‘पवित्र’ सिर्फ एक शब्द है / विमल चंद्र पांडेय
रात को कमरे में इतना डर लगता था कि मैं सोने से पहले सारी खिड़कियाँ और दरवाजे बंद करने के बाद परदे इस तरह से लगाता कि पूरा दरवाजा और खिड़की एकदम ढक जाती। इसके बाद पलँग के नीचे देखकर आश्वस्त होता कि वहाँ कोई नहीं छिपा है। फिर पलँग पर चढ़कर टाँड़ का पर्दा हटाकर निश्चित करता कि वहाँ पर्दे के पीछे कोई नहीं बैठा। अंतिम काम होता कपड़ोंवाली आलमारी खोलकर कपड़ों के पीछे झाँककर पूरे कमरे में खुद के अकेले होने का विश्वास दिलाना। इसके बाद मैं बिस्तर पर आता और अक्सर मुझे रात भर नींद नहीं आती।
मुझे अकेले सोने में बचपन से डर लगता था।
रात भर मैं दादी की सुनाई हुई कहानियाँ दोहराता और सोचता कि इस बार जाऊँगा तो उनसे नई कहानियाँ सुनाने को कहूँगा। वह हर बार पिछली बार की ही कहानियाँ सुनाती थीं लेकिन सुनने में बहुत मजा आता था क्योंकि उनके पास रहते कोई डर छू तक नहीं जाता था। पर उनके पास शायद बहुत कम कहानियाँ थीं। मेरे पास रातें बहुत ज्यादा थीं।
मैं आठ साल का था जब बनारस में पहली बार पापा मुझे गंगा में नहाने ले गए। मैंने पहली बार इतनी बड़ी नदी देखी थी और मुझे लगा कि मैं इसमें डूब जाऊँगा। मैंने पापा को कसकर पकड़ लिया पर पापा ने मेरी दोनों बाँहें पकड़कर मुझे गंगा में तीन डुबकियाँ लगवाईं। बहुत सारे छोटे बच्चे गंगा में खूब ऊँचाई से छलाँगें लगाते और गहरे डूब जाते। मैं डर जाता। लेकिन वे थोड़ी देर बार अचानक सतह पर उतराते हुए दिखते। फिर तैरते हुए दूर निकल जाते। पापा को भी तैरना आता था। मुझे पानी से डर लगता था। मेरी कुंडली में भी लिखा था कि मुझे पानी से खतरा है, ऐसा माँ ने कुछ दिनों बाद बताया था। बड़े होने के बाद भी मेरा यह डर अन्य कई डरों की तरह निकल नहीं पाया है। हालाँकि मैं कुंडली जैसी बातों पर कतई विश्वास नहीं करता पर पता नहीं क्यों पानी के पास जाते ही मेरे पैरों में थरथराहट सी होने लगती है।
मेरे शहर में पागल बहुत थे। मेरे घर में माँ पापा छोटी और महेश थे और मैं छोटी और महेश का बड़ा भाई था। हमारे मुहल्ले में मुझसे काफी बड़ा एक लड़का था जिसे सब पागल कहते थे। उसका नाम पिंटू था। वह सबसे बहुत प्यार करता था। उसकी उम्र उस समय अठारह रही होगी जब मैं बारह का था। वह गली के सब बच्चों को बहुत प्यार करता था और दो-चार साल के बच्चों को गोद में उठा के खिलाता था मगर बच्चे डर जाते थे। उन्हें सिखाया गया होगा कि पिंटू से डरना चाहिए क्योंकि वह पागल है। जवान लड़कियों को देखकर वह ऊँची आवाज में उनको सुनाकर ‘ठाँय ठाँय ठाँय दुनिया की ठाँय ठाँय ठाँय’ गाना गाने लगता था जिसे लड़कियाँ आपस में कहती थीं कि पिंटू उन्हें छेड़ रहा था और कोई-कोई कहती थी कि पिंटू उसे देखकर रोमांटिक गाना गाने लगता है। मुझे गाना नहीं आता था और मैं अकेले में भी कुछ नहीं गुनगुनाता था। छोटी बहुत छोटी थी और महेश उससे बड़ा था। पापा और माँ दोनों बहुत बड़े थे। वे कहते थे कि मैं पिंटू से बात न करूँ पर जब मैं शाम को बाहर क्रिकेट खेलने जाता था तो पिंटू बाहर खड़ा पहले से मेरा इंतजार करता मिलता था। वह भी मेरे साथ ठाकुर के बाड़े में जाता और मेरे सब दोस्त उसको भी खिलाने पर तैयार हो जाते। वह बैटिंग नहीं कर पाता था और उसे बॉलिंग नहीं दी जाती थी। उसे, जिधर सबसे ज्यादा धूप होती थी, फील्डिंग करने के लिए भेजा जाता था और वह खुशी-खुशी चला जाता। दोनों तरफ की टीम बराबर हो जाने पर उसे कॉमन बना लिया जाता था और उसको बताया जाता था कि उसका इसमें डबल फायदा है क्योंकि कॉमन को दोनों टीमों की तरफ से बैटिंग करने को मिलती है। उसको बालिंग नहीं दी जाती थी क्योंकि कॉमन बॉलिंग नहीं करता। लेकिन दोनों टीमों के खिलाड़ी अंत तक आउट नहीं होते थे और उसकी बैटिंग नहीं आती थी। वह कॉमन होकर भी सिर्फ फील्डिंग करता था जिधर धूप सबसे ज्यादा रहती थी।
जब उसको बार-बार नाले से बॉल निकालने को कहा जाता था तो कभी-कभी वह नाराज होकर जमीन पर बैठ जाता था और हकलाने लगता था। जब वह हकलाता था तो मेरे दोस्त तालियाँ बजा कर हँसने लगते थे और उसे मेरा भाई कहने लगते थे। पिंटू जब नाराज होता था तो हकलाने लगता था।
मैं बिना नाराज हुए भी हकलाता था।
