‘मन का पोषण करती-‘विटामिन जिंदगी’ / सुरंगमा यादव

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दिव्यांगता किसी व्यक्ति के समक्ष ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न कर देती है, जिससे वह अपने आस-पास की दुनिया के साथ स्वयं को असहज महसूस करने लगता है, यही नहीं हमारा समाज भी उन्हें अलग दृष्टि से देखता है तथा एक विशेष मानसिकता के तहत उन्हें अनावश्यक रूप से अलग-थलग करके सामूहिक गतिविधियों से दूर रखने का प्रयास करता है, जिससे उनकी असहजता और बढ़ जाती है। दिव्यांग व्यक्ति कई तरह की पीड़ाएँ झेलता है एक तो अपने मन के अनुरूप शरीर को न चला पाने की सबसे बड़ी पीड़ा, जो प्रकृति प्रदत्त है। दूसरी समाज की वह मानसिकता जिसका ध्यान कभी दिव्यांग व्यक्ति की योग्याताओं पर नहीं जाता, उसके द्वारा अर्जित उपलब्धियों को कृपा या सहानुभूति का फल मान लिया जाता है। सहज सुचारू गति से चलते जीवन में अचानक प्रकृति माता आकर दिव्यांगता का शूल गाढ़ दें तो जीवन को सामान्य बनाना बड़ा दुष्कर है, पर असंभव नहीं। श्री ललित कुमार जी का जीवन इसका साक्षात् उदाहरण है। ललित कुमार जी एक नाम नहीं अपितु भयंकर तूफानों के बीच जलती हुई वह मशाल हैं जिन्होंने दिव्यांगता के कारण भीतर-बाहर पसरे गहरे काले अंधेरे को उजाले की कनियों से भरकर वह मिसाल क़ायम कर की है जो न केवल दिव्यांग जनों के लिए बल्कि हर व्यक्ति को यह सोचने के लिए विवश कर सकती है कि यदि इच्छा शक्ति बड़ी है तो हर बाधा छोटी है। आज आपकी पहचान एक लेखक, ब्लागर, कविता कोश परियोजना के संस्थापक और दिव्यांगता अधिकार कार्यकर्ता के रूप में है। भारत सरकार ने आपको वर्ष 2018 के राष्ट्रीय पुरस्कार (रोल मॉडल, दिव्यांग जन सशक्तिकरण) से सम्मानित किया है। आपने जुलाई 2006 में कविता कोश नामक परियोजना की नींव रखी, जो आज भारतीय काव्य का सबसे विशाल ऑनलाइन संग्रह है। आपने दिव्यांगता के साथ जीते हुए समाज की उपेक्षा और सहानुभूति दोनों को दरकिनार करके अपने जीवन को इस योग्य बनाया जहाँ से आप दूसरों की सहायता कर सकें। जीवन के अनुभवों को आपने 'विटामिन जिंदगी' शीर्षक से लिपिबद्ध किया है। पुस्तक का शीर्षक बेहद आकर्षक एवं नया है। पिछले आवरण पृष्ठ को पढ़कर शीर्षक की सार्थकता स्वतः स्पष्ट हो जाती है, "जिस तरह शरीर को विभिन्न विटामिन चाहिए, उसी तरह मन को भी आशा, विश्वास, साहस और प्रेरणा जैसे विटामिनों की ज़रूरत होती है। हमारा सामना समस्याओं, संघर्ष, चुनौतियों और निराशा से होता ही रहता है। इन सबसे जीतने के लिए हमारे पास 'विटामिन जिंदगी' का होना बेहद आवश्यक है।" जीवन में सब कुछ अच्छा और सहज होते हुए अचानक कुछ ऐसा घटित हो जाये जो जीवन को असामान्य बना दे, ऐसे में इन विटामिंस के सप्लीमेंट्स देने की आवश्यकता बहुत अधिक बढ़ जाती है। ललित कुमार जी भी अपने प्रारंभिक जीवन में आम बच्चों की तरह थे, लेकिन प्रकृति ने उस बालक के तन-मन को ऐसा झंझोड़ा कि उसका जीवन अप्रत्याशित रूप से बदल गया। कल तक जो बच्चा खेलकूद रहा था, दौड़ रहा था अचानक प्रकृति द्वारा चुभाए गये स्थायी काँटे की पीड़ा से कराहने लगा। पोलियो के कारण अपने शरीर में हुए बदलाव को स्वीकारना, विभिन्न प्रकार के पीड़ादायी उपचार झेलना, परिवार वालों के लिए अकस्मात् अनेक परेशानियों का कारण बन जाना, बालमन के लिए इन स्थितियों का सामना करने में किन-किन मनःस्थितियों से गुजरना पड़ा होगा, ललित कुमार जी ने इस पुस्तक में क्रमवार यथातथ्य अत्यंत प्रभावशाली ढंग से बयान किया है, वास्तव में मन से निकली आह की अभिव्यक्ति भी उतनी ही सघन होती है। एक के बाद एक घटनाक्रम आँखों के समक्ष सजीव होता जाता है। यह पुस्तक मात्र पीड़ा की पोथी नहीं है बल्कि एक प्रेरणा है, आशा है, भरोसा है जिससे व्यक्ति शारीरिक रूप से दूसरों के समान न होते हुए भी जीत सकता है। ललित कुमार जी ने पोलियो के शिकंजे में फँसकर गरिमापूर्ण जीवन के लिए बचपन से ही घोर संघर्ष किया। आप लिखते हैं " जी तो हर कोई लेता है, लेकिन लोगों द्वारा दरकिनार कर दिए जाने के बाबजूद अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना एक बड़ी उपलब्धि होती है।

