‘सप्तपर्णी की छाँव में’कविता-संग्रह-डॉ.विश्वदेव शर्मा / सुधा गुप्ता
गौरवान्वित हूँ यह ज्ञापित करते कि सरस कवि, हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान्, इतनी डिग्रियों और उपाधियों से विभूषित ,जिन्हें पूरा-पूरा लिखने के श्रम मात्र से घबराना पड़ जाए, सरकार सेवाओं में दीर्घकालीन प्रतिष्ठित पद ‘हिन्दी अधिकारी’, ‘संयुक्त मुख्य प्रबंधक’ आर-बी-आई- और अन्ततः ‘संयुक्त निदेशक’ भारत सरकार पद से सेवा निवृत्त श्रीयुत डॉ-विश्वदेव शर्मा की स्नातक-उत्तर स्नातक कक्षाओं में मैं सहपाठिनी रही हूँ (1950-1954) इस नाते गुरु-भाई होने के साथ-साथ हिन्दी विभाग के प्राध्यापक गण के विशेष प्रिय छात्र होने, समान रूचियाँ होने और मेरठ कॉलिज पत्रिका में छात्र संपादक होकर उनका सहयोग करने आदि कारणों से स्वाभाविक था कि सामान्य से कुछ अधिक सम्पर्क हुआ। स्वभाव से ही शान्त, मर्यादित, शालीन व्यवहार और उम्र में मुझसे कुछ वर्ष बड़ा होने से उनके प्रति आदर भाव ही अधिक रहा।
फिर सब इधर-उधर बिखर गए। लड़के अपना करियर बनाने, नौकरी तलाशने में लगे और लड़कियाँ शादी-ब्याह रचा कर घर-गृहस्थी जुटाने-सम्हालने में । प्रायः सभी अलग शहरों में जा पड़े। भाई दिल्ली चले गए, दशकों का अन्तराल-मौन-चुप्पी। किसी को एक-दूसरे के विषय में जानने की फुरसत नहीं। भाई को एक शौक था-आंग्ल नव वर्ष की शुभ-कामनाएँ एवं दीपावली की बधाई/शुभकामना कविता के रूप में इष्ट-मित्रें को भेजते-उसी से थोड़ा-बहुत पता चल जाता कि एक दूसरे के परिवार में सब ठीक-ठाक है। इस तरह दशक पर दशक बीतते चले गए; किन्तु अध्ययन-काल का वह बहन-भाई की पावन स्नेह-डोरी में बँधा मन सब कुछ सँजोए रहा। सेवा-निवृत्ति के पश्चात् समय खाली होने के बाद दशकों का दीर्घ अन्तराल पाटकर वह स्नेह-निर्झर फिर से फूट चला। कभी कभार पत्रचार या फोन पर सम्पर्क होने लगा।
पिछले दिनों एक विचित्र (1) ‘आदेश’ आया। भाई ने सूचित किया कि वह अपनी काव्य-यात्र के ‘पड़ाव’ एकत्र करके एक काव्य-संग्रह प्रकाशित कराने जा रहे हैं, चाहते हैं कि परिचय (संग्रह का) स्वरूप मैं कुछ लिखूँ। अपने सुदीर्घ प्रतिष्ठित जीवन में उनका सम्पर्क शीर्षस्थ रचनाकारों और साहित्यिक विभूतियों से हुआ ऐसे में मुझ जैसे साधारण व्यक्ति से लिखाने की उन्हें क्यों सूझी, इसका उत्तर तो वही दे सकते हैं, मैंने कोई प्रश्न न करके पाण्डुलिपि ध्यानपूर्वक पढ़नी आरम्भ कर दी। पढ़कर जो कुछ अहसास उनकी कविता को पढ़ कर हुए, उन्हें शब्दाघ्कित करने की चेष्टा की। भाई विश्वदेव जी के काव्य-सृजन