‘मेरी काव्य यात्रा में ये सारे संदर्भ आपको साफ दिखायी दे सकते हैं / गिरीश तिवारी गिर्दा

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » संकलनकर्ता » अशोक कुमार शुक्ला  » संग्रह: गिरीश तिवारी गिर्द
संग्रह: जनकवि गिरीश तिवारी गिर्दा का स्मरण
मेरी काव्य यात्रा में संदर्भ
साक्षातकारकर्ता: कपिलेश भोज

(यों तो पिछले तीन दशकों में गिर्दा से समय-समय पर समाज, साहित्य, राजनीति और समसामयिक हलचलों पर विस्तृत बात-चीत बहस होती ही रही। बातचीत में उन्होंने जो-जो कहा, वह सब स्मृति में तो बना रहा लेकिन भेंटवार्ता के रूप में मैं कभी उसे व्यवस्थित रूप से दर्ज नहीं कर पाया। कुछ समय पहले खीमराज बोरा और भास्कर उप्रेती के साथ कैलाखान स्थित गिर्दा के निवास पर जाकर मैंने उनसे हुए वार्तालाप को पहली बार कागज पर उतारा। प्रस्तुत हैं उस लम्बी बातचीत के कुछ प्रमुख अंश -)

कपिलेश:- गिर्दा, आपकी प्रारम्भिक पृष्ठभूमि क्या रही ? यदि आपको अपना परिचय देना हो तो किस प्रकार देंगे ?

गिर्दा:- यार मोहन ! (गिर्दा मुझे हमेशा मेरे इसी मूल नाम से ही पुकारते थे) हमारे यहाँ परिचय देने की बड़ी परम्परा रही है। (हँसते हुए) ‘थातिन में थाती उपराड़ों छौ’ गुमानी जी कहते हैं। गौर्दा कहते हैं-

‘सारी बीच में त्यूनरा थाती पाटिया पाने ब्राह्मण जाती, विश्वेशर जी भैं बड़बाज्यू’…

इस किस्म की परम्परा ये हमारा साहित्य का एक पक्ष रहा है। तो इस बीच एक लहर ये भी आई कि मेरा परिचय क्या है। तो मैंने कुमाउँनी में एक छन्द गढ़ा यार।

‘अरे गौं गाड़ को पत्त दिण तै भई हमारी पुरानी परिपाटी
जिल्ल अल्मोड़ा, गौं ज्योली, पट्टी तल्ला स्यूनरा में हवालबाग की घाटी
भुस्स पहाड़ में जन्म मेरो, च्यून-च्यून बसी भै हिमाल
शीशि मेरो असमान पूजी, काखि में लोटि रूनी म्यर डाँडी-काँठी।’

देखना इसमें कुछ है कि नहीं…

कपिलेश:- हवालबाग में रहते हुए लेखन की प्रेरणा कैसे मिली ?

गिर्दा:- मोहन, मैं तो भुस्स पहाड़ में पैदा हुआ। मेरी विकास यात्रा के तो आप साक्षी हैं। आप करीब-करीब मेरे यात्रा साक्षी रहे हैं। ग्रामीण अंचल का मैं, ठेठ पहाड़ का भुस्स पहाड़ी, वहाँ में पैदा हुआ पर हमारा परिवार थोड़ा उच्चवर्गीय तो था ही। इसलिये मुझे अल्मोड़ा भेज दिया। मैंने कक्षा 5 तक कोई पढ़ाई नहीं की। कक्षा 6 में भरती हुआ। गाँव से शहर आया। पराये घर में पलना था। मैं काफी दब्बू था। मानसिक दबाव बहुत था। ग्रामीण वातावरण में पैदा हुआ तो गाने-बजाने की ओर रुझान था। करीब कक्षा 7-8 में चारु चन्द्र पाण्डे जी के सम्पर्क में आया तो उन्होंने मुझसे स्कूल के कार्यक्रमों में भाग लेने के लिये प्रोत्साहित किया। यहाँ से मेरी अभिव्यक्ति अस्तित्व ग्रहण करने लगी। चारु चन्द्र पाण्डे जी की सहायता से गौर्दा को और फिर गौर्दा के माध्यम से सम्पूर्ण लोक साहित्य को समझने की प्रेरणा मुझे मिली। इस सब से लोक में मेरी जिज्ञासा बढ़ती चली गयी, पर लोक के साथ-साथ मैं वर्तमान से भी निरन्तर जुड़ा रहा। मेरी काव्य यात्रा में ये सारे संदर्भ आपको साफ दिखायी दे सकते हैं।

कपिलेश:- जैसा कि आपने बताया, चारु चन्द्र पाण्डे जी के सम्पर्क में आने के बाद आप लोक साहित्य से जुड़ते गये तो लोक की विरासत से आपने क्या ग्रहण किया ?