घर में जब कोई मेहमान आता था तो वह अपने चाय नमकीन खाने के एवज में मुझे बुलाकर मेरी पढ़ाई के बारे में पूछना अपना फर्ज समझता था। जैसे ही कोई मेहमान आता था, मैं अगर दिन का समय हो तो, पढ़ाई में मशगूल होकर पन्ने पलटने लगता था और अगर शाम हो तो सिरदर्द का बहाना बनाकर सो जाता था। कभी-कभी मुझे सचमुच नींद आ जाती थी मगर मुझे बीच नींद से जगा दिया जाता और मेहमान के दरबार में कैदी की तरह पेश किया जाता था। मेरी पढ़ाई के बारे में पूछते हुए मेहमान अक्सर मुझसे सूर्यग्रहण और आर्किमिडीज के सिद्धांत के बारे में पूछते। मेरी जबान हकलाने लगती और मेरी आँखें भर आतीं। इसके बाद मेहमान मेरी समस्या पर पापा से सहानुभूति जताता हुआ शहर के सबसे अच्छे स्पेशलिस्ट का नाम बताता जो पिछले मेहमान के बताए गए नाम से कतई अलग होता था। पापा डॉक्टर का नाम डायरी में नोट करते और दुखी हो जाते। मुझे मेहमानों और आर्किमिडीज पर बहुत गुस्सा आता था। इस तरह की समस्या का सामना करने का पापा ने बहुत अच्छा तरीका निकाला था। वह मेहमान के सामने मुझे खुद ही बुलाते और कुछ पूछने लगते। मेरे बोलने से पहले कहते, ‘ये बड़ेवाले हैं। थोड़े मंदबुद्धि हैं। साफ बोल नहीं पाते।’ इस तरह से फायदा यह होता कि नए मेहमान चकित नहीं होते और पापा को मेरे बारे में कम से कम बोलना पड़ता। फिर इसके बाद मुझसे पाँच साल छोटे महेश को बुलाया जाता जो एक बार कहने पर अपनी तोतली जबान में ढेर सारी अंग्रेजी और हिंदी की कविताएँ सुना देता। यह धीरे-धीरे पापा की आदत में शुमार हो गया। ‘थोड़ा मंदबुद्धि है। साफ बोल नहीं पाता।’ मेरा परिचय हो गया जो बाद में मेरे दोस्तों द्वारा ‘पागल है। हकलाता है।’ में बदल गया। माँ की सहेलियाँ और पड़ोस की औरतें जिन्हें मैं आंटी कहता था, पीठ पीछे माँ का मजाक उड़ाती थीं। माँ ने भी पापा की तरह इसका इलाज यह अपनाया कि अपनी सहेलियों के सामने उनसे पहले वह खुद मेरा मजाक उड़ाने लगती थीं। इससे उनकी सहेलियाँ धीरे-धीरे उनके साथ सामान्य हो गईं और मैं मेहमानों की तरह माँ से भी बचने की कोशिश करने लगा, खास तौर पर जब उनकी सहेलियाँ सामने हों। धीरे-धीरे पता नहीं कब मेरे और माँ के बीच एक ऐसा रिश्ता बन गया कि मैं जाने अनजाने हर समय ऐसे काम करता रहता कि माँ मुझसे खुश रहें और मेरा मजाक न उड़ाएँ या मुझ पर चिल्लाएँ नहीं। माँ सहेलियों के साथ मुझ पर हँसती हुई मेरे प्रति ऐसी हो गई थीं कि बिना बात भी मुझ पर अक्सर झल्लाती रहती थीं। पानी समय से न आने पर अगर घर का कोई काम नहीं होता या बिजली कट जाने के कारण उनका कोई पसंदीदा धारावाहिक छूट जाता तो डाँट मुझे सुननी पड़ती। वह डाँट खासी लंबी होती और उसके अंत में यही होता कि मैं एक कमअक्ल इनसान हूँ जो अब तक घर पर बोझ बना हुआ है।
माँ छोटी और महेश को खुद पढ़ाने लगी थीं जबकि अब मैं इतना बड़ा हो गया था कि उन्हें पढ़ा सकता था। छोटी जब इंटर में गई, मैं बी.ए. कर चुका था और एम.ए. में एडमिशन ले चुका था। मैं यह समझ चुका था कि लोग चाहे जितना कहें, मैं हकलाता भले हूँ पर पागल नहीं हूँ। महेश इंटर पास कर चुका था। माँ उन दोनों के सामने ही मुझे उनको किसी भी बात पर जरा सा भी टोकने पर मुझे डाँट देती थी। माँ उन दोनों को बहुत प्यार करती थी। उन दोनों को अगर पापा भी डाँटते तो वह पापा को भी डाँट देती थीं। जब वह मुझे डाँटती तो मैं खुद को पापा जितना बड़ा महसूस करता था और मुस्कराकर वहाँ से हट जाता। हालाँकि उनके डाँटने से छोटी और महेश भी मेरी बातों को गंभीरता से नहीं लेते थे और बाद में कभी-कभी वे ही मुझे डाँट दिया करते थे पर मैं कभी उनकी बातों का बुरा नहीं मानता था जिस तरह पापा भी नहीं मानते थे।
पिंटू भी किसी की बात का बुरा नहीं मानता था। उसको उसके मुँह पर कई लोग पागल कह कर चले जाते थे और वह हँसकर कहने वाले को ही कह देता था - भक तूँ पागल। मैं किसी को तू हकला नहीं कहता था। मैं पढ़ाई कर रहा था और पिंटू सिर्फ पाँच पास था।
उन दिनों पिंटू सुबह घरों में अखबार देने लगा था और उसको उसके घरवालों ने सायकिल भी दिलवा दी थी। वह अब भी छोटे बच्चों से उलझा रहता था और वही उसके सबसे अच्छे दोस्त थे। किसी जमाने में मैं भी उसका दोस्त हुआ करता था लेकिन अब वह मेरी पढ़ाई या दिखती हुई बढ़ती उम्र के कारण इज्जत देने लगा था दिन में कितनी बार भी बाहर से आता देख या घर से बाहर जाता देख नमस्कार सुरेश भइया कहता। उसके दोस्त हर तीन-चार साल पर बड़े होकर उसकी दोस्ती छोड़ देते थे और वह बिना गम किए उनके छोटे भाइयों बहनों से दोस्ती कर लेता था। बच्चों को वह बताता कि वह पत्रकार है। बच्चे उससे पूछते कि उसकी कार कहाँ है। बच्चों को पत्रकार का अर्थ नहीं पता था। उन्हें लगता होगा कि जो कार से घूम कर सबके पत्र बाँटता होगा उसे पत्रकार कहते होंगे। वैसे पत्रकारों को भी पत्रकार का अर्थ नहीं पता था। वह बच्चों से कहता कि वह जो अखबार घरों में बाँटता है उसमें जिसकी चाहे फोटो छपवा सकता है। बच्चे यह सुनकर उसके आगे पीछे घूमते रहते कि क्या पता किसी दिन वह उनकी फोटो अखबार में छपवा दे।
