’पुनरुत्थान’ — समाज के ओछेपन को सामने रखनेवाला उपन्यास / अनिल जनविजय

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न केवल रूस में, बल्कि सारी दुनिया में लेफ़ निकअलायविच तलस्तोय ने साहित्य और संस्कृति के विकास में जो योग दिया, उसे कम करके नहीं आँका जा सकता है। तलस्तोय सिर्फ़ अपनी रचनात्मक सक्रियता की वजह से ही दुनिया भर में लोकप्रिय नहीं हुए, उन्हें उनकी विश्व-दृष्टि और जीवन शैली के कारण भी याद किया जाता है। मुख्य रूप से पाठक उन्हें उनके तीन उपन्यासों की वजह से याद करते हैं। ये उपन्यास हैं — उनका महाकाव्यात्मक विशाल उपन्यास ’युद्ध और शान्ति’, ’आन्ना करेनिना’ और ’पुनरुत्थान’। इन तीनों रचनाओं में समाज और मनुष्य के बारे में तथा उनके आपसी रिश्ते के बारे में तलस्तोय का नज़रिया पूरी तरह से प्रतिबिम्बित हुआ है।

’पुनरुत्थान’ नामक इस उपन्यास को लिखने का विचार लेफ़ तलस्तोय के मन में एक घटना सुनकर पैदा हुआ था। सन 1889 में तलस्तोय के एक परिचित वक़ील अनअतोली कोनी ने उन्हें एक क़िस्सा सुनाया, जिसमें उन्होंने बताया कि कैसे एक मुक़दमे के दौरान जूरी के सदस्य एक कुलीनवर्गीय निर्णायक ने उस लड़की को पहचान लिया, जिसपर मुक़दमा चल रहा था। वह लड़की भी कभी भद्र महिला थी। लेकिन अपनी जवानी के दिनों में उस कुलीनवर्गीय निर्णायक ने प्यार का नाटक रचाकर उस लड़की को फँसा लिया था और कुछ अरसे तक उससे खेलकर उसे उसके भाग्य के भरोसे छोड़ दिया था। बाद में वह लड़की वेश्या बन गई और उसके एक ग्राहक ने उस पर बड़ी रक़म की चोरी का झूठा इल्जाम लगाकर उसे गिरफ़्तार करवा दिया। उस मुक़दमें में जूरी के सदस्य रहे उस निर्णायक को अपनी हरकतों पर पश्चाताप हुआ और उसने प्रायश्चित करने का फ़ैसला किया। वह उस लड़की से विवाह करना चाहता था। उसने लड़की को जेल से छुड़ाने की कोशिश की। लेकिन वह लड़की को मुक्त न करा सका और जेल में ही लड़की की मौत हो गई।

तलस्तोय ने वक़ील अनअतोली कोनी से उसके इस क़िस्से पर कहानी लिखने की इजाज़त ले ली और तुरन्त ही क़रीब सौ पेज की एक कहानी लिख मारी। लेकिन तलस्तोय अपनी उस रचना से असन्तुष्ट थे, इसलिए उन्होंने उसे छपवाने की जल्दबाज़ी नहीं की। तलस्तोय को लग रहा था कि वे क़ैद में पड़ी उस स्त्री की मनोदशा को अपने इस लघु उपन्यास में ठीक से व्यक्त नहीं कर पाए हैं। तलस्तोय ने क़ैदियों के जीवन और उनकी जीवन-स्थितियों के बारे में जानकारियाँ जुटानी शुरू कर दीं। ये जानकारियाँ पाने के लिए उन्होंने कई बार मास्को की प्रसिद्ध बूतिरका जेल के दौरे किए और लम्बी सज़ाएँ पानेवाले उन क़ैदियों के जीवन का गहराई से अध्ययन करने के प्रयास किए, जिन्हें साइबेरिया निर्वासित कर दिया जाता था।

इस तरह ’पुनरुत्थान’ को रूसी साहित्य में यथार्थ का चित्रण करनेवाला एक यथार्थवादी उपन्यास माना गया है। उपन्यास के पात्र और उनका परिवेश दोनों ही रूस की तात्कालिक वास्तविकताओं के बेहद क़रीब हैं। उपन्यास में शामिल किए गए बीसियों पात्रों के नाम, उनके पद, उपन्यास में घटने वाली घटनाओं की भौगोलिक स्थिति, पात्रों की आपसी बातचीत, उनके कपड़े और उनका घरेलू सामान — ये सब उपन्यास को यथार्थ रूप से एकदम मौलिक रूप प्रदान करते हैं। उपन्यास पढ़ते-पढ़ते पाठक को यह विश्वास होने लगता है कि वो कपोल-कल्पना पर आधारित कोई फ़ैण्टेसी कहानी नहीं पढ़ रहा है, बल्कि इस उपन्यास का कथानक वास्तविक दुनिया के वास्तविक जीवन पर आधारित है।

