‘ब’, ‘क’ और विनयना / पद्मा राय
हमेशा की तरह नाक की सीध में चलती चली जा रही थी कि रिसेप्शन पर वीरा दी दिखायी दीं।पंकज से किसी टॉपिक पर बात कर रहीं थीं।उन्हें वहां देखते ही स्कूल की पत्रिका की याद आ गयी।एक दिन पहले ही मिली थी।उसमें वीरा दी का एक आर्टिकल पढने को मिला। कमाल का सेन्स ऑफ ह्यूमर है वीरा दी का।आज यहां उन्हें देखकर उन की कृति की याद ने हंसने के लिए मजबूर कर दिया।वास्तव में अनूठी रचना थी।मजा आ गया उसे पढक़र।उन्हें बधाई देने का जी चाहा।लेकिन इस समय नहीं, वरना अगर बातों में उलझ गये तब क्लास रूम तक पहुंचने मे ब्रेकफास्ट ओवर हो चुकेगा।
यह केवल इस एक दिन की बात नहीं है।इधर कई दिनों से विनयना का व्यवहार ऐसा ही है।उसके सामने मैंने उसकी कॉपी खोलकर रख दी।उसकी कलाई में रिस्टबैण्ड बांधकर उसे मोटी वाली पेन्सिल पकडा दी।अब उसे लिखना चाहिए।लेकिन वह अनमनी सी बैठी रही।पेन्सिल उससे संभल नहीं रही थी या वह संभालना ही नहीं चाहती थी। न जाने मुझे ऐसा क्यों लगा, कि वह जान बूझकर ऐसा कर रही है। उसे उन अक्षरों को उनके सामने बने चित्रों के साथ मैच करवाना था जो उन्हीं अक्षरों से आरम्भ होते थे।पेन्सिल तो उसने संभाल ली थी लेकिन मैच करने के बजाय वह उन पन्नों पर आडी-तिरछी ,टेढी-मेढी रेखाओं वाली अजीबोगरीब आकृतियों का निर्माण करने लगी।उसको मनाने का हर संभव प्रयास बेकार गया।वह किसी भी तरीके से पहले की तरह अपना क्लास वर्क करने के लिए तैयार नहीं हुयी।
कुछ देर बाद तो उसने पेंसिल पकडने से भी इंकार कर दिया।हद तो यह हुयी कि उसने अपने दोनो हाथ मेज पर रखे और सिर पीछे कुर्सी पर टिका दिया।उसके बाद कुर्सी को अपने पीठ और सिर से पूरी ताकत लगाकर पीछे की तरफ ढकेलने लगी।कई बार कुर्सी उलटते-उलटते बची।इतने पर भी संतोष नहीं हुआ तो अपने कांपते हाथों से सामने रखे मेज पर रखी हुयी तमाम वस्तुओं को जल्दी-जल्दी हटाने लगी।देखते ही देखते कुछ ही देर में उस पर रखी सभी वस्तुएं एक-एक करके जमीन पर पहुंच गयीं।
उन्हें उठाकर मैंने मेज पर रख दिया।मैं कुछ नहीं कर पा रही थी।मेरे पास असहाय होकर चुपचाप बैठकर उसे देखते रहने के अलावा कोई चारा भी नहीं था।अंजना ने कहा -
“इसकी तरफ ध्यान मत दीजिए , थोडी देर में अपने आप नार्मल हो जायेगी।”
लाख कोशिशों के बावजूद ध्यान उसकी तरफ बार-बार जाता था।उसका क्रोध बढ रहा था और उसी रफ्तार से कुर्सी को पीठ से टकराने की रफ्तार भी।अपनी पीठ से कुर्सी को बार-बार धक्का दे रही थी।पेन्सिल,रबर,शार्पनर और चित्रों वाली कॉपी ,सभी कुछ जमीन पर पहुंच चुका था।ऐसा एक बार नहीं हुआ ,कई-कई बार हो चुका था।दो बार तो पृथ्वी ही उन्हें उठा कर ऊपर रख चुका था।इस समय भी सभी वस्तुएं जमीन पर बिखरीं हैं।मेज बिल्कुल साफ-सुथरी और खाली है।इस बार अंजना ने सारी वस्तुएं उठायीं और उन्हें विनयना के बैग में रख दिया।
