’महाजनी सभ्यता’ और आज की दुनिया / दूधनाथ सिंह
प्रेमचन्द ने अपने जीवन भर की साहित्य-साधना के बाद अन्तिम वर्षों में ‘महाजनी सभ्यता’ नामक एक वैचारिक दस्तावेज़ प्रस्तुत किया। यह लेख सन् 1936 में अपनी मृत्यु के कुछ दिनों पहले उन्होंने लिखा था। यह लेख उनके समग्र चिन्तन का जैसे निचोड़ है, निष्कर्ष है। सन् 1901 से लेकर सन् 1936 तक उन्होंने अपनी अथक साहित्य रचना और वैचारिक सामािजक संघर्षों से यह साबित कर दिया कि उनका लेखन और उनका रचनाकर्म समग्र भारतीय जीवन और भारतीय मनीषा का सारतत्व है। भारतीयता को प्रतिबिम्बित करने वाले वे एक ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने विकट और प्रतिकूल स्थितियों से पलायन नहीं किया, हार नहीं मानी, संघर्षों से मुख नहीं मोड़ा और अपनी रचनाओं में भारतीय इतिहास, राजनीति और समाज की तत्कालीन विडम्बनाओं और अन्तर्विरोधों को सही ढंग से पहचानने में सफल रहे। इस पहचान में बहुत हद तक उन्होंने महत्मा गाँधी के विचारों-सिद्धान्तों का साथ दिया। वे भी लगभग चमत्कारिक ढंग से गाँधी जी के व्यक्तित्व, चिन्तन और कर्म के मुग्ध दिखाई देते हैं। उनकी कार्य-शैली के विशिष्ट प्रशंसक हैं और अपनी कथा रचनाओं में उन विचारों, बातों और तरीकों को समोने और साधन की कोशिश करते हैं। गाँधी-वादी विचारधारा का वह कौन-सा पक्ष है जिसका प्रेमचन्द समर्थन करते हैं? वह है — 1. मनुष्य का हृदय परिवर्तन, 2. वर्ग समन्वय, 3. औपानिवेशिक गुलामी से मुक्ति के लिए बिना भेदभाव के भारत की सारी जनता का आवाहन और उसकी भागीदारी, 4. निजी और सार्वजनिक जीवन में एक साथ, बिना किस भेदभाव के नैतिक, पवित्र और खुले चरित्र का निर्माण और 5. सत्य अहिंसा के लिए निर्भय और निर्भ्रान्त हठ। ये सारी बातें हैं जहाँ प्रेमचंद गाँधी जी के विचारों का खुला समर्थन करते हैं।
ये सार के विचार यदि एक ओर भारत की आजादी के संघर्ष से जुड़े हैं तो दूसरी ओर सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन का भी संकेत करते हैं। प्रेमचन्द ने रचनात्मक स्तर पर एक सिद्ध कलाकार की तरह इन विचारों का उपयोग किया। अपने निहित स्वार्थों को छोड़ देना ही मनुष्य का मनुष्य के प्रति हृदय परिवर्तन है। प्रेमचन्द जब अपने उपन्यासों में अलग-अलग वर्गों की पहचान करते हैं — जैसे कि ज़मींदार और किसान, और छोटे जाति वाले किसान और भूमिहीन खेतिहर मजदूर; जैसेकि देसी राजे-रजवाड़े और उनके उपजीवी अमले-फैले, जैसेकि अँग्रेज़ी सत्ता और उनकी नौकरशाही और उनके द्वारा निर्मित शासन-तन्त्रा की रखवाली करने वाली संस्थाएँ और उनमें लगे नौकरशाह और बाबू, जैसे इस आर्थिक, प्रशासनिक और राजनैतिक तन्त्र के साथ गुत्थी दर गुत्थी उलझी हुई भारतीय समाज व्यवस्था को और अधिक सड़ान्ध की ओर ले जाती हुई जाति व्यवस्था जैसे कि दलित और स्त्रियाँ।
प्रेमचन्द जब भारतीय समाज के इन अन्तर्विरोधों और गुत्थियों के आमने-सामने होते हैं तो वे जगह-जगह गाँधी जी के उन्हीं हथियारों का इस्तेमाल समाधान के लिए करते हैं। जैसे बेगार और बेदख़ली को ख़त्म करने के लिए ज़मींदारों का हृदय परिवर्तन, अत्यधिक लगानदारी के खिलाफ़ लगानबन्दी आन्दोलन, आज़ादी की लड़ाई में बिना भेदभाव के समग्र भारतीय जनता का आवाहन, स्त्री शक्ति का समर्थन और उनके अधिकार दिलाने का प्रबल समर्थन, पतिता स्त्रियों के लिए सेवा सदनों और सुधार गृहों का स्थापनाएँ और अनमेल विवाह का कठोर विरोध (यद्यपि कि यह काम प्रेमचन्द ने एक ऊँचे कलाकार की तरह अनमेल विवाह की भयंकर त्रासदी का चित्रण करके किया है।) प्रेमचन्द बड़े कारख़ानों की स्थापना के विरोध में भी जान पड़ते हैं। उससे पैदा होने वाले शोषण, शोर, गन्दगी से वे एक पर्यावरणवादी की तरह चिन्तित दिखाई देते हैं। यही नहीं ‘गबन’ जैसे उपन्यास में तो प्रेमचन्द शहरों की अपेक्षा गाँवों की ओर लौटने की इच्छा व्यक्त करते हुए दिखाई देते हैं।