की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता है जीवन के प्रति सकारात्मक आशावादी दृष्टिकोण। सुख-दुःख के धूप-छाँही जीवन में संकट, अवरोध और अस्थायी अवसाद के पलों में भी वह आस्था का आँचल थामे रहते हैं जो उन्हें निरन्तर अनवरत संघर्ष हेतु ऊर्जा प्रदान करते हुए तमस से ज्योति की ओर ले जाने और हर संकट को चुनौती देने में सहायक हैः-
(अ) इतना विष पी चुका जहर ही मुझे अमरता दान कर गया।
(आ) हार ने भी हार मानी _ किन्तु मैं हारा नहीं।
काव्य की दूसरी विशेषता है लोक-चेतना से जुड़ाव। एक उत्तरदायी कवि / साहित्यकार की भूमिका का निर्वहन करते हुए वह अपने चारों ओर फैली बिखरी समस्याओं से रू-ब-रू होते हैं, अहं की कारा के बन्दी बन कर नहीं रह जाते ---- उनका यह ‘सरोकार’ उन्हें जन-मानस में सहज सरल रूप में पैठने में सफल है। उनके द्वारा रचित काव्य में सामयिक विषयों का वैविध्य दर्शनीय है। हास्य-व्यंग्य की प्रमुखता तीसरी विशेषता कही जा सकती है। उनकी विनोद-प्रियता, भाषा पर पकड़, शब्द-सामर्थ्य को पहचानने की शक्ति, कटाक्ष-क्षमता और उक्ति-वैचि=य ने हास्य-व्यंग्य की रचनाओं को गजब का ‘निखार’ दिया है। ‘सम्पादन-कला-विशारद’ विश्वदेवजी दीर्घकाल तक अपने कवि सम्मेलन संयोजन के कारण ख्यात एवं लोकप्रिय रहे हैं। वरिष्ठ-कनिष्ठ कवियों के सम्पर्क-सानिध्य एवं अन्य संयोजकों के दाँव-पेंच से सुपरिचित होने की पार्श्व-भूमि ने ‘दमदार’ हास्य-व्यंग्य रचनाओं को जन्म दिया है। हास्य सदैव शिष्ट, मर्यादित एवं स्तरीय है।
चौथी विशेषताः कवि को नई पीढ़ी से लगाव और उनके सम्पर्क की ‘ललक’ महत्त्वपूर्ण है। प्रमाण है उनके द्वारा रचित बाल-साहित्य जो उन्होंने बाल-गीत तथा बाल-कथा (कविता विधा) के रूप में रचा है-
(अ) खेलो, कूदो, गाओ। आओ, आओ, आओ!!
(आ) नाचो, गाओ, भर किलकारी हँसो, हँसाओ।
(इ) नहीं रुकेंगे, नहीं झुकेंगे।
(ई) भारत नया बनाएँगे।
जैसे आह्लादकारी गीत देश प्रेम एवं नव-निर्माण की प्रेरणा से ओत-प्रोत है।
(5) विधा-विविधाः काव्य में विधाओं की विविधता दर्शनीय तथा कवि की प्रतिभा सम्पन्नता स्थापित करती है। मुक्तक रस-पूर्ण एवं सर्वथा निर्दोष होने के साथ विषय-विस्तार की दृष्टि से भी उल्लेखनीय हैं, ये मुक्तक हास्य-व्यंग्य की फुलझड़ियों के रूप में हँसाते-गुदगुदाते और बारम्बार पढ़ने का आमन्त्रण देते हैं। सरस गीत लिखे हैं, कविताएँ (तुकान्त, छन्दबद्ध) एवं नई कविता (मुक्त छन्द) लिखी हैं। अमीर खुसरो से प्रेरित होकर ‘मुकरियाँ’ लिखी हैं-(फोन, रेल, बस) बाल गीत तो हैं ही, गजल भी लिखी हैं। उत्सवप्रिय होने के नाते होली, दीवाली जैसे उत्सवों सम्बन्धी खट्टी-मीठी रचनाएँ और अन्तर्धारा के रूप में बहती हुई कुछ नया निर्माण करने की सतत प्रेरणा उत्साहवर्धक एवं आह्लादकारी हैं।
