‘रुख पर नकाब लगाए रखो मेरे हुजूर...’ / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
‘रुख पर नकाब लगाए रखो मेरे हुजूर...’
प्रकाशन तिथि : 14 मई 2020


राकेश रोशन ‘कृष’ शृंखला की अगली कड़ी पर काम कर रहे हैं। अपनी पहली विज्ञान फंतासी ‘कोई मिल गया’ की सफलता से प्रेरित राकेश रोशन केवल विज्ञान फंतासी ही बनाना चाहते हैं। सामान्य मनुष्य की छवि वाले नायक की फिल्मों से उन्हें परहेज है। उनका विश्वास है कि आम दर्शक अब कॉमन मैन को नायक के रूप में नहीं देखना चाहता। इसे हम तर्कहीनता की फिल्म ‘बाहुबली’ का साइड इफेक्ट मान सकते हैं। एक विदेशी फिल्म का नाम था ‘मास्क ऑफ जोरो’। नायक अपनी पहचान छिपाने के लिए मास्क पहनता है। वह रूरीटेनिया का निष्कासित राजकुमार है और षड्यंत्र करके उसका राज्य हड़प लिया गया है। स्वतंत्रता स्थापित करने के लिए वह अवाम में क्रांति की अलख जगाता है। विजय प्राप्त करते ही वह अपना मास्क उतार देता है।

फिरोज खान ने इससे प्रेरित फिल्म बनाई थी। फिरोज खान के अवचेतन में काऊ बॉय फिल्में समाई हुई थीं। फिरोज खान अपने घर में भी लॉन्ग बूट पहनते और हैट धारण किए होते थे। ज्ञातव्य है कि फिरोज खान पहले फिल्मकार थे जिन्होंने ‘गॉडफादर’ से प्रेरित फिल्म ‘धर्मात्मा’ बनाई थी। ‘गॉडफादर से प्रेरित कमल हासन की फिल्म को उन्होंने दोबारा ‘दयावान’ नाम से बनाया था। मान लें कि जोरो चंबल का बागी है तो गॉडफादर सिसली में जन्मे हैं। यूरोप में बसे सिसली और भारत में बसे चंबल दोनों में अन्याय से अराजकता का जन्म होता है। एक जगह डाकू को बागी कहते हैं, दूसरी जगह अपराध सरगना को ‘गॉडफादर’ कहते हैं। कोरोना संक्रमण का दौर कब थमेगा, यह बताना कठिन है। परंतु यह तय है कि सभी कुछ बदलेगा। पहले सिनेमाघर में कुछ बॉक्स होते थे जहां बैठकर अपनी गोपनीयता को बनाए रखकर श्रेष्ठवर्ग के लोग फिल्म देखते थे। भविष्य में सिनेमाघर में छोटे-छोटे बॉक्स बन सकते हैं, जिनमें आम दर्शक बैठकर फिल्म देखेगा। इस तरह वर्ग भेद समाप्त हो सकता है। आक्रोश की मुद्रा धारण किया नायक व्यक्तिगत बदला लेता है। समाज में व्याप्त असंतोष से उसका कोई संबंध नहीं है। हम कतार में खड़े नहीं होते, जहां खड़े होते हैं, कतार वहीं से शुरू होती है। इस तरह के संवाद पर अवाम तालियां बजाता है। हुक्मरान तुकबंदी को शायरी समझता है, अनुप्रास को सर्वश्रेष्ठ। पटकथा लेखन के समय लेखकों की टीम ताली बजाने वाले संवाद की खोज में अपने बाल नोचने लगती है। ताली दृश्य को ये लोग ‘क्लैप ट्रेप’ कहते हैं। नेता का भाषण लिखने वाला भी क्लैप ट्रेप खोजता है।

फिल्मकार अलंकृता श्रीवास्तव की फिल्म ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ चार महिलाओं के डिजायनर और डिनायल संघर्ष की कथा है। पारंपरिक मूल्य विधान ने इनकी स्वाभाविक इच्छाओं को कुचल दिया है। याद आता है सिमॉन द ब्वू का कथन कि जब कोई स्त्री बुजुर्वा प्रसाधन को ठुकराकर अपने स्वाभाविक रूप को दिखाती है तो दंभी पुरुष भयभीत हो जाते हैं। इस फिल्म की एक पात्र परंपरा के अनुरूप बुरखा धारण करती है, परंतु लिपस्टिक भी लगाती है। इस तरह लिपस्टिक उसके विरोध का परचम बन जाता है। चारों महिलाओं के सामाजिक एवं आर्थिक परिवेश अलग-अलग हैं, परंतु कामनाओं की समानता उनकी स्वतंत्रता के प्रति आदिम आग्रह को रेखांकित करती है।

हमने आत्मा को शिखर पर स्थान दिया और उस शरीर को दोयम करार दिया, जिसमें ईश्वर का निवास है। मूर्ति की आराधना, मंदिर को नकारकर कैसे की जा सकती है? पहले तो विचार शैली को आत्मा का नाम दे दिया, फिर शरीर की भाषा और उसके व्याकरण को अनदेखा कर दिया। मास्क हमारे परिधान और विचार का स्थायी हिस्सा होने जा रहा है। अब आंखें बतियाएंगी, मुस्कुराएंगी, स्पर्श भी करेंगी। खाकसार की ‘शायद’ का एक संवाद है कि जब तुम मेरे करीब होती हो तो शरीर की नदी के तल में जमे चुम्बन त्वचा के किनारों की ओर दौड़ने लगते हैं। तब सर्वत्र आनंद व्याप्त है। रोम-रोम झंडा बनकर लहराता है। मास्क स्थायी होने जा रहा है। अय्यारी नए स्वरूप में लौट रही है।