कोई बात है तो जरूर ! पहले तो वह ऐसी नहीं थी।सबसे कम उम्र की विनयना मल्टिपल प्राब्लमस की शिकार थीं। ठीक से बोल नहीं सकती थी,चलने के लिए उसे व्हील चेयर का सहारा लेना पडता था और उसके हाथ ,उसका आदेश मानने से इंकार करते थे।इन सबके बावजूद पूरी तरह से अपने काम के प्रति समर्पित और एकाग्रचित्त होकर जी जान से आगे रहने की उसकी कोशिशें हमें उसकी तरफ आकर्षित करतीं रहतीं।सारी क्लास में एक अकेले वही थी जिसका मन पढाई में सबसे ज्यादा लगता था।पढते समय उसका ध्यान कहीं और नहीं होता था।शुरू शुरू में सब एक ही तरह से ध्यान मग्न होकर समझदार बच्चों की तरह पढते हुए दिखायी देते हैं, ऐसा लगता है कि वे अपना उस दिन के लिए निर्धारित काम पूरा करके ही दम लेंगे लेकिन जल्दी ही सबका धैर्य चुकता हो जाता था।तानिश को टॉयलेट जाना होता है या फिर भूख लग जाती,साहिल को अपनी साल भर पहले की लगी चोट में दर्द होने लगता है और इशिता को जिस नये स्कूल में आगे पढने के लिए जाना है उसकी याद सताने लगती है।केवल अकेली विनयना बची रह जाती जो अपने काम को पूरी निष्ठा के साथ पूरा करके ही दम लेती।उस समय उसे अपनी पढाई के अलावा कुछ भी याद नहीं रहता।
आंखों की पुतलियों को पूरा फैलाकर दीदी की तरह टुकटुकी लगाए एकाग्रचित्त होकर सुनने वाली विनयना की पढाई में इतनी दिलचस्पी देखकर अंजना का मन भी उसे ज्यादा से ज्यादा सिखाने के लिए मजबूर हो जाता है।विनयना चाहती भी यही है कि वह जल्दी से जल्दी कितना कुछ सीख जाये और तमाम जानकारियां हासिल कर ले।
पढते समय उसको कोई चीज अपनी तरफ आकर्षित नहीं कर सकती थी।किन्तु साहिल,इशिता और तानिश तीनो का हाल यह था कि उन्हें पढाई के अलावा और सभी चीजें अपनी तरफ आकर्षित कर सकतीं थीं।कितनी सारी बातें होतीं उनके नन्हें से दिमाग में और कितनी नई बातें वे अपनी उन यादों में स्वयं जोडते जाते। जितनी देर चाहो उतनी देर तक वे बातें कर सकते थे।बातें करते समय थकान उन्हें कभी नहीं होती।वे सोचते -
“अगर पढना न होता तो कितना मजा आता।”
फिर अब क्या हो गया इसे? पढने लिखने से इसका मन क्यों उचट गया है सोचते हुए मैंने एक कुर्सी खींची और उसके ठीक सामने बैठ गयी।उसके बैग मे से कॉपी, पेन्सिल निकाल कर उसके सामने रख दिया।उसने कनखियों से मुझे देखा।फिर अपना सिर ऊपर उठाया।उसके होंठ कुछ टेढे हुए और पेन्सिल को अपने दोनो हाथों से पकडक़र अपने बांयें हाथ के अंगूठे और ऊंगलियों के बीच में अटकायी तो मुझे उम्मीद होने लगी,अब विनयना अपना काम करना आरम्भ करेगी।लेकिन उसने अपने उसी पुराने अंदाज में पेन्सिल घुमाना शुरू किया।दुबारा मार्डन आर्ट बनाने मे मशगूल हो गयी।वही पुराना कार्यक्रम।मैं समझ गयी, इस तरह तो विनयना के हाथों कई दुर्लभ चित्र बनकर तैयार हो जायेंगे और उनकी प्रदर्शनी के लिए हमारे स्कूल का हॉल छोटा पडेग़ा।मैंने कुछ न बोलने में ही खैरियत समझी।