(6) देश तथा राजभाषा (मातृभाषा) हिन्दी के प्रति अखण्ड निष्ठा और अटल प्रेम, काव्य का स्थायी भाव कहा जाये तो अत्युक्ति न होगी। गहन गम्भीर विचारक होने के कारण हिन्दी की वर्त्तमान दुर्दशा की त्रसदी, राजनीति और साहित्य-जगत् के कर्णधारों के षडयंत्रें का पर्दाफाश और ‘टाँग-खिंचाई’ भी हैः
(अ) हिन्दी पर मुक्तक
(आ) हिन्दी छः मुक्तक तथा अन्य
इसके बावजूद आपके लेखन में हिन्दी के प्रति ‘ज़िद्दी दुराग्रह’ नहीं है। कविता में ‘बहुप्रचलित’ अंग्रेज़ी के शब्दों का धड़ल्ले से, निःसंकोच प्रयोग-विशेषतः हास्य-व्यंग्य कविताओं में द्रष्टव्य है। मंचीय कविता में सामान्य जनता तक संप्रेषित करने का उद्देश्य भी इसका एक कारण है।
(7) आदर्शः सरल हृदय, भावुक, संवेदनशील कवि ने कुछ आदर्श भी गढ़े हैं। आपके मानकों के अनुसार-
व्यर्थ है काव्य जो गीत गाता नहीं/व्यर्थ है जो भ्रमर गुनगुनाता नहीं/व्यर्थ है दीप जो धूम में खो गया व्यर्थ है रूप जो मुस्कुराता नहीं।
जीवन के सुन्दरतम भाव ‘प्यार’ के विषय में कवि का अभिमत है-
हर चमन में हमेशा बनी बहार रहे/हर आँख उठी और आबदार रहे स्वर्ग उतर आए, धरा पे स्वयं/जो आदमी को आदमी से प्यार रहे।
प्रेम से लबालब भरा मानव-हृदय आभार और कृतज्ञता से छलक उठता है ---- मानवीयता की सच्ची कसौटी यही कृतज्ञ-भावना है। इस काव्य-संग्रह में आभार-प्रकाशन के अमृत-बिन्दुओं ने नाना रूपों में जीवन का अभिषेक किया है-
(अ) तुमने ज्योति भरी है मन में (आ) सपनों को छू गई तुम्हारी सतरंगी तूली
(इ) मुझ पर यों ही कम हैं क्या अहसान तुम्हारे
(ई) तुमने दीपों से थाल भर लिया
(उ) क्या मानूं अहसान तुम्हारा
जैसे गीतों में कृतज्ञता की पावन भावना बिखरी हुई है। समापन में यही कहना चाहूँगी कि भाई विश्वदेव शर्मा की कविताओं का यह संग्रह एक ‘सप्तपर्णी’ (सप्तच्छद, छतिवन का सदा बहार शोभा-वृक्ष जिसके एक पर्ण में सात उप-पर्ण होते हैं जो इसी कारण सप्तपर्णी कहलाता है) वृक्ष है जो अपनी सुखद-सघन-हरियाली की शीतल छाँव में पाठक को बैठा लेता है-पाठक अपने जीवन के संघर्षपूर्ण श्रम की थकावट को भूल कर काव्य के विभिन्न रसों का आस्वादन कर परितृप्त हो उठता है।
कवि को इस संग्रह के संचयन एवं वर्तमान रूप में पाठकों को उपलब्ध कराने हेतु अनेक साधुवाद! (श्री वैनायकी चतुर्थी 17 सितम्बर 2015 ) -0-