पापा कि एक ही इच्छा थी कि उनका नाम और उनके बेटे की फोटो अखबार में छपे। मैं जब बहुत छोटा था तब से उनकी यह ख्वाहिश सुनता आ रहा था। वह अपने कई मित्रों के उदाहरण देते हुए बताते कि फलाँ के लड़के ने स्कूल या कॉलेज टॉप किया और उसकी फोटो और उसके बाप का नाम अखबार में छपा। जब मैं बड़ा हुआ तो यह कहानी लड़के के आइ.ए.एस. अफसर बनने में बदल गई थी। मैंने सोचा मैं भी बच्चा होता तो पिंटू के आगे पीछे घूमता और सोचता कि पिंटू मेरी फोटो अखबार में छपवा देगा।
मैं अब बच्चा नहीं था और अब इस मोड़ पर मेरा कोई दोस्त नहीं था। मेरे दोस्त अब मेरा मजाक नहीं उड़ाते थे लेकिन अब मैं ही बहुत मनहूस-सा हो गया था। मुझे अकेला बैठना बहुत अच्छा लगने लगा था और किसी की उपस्थिति मुझे असहज कर देती थी। मैं चाहता था कि कोई मजाक न उड़ाए और न ही कोई मुझ पर दया करे। लेकिन दुनिया में इतने बुरे लोग थे कि बिना मेरी भावनाओं की परवाह किए मेरे सामने ही मेरे हकलाने का मजाक उड़ाते या फिर इतने अच्छे लोग थे कि मुझ पर इतनी दया करते कि मैं उनकी परछाईं तले दब मरने को हो आता। मुझे पढ़ाई या नौकरी के सिलसिले में अगर किसी से मिलने जाना होता था तो मैं अकेला देर तक बैठा कुछ शब्दों को अभ्यास करता था। उस दिन शाम को पापा के साथ उनके एक दोस्त के घर जाना था जिससे पापा ने मेरी नौकरी की बात की थी।
दरवाजा जिस लड़की ने खोला वह उनकी बेटी थी जो मेरे लिए एक अदद प्राइवेट नौकरी की व्यवस्था करने वाले थे और इस रिश्ते से बकौल माँ, मेरे तारनहार थे। उसने दरवाजा खोला तो मेरे बहुत भीतर भी कहीं कुछ खुला था जिसकी आहट मैं आनेवाले वक्त में लंबे समय तक महसूस करता रहा था। उसने एक भीगी हुई मुस्कराहट हमारी ओर पेश की थी और हर कहीं उजाला हो गया था। पापा और मुझे हॉल में सोफे पर बिठाया गया और हमारी बातें शुरू हों, इसके पहले पापा ने पूरी कोशिश की कि मेरे हकलानेवाली बात को बिना छिपाए मेरे तारनहार के सामने प्रस्तुत कर दिया जाय। उनकी कोशिश इस तरह निष्फल हो गई कि उस लड़की ने मुझसे मेरे बिना कुछ बोले ही बातें करना शुरू कर दिया। मैंने उसकी बातों का उसके लहजे में ही मुस्कराकर जवाब देने की कोशिश की और चमत्कार हो गया। पापा मेरी ओर आश्चर्यभरी नजरों से देख रहे थे। यह उनके लिए दुनिया के किसी अजूबे से कम नहीं था। उनकी आँखों में दिख रहा था कि उनकी उम्र सिमटकर वहाँ चली आई है और वह मुझसे कितना प्रेम करते हैं। मेरी नौकरी के लिए उन सज्जन ने पहले दावा किया फिर वादा और हम वहाँ से हँसी-खुशी विदा हुए। पापा ने रास्ते भर मुझसे बात नहीं की और मेरी ओर वात्सल्य भाव से भरकर मुस्कराते रहे। जब हम घर पहुँचे तब तक उस मुस्कराहट के कुछ हिस्से मेरे होंठों पर भी आ लिपटे थे और मैं खुशी-खुशी अपने भीतर पैदा हुए एक नए इनसान को महसूस करने की कोशिश कर रहा था। मगर वहाँ कुछ ऐसा हुआ जिसने मेरे ही नहीं पापा के होंठों की भी मुस्कराहट छीन ली। न सिर्फ छीनी बल्कि उनके चेहरे का रंग भी बदल गया।
‘मुझे विश्वास नहीं होता।’ माँ ने कहा था और मैं यह समझ नहीं पाया था कि माँ खुश क्यों नहीं है।
‘नहीं भई मैं बिल्कुल सच कह रहा हूँ। सुरेश वहाँ बिल्कुल नहीं हकलाया। वर्मा जी की बेटी से भी बात करते समय और वर्मा जी से भी बात करते हुए। मैं खुद आश्चर्य में हूँ। जो बीमारी इतने डॉक्टरों से दिखाने से भी नहीं ठीक हुई ये आज अचानक कैसे...।’
माँ ने पापा की किसी बात का कोई जवाब नहीं दिया और वापस अपने कमरे में चली गई। बाद में मुझे छोटी से पता चला कि माँ मुझ से बहुत नाराज थी कि मैंने आज तक उनको और पूरे परिवार को धोखे में रखा कि मैं हकलाता हूँ जब कि मेरी बीमारी बहुत पहले ठीक हो चुकी है। मैंने छोटी को इसके बारे में कुछ कहना चाहा तो पाया कि मैं रोज से अधिक हकला रहा हूँ। मैं चुप हो गया। छोटी की आँखों में अपने लिए अविश्वास देखना मेरे लिए बहुत कठिन था।