गिर्दा:- मैं एक छोटा सा टुकड़ा आपको सुनाउँगा कि लोक साहित्य में जन-जीवन के दर्शन मुझे कैसे हुए। इस पर हँस भी सकते हैं आप। मैंने ये बात बहुत कम ही साहित्य में देखी, जहाँ प्रेमिका की तुलना भैंस की थोरी से की जाती हो। बताओ ये कितनी विशाल व वेदनामय अभिव्यक्ति

थोरि हुनी
गोठै द्यूनि पाणि।’

और इन पंक्तियों से मैं मर गया, समर्पित हो गया, जब मैंने ये सुनीं। देखिये एक आदमी है, जिसकी सारी सम्पत्ति भैंस है और वह अपनी प्रेमिका की तुलना थोरी से करता है कि काश तू थोरी होती तो मैं तुझे गोठ से बाहर भी नहीं निकलने देता। इतना पवित्र, स्नेहिल, मानवीय भावनाओं से लबालब जीवन। इतना महान जीवन है और इस जीवन को किस तरह नष्ट किया जा रहा है। इस पर चोट पर चोट की जा रही है। संवेदनाओं को कुन्द किया जा रहा है। तब मेरी समझ में आया कि लोक कितना संवेदनशील, कितना बहुआयामी है। एक ही उदाहरण से मैं समझता हूँ तुम इसके रेशे-रेशे, रग-रग को खोलकर रख सकते हो। कल्पना करो आप इस पहाड़ी जीवन में, खेतों की सीढ़ियों के बीच सुंदर भैंस…….यहाँ से दृष्टि बनी साब।

कपिलेश:- उत्तराखंड के लोक साहित्य में यहाँ के जन की वेदना से उसकी मुक्ति का संघर्ष आपको किस रूप में दिखाई देता है ?

गिर्दा:- मोहन, ऐसा है कि लोक की अभिव्यक्ति लोक साहित्य में स्वाभाविक होती है विकास यात्रा में। संघर्ष तो उसमें निरन्तर है। ये बात दीगर है कि उसमें मुक्ति की राह वह किस कदर पकड़ पाया है या नहीं। वो शैलेश दा के लोक साहित्य वाले उपन्यास में भी आपको दिखाई देगा। कई बार ऐसा होता है कि यह संघर्ष की अभिव्यक्ति बिल्कुल स्पष्ट भी दिखाई दे पड़ती है। एक उदाहरण देखिये –

‘दिलि बै ऐ रईं भान मँजुआ
माँगनी सोफा सैट‘।

वो जो सामाजिक प्रदूषण, दहेज वाला, वो वाला हमारे समाज में आ रहा है, वहीं पर उसने उसकी बखिया उधेड़कर रख दी है कि हमारी वस्तुस्थिति ये है। ये दूसरा उदाहरण तुम्हें मैं दूँ पुराने लोक-साहित्य से-

‘रातिया हुँछौ खानापूरी ब्याव रबड़ै घिस
अमिरूँ हैरीं चैन-चुपाड़ा गरीबूँ पिसा पिस।’

इसमें लोक की छटपटाहट भी है और उसका प्रतिरोध भी है। अब उस धारा को पकड़ने की बात है।

कपिलेश:- किन रचनाकारों और संस्कृतिकर्मियों ने आपको जनपक्षीय दिशा में सोचने के लिये प्रेरित किया ?

गिर्दा:- बहुत लम्बी श्रृंखला है। इसमें तुम भी शामिल हो। चारु चन्द्र पाण्डे के साथ ब्रजेन्द्र लाल शाह का योगदान रहा। तराई के कई मित्र शामिल रहे। शमशेर, शेखर सब शामिल हैं। पर इससे कहीं अधिक मेरा जोर उस विचार पर होगा, जिसने जनपक्षीय दिशा में सोचने की मेरी समझ को विकसित किया। हालाँकि व्यक्तियों का योगदान भी महत्वपूर्ण मैं मानता हूँ। अगर ये नहीं होता तो मैं एक रोमानी अभिव्यक्ति वाला कलाकार मात्र बनकर रह जाता नीरज जैसा। मुझे कई बार नीरज का प्रभाव खुद पर दीखता है। तत्कालीन विचार ने हमें ये अनुशासन दिया कि कैसे सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का संघर्षों को दिशा देने में उपयोग कर सकते हैं। इसमें तब की तेलंगाना की चिंगारी का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। मूल योगदान मेरी चेतना को विकसित करने में उसी विचारधारा का है। अब उस चेतना का इस्तेमाल मैंने कितना किया/कर पाया, यह अलग बात है।

कपिलेश:- तेलंगाना व नक्सलबाड़ी से जो चिंगारी शुरू हुई थी और जिसको फैलाने में देश के विभिन्न क्षेत्रों के संस्कृतिकर्मी अपना योगदान दे रहे हैं, उत्तराखंड के प्रगतिशील संस्कृतिकर्मियों की उसमें क्या भूमिका आपको दिखाई देती है ?