वाकई, जी तो हर कोई लेता है, लेकिन समाज द्वारा लगाये गये 'अपाहिज' के ठप्पे को झुठलाकर उसी समाज के लिए उपयोगी साबित होना एक बड़ी उपलब्धि होती है। "दिव्यांग जनों के प्रति समाज का दया व उपेक्षा से भरा व्यवहार ललित जी को कभी पसंद नहीं आया, यहाँ जो थोड़ा-सा भी असामान्य या अलग है, उसे बार-बार इसका अहसास दिलाकर अलग-थलग कर दिया जाता है, समाज दिव्यांगों को अपने साथ लेकर नहीं चलना चाहता। तथाकथित प्रगतिशील समाज का यह उपेक्षापूर्ण पूर्ण व्यवहार ललित जी को क्षुब्ध कर देता है। वे मानते हैं कि प्रकृति विकलांग बनाती है, समाज अक्षम बनाता है। वे लिखते हैं" मैं इस समाज को स्वस्थ और प्रगतिशील मानता यदि एक अर्थहीन जीवन बिताने का सुझाव देने के बजाय मुझे हिम्मत व प्रेरणा दी जाती कि ललित तुम आगे बढ़ो ...आदर्श स्थिति तो यह हो कि ऐसी व्यवस्था की जाये जिसमें विकलांग व्यक्ति भी सबके साथ रह सकें...और कोई भी पीछे छूटा हुआ महसूस न करे। " आप दिल्ली विश्वविद्यालय से विज्ञान विषय में स्नातक की उपाधि प्राप्त कर अपने परिवार के इतिहास में पहले ग्रेजुएट बने। एक सपना जो बड़ी शिद्दत से आपके मन में पल रहा था आई0ए0एस0 बनने का उसके आगे दिव्यांगता ने दीवार खड़ी कर दी, टूटे हुए सपनों की किरचें बटोरकर बैठना आपको कतई पसंद न था। आपने प्राइमरी स्कूल के दौरान हिन्दी की किताब में संयुक्त राष्ट्र संघ के बारे में पढ़कर उसके साथ काम करने का मन बनाया, उसे पूरा भी किया। विदेश में पढ़ाई का सपना देखा और अपनी मेहनत के बल पर स्कॉटलैंड सरकार की ओर से स्कॉलरशिप प्राप्त करके एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी में पी जी करने गये। वहाँ रहते हुए आप अपनी दिव्यांगता के साथ अधिक सहज रहे। वहाँ भी आपने एक मेधावी छात्र के रूप में अपनी पहचान बनायी। वहाँ उन्हें एक ऐसा माहौल मिला जिसमें उन्हें कभी महसूस ही नहीं हुआ कि वे दूसरों से अलग हैं। जीवन में अनेक उपलब्धियाँ हासिल करने के बाद भी एक स्वाभाविक टीस आपके मन में है, दूर तक दौड़ना, दूरियाँ तय करना देश-विदेश की यात्राएँ करना, लेकिन शरीर की अपनी सीमाएँ हैं। आपके जीवन-संस्मरण पढ़ते-पढ़ते पुस्तक समीक्षा का उद्देश्य पीछे छूट गया, आपके जीवन-संघर्ष को रेखांकित करना मुख्य हो गया ताकि पढ़ने वाला हरेक व्यक्ति यह सोचे कि यदि आप मुश्किलों से नहीं भागते, यदि आप संघर्ष करते हैं तो एक दिन अवश्य जीत जायेंगे।

'विटामिन जिंदगी' तीन भागों में विभाजित है, पहला-गिरना, दूसरा-संभलना, तीसरा-उड़ान। इन तीनों भागों में अनेक छोटे-छोटे उपशीर्षकों में क्रमवार जीवन की उथल-पुथल का भावपूर्ण चित्रण है। यह पुस्तक समर्पित है उन लोगों को जो अलग हैं या जो भीड़ से अलग होना चाहते हैं अर्थात यह पुस्तक निश्चित रूप से सभी के लिए 'विटामिन जिंदगी' प्रदान करने वाली है।

विटामिन ज़िन्दगी (आत्मकथा) : ललित कुमार, प्रकाशक-हिन्द युग्म व एका प्रकाशन, पृष्ठ-256, मूल्य-199 / —0-


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