मैं पिंटू से मिला और उसे इस आश्चर्य के बारे में बताया। उसका कहना था कि मैं भी उसे उस लड़की से मिलवा दूँ जिसके दर्शन करने मात्र से हकलाने की बीमारी दूर हो जाती है। मैंने वर्मा जी को फोन कर उनसे प्रिया का मोबाइल नंबर माँगा और बुरी तरह हकलाया। उन्होंने नंबर दिया और बताया कि वह कॉलेज गई है। उसका कॉलेज मेरे कॉलेज से कुछ दूरी पर ही था और एक ही विश्वविद्यालय से संबद्ध था।
मैं जब उसके कॉलेज के गेट पर पहुँचा तो मौसम कुछ खुश्क सा हो गया था और मेरा मन हमेशा की तरह रो पड़ने को हो रहा था। गेट पर मेरा एक पुराना दोस्त मिला और उसने मुझे चाय पिलाने की पेशकश रखी। मैंने उसे यह कहते हुए मना किया कि मैं यहाँ किसी से मिलने आया हूँ और वह मित्र अब आने ही वाला होगा। मित्र अपनी आँखें गोल करके मुझे देखने लगा।
‘तुम्हारा हकलाना कब ठीक हुआ यार? बहुत अच्छा लग रहा है तुमको एकदम साफ आवाज में बात करता देख कर...।’
मैंने मित्र की कोई बात नहीं सुनी और लगभग दौड़ता हुआ कॉलेज कैंपस में घुस गया। वह जरूर कहीं आसपास थी।
मैंने उससे कहा कि उसकी आँखें मुझे बहुत पसंद हैं और बदले में वह मुस्कराई। उसने मुझसे पूछा कि क्या मैं पहले हकलाता था और मैंने उसे सब कुछ साफ-साफ बता दिया। उसने मेरी हथेली अपनी हथेलियों में पकड़ी तो मुझे पता चला कि मेरी हथेलियाँ कितनी सख्त हैं। उसने मुझे अपना दोस्त कहा और आगे भी मिलने का वादा किया। मैंने कहा कि ऐसे मौसम में मैं अक्सर बहुत अकेला महसूस करता हूँ।
मैंने अपने कॉलेज में होनेवाले वाद-विवाद प्रतियोगिता में शामिल होने की रजामंदी कभी नहीं दी थी लेकिन पता नहीं कुछ शरारती लड़कों ने कैसे मेरा नाम दे दिया गया। मैंने भी मना नहीं किया और उसे रजामंद किया कि वह मेरा प्रदर्शन देखने कॉलेज में आएगी। मैं उसकी उपस्थिति जाँचना चाहता था।
वह आई और कमाल हो गया। मैं सबसे अच्छा बोला और जरा भी नहीं हकलाया। मेरे मित्र, अध्यापक और सबसे ज्यादा मैं आश्चर्यचकित था जब मुझे विजयी होने का पुरस्कार दिया जा रहा था। मैं समझ चुका था। मेरी दादी कहती थीं कि दुनिया में हर बड़ी समस्या का समाधान और हर लाइलाज बीमारी का इलाज होता है पर हम अक्सर उन तक पहुँच नहीं पाते।
मैं अपने इलाज तक अनायास ही पहुँच गया था।
उसने हमेशा एक अच्छे दोस्त की तरह मेरी बातें सुनी और अपनी बातें बताईं। मैंने बताया कि पुरानी फि़ल्मों में अमोल पालेकर मेरा पसंदीदा अभिनेता है तो पहले तो वह खूब हँसी फिर अचानक संजीदा हो गई।
‘तुम सीरियस हो या मजाक कर रहे हो?’
‘नहीं सच में... तुम्हें अच्छा नहीं लगता? मुझे उसके बाद फारुख शेख और रिशी कपूर अच्छे लगते हैं... तुम्हें?’ मैंने आश्चर्य में भरकर पूछा।
वह फिर से हँसने लगी। उसने बताया कि उसका पसंदीदा अभिनेता अमिताभ बच्चन है और उसे रोमांटिक और सहज फि़ल्में या जिंदगी दोनों ही नहीं पसंद। यहाँ तक कि अमिताभ की भी रोमांटिक फि़ल्में वह कभी नहीं देख पाती।
मैं थोड़ा असहज सा हो गया था। वह एक बहुत सुंदर और सहज लड़की थी जिसे रोमांटिक और सहज फि़ल्में जरूर पसंद होनी चाहिए थीं। मुझे यह भी असहज कर देता था कि खाने में उसे नॉन वेजीटेरियन खाना पसंद था जबकि मैं हमेशा से शुद्ध शाकाहारी खाने के इतर सोच तक नहीं पाता था। हममें बहुत कुछ अलग था लेकिन जो एक था वह बहुत गाढ़ा था, इतना कि उसमें मैं अपने हाथ पाँव भी नहीं हिला पाता और पड़ा-पड़ा मुस्कराता रहता। हम मोबाइल पर भी खूब बातें करते। मैं जमीन से ऊपर उठता जा रहा था। मेरा मन हो रहा था कि मैं गाँव जाऊँ और दादी को उसके बारे में ढेर सारी बातें बताऊँ और दादी अपने पसंदीदा गीत गाएँ। दादी बहुत खुश होतीं।
मैंने बताया कि मेरे शहर में पागल बहुत थे। पागलपन भी कई किस्म के थे। सबसे बड़ा गिरोह उनका था जो अपने देश से सबसे ज्यादा प्यार करने का दावा करते थे। इतना प्यार कि इसके रास्ते में आने पर वे अपने बाप पर भी हाथ उठा सकते थे। उनका अपनी संस्कृति से बहुत लगाव था और इसकी रक्षा के लिए वे अपना भविष्य दाँव पर लगाकर सड़कों पर घूमते थे और अपनी जान की बाजी लगाकर इसकी रक्षा करते थे। मेरे एकाध दोस्त जो कॉलेज में फौज में जाने का स्वप्न देखते थे, यह स्वप्न टूटने पर इस रास्ते से देश की सेवा कर रहे थे। उन्होंने मुझे भी बुलाया पर मुझे देश से प्यार करने का वक्त नहीं था।
मैं प्रिया से प्यार कर रहा था। यह बात उसकी जानकारी में डालनी बहुत जरूरी थी। मेरा ख्याल था कि वह मुझे पसंद करती है।