यह सब कुछ कर चुकने के बाद भी प्रेमचंद सन्तुष्ट नहीं दिखाई देते। यह सारा काम वे सन् 1932 तक कर चुके होते हैं। यानी अपने लेखन के अधिकतम बेशक़ीमती वर्ष वे इन तमाम उलझनों को सुलझाने में और उलझते चले जाते हैं। ऐसा उनका आन्तरिक-मानसिक अनुभव है जो 1932 में ‘हंस’ के सम्पादकीय नोट ‘दमन की सीमा’ में प्रकट होता हुआ दिखाई देता है। उन्हें लगता है कि यथार्थ कुछ और है, समाधान ऊपरी और सोचा हुआ और जबर्दस्ती लादा गया। इतनी आसानी से मनुष्य का हृदय परिवर्तन सम्भव नहीं है। अमीर-ग़रीब के बीच की हक़-हुक़ूक़ की लड़ाई को इन ऊपरी समाधानों से नहीं पाटा जा सकता। परस्पर विरोधी और संघर्षरत वर्गों का समन्वय एक ख़याली पुलाव है। आचरण की पवित्रता या अपवित्रता निहित स्वार्थों से बँधी हुई है और वह इतनी निस्संग, निरपेक्ष और स्वायत्त नहीं है। स्त्रियों के पतित होने या उनके दमन के कारण गहरे आर्थिक कारणों की उपज हैं और उन्हें सेवा सदनों या नारी-निकेतनों की स्थापना मात्र से नहीं सुलझाया जा सकता। सत्य का पक्ष भी इतना निरपेक्ष और एकान्त नहीं है। भारतीय समाज के आन्तरिक अन्तर्विरोधों की यह झलक प्रेमचन्द को अपने संघर्ष के हथियार बदलने पर मजबूर करती है। मार्क्सवाद का यह जो एक परम सिद्धान्त है कि ‘व्यवहार से सीखो’ तो प्रेमचन्द गान्धीवादी हथियार का व्यवहार करके यह सीखते हैं कि भारतीय समाज में परिवर्तन के लिए ये हथियार कारगर नहीं हैं।
प्रेमचन्द अपने जीवन के इन्हीं अन्तिम वर्षों में भारतीय सामाजिक अन्तर्विरोधों की खोज नए सिरे से करते हैं। एक छोटे किसान और भूमिहीन मज़दूर के शोषक तत्त्व कौन हैं? विराट सामन्ती और औपनिवेशिक व्यवस्था, ब्राह्मणवादी कर्म काण्ड, कर्म फल, आशावाद, पुर्नजन्म? यह सब तो हैं ही। बीच-बीच में जाने-अनजाने प्रेमचन्द का ध्यान उन छोटे-छोटे महाजनों की ओर जाता है, जो हमारे ग्रामीण बिरादरी में जोंक की तरह फैले हुए हैं। उनकी कोई जाति नहीं। वे कोई भी हो सकते हैं — खाता-पीता किराने, किसान का दूकानदार, अनाज और घी-दूध की ख़रीद-फरोख़्त करने वाला बिचौलिया बनिया, थोड़े-थोड़े पैसे देकर, गहने, गिट्ठे, घर दुआर, खेत-खलिहान ज़र-ज़मीन गिरवी रखने वाला कोई साहूकार, पण्डित, ठाकुर, पूजा-पाठ और होम-जाप कर दक्षिणा बटोरे हुए कोई छोटा लालची ब्राह्मण जो एक का सवाया, ड्योढा लेकर उधारी देता है। जो कभी कम नहीं होता, धीरे-धीरे और बढ़ता ही जाता है। इस कर्ज़ख़ोरी का कोई भी कारण हो सकता है — भूखमरी, बेटी का विवाह, छोटे-मोटे लड़ाई झगड़ों से पैदा हुई मुक़दमेबाज़ी खूदखोर के पास जाने को मजबूर करती हैं। फिर यह मजबूरी एक ऐसा अभिशाप बनकर आती है जो कभी नहीं ख़त्म होती। यह जानलेवा कर्ज़ख़ोरी अन्ततः सचमुच जानलेवा साबित होती है। मुक्तिबोध की एक कविता पंक्ति है — ‘पिस गया वह, भीतरी औ’ बाहरी, दो कठिन पाटों के बीच ऐसी ट्रेजेडी है नीच। भीतरी मजबूरी है इज़्ज़त और मर्यादा की रक्षा। बाहरी मजबूरी है भूखमरी। इज्जत और मर्यादा और धरम बचाने की मजबूरी सदियों पुराने संस्कारों की देन है। इज़्ज़त और मर्यादा खाए-पीए, अघाए लोगों के अनुकरण पर ओढ़ी हुई मजबूरियाँ हैं। बाहरी मजबूरियाँ भूख-ग़रीबी, बेकारी, तंगदस्ती से पैदा हुई, ग़ैर बराबरी से उपजी वास्तविक मजबूरियाँ हैं। एक कृत्रिम, निरर्थक और दूसरी वास्तविक। ग़रीब और बेसहारा आदमी इंसाफ़ या फर्क नहीं कर पाता और पिस जाता है। इसमें ऊपरी और बनावटी और औपचारिक मानवीय सम्बन्ध, ख़ून, रिश्ते, मित्रताएँ आदि कोई काम नहीं आते। वास्तविक दुश्मन को न समझ पाने के कारण कर्ज़ख़ोरी की ये छोटी-छोटी घटनाएँ बड़ी दुर्घटनाएँ पैदा करती हैं। प्रेमचन्द का अन्तिम सम्पूर्ण उपन्यास ‘गोदान’ इन्हीं छोटी-छोटी घटनाओं से पैदा हुई एक बड़ी दुर्घटना के सृजन का दस्तावेज़ है और ‘महाजनी सभ्यता’ नामक लेख इसी शृंखला की वैचारिक परिणति। प्रेमचन्द के टूटने और ख़त्म होने का क्षण भी यही है। अमृत राय कहते हैं कि ‘महाजनी सभ्यता प्रेमचन्द का वसीयतनामा है।’ इसका अर्थ यह है कि ‘महाजनी सभ्यता’ भारतीय समाज के वास्तविक और नये अन्तर्विरोधों की खोज का साहित्यिक और वैचारिक वसीयतनामा है।
लेकिन प्रेमचंद अपने ‘महाजनी सभ्यता’ नामक आलेख को ‘महाजनी सभ्यता’ नाम सिर्फ इसलिए नहीं देते कि छोटी सूदखोरी पर आधारित कोई नयी अमलदारी अचानक अस्तित्व में आ गयी है। प्रेमचंद का लक्ष्य और कुछ हद तक प्रेमचंद का आश्चर्यµइन दोनों के कारण बहुत गहरे हैं। इस आलेख का प्रारूप प्रस्तुत करते हुए प्रेमचंद का लक्ष्य बहुत स्पष्ट हैµप्रेमचंद, अपनी यूटोपिया, अपने आदर्श, समाज और मनुष्य के प्रति अपनी गहरी संसक्ति को किसी भी शर्त पर छोड़ना नहीं चाहते। जिन आदर्शों के लिए, जिस दुःखित पीड़ित और वंचित मनुष्य के लिए, भारतीय समाज के जिस उत्थान के लिए अपने लेखन में वे जीवन भर संघर्ष करते रहे, अपनी उस ‘यूटोपिया’ को यथार्थ में बदलने के लिए अपने जीवन के अन्तिम दिनों में भी वे कमर बाँधे हुए संघर्षरत हैं और इसीलिए वे भारतीय समाज और दुनिया के समाजों और अमलदारियों की एक नयी भावावेशपूर्ण व्याख्या इस आलेख में प्रस्तुत करते हैं। और प्रेमचंद का सहज मानवीय आश्चर्य इसलिए कि एक रचनाकार हैं, एक सृजनधर्मी मनुष्य हैं, कोई अर्थशास्त्राी, इतिहासविद् और समाजशास्त्राी नहीं हैं। उनका सरोकार उच्चतम आदर्शों वाले एक लेखक का सरोकार है, इतिहास, अर्थशास्त्रा और दर्शन के व्याख्याता का नहीं। तो प्रेमचंद अपने इस सहज मानवीय आश्चर्य तले क्या देखते हैं? वह देखते हैं हिन्दुस्तान सहित दुनिया की सारी समाज-व्यवस्थाओं में एक नये मध्य-वर्ग का उदय। इस आलेख में वे महाजनी सभ्यता का अर्थ सूदखोरी से न जोड़कर कुछ और ही करते हैं और वह अर्थ बहुत गहरा है। इस आलेख में प्रेमचंद महाजनी सभ्यता के दो मुख्य सूत्रा प्रस्तुत करते हैंµ1. समय ही धन है और 2. बिजनेस इज बिजनेस (व्यवसाय, व्यवसाय है) इन दोनों सूत्रों के वे अत्यन्त व्यंग्यात्मक मुद्रा में पेश करते हैं। ऐसा नहीं है कि वे इससे सहमत हों। इनको प्रस्तुत करते हुए वे कुछ कुछ आहत खीझे हुए दिखते हैं। उनके मन में इस तथ्य और दिखती हुई सच्चाई को लेकर तकलीफे हैं। उनकी अन्तरात्मा नहीं चाहती कि यह ऐसे ही घटित हो। फिर वे अपने पहले सूत्रा की व्याख्या करते हैं। पहले ‘समय’ का क्या अर्थ था? विद्यार्जन और उसके द्वारा ज्ञान का निर्विकार सेवा, यानी उसका वृहत्तर मानव समाज के लिए उपयोग। लेकिन अब क्या है? चाहे डॉक्टर हो, वकील हो, शिक्षक हो, कोई ख्यातिप्राप्त व्यक्ति होµसभी ने अपने अखजत ज्ञान का उपयोग मानव की निर्विकार सेवा में नहीं, लक्ष्मी की सेवा में अर्पित कर दिया है। प्रेमचन्द कहते हैं कि ‘‘कुलीनता, शराफ़त, गुण और कमाल की कसौटी पैसा और केवल पैसा है। जिसके पास पैसा है वहीं देवता स्वरूप है, चाहे उसका अन्तःकरण कितना ही काला क्यों न हो। साहित्य, संगीत और कलाµसभी धन की देहली (‘देहरी’ के अर्थ में’, दिल्ली के अर्थ में नहीं) पर माथा टेकने वालों में हैं।...यह हवा इतनी जहरीली हो गई है कि इसमें जीवित रहना कठिन होता जा रहा है। इस धन लोभ ने ‘मनुष्यता’ और ‘मित्राता’ नाम शेष कर डाला है। समय धन है एक सफल व्यक्ति का।...उसे तो मुरौव्वत, दोस्ती और सौजन्य की धता बताकर लक्ष्मी की आराधना में अपने को लीन कर देना होगा?’’ इस तकलीफ के पीछे प्रेमचंद जैसे आदर्शवादी की वह मानसिक व्यवस्था है जिसमें ‘समय’ धन है मानव सेवा के लिए अपने पूरे जीवन का उत्सर्ग कर देने में। पेशे की उस्तादी इसीलिए होनी चाहिए कि वह समाज और मनुष्यता के उत्थान, विकास और संरक्षण में अपना सहयोग दे। जीवन का सार्वजनिक सेवा के लिए उत्सर्गµयही वह यूटोपिया है, वह आदर्श है जिसको लेकर प्रेमचंद एक रचनाकार और मनुष्य के रूप में पिछले 36 वर्षों (सन् 1901 से 1936 तक) संघर्षरत रहे लेकिन अपने जीवन के अन्तिम दिनों में वे देखते हैं कि सब कुछ उलट पुलट है। एक नये किस्म का क्रूर, निर्दय, असंवेदनशील, स्वार्थी और कमीना मध्यवर्ग एक नये किस्म का महाजन (पूँजीवादी) चारों ओर पनप रहा है जो अपने ज्ञान-विज्ञान का उपयोग अपने निजी या निहित स्वार्थों वाली नई समाज व्यवस्था के लिए कर रहा है, जिसमें हर व्यक्ति को अपनी शक्ति और सामर्थ्य भर निहत्थे और गरीब लोगों का खून चूसने की अबोध और निखवघ्न स्वतन्त्राता होगी। प्रेमचंद का डर है और वह सच है कि खुले शोषण के लिए किसी भी व्यक्ति के पास इतनी व्यक्तिगत स्वतन्त्राता एक ऐसे नये निजाम का जन्म देगी जो आने वाली दुनिया के लिए पिछली समाज व्यवस्थाओं से अधिक घातक और संक्रामक होगा। इसी बिन्दु पर आकर प्रेमचंद कहते हैं कि ‘इस दृष्टि से मानो आज दुनिया में महाजनों का ही राज्य है।...किसी देश पर राज्य किया जाता है तो इसीलिए कि महाजनों, पूँजीपतियों को ज्यादा से ज्यादा नफा हो। मनुष्य समाज दो भागों में बँट गया है। बड़ा हिस्सा तो मरने और खपने वालों का है और बहुत छोटा हिस्सा उन लोगों का जो अपनी शक्ति और प्रभाव से बड़े समुदाय को अपने वश में किये हुए हैं। इन्हें इस बड़े भाग के साथ किसी तरह की हमदर्दी नहीं, जरा भी रू-रियायत नहीं।’ ‘महाजनी सभ्यता’ के अपने दूसरे सूत्रा ‘बिजनेस इज बिजनेस’ की व्याख्या भी प्रेमचंद मानवीय सम्बन्धों के क्षरण के रूप में करते हैं। मुझे इस व्याख्या को पढ़ते हुए किसी दूसरे सन्दर्भ में लिखी कबीर की एक पंक्ति याद आयीµ‘कहै कबीर सुनहु रे लोई/हम न किसी के न हमारा कोई’ प्रेमचंद भी ‘व्यवसाय, व्यवसाय है’ इस सूक्ति को लेकर मानवीय सम्बन्धों के इसी पतन, इसी क्रूर निस्संगता पर पहुँचते हैं। व्यापार में बाप-बेटा, पति-पत्नी, मित्रा सम्बन्धी इन सम्बन्धों का कोई अर्थ नहीं फायदा ही परम लाभ है। रुपया ही सम्बन्ध है वही संवेदना है, वही प्यार मित्राता, माई बाप, सन्तान, सुख यहाँ तक कि लोक-परलोक सब कुछ वही उससे ध् 55 परे कुछ भी अस्तित्व में नहीं। लूट ही लक्ष्य है, दर्शन है, विचार है। उससे बाहर कुछ भी होने का कोई अर्थ नहीं प्रेमचंद दुःखी होकर कहते हैं, ‘इस महाजनी सभ्यता ने दुनिया में जो नयी रीति-नीतियाँ चलायी हैं उनमें सबसे और रक्तपिपासु यही व्यवसाय वाला सिद्धान्त है। मियाँ-बीबी में बिजनेस। बाप बेटे में बिजनेस, गुरु-शिष्य में बिजनेस सारे मानवीय, आध्यात्मिक और सामाजिक नेह नाते समाप्त। आदमी आदमी के बीच कोई लगाव है तो बस इस बिजनेस का यहीं प्रेमचंद अत्यन्त वितृष्णा से, एक सरल और भावुक लेखक की तरह इस नयी व्यवस्था पर थूकते हैं, ‘‘लानत है इस बिजनेस पर...जिसमें बिन ब्याही लड़की... एक खास उम्र के बाद अपने भाइयों की लाैंडी, पूज्य पिता जी भी अपने पितृ-भक्त बेटे के टहलुए और माँ अपने सपूत की टहलूुई बन जाती है।...जहाँ लेन-देन का सवाल है, रुपये का मामला है वहाँ न दोस्ती का गुजर है, न मुरौव्वत का, न इंसानियत का।’’ अपने इस तकलीफदेह आलेख के भीतर से ही प्रेमचंद ने अपने अन्तिम उपन्यास, मंगलसूत्रा को उठाया था, जहाँ समय धन है और बिजनेस इज बिजनेस। वे अपनी नयी रचनात्मक कृति में (संभवतः) नये सिरे से इस नयी और निमर्म समाज व्यवस्था की उलट पुलट कर देखना चाहते थे। यह तो नहीं कहा जा सकता कि अन्ततः वे इस उपन्यास में क्या करते; क्योंकि उनके असमय निधन के कारण यह उपन्यास अधूरा है। फिर भी ‘महाजनी सभ्यता’ जैसे विमर्श के आलोक में उपन्यास में उठाये गए मुख्य सूत्रा काफी दिलचस्प हैं। एक तो यही कि पहली बार प्रेमचंद गाँव और शहर के बीच मिले-जुले कथा ढाँचे से बाहर शहरी मध्यवर्ग और महाजन से सेठ बने नये उभरते पूँजीपति वर्ग को अपनी कथा के लिए चुनते हैंµएक लेखक के परिवार को दो बेटे, एक बेटी, पत्नी और स्वयं कथानायक। एक बेटा विवाहित है और बिजनेस विजनेस में लगा है, उसकी पढ़ी-लिखी संवेदनशील पत्नी है लेकिन पति यानी बड़ा बेटा उस पर यह दबाव डालता है कि वह अपने पिता से दस हजार रुपये दिलाये जिससे वह पूज्य पिता जी द्वारा दस साल बैनामा की हुई जमीन लड़कर छुड़ा सके क्योंकि वह जमीन बढ़ती हुई शहरी आबादी के कारण अब शहर के भीतर आ चुकी है और उसकी कीमत लाखों में है। पत्नी से इस रुपये को लेकर झिक-झिक के चलते अंत में यानी बड़ा बेटा सन्तकुमार चलते-चलते धमकी भरे स्वर में यह भी कहता जाता है कि जो अधिकार यानी पति होने का अधिकार जितनी आसानी से मिल जाता है उतनी आसानी से छिन भी जाता है। पति के चले जाने के बाद पत्नी (पुष्पा) अपने पति के बारे में कुछ यों सोचती हैं, ‘‘उनके लिए लोक या परलोक में जो कुछ था वहाँ सम्पत्ति थी। सम्पत्ति के मुकाबले में स्त्राी या पुत्रा की भी उनकी निगाह में कोई हकीकत न थी।’’ लेकिन यह सम्पत्ति यानी जमीन तो सन्तकुमार के पूज्य पिता जी, साहित्यकार देवकुमार दस साल पहले ही बच चुके हैं उसकी रजिस्ट्री हो चुकी है और उसको खरीदने वाले और कोई नहीं शहर के मशहूर रईस सेठ गिरिधर दास जी प्रेमचंद के अनुसार, ‘‘नये जमाने के आदमी थे, अंग्रेजी में कुशल, कानून में चतुर, राजनीति में भाग लेने वाले कम्पनियों में हिस्से लेते थे, और अच्छा बाजार देखकर बेच देते थे, एक शक्कर का मिल खुद चलाते थे, हरेक काम व्यापार के कायदे से करते थे।’’ अब लेखक महोदय यानी देवकुमार अपनी बैनामा की हुई जमीन कैसे किसी ले सकते हैं? लेकिन बड़े बेटे और उसके एक दूसरे वकील मित्रा के पास इसका ‘रास्ता’ है। वे साजिश रचते कि जिस वक्त देवकुमार ने बैनामा किया उस वक्त वह पागल थे और पागलपन का यह दौरा उन पर अभी भी बीच-बीच में पड़ता है। बेटा और उसका वकील मित्रा लेखक पिता जी के पास इस बात के लिए राजी कराने जाते हैं कि इस्तगासे और वकालतनामे पर दस्तखत कर दें कि वे बैनामे के समय पागल थे और शहादत के वक्त कचहरी में जाकर खड़े हो जाँय। आदर्शवादी लेखक जिसकी कृतियों का डंका बजता था, जो जीवन भर अपने आदर्शों के लिए लड़ता रहा, जिसने खूब मौज-मस्ती की, जमीन-जायदाद बेचकर भी की लेकिन जिसने कभी कोई समझौता नहीं किया, जिसने अपने ईमान की हर कीमत पर रक्षा की, वह इस बुढ़ापे में अब बेईमानी पर उतरे और छिः छिः, वह भी पागलपन का नाटक करे, यह कभी नहीं हो सकता। देवकुमार अपने पुत्रा और उसके सहयोगी और साजिश में शामिल वकील का यह प्रस्ताव इन्कार करते हैं, ‘‘मैं थोड़े से रुपयों के लिए अपनी आत्मा नहीं बेच सकता...। मैं सत्य की हत्या न होते नहीं देख सकता। मुझे अपना धर्म, पत्नी और पुत्रा सबसे प्यारा है... आदि आदि। प्रेमचंद कहते हैं ‘कि दोनों तरफ से शास्त्रार्थ होने लगा।’ जब देवकुमार यह कहते हैं कि ‘मैं सत्य की हत्या होता नहीं देख सकता’ तो बेटा कहता है कि ‘तब आपको मेरी हत्या देखनी पड़ेगी।’ जब वह यह कहते हैं कि ‘मैं थोड़े से रुपयों के लिए अपनी आत्मा नहीं बेच सकता’ तो बेटा और उसका दोस्त सोचते हैं ‘कितनी पुरानी लचर दलील।’ और जब वे यह कहते हैं कि ‘मुझे अपना धर्म पत्नी अैर पुत्रा सबसे प्यारा है।’ तो इसका जवाब सवाल कुछ यों है: ‘सिन्हा ने सन्तकुमार को आदेश दियाµतुम आज दर्ख़ास्त दे दो कि आपके होश-हवास में फर्क आ गया है और मालूम नहीं क्या कर बैठें। आपको हिरासत में ले लिया जाए।’ देवकुमार ने मुट्ठी तानकर क्रोध और आवेश में पूछा, µ‘मैं पागल हूँ?’ ‘जी हाँ आप पागल हैं।’ जिस लेखक की इतनी किताबें छप चुकीं, सराही गयीं जिसको साहित्य जगत में लोग हाथों-हाथ लेते हैं, जिसका साठवाँ जन्म दिन आने वाला है, क्या हुआ इधर के दो उपन्यासों की उतनी सराहना नहीं मिली, क्या हुआ कि इधर उनका लिखने में जी नहीं लगताµउनकी पुरानी कीखत ही उनके अमर होने के लिए काफी है। बेटे और उसके दोस्त के चले जाने के बाद देवकुमार सोच में पड़ जाते हैं। वे समाज, नीति-अनीति, धर्म-अधर्म के कुर्तक जाल में फँसते-फँसते अन्त में बेटे के और जायदाद का वापस लेने के पक्ष में तर्क देने लगते हैं।... ‘सबको समान अवसर कहाँ है? बाजार लगा हुआ है...! कहाँ है न्याय? कहाँ है? दरिन्दों के बीच में उनसे लड़ने के लिए हथियार बाँधना पड़ेगा। और अन्त में उनकी शंकाओं को इस धारणा से तस्कीन हुई कि इस अनीति भरे संसार में धर्म-अधर्म का विचार गलत है, आत्मघात है।’ इन तर्कों के सहारे ही देवकुमार एक दिन सेठ गिरिधर दास के पास पहुँचते हैं और जायदाद के बैनामे को मंसूख कराने की बात उठाते हैं। जाहिर है कि यह नहीं होगा। तब देवकुमार घर लौटकर अपने लड़के और उसके दोस्त वकील को दावा दायर करने की अनुमति दे देते हैं। इस प्रसंग को पढ़ते हुए मुझे महाभारत का वह प्रसंग याद आया, जहाँ भीष्म इच्छा मृत्यु का वरदान लिए शरशैय्या पर लेटे हुए हैं और नारद उनको देखने पहुँचते हैं। उन्हें इस तरह धर्म-अधर्म, नीति-अनीति, सत्य-असत्य के गोरखधन्धे में अभी भी पड़े हुए देखकर नारद को चिढ़ होती है और वे कहते हैं। (त्यज् धर्मं-अधर्मं च, उभे सत्यानृते त्यज...) (धर्म-अधर्म दोनों को छोड़ो, सत्य और असत्य को भी छोड़ दो)। जब देवकुमार धर्म-अधर्म, न्याय-अन्याय के विचार को गलत ठहराते हुए उसे आत्मघात की संज्ञा देते हैं तो अपने आदर्शों के लिए जीवन भर लड़ने वाले एक लेखक की गिरावट के संकेत मिलते हैं। लेकिन महाभारत से अलग हटकर सोचें कि वह कौन-सी समाज व्यवस्था और अर्थ व्यवस्था है, जिसमें जीवन भर समादर सत्कार पाने वाले एक लेखक के ऊपर दस ध् 57 हजार रुपये का महाजनी कर्ज है? वह कैसी समाज व्यवस्था है जिसमें एक लेखक बुढ़ापे में जायदाद वापसी के लिए अपने बेटे को मुकदमा करने की अनुमति दे देता है, जिसका सीधा अर्थ है कि वह पागल बनने के लिए तैयार है? इतना ही नहीं, जो लेखक जीवन भर किसी इनाम इकराम से दूर भागता रहा, वह मुकदमे का खर्च जुटाने के लिए अपने झूठे और निरर्थक प्रशंसकों से थैली ग्रहण करते हुए एक साथ दो बातें सोचता हैµ1. यह सारा यशगान, यह सारी वाह-वाह अंध-भक्ति के सिवा कुछ न थी।...कोई उनके सन्देशों का समझा ही नहीं। किस प्रेरणा ने चालीस साल तक उन्हें संभाले रखा वह कौन सा प्रकाश था जिसकी ज्योति कभी मन्द नहीं हुई? और 2. यह दान नहीं प्राविडेन्ट फण्ड है। सरकार की नौकरी में लोग पैन्शन पाते हैं? क्या वह दान है? उन्होंने जनता की सेवा की है। पेन्शन लेने में क्यों लाज आये? राजा साहब ने जब थैली भेंट की तो देवकुमार के मुँह पर गर्व था, हर्ष था, विजय थी।’ एक महान और एक बड़ी, टॉल्सटायन औपन्यासिक कृति की सभी सम्भावनाओं से पूर्ण अधूरा उपन्यास अगर पूरा हो जाता तो प्रेमचंद ने क्या किया होता, इसकी कल्पना से ही रोमाँच हो आता है क्या सन्तकुमार अपने पिता देवकुमार की उनकी मर्जी से ही थोड़े समय का बहाना बनाकर पागलखाने भिजवा देता और मुकदमा जीत जाने के बाद भी उन्हें वहीं छोड़ देता? मानवीय सम्बन्धों के चौतरफा क्षरण के बीच जो महाजनी सभ्यता का विशिष्ट गुण है, प्रेमचंद कहाँ से राह निकालते? यह कहना गलत होगा कि प्रेमचंद राह नहीं निकालते और इस पूरी रचना को पूँजीवाद के विशाल बजबजाते कीचड़ में गुम होने के लिए छोड़ देते। तो क्या देवकुमार के छोटे लड़के साधु कुमार में वे सम्भावनाएँ हैं, जो आन्दोलन में पढ़ाई छोड़ चुका है और दो बार जेल जा चुका है और जो बहुत कम बोलता है। प्रेमचंद ने उसका जिक्र भर करके आगे के लिए छोड़ दिया है। तो इस उपन्यास का ‘मंगलसूत्रा’ कहाँ है? जाहिर है कि प्रेमचंद जैसा सजग लेखक वह कोई काम नहीं करता जिसकी एक रचना में कलात्मक और यथार्थपरक गुंजाइश न हो। और यह भी सच है कि ‘गोदान’ की रचना तक आते-आते प्रेमचंद थोपे जाने वाले बनावटी आदर्शों से अलग हट चुके थे। प्रेमचंद कोई भविष्य वक्ता नहीं थे हाँ वे स्वप्नद्रष्टा जरूर थे। वे अपने स्वप्नों को खोना नहीं चाहते थे। कोई भी लेखक नहीं चाहेगा। प्रेमचंद अपने ‘यूटोपिया’ को सच होता देखना जरूर चाहते हैं। कभी गाँधी जी के साथ-साथ ‘मनुष्य का हृदय परिवर्तन’ और ‘वर्ग समानता उनका यूटोपिया था। यूटोपिया के अवैज्ञानिक, तर्क से असम्मत, परिस्थितियों और यथार्थ से असम्बद्ध, इतिहास से असिद्ध होने का खतरा हमेशा बना रहता है लेकिन फिर भी एक लेखक-रचनाकार, एक कवि-कलाकार, एक दार्शनिक के पास यूटोपिया रहता ही है। स्वप्न के बिना रचना कर्म निरर्थक है, यह बात दीगर है कि वह स्वप्न किन संकेतों से आता है। गोदान में भी प्रेमचंद के पास एक स्वप्न है। स्वप्न का असफल होना भी कई बार एक कृति के सामर्थ्य का संकेत है। स्वप्न और यूटोपिया की असफलता से जो निर्णय पैदा होते हैं वे स्वप्न को विफल करने वाली ताकतों को कमजोर करके नष्ट भी कर सकते हैं। अनेक बार किसी कृति की सफलता उसके लेखक द्वारा देखे गये स्वप्नों की विफलता से गुणात्मक रूप में और बढ़ जाती है। फिर भी यह प्रश्न जहाँ का तहाँ है कि इस अधूरी कृति का ‘मंगलसूत्रा’ कहाँ है? दाम्पत्य के जिस अधिकार को आसानी से छीने जाने की जो बात सन्तकुमार अपनी पत्नी पुष्पा से कहता है, क्या अतिसंवेदनशील पुष्पा उस मंगलसूत्रा को स्वयं ही पलट देगी और अपने साथ-साथ सम्पूर्ण स्त्राी समाज को दमन और दबाव के जुए से बाहर खींच लाने का एक प्रतीकात्मक मार्ग दिखाएगी? तब वह कौन सा स्वप्न था जिसे देखने और सच करने के लिए प्रेमचंद ने इस कथा के प्रारम्भिक सूत्रा फैलाये थे? इसका उत्तर प्रेमचंद की महाजनी सभ्यता वाले लेख में ही है। ‘महाजनी सभ्यता’ के प्रारम्भ में ही प्रेमचंद ने फारसी का एक शेर उद्धृत किया है और नीचे उसका अनुवाद भी दिया है: मुजदः ए दिल कि मसीहा नफसे मी आयद कि जे अनफास खुँशश बूए कसे मी आयद। (‘हृदय तू प्रसन्न हो कि पीयूषपाणि मसीहा सशरीर तेरी ओर आ रहा है। देखता नहीं कि लोगों की साँसों से किसी की सुगन्धि आ रही है।’) इसके बाद महाजनी सभ्यता की वह व्याख्या प्रस्तुत की गयी है जिस पर प्रेमचंद लानत भेजते हैं। व्याख्या को पढ़ते हुए शुरू-शुरू में यह उद्धरण बड़ा विचित्रा लगता है। इतनी भयावह और संक्रामक विश्व व्यवस्था का चित्राण और उसके ठीक विपरीत जाता हुआ इस शेर का अर्थ। लेकिन आलेख के अन्तिम हिस्से तक आते-आते इसके अर्थ का संकेत साफ झलक जाता है। वह मसीहा कौन है जिसके हाथों में अमृत का कटोरा है? जिसका सुगन्ध जनता की सांसों से आ रही है? आलेख के अन्तिम भाग में प्रेमचंद उसका वर्णन कुछ यों करते हैं ः ‘‘परन्तु अब एक नयी सभ्यता का सूर्य सुदूर पश्चिम से उदय हो रहा है, जिसने इस नाटकीय महाजनवाद या पूँजीवाद की जड़ खोदकर फेंक दी है, जिसका मूल सिद्धान्त है कि प्रत्येक व्यक्ति जो अपने शरीर या दिमाग से मेहनत करके कुछ पैदा कर सकता है, राज्य और समाज को परम सम्मानित सदस्य हो सकता है, और जो केवल दूसरों की