क़ैदियों के बारे में विस्तार से जानकारियाँ इकट्ठी करने के बाद  1895  - 1896   में तलस्तोय ने इस उपन्यास को फिर से नए सिरे से लिखना शुरू कर दिया, लेकिन क़रीब 170-80 पृष्ठ लिखने के बाद उन्हें फिर से यह लगने लगा कि बात बन नहीं रही है। वे जो कुछ भी लिखना चाहते हैं, वह बात इस उपन्यास में उभरकर सामने नहीं आ रही है। उन्होंने उपन्यास का लेखन स्थगित कर दिया और पूरी कहानी पर फिर से विचार करना शुरू किया। तीन साल के अन्तराल के बाद 1898 के अन्त में उन्होंने एक बार फिर यह उपन्यास लिखने की कोशिश की और तीन-चार महीने की मेहनत के बाद ही उपन्यास का वह रूप उभरकर सामने आ गया, जो वे लिखना चाहते थे। फिर 1899 में ही यह उपन्यास प्रकाशित हो गया।

’पुनरुत्थान’ में लेफ़ तलस्तोय ने अपने जिन विचारों पर ज़ोर दिया है, वे इस प्रकार हैं :

1. तलस्तोय ने यह दिखाया है कि कैसे मनुष्य का जीवन नियति के हाथों का खिलौना है। मनुष्य का भाग्य अस्थिर है और वह निरन्तर बदलता रहता है। बस, एक रात में उपन्यास की नायिका कतेरिना मासलोवा का जीवन पूरी तरह से उलट-पलट जाता है और उसे उठाकर इतना नीचे फेंक देता है कि वह मुक्त और स्वच्छन्द स्त्री पूरी तरह से रसातल में जा गिरती है। अदालत में उपन्यास के नायक नेख़ल्युदफ़ की कतेरिना से अचानक मुलाक़ात होती है और इस मुलाक़ात के बाद उनका जीवन पूरी तरह से बदल जाता है। तलस्तोय का मानना है कि जीवन में कुछ भी पहले से सुनिश्चित और पूर्वनिर्धारित नहीं होता। जीवन और मृत्यु का सवाल पूरी तरह से संयोग पर आधारित होता है।

2. तलस्तोय प्यार की उस समझ को अनदेखा करते हैं, जो दुनिया में आज तक चली आई है कि प्यार अक्सर एक स्त्री और पुरुष के बीच का निजी मामला होता है। तलस्तोय स्त्री और पुरुष के आपसी रिश्ते को नज़रअन्दाज़ करके ’पुनरुत्थान’ में उस उच्च प्रेम की प्रतिष्ठा करते हैं, जो मनुष्य और मनुष्य के बीच में है और यह मानवतावदी प्रेम ही सर्वोच्च है।

3. ’पुनरुत्थान’ में तलस्तोय ने मानवीय नैतिकता की भावना को भी जीवन में बड़ा महत्वपूर्ण माना है। नैतिकता मनुष्य का आध्यात्मिक, आत्मिक और मानसिक उपचार करती है। एक चमत्कार की तरह से मनुष्य का मन बदल जाता है। तलस्तोय का मानना था कि जीवन कितना भी भयानक क्यों न हो, मनुष्य का मन अच्छाइयों से ओतप्रोत रहता है और दुनिया में अच्छाई की जीत होती है। मनुष्य - मन अच्छाई के प्रति हमेशा आकर्षित होता है और नैतिकता उसके मन को शुद्ध करती है।

4. व्यक्ति के नैतिक मूल्यों में लगातार बदलाव होता रहता है। तलस्तोय का मानना था कि हर व्यक्ति में यह समझ होती है कि क्या अच्छा है और क्या बुरा है। अपनी इच्छा के अनुसार वो अपने आदर्शों को बदल सकता है। व्यक्ति कुछ समय के लिए झूठे और दिखावटी मूल्यों को अपना आदर्श बना सकता है, लेकिन समय आने पर वह इन झूठे आदर्शों से मुक्ति पाने की कोशिश करता है और पवित्र और नेक जीवन जीने की राह खोजने लगता है।

5. दया या नेकी दो तरह की होती है — वास्तविक नेकी और आडम्बरपूर्ण दिखावटी दया। आम तौर पर सरकारें और धर्म संस्थाएँ जिस नेकी और दयालुता का प्रदर्शन करती हैं, वह आडम्बरपूर्ण दिखावटी दया होती है। बड़ी ऊँची-ऊँची बातें की जाती हैं, सुन्दर-सुन्दर इशारे किए जाते हैं, लेकिन इन दिखावा भरी बातों के पीछे लापरवाही, उपेक्षा और अदासीनता छुपी होती है। सरकार और धर्म ऐसी झूठी संस्थाएँ हैं, जिन्हें मनुष्य के भाग्य से कोई लेना-देना नहीं होता। वे अपने अहम और अभिमान में ही गर्वित होती रहती हैं और मनुष्य का शोषण और दमन करती हैं।