हम नदी के किनारे घूमने गए थे। प्रिया ने अपनी एक सहेली से फोन करवाया था और उसने मजाक-मजाक में कहा कि वह मेरी गर्लफ्रेंड बोल रही है। मैं हकलाने लगा तो प्रिया ने फोन ले लिया था और मेरी आवाज एकदम साफ हो गई थी। वो दोनों खूब हँसी थीं और प्रिया की हँसी से मेरी हँसी के दरवाजे भी खुल गए थे। नदी किनारे घूमते वक्त उसने कहा कि उसे विश्वास नहीं होता कि मैं सिर्फ उससे ही बिना हकलाए बात कर पाता हूँ। मैंने उसकी हथेलियाँ पकड़ीं और बिना हकलाए उसकी आँखों में आँखें डाल कर कहा कि यही सच है और मैं जिंदगी भर बिना हकलाए जीना चाहता हूँ। उसकी निगाहें नदी के उस किनारे पर हिचकोले खा रही एक नाव पर टिक गई। उसने कुछ नहीं कहा और उदास हो गई। मुझे नदी से बहुत डर लगता था और वह घाट की सीढ़ियों पर बैठकर नदी में अपने पैर लटकाए हुए थी। उसने मुझे भी अपने बराबर यानी एक सीढ़ी नीचे बुलाया। मैं जानता था कि अगर मैंने पैर नीचे लटकाए तो जरूर कोई मगरमच्छ मुझे पाँवों से खींच ले जाएगा या मेरा पाँव अचानक फिसल जाएगा और मैं गहरे पानी में डूब जाऊँगा। मगर उसने मेरा हाथ पकड़कर मुझे नीचे उतारा और मैंने डरते-डरते धीरे से अपने पाँव पानी में डाल दिए। थोड़ी देर बाद ऐसा लगा जैसे मैं सालों से ऐसे ही बैठता आ रहा हूँ। मेरी आँखें भर आईं और मैं भी दूसरे किनारे हिचकोले खा रही उस नाव को देखने लगा जो ओवरलोड होने के कारण बहुत मुश्किल से सही दिशा में चल पा रही थी।
माँ ने मुझसे साफ कह दिया था कि वह महेश और छोटी की शादी से पहले चाहती हैं कि मेरी शादी हो जाय। मेरी शादी करवाने में वह असमर्थ हैं क्योंकि मेरे हकलाने की वजह से कोई पार्टी आ नहीं रही और वह तुरंत महेश की शादी करना चाहती हैं। महेश के लिए एक बहुत अच्छा रिश्ता आया था और पार्टी पूरे आठ लाख रुपए दे रही थी। माँ को पैसों से कोई मोह नहीं था और वह ये पैसे महेश और उसकी भावी पत्नी के भविष्य के लिए माँग रही थीं। उन्हें उनके भविष्य की इतनी चिंता थी कि उन्होंने लड़की के पिता की छह लाख की पेशकश को ठुकरा दिया था और साफ कह दिया था कि वह तशरीफ ले जा सकते हैं। लड़की के पिता को भी अपनी बेटी के भविष्य की काफी चिंता थी और चिंताग्रस्त होकर उन्होंने गाँव में कुछ बिगहे खेत और बेच दिए थे। मुझे भी अब अपने भविष्य की चिंता होने लगी थी। मैं, जो कि खुद को सामान्य इनसान तक नहीं मानता था,अब सामान्य इंसानों की तरह सपने देखने लगा था। ऐसा करते हुए अकेली रातों के सन्नाटे में डर भी लगता था क्योंकि दादी कहती थीं कि बहुत खुश होने पर जल्दी ही दुख आता है ओर बहुत हँसने पर जल्दी ही खूब रोना पड़ता है। मैंने अपनी प्रिय प्रिया को आखिरकार यह बता ही दिया कि मुझे जल्दी ही शादी करनी है। वह खूब हँसी और अचानक उदास हो गई। उसने कहा कि काश वह मेरी शादी अटेंड कर पाती लेकिन यह मुश्किल होगा क्योंकि वह आई.ए.एस की तैयारी करने दूसरे शहर जानेवाली है।
एक बादल का टुकड़ा हवा से कहीं दूर उड़ा जा रहा था और मैं कोशिश कर रहा था कि उसकी ओर न देखूँ। वह मुझे सबसे ज्यादा समझती थी और कुछ अनजाना-सा था जो मुझे उससे जोड़ता था। अपने बचपन के बारे में बताते वक्त मैं जो बातें गलती से छोड़ देता था, वह उन बातों को पता नहीं कैसे पहले से ही जानती थी। वह मुझे इतना समझती थी जैसे मुझे उसी ने बनाया है। वह सबसे अलग थी और मेरा मुकद्दर भी सबसे अलग था। मैंने खुलकर पूछा था कि वह मुझसे शादी क्यों नहीं कर सकती। उसने कहा कि इस रिश्ते में उसका जरा भी विश्वास नहीं है क्योंकि उसने सिर्फ असफल शादियाँ देखी हैं। उसका विश्वास प्रेम नाम की किसी भी चीज में नहीं है जो दरअसल नजरों का धोखा है, एक त्रिआयामी धोखा।
‘तो क्या बादल घिरने पर जंगल में मोर नहीं नाचा करते? क्या यह सिर्फ एक धोखा है?’ उसने पूछा कि जंगल में मोर नाचा तो उसे किसने देखा। मैंने वाकई कभी नहीं देखा था और इसे सच मान लिया था।
‘तो क्या बहता हुआ पानी और खिलते हुए फूल को देखकर किसी सर्वशक्तिमान के होने पर विश्वास नहीं होता ?’
उसने पूछा कि जब ये चीजें अपने प्रलयंकरी रूप में होती हैं तब वह सर्वशक्तिमान कहाँ होता है।
‘मैं तुमसे प्रेम करता हूँ और तुम्हारे बिना नहीं रह सकता। यह भले ही दुनिया की सबसे घिसी पिटी बात हो, मैं इसे किसी और तरीके से नहीं कहना चाहता।’
उसने कहा कि प्रेम एक छलावा है जो छलता है और अंतत: छलनी कर देता है।
‘तो क्या मन की पवित्रता का कोई मतलब नहीं? वह पवित्रता जो सारे मैल धो देती है और आप अनायास ही पूरी दुनिया को माफ कर देते हैं ?’