मेहनत या बाप-दादों के जोड़े हुए धन पर रईस बना फिरता है, वह पतिततम प्राणी है। उसे राज्य प्रबन्ध में राय देने का हक नहीं और वह नागरिकता के अधिकारों का भी पात्रा नहीं। महाजन इस नयी लहर से अति उद्विग्न होकर बौखलाया हुआ फिर रहा है और सारी दुनिया के महाजनों की शामिल आवाज इस नयी सभ्यता को कोस रही है, शाप दे रही है। निःसन्देह इस नयी सभ्यता ने व्यक्ति स्वातंत्रय के पंजे, नाखून और दाँत तोड़ दिये हैं। उसके राज्य में अब एक पूँजीपति लाखों मजदूरों का खून पीकर मोटा नहीं हो सकता। उसे अब यह आजादी नहीं कि अपने नफे के लिए साधारण आवश्यकता की वस्तुओं के दाम चढ़ा सके, दूसरे अपने माल की खपत के लिए युद्ध करा दे, गोला-बारूद और युद्ध सामग्री बनाकर दुर्बल राष्ट्रों का दमन कराये। ...इस पैसा-पूजा को मिटा दीजिए, साथ ही बुराइयाँ अपने आप मिट जायेगी। जड़ न खोदकर केवल फुनगी की पत्तियाँ तोड़ना बेकार है।’’ जाहिर है कि प्रेमचंद का संकेत महान अक्तूबर क्रान्ति की ओर है। यही समाधान है, यही प्रेमचंद का अन्तिम यूटोपिया, अन्तिम स्वप्न है। शोषण पर आधारित महाजनी (पूँजीपति) सभ्यता को पलट देना ही वह ‘मंगलसूत्रा’ है जिसकी संरचना इस उपन्यास के माध्यम से वे करना चाहते होंगे। यह कैसे सम्भव होता, यह बताना अब तो असम्भव है। प्रेमचंद का वह स्वप्न, वह यूटोपिया, वह ‘मंगलसूत्रा’ फिलहाल, विफल तो नहीं स्थगित अवश्य हो गया है। महाजनी पूँजी आज अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय पूँजी में बदल गयी है। वह लघुकाय सूदखोरी इस वित्तीय पूँजी के माध्यम से अन्तर्राष्ट्रीय सूदखोरी में बदल गयी है। आधी से ज्यादा दुनिया आज इस खूदखोरी के चलते कर्जों से लदी हुई है। विकास के नाम पर दिए गए ये कर्ज रातों-रात राष्ट्रों की तकदीर का फैसला कर देते हैं। साम्राज्यवादी गुलामी का, शोषण का, पतन का एक नया और अनहोना दौर चालू है। चौबीस घण्टे के भीतर अनेक देशों की अर्थव्यवस्थाएँ चरमराकर बैठ जाती हैं। उनकी मुद्राएँ मूल्यरहित होती हैं। तब सहायता पैकजों द्वारा उनका उद्धार किया जाता है। लेकिन ‘बिजनेस इज बिजनेस’, उसमें मानवीय मूल्यों, प्रेम और प्रतिष्ठा और जीने की बुनियादी स्वतन्त्राता का कोई अर्थ नहीं रह जाता। जो भी सिर उठाता है उसके खिलाफ आखथक बन्दिशें लगाकर उसका गला मरोड़ दिया जाता है। स्वतन्त्रा और राष्ट्रीय विकास की गुंजाइश कमतम छोड़ी जाती है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शालीनता भरी धमकी के साथ उन देशों के संसाधनों का ये अन्तर्राष्ट्रीय सूदखोर दोहन करते हैं और नैतिकता, स्वतन्त्राता और मानवाधिकारों की बड़ी-बड़ी लफ्फाजी दुनिया के सामने पेश करते हैं। लेकिन जनता की वास्तविक स्वतन्त्राता और मुक्ति की आकांक्षा को वे पूरी तरह कुचलने में असमर्थ हैं। मार्क्सवाद के विचार दर्शन का अमृत कलश वे छीनने में कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। ज्योति वसु ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि ‘एक कम्यूनिस्ट कभी अवकाश ग्रहण नहीं करता।’ तो दुनिया में दबी-कुचली लांछित अपमानित जनता ने न अपने संघर्षों से, युद्ध से अवकाश ग्रहण किया है, न करेगी। दुनिया की मुक्ति का आवाहन करने वाली मार्क्सवादी विचारधारा ने भी अवकाश ग्रहण नहीं किया है और प्रेमचंद ने भी अपने स्वप्नों और यूटोपिया से अवकाश ग्रहण नहीं किया है। वे अपने रचनात्मक संघर्षों और मार्गदर्शक सन्देशों के साथ अमर हैं।
(यह आलेख सबसे पहले अपने पहले ड्राफ्ट में एस.एफ.आई. की पत्रिका ‘स्टुडेण्ट स्ट्रगल’ में सन् 2001 में छपा। फिर इसका संशोधित परिवर्द्धित रूप ‘कहा-सुनी’ में प्रकाशित हुआ। इसके बाद ’पक्षधर’ पत्रिका के 24 वें अंक में भी छपा।)