उसके जो मन में आ रहा था वह करती जा रही थी और मैं उसके सामने चुपचाप बैठी हुयी उसे करते हुए देख रही थी।उसके क्रियाकलाप में मैंने किसी प्रकार की दखलअंदाजी नहीं की।विनयना को मुझसे ऐसी उम्मीद नहीं थी।ऐसा कभी होता नहीं था कि दीदी ने जो काम करने के लिए दिया हो वह न कर के कोई बच्चा पेन्सिल से आडी तिरछी रेखाएं खींचता रहे और टीचर कुछ न कहे।उसे ऐसी उम्मीद नहीं थी।उसने पेन्सिल से खिलवाड क़रना बंद कर दिया।मेरी तरफ देखा ,सोच रही होगी कि शायद मैं कुछ कहूंगी।मैंने कुछ नहीं कहा।लेकिन वह क्या कर रही है, किसे देख रही है और किधर देख रही है ,इन सब बातों पर मेरी पूरी नजर थी।मैं लगातार यह नोटिस कर रही थी कि बीच-बीच में विनयना की नजरें अपने आस-पास बैठै बच्चों की पेन्सिलों और कापियों पर फिसल रही थी।
एकाएक मुझे कुछ कुछ बात समझ आने लगी। हो न हो यही बात है।शायद मैं ठीक समझ रही होऊं। थोडा मन में शक भी था।उस समय मुझे ऐसा महसूस हुआ कि दूसरे बच्चों की तरह वह भी लिखना चाहती थी।अक्षरों को, उन्हीं अक्षरों से आरम्भ होने वाले चित्रों के साथ मैच कर-कर के वह बोर हो चुकी हो, क्या पता? तभी तो अंजना ने कितने भी अच्छे चित्र उसकी कॉपी में बनाकर क्यों न दिया हो , उसके मन में किसी प्रकार की उत्सुकता नहीं जगी।उन चित्रों की तरफ उसने ठीक से देखा भी नहीं।अब उसका मन ही नहीं लगता इस काम में।कब तक केवल मैचिंग करती रहे? यह सब तो विनयना कब का सीख चुकी है अब उसकी आकांक्षा कुछ नया सीखने की है।
मन कह रहा था कि मेरा अंदाजा सही होगा।यही बात हो सकती है।धीरे-धीरे विश्वास हो चला कि इसके अलावा और कुछ हो ही नहीं सकता।विनयना सभी अक्षरों को पहचानने लगी है।शब्दों को ही नहीं अब तो उसने पूरे-पूरे वाक्यों को भी पढना आरम्भ कर दिया है।दीदी प्रति दिन उसे मैचिंग करने के लिए दे देतीं हैं।क्यों देतीं हैं? कितने दिन और वह मैचिंग करती रहेगी? उसे यह सब बहुत अच्छी तरह आता है।अब नहीं करना है उसे यह बोरिंग काम। उसके दूसरे साथी अभी तक अक्षरों में ही उलझें हैं।कोई बच्चा उसकी तरह नहीं पढ सकता। मीनू के अलावा सभी,इशिता, तानिश और साहिल लिखतें हैं।वे ठीक से नहीं लिख पाते तब कई बार तो, हाथ पकड क़र दीदी उनसे लिखवातीं हैं।देखकर, उसका भी मन लिखने का करता है।उन लोगों की कॉपियां भरने लगीं हैं।प्रति दिन वे सब लिखतें हैं फिर उससे क्यों नहीं लिखवातीं हैं? वह भी लिखेगी।अंजना दीदी नहीं लिखवातीं , कोई बात नहीं , वह अपने आप लिखेगी।और अब वही करने की ठानी है।वैसे तो मुझे अपने अनुमान के सच होने का विश्वास था किन्तु तब भी उससे एक बार पूछने में क्या हर्ज है।मैने पूछा-
“क्या बात है विनयना? क्यों नहीं अपना काम जल्दी से पूरा कर लेती हो।तुम्हें तो सब कुछ आता है न? देखो सबने अपना अपना काम तुमसे पहले समाप्त कर लिया।ऐसा पहले कभी होता था?”