उसने कहा कि ‘पवित्र’ उम्मीद की तरह ही एक मुर्दा शब्द है जिसका कोई अस्तित्व नहीं है।
‘दुनिया में सब कुछ जैविक है और इसमें कुछ भी पवित्र नहीं सुरेश। अगर कुछ है तो वह हमारे दिमाग का फि़तूर है और हमें इसे ठीक करना चाहिए। मैं तुम्हारी दोस्त हूँ और तुम्हारे लिए यह बहुत होना चाहिए। मुझे तुमसे सहानुभूति है क्योंकि तुम किताबों के पन्नों में जीना चाहते हो।’ उसने अपनी जबान पर जहर रख लिया था।
मैंने अपने भीतर एक साँप रेंगता सा महसूस किया जिसके दाँत बहुत जहरीले थे। मैं किसी को भी डस लेना चाहता था। मैं किसी से भी लिपटना चाहता था और उसका गला घोंट देना चाहता था। मैं मर जाना चाहता था या खूब हकलाना चाहता था। मैं रोना चाहता था और अपनी माँ को खूब गालियाँ देना चाहता था। मेरे अंदर ढेर सारा कोयला भरा था और मुझे एक माचिस चाहिए थी।
मैं जिससे लिपटा था उसने मेरे होठों पर अपने होंठ रखने चाहे तो मैं जैसे एक लंबी बेहोशी से जागा। मेरे सिर में जोर से दर्द हो रहा था और मैं दिमाग में दीमक लग गए थे। मैंने खुद को उसकी पकड़ से छुड़ाया और नीम बेहोशी में वहाँ से भाग खड़ा हुआ।
‘साहब अपना बैग तो लेते जाओ...।’ पीछे से आवाज आई लेकिन मैं नहीं रुका। बैग में कुछ जरूरी नहीं था। जो जरूरी था वह बैग में नहीं था।
माँ ने उस रात मुझे बताया कि मेरे मुँह से शराब की महक आ रही है इसलिए मैं घर में नहीं घुस सकता। मुझे अपने ऊपर शर्म आई और मैं आकर कॉलोनी के पार्क में एक पत्थर की बेंच पर सो गया। सुबह जब मैं बिना नहाए अपने एक दोस्त के घर पहुँचा तो उसने बताया कि किसी भी कांपटीशन के लिए वह हाल ही में ओवरऐज हुआ है और अब वह संस्कृति की रक्षा करनेवालों में शामिल हो गया है। उसने दुनिया की सभी लड़कियों को एक गंदी-सी गाली दी और मेरा ध्यान बँटाने की गरज से मुझे दल के सेनापति टाइप के आदमी से मिलवाया और मेरे नाम से एक फॉर्म भर कर जमा कर दिया। मेरे भीतर कोयला था और मैं भी शहर के पागलों में शामिल हो रहा था। मैंने अपने साथ पिंटू को भी ले लिया और उसका भी फॉर्म भरवा दिया। वह एक जमाने में मेरा दोस्त रह चुका था इसलिए मैंने उसे कहा कि वह मुझे भइया न कहा करे। बदले में मैंने उसे पहली बार शराब पिलाई जो दल के सेनापति ने मँगाई थी।
हम वैलेंटाइन डे, रोज डे, चॉकलेट डे और इस तरह के पश्चिमी दिवसों पर अपने माथे पर पटि्टयाँ बाँधे निकलते थे। पट्टियाँ केसरिया रंग की होती थीं क्योंकि हम देश से प्रेम करते थे। हमें यह मंजूर नहीं था कि देश जैसी महान चीज पास होते हुए कोई आपस में भी प्रेम करे। हम ऐसे स्वार्थी लोगों को कतई बर्दाश्त नहीं कर पाते थे और चाहते थे कि सभी लोग सिर्फ और सिर्फ देश से ही प्रेम करें। जो लोग आपस में प्रेम करते हुए दिखते थे, हम उन्हें अच्छा सबक सिखाते थे। हम लड़कों को मुर्गा बनाते थे और उनसे अंडा देने की माँग करते थे। हमारी माँग को पूरा न करने पर हमारे में से कई देशप्रेमी उसके साथ की लड़की से वही माँग दोहराते थे और लड़की के असमर्थता जताने पर निषेचन का प्रस्ताव भी रख देते थे। एक भी अंडा न पाने की स्थिति में कुछेक जवान लड़कों पर हाथ भी छोड़ देते। आखिरकार एकाध प्रौढ़ और संतुलित देशभक्त आगे आते और उन लड़कों को मारपीट से मनाकर लड़की से लड़के के हाथ पर राखी बँधवाकर देश की महान संस्कृति की याद कराते। उनसे थप्पड़ खाकर लड़के लड़कियों के सिर पर हाथ रखते और कहते, ‘मेरी प्यारी बहन, मैं तेरी और भारत माता की रक्षा करने का वचन देता हूँ और यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि संसार की हर लड़की को अपनी बहन मानूँगा।’ ये वे परिपक्व लोग थे जो इस बात में विश्वास करते थे कि संस्कृति की रक्षा के लिए खून बिल्कुल नहीं बहाना चाहिए और साथ में त्रिशूल और भाले जैसी खतरनाक चीजें होने के बावजूद पथभ्रष्ट लोगों को मारने के लिए प्राय: हॉकी डंडे का ही प्रयोग करते थे। ये कहते थे कि ये अमनपसंद लोग हैं और इनकी छवि बिगाड़ने के लिए इनके विरुद्ध बातें फैलाई जाती हैं।
मैं लगभग हर पार्क और हर पब्लिक प्लेस पर जोड़ों की होनेवाली गतिविधियों से परिचित हो चुका था। संकटमोचन मंदिर के बगल में जो पार्क था उसमें मंगलवार और शनिवार को जोड़ों की भीड़ रहती जो शायद अपने-अपने घर से भगवान के दर्शन का बहाना बनाकर निकलते होंगे। सिगरा पार्क में अक्सर जोड़े कॉपी-किताबों के साथ दिखाई देते। यह ऐसा पार्क था जहाँ स्कूल से सीधे भागकर आने में सुविधा होती थी। हम वहाँ अक्सर छापा मारते और खुलेआम भारतीय और खासकर हिंदू संस्कृति का मजाक बनाते लड़के लड़कियों को कायदे से सबक सिखाते। हममें से कुछ लड़के ऐसे थे जो इन मौकों पर सिर्फ लड़कियों के कुछ खास अंगों को छूने और दबाने की फि़राक में रहते। एकाध ऐसे थे जो लड़कियों की तरफ देखते भी नहीं और पहुँचते ही लड़कों पर पिल पड़ते। मैं ही एक ऐसा था जिसने पहली बार किसी लड़की पर हाथ उठाया था। जिस जोड़े को हमने हाथी पार्क में पकड़ा था उसमें लड़का तो हमारे दो थप्पड़ खाकर हमारी बीन पर नाचने लगा था लेकिन लड़की कुछ अलग ही तरह की निकली थी।
