‘मिस्टर एंड मिसेज 55’ और सन 2021 / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 28 फरवरी 2021
फ़िल्मकार गुरुदत्त की मधुबाला अभिनीत फिल्म ‘मिस्टर एंड मिसेज 55’ बने 66 वर्ष हो चुके हैं। फिल्म में संवाद है-‘कैंसर से जितने लोग मरते हैं उससे कहीं अधिक लोग भूख और बेरोजगारी से मरते हैं।’ आज केवल इतना अंतर हुआ है कि कोरोना से जितने लोग मरते हैं उससे कहीं अधिक लोग भूख और बेरोजगारी से मरते हैं। स्पष्ट है कि भूख और बेरोजगारी स्थाई है। सरकारें बदलती रही हैं परंतु बेरोजगारी और भूख बनी रहती है। एक गीत है- ‘भूख ने हमें बड़े प्यार से पाला।’
किशोर कुमार अभिनीत फिल्म ‘नौकरी’ में नायक से यात्रा में नौकरी का नियुक्ति पत्र गुम गया है। वह महानगर में उस दफ्तर की तलाश करता है, जिसने उसे नियुक्ति दी थी। वह एक सस्ते घर में किराएदार है, जहां सभी युवा नौकरी की तलाश में महानगर आए हैं। उनका एक ही सेवक है। सेवक नायक के तकिए के नीचे 5 रुपए का नोट रख देता है, ताकि वह भूखा नहीं रहे। मदद हमें अनपेक्षित स्त्रोत से मिलती है। इसी फिल्म में एक अमीर स्त्री बेरोजगार युवक से पूछती है कि क्या वह कम्युनिस्ट है।
जवाब मिलता है कि वह कार्टूनिस्ट है। अमीर स्त्री कहती है कि दोनों में कोई फर्क नहीं है। कार्टून विधा के पुरोधा आर के लक्ष्मण मात्र 3 घंटे के लिए दफ्तर आते थे। 2 घंटे तक समाचार पत्र पढ़ते और तत्कालीन समस्या को समझ कर अपना कार्टून बनाते थे। आर के लक्ष्मण का कार्टून संपादकीय महत्त्व रखता था। उनका आम आदमी तंग कोट पहनता है और लगभग गंजा है। वह अपनी बगल में हमेशा छाता लिए रखता है। दरअसल सिनेमा के पहले कवि चार्ली चैप्लिन अपनी पोषाख में बेहद तंग जैकेट और ढीला पैंट हुआ पहने होता है। तंग जैकेट सीने में दफन सपनों का प्रतीक है और ढीली पतलून उसके द्वारा नौकरी की तलाश को अभिव्यक्त करती है। उसकी छोटी सी मूंछ उसके किफायत पसंद होने को अभिव्यक्त करती है। वर्तमान समय में हमने इस महान कार्टून विधा को लगभग खो दिया है। व्यवस्था एक कैरीकेचर मात्र बनकर रह गई है।
संपदा का असमान वितरण और सहूलियतों पर अल्पतम लोगों का हक ही समस्या को विकराल बना रहा है। दरअसल कोई संस्था या व्यक्ति समस्या सुलझाना ही नहीं चाहता। याद आता है विजय आनंद की फिल्म ‘काला बाजार’ के लिए लिखा शैलेंद्र का गीत- ‘मोह मन मोहे लोभ ललचाए, कैसे-कैसे ये नाग लहराए मेरे दिल ने ही जाल फहराए अब किधर जाऊं, तेरे चरणों की धूल मिल जाए तो प्रभु तर जाऊं’।
सारी समस्याओं का दोष नेताओं को ही नहीं दिया जा सकता है। आम आदमी को भी उत्तरदायित्व लेना चाहिए। वह तो मायथोलॉजी में रमा हुआ है। किस्सा तोता-मैना और अरेबियन नाइट्स के सपनों की कंदरा में जा छुपा है।
मानव विकास यात्रा और शिकार युग में कुछ हद तक समानता थी। कृषि काल में प्रवेश करते ही मेहनत करने वाले किसान अनाज उपजाकर धन कमाने लगे। उस दौर में कुछ अालसी और निकम्मे लोगों ने बैठे ठाले रीति-रिवाज बना दिए। संस्कार गढ़ लिए और मेहनतकश इंसान की कमाई में से निर्जीव रीति-रिवाजों में उसे उलझाकर पैसे कमाने लगे। आज इसी वर्ग का खूब विकास हुआ। मेहनतकश किसान तो आंदोलन कर रहा है। भूख और बेरोजगारी विकराल होती जा रही है। कोरोना महामारी का 1 वर्ष पूरा होने जा रहा है और एक अस्पताल तथा मेडिकल कॉलेज का शिलान्यास तक नहीं हुआ है। व्यवस्था प्रतिदिन पेट्रोल के दाम इसलिए बढ़ा रही है कि लोग अनावश्यक यात्राएं नहीं करते हुए कोरोना वायरस से बचें! क्या अभिनव सोच है। 66 वर्ष पुरानी फिल्म आज भी याद आती है क्योंकि भूख और बेरोजगारी पहले से अधिक बढ़ गई है।