विनयना ने कुछ कहा जिस पहले मैं समझ नहीं पायी।वह बोल सकती है ,बोलती भी है।सभी बातें कहने का प्रयास करती है लेकिन उसकी जीभ सही जगह पर पहुंच न पाने के कारण उसकी आवाज साफ-साफ समझ नहीं आती और उसके शब्दों को समझने में दिक्कत होती है।हम अनुमान लगाते रहते और उसकी कोशिश तब तक जारी रहती जब तक कि उसकी बातों को हम ठीक-ठीक समझ नहीं लेते।हम अटकलें लगाते।गलत होने पर वह अपना सिर जल्दी-जल्दी दांयें-बायें हिलाकर हमे आगाह करती कि हम गलत सोच रहें हैं।सही सिरा हमारे हाथ में आते ही उसकी मुस्कराहट देखने लायक होती और उसका चेहरा चमकीला हो उठता है।तब उसके हर हावभाव खुशनुमा हो उठतें हैं।
अपने कान उसके नजदीक ले जाकर मैंने ध्यान से उसकी बात सुनी और समझने की भी कोशिश की।शायद कुछ समझ में आया।
“तुम भी लिखोगी जैसे तानिश लिख रहा है?”
विनयना का सिर ऊपर-नीचे ,दांयें-बांयें गरज ये कि जिधर की तरफ भी वह हिला सकती थी,हिला रही थी।हाथ हवा में उडने लगे।अंजना भी वहीं थी। उसने सब सुना और सुनकर अवाक बैठी मेरी तरफ देख रही थी। आगे क्या होने वाला है -वह कल्पना कर सकती थी।
अपना सिर कुर्सी से टिका कर मंद मंद मुस्कुराती हुयी विनयना अब शान्त मुद्रा में कुछ सोचती सी लगी।इस समय मुझे वह बहुत प्यारी लग रही है।
“ तो लिखो न।तुमने पहले कभी बताया नहीं।”
मेज पर से उसकी कॉपी उठाकर मैंने उसके एक पन्ने पर ,सबसे पहली पंक्ति में बडे-बडे दो अक्षर लिख दिये।जब मैं लिख रही थी उस समय उसका पूरा ध्यान लगाकर मेरे लिखने पर था।अपने लिखने का इंतजार था उसे।सारे अक्षरों को वह अच्छी तरह से जानती पहचानती है फिर उन्हें लिखने में कितनी देर लगेगी भला।मैं कनखियों से उसे परख रही थी। मैंने कहा _
“पढो इसे।”
मेरी तरफ देख कर हंसी_
“ब ऽऽऽऽऽ,क़ऽऽऽऽऽ।” खिल- खिल, खिल- खिल।ढेरों गुलाब खिल उठे एक साथ।मुझे महसूस हुआ जैसे गुलाबों की महक में रात रानी की भीनी-भीनी खुशबू भी शामिल हो गयी हो।
“ठीक है , वेरी गुड।एकदम सही पढा है तुमने।” फिर मैं ने अंजना की तरफ देखा और कहा,
“अंजना दी आज इसे आप 'एक स्टार' दीजिएगा।” अंजना मेरी तरफ देखती रही।कुछ सोच रही थी।
“हां तो अब विनयना ,आज तुम्हें लिखना है।लो अब यह पेन्सिल उठाओ और इन दोनो अक्षरों को अपनी कॉपी में लिख डालो।”
मेरे मुहं से निकलने की देर थी कि विनयना ने फटाफट पेन्सिल अपने ऊंगलियों और अंगूठे के बीच बने घेरे मे फंसाया और जुट गयी। उसने लिखना शुरू कर दिया।आत्म विश्वास से उसका चेहरा दमक रहा था।किन्तु जितना उसने सोचा था ,काम उतना आसान नहीं है।खासा मुश्किल है।मनचाहे दिशा में पेन्सिल चल नहीं रही है।ले जाना चाहती है दांयें और पेन्सिल घूम जाती है बांयें।सीधी रेखा खींचती है, खिंच जाती है अष्टकोणीय।मुसीबत है।अपने तरीके से लिखने की कोशिश करती।एकाध सैकण्ड हाथ कन्ट्रोल में रहता और फिर हवा में ऐसे उडने लगता कि थोडा बहुत आकार जो बना होता वह भी बिगड ज़ाता। अक्षर बन नहीं पा रहे थे।लेकिन उसने अपनी कोशिशें नहीं छोडीं।लगातार पेन्सिल को अपने तरीके से चलाने का प्रयास करती जा रही थी।वह लिख कर रहेगी।सारे अक्षरों को अच्छी तरह से पहचानने वाली विनयना 'ब' और 'क' नहीं लिख सकती ,यह कैसे हो सकता है?