‘आप कौन होते हैं और आपको किसने ठेका दिया है अपनी संस्कृति की रक्षा का...।’ लड़की की आवाज में जरा भी डर नहीं था और हमारे सारे योद्धा सकपका गए थे। सिर्फ मैं था जो आगे बढ़ा था। ...शायद मैं ऐसी ही लड़की का इंतजार कर रहा था।
‘ये जो नंगई तुम लोग कर रहे हो उसे अपने घरों के भीतर करना चाहिए था।’ मैंने ठस आवाज में कहा और सेनापति ने मेरी ओर तारीफ भरी नजरों से देखा था।
‘हम ऐसा कुछ नहीं कर रहे। हम एक दूसरे से प्रेम करते हैं और एक दूसरे के साथ सिर्फ वक्त बिताना चाहते हैं और इसके लिए आप जैसे लोगों की इजाजत...।’ उसका वाक्य अधूरा रह गया था क्योंकि तब तक मेरा पारा चढ़ चुका था। मैं आगे बढ़ा और उसके गाल पर एक जोरदार थप्पड़ जड़ दिया। मेरे साथ के लोग, जो हंगामों के बीच ऐसे गालों पर चुंबन जड़ने के आकांक्षी हुआ करते थे, जड़ थे।
‘प्रेम...? ये कौन सी चीज है? आज तुम इसके साथ घूम रही हो प्रेम प्रेम की माला जपते हुए और कल इसके पिछवाड़े पर लात मारकर एक ऐसे सुरक्षित भविष्य की तलाश करोगी जिसमें इस बेवकूफ के लिए कहीं जगह नहीं होगी।’
‘तुम पागल होने की प्रक्रिया में हो...।’ लड़की ने अपने गाल सहलाते ठंडे स्वर में कहा था। ‘जल्दी ही पूरे पागल हो जाओगे। गुस्से से भरे पागल जिसे पूरी दुनिया से नफरत होगी।’ उसके साथ का लड़का अपने रुमाल से उसके फटे हुए होंठ सहला रहा था। पुलिस आ गई थी और उनकी विनती पर हम लोग वहाँ से निकल रहे थे। मैंने निकलते हुए लड़की की आँखों में देखा था। पता नहीं क्यों उनमें मुझे अपने लिए नफरत के साथ थोड़ी सहानुभूति भी दिखाई दी थी।
जिस रात मेरे शहर में जलजला आया था, बहुत कुछ टूटा था और बहुत कुछ में दरारें पड़ गई थीं। टूटे को जोड़ा जा सकता था पर जहाँ दरारें पड़ी थीं वह जगहें बहुत भीतर थीं और उन्हें कुछ भी करके जोड़ा और पहले जैसा नहीं बनाया जा सकता था। मेरे शहर, जिसे दुनिया का सबसे पुराना शहर कहा जाता था, में एक के बाद एक तीन बम धमाके हुए थे। मैं, जो पहले से ही अधमरा हो चुका था, इस झटके से मर ही गया। मेरे भीतर जो बदला था, उसकी शक्ल बिल्कुल ऐसी ही थी जैसी इस समय मेरे शहर की हो गई थी। मैं अपने घर में होते हुए भी सड़क पर था और बाहर की सड़कें मेरे भीतर थीं जिन पर लोग चल रहे थे। लोग उन सड़कों को रौंदते हुए आगे बढ़ जाते और उनके कदमों के निशान मेरे सीने पर छपते चले जाते। मैं टूटा हुआ था और कहीं नहीं जा सकता था। मैंने स्वार्थी होकर प्रार्थना की कि जिस समय विस्फोट हुआ उस समय प्रिया न तो रेलवे स्टेशन पर रही हो और न ही उस मंदिर में गई हो। वह रात बहुत अकेली और डरावनी थी और बार-बार ऐसा लग रहा था कि मैं अपने बचपन के डरावने दिनों में वापस जा रहा हूँ। विस्फोट सचमुच में हुआ था और मुझे बार-बार टीवी पर देख कर खुद को विश्वास दिलाना पड़ रहा था। मैंने पिंटू को बुलाया और पार्क में जाकर घंटों उसके साथ बैठा रहा। उसने बताया कि उसे पागल सिर्फ इसलिए कहा जाता है क्योंकि उसके घरवालों ने ऐसा प्रचारित कर दिया है वरना वह पागल नहीं है अलबत्ता उसके एकाध पेंच जरूर ढीले हैं। मैंने उसे बताया कि मुझे अकेलेपन से बहुत डर लगता है और बचपन से मैं अकेला ही रहा हूँ। इस कारण कितनी भी भीड़ हो, मुझे ऐसा ही डर लगता है जैसा अकेला होने में। उसने कहा कि उसे बच्चों से बहुत प्यार है और यह एक बड़ी वजह है जिसके लिए लोग उसके पीछे पड़े रहते हैं क्योंकि वह किसी के भी बच्चे को गोद में उठा कर दुलारने लगता है। मैंने कहा कि मैं सबसे प्यार करना चाहता हूँ और चाहता हूँ कि मुझे भी सब कम से कम थोड़ा-थोड़ा तो प्यार करें। मैंने उससे माफी माँगी कि उसे बैटिंग नहीं दी जाती थी। उसने कहा कि वह बैटिंग चाहता भी नहीं था क्योंकि वह हम लोगों की फास्ट बॉलिंग नहीं झेल पाता, वह सिर्फ हम लोगों में शामिल होने के लिए हमारे साथ खेलता था। हम दोनों के बीच एक छोटी सी बोतल रखी रही और उसे खोलने में किसी ने रुचि नहीं दिखाई। हम उसे वैसा ही छोड़कर वापस चले आए।
मुझे उस रात भी अपने कमरे में बहुत डर लगा। मुझे जब बार-बार लगने लगा कि कमरे में कोई है तो मैंने पूरे कमरे की तलाशी लेने की ठानी। आलमारी में कोई नहीं था और टाँड़ पर भी सिर्फ कुछ कार्टन थे। जब मैं बिस्तर पर लेटा तो बार-बार मुझे लगने लगा कि खिड़की पर कोई खड़ा है। मैं उठा और खिड़की दुबारा बंद करके पर्दे खींच दिए। आखिरकार मुझे टाँड़ पर चढ़ना ही पड़ा और बड़े कार्टन खोलकर यह देखना पड़ा कि उनमें कोई छिपकर तो नहीं बैठा। कार्टन में सिर्फ कुछ पुरानी किताबें थीं। मैं नीचे आया और इस एहसास से कि मैं अपने कमरे में एकदम अकेला हूँ, मुझे रात भर नींद नहीं आई। मैं दादी की कहानियाँ याद करता रहा और सोचता रहा कि इस बार जाऊँगा तो उनसे कहूँगा कि मुझे वह अपनी सारी कहानियाँ बोलकर लिखवा दें। टाँड़ पर चढ़कर मैं कार्टन में से कहानियों की एक किताब उठा लाया जिसे बचपन में डर लगने पर मैं पढ़ा करता था। मैंने वह गाना भी गाया जिसके बारे में दादी बताती थीं कि इसे गाने से डर नहीं लगता। मैं रात भर ‘मैं परियों की शहजादी, मैं आसमान से आई हूँ’ गाता रहा और डरता रहा।