गिर्दा:- उत्तराखंड के संदर्भ में, मैं कहूँगा कि उत्तराखंड के संघर्ष को शेष देश से काटकर न देखें। हम अलग से किसी टापू में नहीं रह रहे हैं। उत्तराखंड राज्य की लड़ाई एक बड़ी लड़ाई का हिस्सा हो सकती है। राज्य की लड़ाई समग्र की लड़ाई नहीं है। तब भी हमने कहा था-

‘लड़ैं जो य हम लड़नियाँ उत्तराखंड की
खाली उत्तराखंड कौ न्हैं यो सवाल।’

उस समय भी हमने कहा था-

‘हम लड़ते रयाँ भुलू
हम लड़ते रुँलो।’

देश और दुनिया से तब हमारी नजर नहीं हटी थीं और कोई भारी मुगालता भी हमारे मन में नहीं था कि उत्तराखंड राज्य बन जायेगा तो कोई जादू का डंडा घूम जायेगा। लेकिन ये हमारा एक सायास प्रयास था तब भी कि सत्ता जनता के जितना नजदीक आयेगी, जनता राजनीति के बारे में उतनी ही दीक्षित होती चली जायेगी। उसके सामने अन्तर्विरोध स्पष्ट होते जायेंगे और वह अपनी वास्तविक लड़ाई लड़ने की दिशा में आगे बढ़ेगी। यहाँ के संस्कृति-कर्म का जहाँ तक सवाल है तो ये सामाजिक चेतना पर भी निर्भर करता है। अब हम ये समझें कि पूरे समाज का तापमान एक बिन्दु पर पहुँच जाये तो ये संभव नहीं है। जिन जगहों का हम जिक्र कर चुके हैं…दण्डकारण्य, झारखंड इनमें संघर्ष की चेतना धीरे-धीरे स्थान ग्रहण करती आई। इनका पहले का भी इतिहास रहा है। लम्बी प्रक्रिया है। उत्तराखंड का भी संघर्ष का इतिहास रहा है। वर्तमान व्यवस्था के अन्तर्विरोध जब धीरे-धीरे उनके सामने उजागर होते चले जा रहे हैं तो हमारे संस्कृतिकर्मी भी उससे दीक्षित होते चले जा रहे हैं और उनके सांस्कृतिक कर्म से जनता के बीच में बातें जा रही हैं…लेकिन अपेक्षाकृत हम उतने आगे नहीं जा पा रहे हैं। उत्तराखंड के संस्कृतिकर्मी उस रूप में उन मुहावरों को, अन्तर्विरोध को नहीं पकड़ पाये हैं जिस तरह से देश के अन्य क्षेत्रों में। लेकिन उसके कारण मैं पहले भी स्पष्ट कर चुका हूँ। हमारे समाज में अन्तर्विरोध उतने तीखे नहीं हैं, जितने बिहार और दण्डकारण्य के समाज में। नफरत यहाँ कम रही। हमारे उत्तराखंड के समाज में एक सहयोग की भावना शुरू से रही है। सामाजिक तानाबाना बहुत सहयोगात्मक रहा है। लेकिन अपनी देशकाल परिस्थिति के अनुसार संघर्ष की धारा भी यहाँ रही। गौर्दा इसका सबसे बड़ा प्रमाण हैं।

कपिलेश:- गिर्दा, उत्तराखंड के जन जीवन पर लिखे गये साहित्य पर आपके विचार…

गिर्दा:- कुछ लोगों ने बहुत सुन्दर लिखा है। शेखर जोशी, शैलेश मटियानी, पानू खोलिया आदि। जिन्होंने यहाँ के जीवन के दर्द को समझा है। नाटक के क्षेत्र में अपेक्षाकृत बहुत ज्यादा चीर-फाड़ नहीं हुई। उपन्यास कहानी में काफी हद तक सन्तोषप्रद काम हुआ। कविता और गीत के माध्यम से जनपक्षीय अभिव्यक्ति मुखरित होती आई है। नाटक में हम अपने रूप, रंग, गंध के रूप में कोई पर्वतीय छवि नहीं बना पाये हैं। बंगाल का थियेटर दूर से पहचाना जा सकता है, लेकिन अभिव्यक्ति का संघर्ष निरंतर जारी है। ‘नगाड़े खामोश हैं’ और ‘शिल्पी की बेटी’ उल्लेखनीय नाटक रहे हैं। राज्य बनने के बाद रंगमंच कोई पहचान बना पायेगा, ऐसी मुझे आशा है।

नैतीताल समाचार से साभार