की खोखलेपन और कुतर्कों की दुर्गंध को उजागर करता है।
बीहड़ से चल हर घर तक आ चुके हैं भेडिये,
हैं भूख से व्याकुल बहुत, इनको तनिक न छेडिए —यह मात्र उपमा नहीं है, यह चेतावनी है, उस समाज के प्रति जो ख़ुद को सभ्य मानते हुए असभ्यता की खोह में प्रवेश कर चुका है। यह नवगीत उस अंधकार चेतना की ओर संकेत करता है, जहाँ वाणी मौन हो जाती है और झूठ सच के रूप में प्रचारित किया जाता है।
कवि यहाँ न तो आलोचक है, न ही मार्गदर्शक, वह केवल साक्षी है—जो देख रहा है, अनुभूत कर रहा है और हमें भी उस अनुभूति का हिस्सा बना रहा है।
छल-कपट की जंजीरों से बँधे हुए
नाच रहे
नर-वानर गली-गली —इन पंक्तियों को पढ़ते हुए रोंगटे खडे हो जाते हैं। ऐसा लगता है कि एक सदी का नैतिक पतन एक ही वाक्य में समा गया हो।
इसी क्रम में
आओ लिख दूँ एक अधजला गीत तुम्हारे अधरों पर
और तुम्हारी आंखों में नीरव-सा संसार बसा दूँ।
—में वह प्रेम की करुणा प्रकट होती है, जहाँ प्रेम केवल शृंगार नहीं, वह अधूरेपन में भी पूर्णता का स्वप्न बन जाता है। यह गीत प्रेम की 'अधजली' स्थिति को स्वीकारता है—अधूरा गीत, अधूरी छाया, अधूरी स्मृति—किन्तु उस अधूरेपन में भी सम्पूर्ण सौंदर्य खोजता है। एक अन्य गीत की पंक्तियाँ-
उमड़ रहा हृदय से रुदन,
दफन करो इनको पल भर
अपने आप में इतना मार्मिक है कि पाठक थम जाता है और भीतर कोई दरवाज़ा खुलता है, जिसमें कवि की कर्मठता और इच्छाशक्ति पाठक को आस्थावान बना देती थी। यह नवगीत संग्रह केवल काव्य का अनुभव नहीं है, यह मौन का भाष्य है। एक ऐसा भाष्य जो केवल कवि की संवेदना नहीं, बल्कि हम सबकी गुम हो रही मानवीयता का दर्पण है। रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी की भाषा सरल और हृदयस्पर्शी है, पर इनका भावजगत अत्यंत जटिल और बहुआयामी है। वह जब कहते है—
दर्द का क्या,
नदी-सा एक दिन बह जाएगा
और पीछे सिर्फ़ कुछ
रेत ही रह जाएगा।
—तो वहाँ एक अनकही सच्चाई है कि हर पीड़ा को केवल आँसुओं से नहीं, समय और मौन की प्रतीक्षा से ही पार किया जा सकता है।
यह संग्रह उन सबकी आवाज़ बनता है, जो कभी स्वयं को व्यक्त नहीं कर पाए, जिनका अंतर इस व्यथा से घुट रहा है, जो अपने शहर, अपने गाँव, अपने रिश्ते और अपने आत्मसम्मान से लगातार समझौता करते जा रहे हैं।
एक स्थान पर काम्बोज जी कहते हैं—
बाँटने आता न कोई
प्यार की पाती यहाँ,
बाँटने आते सभी हैं
दुख भरी थाती यहाँ।
नाम रिश्तों का रटें
लेकर दुधारा
याद रखना
यहाँ पर मझधार है
साथी-सहारा
याद रखना।
यहाँ कवि केवल प्रेम या विरह नहीं, बल्कि एक सामाजिक बोध रचते हैं, जो रिश्तों की मर्यादा और सीमाओं की पुनः व्याख्या करता है। इनका यथार्थ निजी नहीं सार्वभौमिक है; इसलिए इसका प्रभाव भी दीर्घकालीन रहता है।
इस संग्रह के नवगीत एक ओर जहाँ करुणा की नमी लिये हुए हैं, वहीं वे अपने समय के अनाचार, विघटन और संत्रास को लेकर सजग भी हैं। ये नवगीत कोई विलगित परिकल्पना नहीं, ये हमारे अपने समय के जीवन्त दस्तावेज़ हैं। इस संकलन के नवगीतों की संवेदना हमें बार-बार यह स्मरण कराती है कि कविता केवल मनोरंजन नहीं, आत्म-मंथन की प्रक्रिया है—एक ऐसी प्रक्रिया जिसमें पाठक अपने ही प्रश्नों से दो-चार होता है और उत्तरों की खोज में स्वयं के भीतर उतरता है। 'तुम हो मुझमें' के नवगीत एक ऐसी झंकार हैं, जो केवल पढ़े नहीं जाते, भीतर कहीं गूँजते रहते हैं।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी की यह काव्य-यात्रा केवल रचनात्मक दक्षता का परिचय नहीं; बल्कि संवेदना की प्रामाणिकता का साक्ष्य है। जब हम इस संग्रह को बंद करते हैं, तो यह अनुभव होता है कि कवि हमारे भीतर कुछ छोड़ गया है—कोई करुण पुकार, कोई धीमी तपन, कोई मौन प्रतिरोध—जो आने वाले समय में हमें अधिक मानवीय बनाने की क्षमता रखता है। यह संग्रह केवल पढ़ने के लिए नहीं है, इसे बार-बार ज़िया जाना चाहिए—हर उस क्षण में जब हम अपने समय और आत्मा को समझना चाहें।
उन्हीं के शब्दों में,
तिनका-तिनका लाकर चिड़िया
रचती है आवास नया।
इसी तरह से रच जाता है
सर्जन का आकाश नया।
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