अगले दिन शायद कोई खास दिन था। हमारी सेना माथे पर केसरिया पट्टियाँ बाँधे निकल पड़ी थी और मेरे मित्र ने मना करने के बावजूद मुझे भी घर से उठा लिया था। पता चला आज लोग अपने प्रिय को गुलाब देते हैं और हम इस बात पर नाराज थे कि यह भी पश्चिम से आयातित त्योहार था। पश्चिम का अर्थ अपवित्र था और हम यह शब्द सुनते ही हमला करने को तैयार हो जाते थे। हममें से किसी की योग्यता नहीं थी कि वह किसी नौकरी या आगे की पढ़ाई के लिए पश्चिम जाने की सोच पाता। हमारे परिचितों और मित्रों में से कोई पश्चिम चला जाता तो हम उसे खूब गालियाँ देते और पश्चिम से और घृणा करने लगते। हमें पश्चिम को करीब से देखने की इच्छा थी लेकिन हम वहाँ के तौर तरीकों से नफरत करते क्योंकि हम इन्हें अपना नहीं पाते। हम किसी को गुलाब देते तो कोई लेने को तैयार नहीं होता इसलिए हमें गुलाबोंवाले दिन पर गुस्सा आता। हम जब दो तीन पब्लिक प्लेस से आगे बढ़े तो हमारे हाथों में कई गुलाब के फूल थे। हमने एकाध दुस्साहसी दुकानदारों को पीटा जो हमारी चेतावनी के बावजूद दुकानें खोले हुए थे। मैंने दो गुलाब के फूल अपनी जेब में रख लिए और सोचा कि आज के बाद मैं इन लोगों के साथ नहीं आऊँगा। आज की गाड़ी से मैं गाँव जाऊँगा और ये दोनों फूल दादी को दूँगा। फिर उनसे कहूँगा कि इसमें से एक फूल वह मुझे दे दें। साथियों ने फूलों के साथ ढेरों कार्ड भी इकट्ठा कर लिए थे और एक जवान ने सीधा एक गुलदस्ता ही उठा लिया था।
हम जब थोड़ा आगे बढ़े तो एक पार्क में कुछ जोड़े दिखाई दिए। हमने तीन तरफ से धावा बोला और कई जोड़ों को पकड़ लिया। एकाध ने अंडे देने की असफल कोशिश की और साथियों के हाथों से पिटे। मैं एक तरफ चुपचाप खड़ा था। किसी दुकान पर तेज आवाज में एक गाना चल रहा था जिसमें कोई गा रहा था कि उसके एक आँख मारने पर रास्ता रुक जाता है और दूसरी मारने पर लड़की पट जाती है। मैंने सोचा कि मैं गाँव जाते हुए दादी के लिए एक मच्छरदानी ले जाऊँगा जिससे उनके खटिया के आसपास भिनभिनानेवाले मच्छर उन्हें छू तक नहीं सकेंगे।
जब हम पार्क के आखिरी गेट पर पहुँचे तो वहाँ मेरी बेचैन आत्मा ने अपनी जिंदगी का आखिरी पड़ाव पाया। उसकी हथेलियों को चूमने के बाद उस सुदर्शन और लंबे युवक ने उसकी पवित्र आँखों को चूमा था और हमारी सेना यह देखकर उत्साहित हो गई थी। उसकी आँखें सागर हो गई थी और हथेलियाँ धरती। आह... वह कितना भी मना करे, उसका स्पर्श बहुत पवित्र था उसकी आँखों की तरह। उसने नजर उठाई और सामने मुझे पाया। उसकी आँखों में दर्द नहीं था, एक खामोश जिद थी। उसने भरी आँखों से मेरी ओर देखा और मैं जैसे नींद से जागा। युवक कह रहा था कि वह कोई लखेरा नहीं है बल्कि आइ.ए.एस. का कैंडिडेट है और प्रारंभिक व मुख्य परीक्षाएँ पास कर चुका है लेकिन इस बात को सत्यापित करने का मौका उसे नहीं दिया जा रहा था। उसका फोन सेनापति ने छीन लिया था और उसके गाल पर एक जोर का तमाचा पड़ा था।
‘किसे फोन करेगा तू साले? यहाँ के आइयस, पीसीएस सब हम हैं।’
मैं तेजी से उसके पास पहुँचा था लेकिन तब तक अनहोनी घट चुकी थी। प्रिया ने सेनापति को अंग्रेजी में कोई गाली दी थी और उसके गाल पर झन्नाटेदार झापड़ रख दिया था। पता नहीं इसके बाद क्या हुआ। मैं अगर जिंदा बच जाता तो पूरी तो नहीं मगर थोड़ी घटनाएँ तो बयान कर ही सकता था।
भीड़ में से एक चमत्कार की तरह मेरे परिचित चेहरे अचानक गायब हो गए थे और उनकी जगह कुछ अजीब से हिंसक चेहरे वाले लोग प्रकट हो गए थे। मैंने उनसे उस युवक को न मारने की विनती की और किसी ने मुझे तवज्जो नहीं दी। प्रिया जब मेरे रकीब को बचाने लपकी तो उसे एक ओर धक्का मार दिया गया और उसका सिर बरगद के पेड़ के नीचे बने सीमेंट के चबूतरे से टकराया। उसका सिर फट गया था और वह वहीं निढाल पड़ी फटी आँखों से सब कुछ देख रही थी। मैंने पाया कि उस उन्मादित भीड़ में से न मैं किसी को पहचान पा रहा हूँ न मुझे कोई। मेरे परिचित और दोस्त न जाने कहाँ चले गए थे। भीड़ में से ‘हर हर महादेव’, ‘भारत माता की जय’ और ‘विदेशी संस्कृति बाहर करो’ आदि के नारे उछाले जा रहे थे ओर उस युवक को हॉकियों और लातों घूँसों से पीटा जा रहा था। मैं अचानक उछल कर सेनापति के पास पहुँचा और उसकी हॉकी स्टिक छीनकर उसके सिर पर करारा प्रहार किया। वह गिर पड़ा और मैं उसे ताबड़तोड़ पीटने लगा। मैं सिर्फ तीन-चार हॉकियाँ ही मार पाया होऊँगा कि मेरे सिर पर बहुत जोर-जोर से हॉकियाँ पड़ने लगीं। मैं गिर पड़ा और मेरी आँखें बंद होने लगीं। मैंने मुँदती आँखों से उसकी ओर देखने की कोशिश की। उसके माथे से बहता खून रुक सा गया था और वह एकटक मुझे देखे जा रही थी।
मेरी आँखें धीरे-धीरे बंद हो गईं।
अगले दिन अखबार में मेरी फोटो छपी। पापा को मेरी फोटो और अपना नाम अखबार में छपा देखकर जरा भी खुशी नहीं हुई। माँ, छोटी और महेश भी बहुत रोए और माँ ने महेश की शादी पंद्रह दिनों के लिए स्थगित कर दी।