बैठी-बैठी मैं अपने आपको कोस रही थी , मुझे इस तरह की बेहूदी बात आखिर सूझी कैसे? यह काम ठीक नहीं हुआ।अब क्या करूं? उससे झूठ भी नहीं बोल सकती कि उसने एकदम सही लिखा है।और किसी को तो झूठ बोलकर बहला फुसला सकतें हैं किन्तु विनयना को नहीं।यह संभव ही नहीं है।झूठा दिलासा उसे कैसे दे सकतीं हूं? गलत लिखे अक्षरों को विनयना सही मानेगी ही नहीं ,यह मैं अच्छी तरह जानतीं हूं।अक्षरों के सही स्वरूप से वह पूरी तरह से वाकिफ है।उसे बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता है।
मैं देख रहीं हूं ,उसका आत्मविश्वास डिगने लगा है।यही मैं नहीं चाहती थी।लेकिन अब ! जी तोड असफल कोशिशों से विनयना थकने लगी है।माथे पर नन्हीं नन्हीं पसीने की बूंदें दिखायी देने लगीं हैं।उसकी एकाग्रता भंग हो चुकी है। लिखते समय एक बार उसने अपना मुंह ऊपर उठाया।मैंने उसकी आंखों की कातरता देखी।असफल हुयी है विनयना ,उसका एहसास तेजी से उसे हो रहा था और इसके साथ ही उदासी ने उसे घेरना शुरू कर दिया। पेन्सिल उसकी गिरफ्त से छूटकर पहले मेज पर गिरी और फिर लुढक़ते हुए जमीन पर पहुंच गयी।अपना सिर उसने एक बार फिर कुर्सी पर टिका दिया।
भिंचा हुआ चेहरा और बार-बार होंठों को काटने की कोशिश, करती हुयी विनयना -उसका यह रूप मेरे लिए बिल्कुल नया है।इतना असहाय मैने उसे पहले कभी नहीं देखा था। आहिस्ता-आहिस्ता मैंने उससे कहना आरम्भ किया।
“विनयना देखो तो जरा, तुमने जो अक्षर बनायें हैं उनमें से ये वाला अक्षर तो कुछ ठीक लग रहा है। कुछ देर अगर और कोशिश करोगी तब एकदम सही बनने लगेगा।मैं ठीक कह रहीं हूं न? लेकिन आज नहीं।हम कल एक बार फिर से इसी तरह से लिखने का प्रयास करेंगे।क्यो?”
उसने मेरी बात सुनी या नहीं ,मुझे नहीं मालूम चला किन्तु मैंने देखा, उसने कांपते हाथों से अपनी क्लास वर्क की कॉपी अपने सामने खींच ली और उन पन्नों को खोलकर अपने सामने रख लिया जिस पर दीदी ने उसके लिए चित्र बनाकर उसका क्लासवर्क निर्धारित किया था। निर्विकार भाव से उसने मुझे एक बार देखा फिर हल्के से मुस्कुराकर उसने पेन्सिल उठा ली और अक्षरों को चित्रों के साथ मैच कराने लगी।मैंने मुक्ति की सांस ली।मुझे लगा अब विनयना लिखने की जिद नहीं करेगी।लेकिन विनयना ने मुझे गलत साबित कर दिया।उसने हार नहीं मानी थी।दूसरे दिन विनयना का वही पहले वाला रूप फिर मेरे सामने बैठा था।लेकिन हम दोनो में जल्दी ही समझौता हो गया।सबसे पहले विनयना अपना क्लास वर्क पूरा करेगी।उसके बाद लिखने का अभ्यास होगा।वह आसानी से मुझसे सहमत हो गयी।मैंने और अंजना ने एक दूसरे को देखा और फिर बिना कुछ कहे किसी दूसरे काम में व्यस्त हो गये।मैं, अंजना और विनयना, तीनो को पूरी उम्मीद है कि जल्दी ही विनयना इस अभियान में कुछ हद तक तो सफलता पा ही जायेगी।