तलस्तोय ने अपनी इस रचना में बताया है कि मनुष्य का चाहे कितना भी पतन क्यों न हो जाए, उसका हमेशा पुनरुत्थान और पुनर्जन्म हो सकता है। वह फिर से नैतिकता के उच्च रथ पर आरूढ़ हो सकता है और फिर से वास्तविक मनुष्य बन सकता है। मनुष्य का पुनरुत्थान कभी कालातीत नहीं होता, वह लगातार सामयिक होता है।

अपने इस उपन्यास में लेफ़ तलस्तोय ने समाज की जिन समस्याओं की ओर इशारा किया है और जिन समस्याओं को निर्मूल कर देने की बात कही है, उनमें सबसे पहले सामाजिक असमानता का मुद्दा आता है। तलस्तोय ने ’पुनरुत्थान’ में दिखाया है कि एक तरफ़ तो लम्पटता और भोग- विलास में डूबा रईस वर्ग है, वहीं दूसरी तरफ़ कंगाली, ग़रीबी, दरिद्रता और अज्ञानता के गह्वर में डूबी रूस की वह आम जनता है, जिसे दो वक़्त की रोटी भी मयस्सर नहीं है और जो भयानक शोषण और दमन का शिकार है।

जिस दूसरी समस्या को तलस्तोय अपने इस उपन्यास में बड़ी शिद्दत के साथ उठाते हैं, वह है पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं की कठिन और तुच्छ हालत। शिक्षा और सामाजिक जीवन तक पहुँच से वंचित स्त्री को सिर्फ़ माँ बनने और गृहिणी की भूमिका निभाने के लिए मजबूर कर दिया गया है, इस तरह उसे समाज के जीवन की सीढ़ी पर सबसे निचले पायदान पर बने रहने के लिए बाध्य किया जाता है।

’पुनरुत्थान’ में तलस्तोय ने समाज के ओछेपन की भी कड़ी निन्दा की है। रूसी समाज के कुलीन वर्ग के मुट्ठी भर सदस्यों को सारे विशेषाधिकार प्राप्त हैं। यह कुलीन वर्ग समाज की वास्तविकताओं और यथार्थ के प्रति पूरी तरह से उपेक्षा बरतता हुआ अपनी स्वार्थपरक ऐयाशी, कामुकता और व्याभिचार में लिप्त है। अपनी जनता की तकलीफ़ों, मुसीबतों, यन्त्रणाओं और वेदनाओं से उसका कोई रिश्ता नहीं है। यह ओछापन नहीं, तो और क्या है?

इस उपन्यास में तलस्तोय ने एक और समस्या की ओर ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की है, वह है — सामाजिक विभाजन और इस विभाजित समाज में शासक वर्ग का अवाम के साथ किया जाने वाला अन्याय। जनता की तरफ़ से पूरी तरह से उदासीन शासन तन्त्र जनता के साथ न्याय नहीं करता। धार्मिक संस्थाएँ भी शासकों का साथ देती हैं और दोनों मिलकर ग़रीब जनता को ज़्यादा से ज़्यादा लूटते हैं और उसका उत्पीड़न, अपमान, बलात्कार और दमन करते हुए अपने ज़ोर-जुल्म से उसे लगातार कुचलते हैं।

इस तरह अपने उपन्यास ’पुनरुत्थान’ के माध्यम से तलस्तोय ने समाज की गन्दगी को उलीचकर पाठकों के सामने रख दिया था। छपकर आते ही उपन्यास ने रूसी समाज और बुद्धिजीवी वर्ग के बीच बड़ी उथल-पुथल पैदा कर दी। जिन लोगों ने अपने जीवन में कभी दो-चार पन्ने भी नहीं पढ़े थे, वे भी उपन्यास के बारे में जानकर उसे पढ़ने को लालायित हो उठे। इस उपन्यास ने रूसी समाज को इतना उद्वेलित किया कि प्रतिक्रियास्वरूप सबसे पहले लेफ़ तलस्तोय को ईसाई धर्म से बहिष्कृत कर दिया गया। लेकिन अनतोन चेख़फ़ ने बड़ी गर्मजोशी से ’पुनरुत्थान’ का स्वागत किया। उन्होंने कहा कि तलस्तोय ने सबकुछ इतना विश्वसनीय, सटीक और साफ़-साफ़ लिखा है कि हमारे इस कूड़ा समाज को बदल देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा है।

तलस्तोय के ’पुनरुत्थान’ की प्रशंसा करते हुए व्लदीमिर इल्यीच लेनिन ने भी इस उपन्यास को लेखक की बेहतरीन रचना बताया। उन्होंने कहा कि आज तक ज़ारशाही के तहत समाज का जो ढाँचा खड़ा किया गया है, वह भीतर से सड़ा-गला है। यह उपन्यास पूरी तरह से सत्ता का विरोध करता है। तलस्तोय के समकालीन कुछ लेखकों और सरकारी चापलूसों ने ’पुनरुत्थान’ पर यह आरोप भी लगाया कि यह उपन्यास न्यातिक व्यवस्था का अपमान करता है और इस अपमान के लिए तलस्तोय पर मुक़दमा चलाया जाना चाहिए।