‘मंजिलों से बेहतर लगने लगे रास्ते... ’ / जयप्रकाश चौकसे

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‘मंजिलों से बेहतर लगने लगे रास्ते... ’
प्रकाशन तिथि : 15 मई 2020


कोरोना के कारण अनगिनत लोग अपने घरों की ओर लौट रहे हैं, परंतु उनके मन में यह विश्वास है कि वे लौटेंगे। इसलिए यह विस्थापन नहीं है और न ही भगौड़ापन है। यह आत्मरक्षा का जतन है। पानी में गिरने वाला व्यक्ति आत्मरक्षा के लिए हाथ-पैर चलाते हुए तैरना सीख जाता है। विचार शैली में आत्मरक्षा का भाव बना रहता है। कभी-कभी यह आत्मरक्षा आत्म बलिदान के लिए प्रेरित करती है। यक-ब-यक नरेश मेहता की रचनाओं के नाम याद आ गए- पथ यशस्वी हो, पथ बंधु है।

भारी संख्या में लोगों का एक जगह से दूसरी जगह जाना बहुत कुछ नष्ट तो करता है, परंतु अनचाहे, अनसोचे बहुत कुछ मिल भी जाता है। यह गनीमत है कि इन लोगों से आधार कार्ड नहीं मांगा जा रहा। पलायन ने संस्कृतियों का विकास भी किया है। अपने घरों को लौटते लोगों को भोजन पानी उपलब्ध कराया जा रहा है। नागरिक अपने दायित्व का निर्वाह कर रहे हैं। कहीं-कहीं लूटपाट भी हो रही, चोरी-चकारी भी हो रही है। इस तरह तो यह पलायन एक तरह का समुद्र मंथन भी माना जा सकता है, जिसमें अमृत और विष दोनों ही निकल सकते हैं। संभावना समुद्र समान होती है। कुछ लोग लहरों से उत्पन्न झाग को पानी समझ लेते हैं। भारत के विभाजन के समय अनगिनत लोग पलायन कर गए। कुछ लोग पाक स्थित सिंध से भारत स्थित सिंध आए परंतु विभाजन के कारण उनकी नागरिकता बदल गई। संभवत: कृष्णा सोबती उनमें से एक हैं। विभाजन की त्रासदी पर सआदत हसन मंटो, राजेंद्र किशन, रजिंदर सिंह बेदी, अमृता प्रीतम और यशपाल ने लिखा है। यशपाल का ‘झूठा सच’ महत्वपूर्ण माना जाता है।

बलराज साहनी के भाई भीष्म साहनी ने ‘तमस’ की रचना की जिससे प्रेरित गोविंद निहलानी ने दूरदर्शन के लिए डॉक्यू ड्रामा रचा। दीपा मेहता ने ‘फायर’, ‘वॉटर’ और आमिर खान अभिनीत ‘अर्थ’ बनाई। पामेला रुक्स ने खुशवंत सिंह के उपन्यास से प्रेरित ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ नामक फिल्म बनाई है। इसकी संभावना कम है कि वर्तमान पलायन को प्रस्तुत करने वाली फिल्में भी बनें, क्योंकि आम दर्शक पलायनवादी है। वह लटकों-झटकों और ठुमकों में स्वयं को बहलाए हुए है। हुक्मरान के बनाए आईने की छवि और क्या कर सकती है। सारा खेल परछाई बनाम परछाई रह गया है। चार्ली चैपलिन की फिल्मों में प्रस्तुत किए एक कमरे में चारों ओर आदमकद आईने हैं, जिनमें से एक द्वार है, परंतु पात्र दीवारों से टकराता रहता है। चार्ली चैपलिन को हम सिनेमा का सुकरात मान सकते हैं। विष्णु खरे सिनेमा को पांचवां वेद मानते थे।

शूजित सरकार की अमिताभ बच्चन और आयुष्मान खुराना अभिनीत फिल्म ‘गुलाबो-सिताबो’ का प्रदर्शन वेब प्लेटफॉर्म पर होना तय हो चुका है। वेब पर लोकप्रियता प्राप्त करने के बाद कुछ सिनेमाघरों में प्रदर्शन संभव है। पहले जो दूध पीते थे, उन्हें अब छाछ पर गुजारा करना होगा। किसी दौर में छाछ मुफ्त में दी जाती थी। हमारे यहां माखन पर कभी भी अवाम का अधिकार रहा ही नहीं है।

दूसरे विश्वयुद्ध में हिटलर ने यहूदियों पर जुल्म तोड़े। युद्ध के पश्चात उन्होंने स्वतंत्र देश की मांग की। पश्चिम के अधिकांश बैंक यहूदी पूंजी से चल रहे थे। अत: जिस भूखंड पर फिलिस्तीनी सदियों से रह रहे थे, उसका एक टुकड़ा काटकर यहूदियों का इजराइल बनाया गया। इसी अतिक्रमण के खिलाफ आतंकवाद प्रारंभ हुआ। हर विभाजन आतंकवाद को मजबूत करता है। आतंकवाद एक सुगठित व्यवसाय है। फिल्मों में राह और चलने पर अनगिनत गीत रचे गए हैं। “चलना जीवन की कहानी, रुकना मौत की निशानी…’, फिल्म ‘इम्तिहान’ के लिए गुलजार का गीत- “ओ राही ओ राही तू बढ़ता चल, राहों के दिए आंखों में लिए चलता चल।’ किशोर कुमार ने फिल्म ‘दूर गगन की छांव में’ गीत गाया है- ‘आ चल के तुझे, मैं ले के चलूं इक ऐसे गगन के तले…।’ शैलेंद्र का गैर फिल्मी गीत-‘चलते चलते थक गया मैं और सांझ भी ढलने लगी, तब राह खुद मुझे अपनी बाहों में लेकर चलने लगी।’